मंगलवार, जून 05, 2018

अरब के बर्बर लुटेरे और फारस


सन 634 ई.
अरब के बर्बर लुटेरों के हाथ में सम्प्रदाय की तलवार आ गयी थी। युगों से असभ्यों की भांति जी रहे अरबी जानवरों को पहले पहल जन्नत का स्वप्न दिखाया गया था, और अब वे आतंक की सुनामी लेकर विश्व को रौंदने निकल पड़े थे।
अरब से सटा विश्व का सबसे प्राचीन साम्राज्य 'फारस' सुख की नींद सो रहा था। फारस का शासक 'यज्दजर्द' अपने शौर्य से संतुष्ट पड़ा था, कि उसकी पश्चिमी सीमा पर स्थित शहर 'कास्कर' पर एक दिन अरबी तलवार बरसी। इसके पूर्व युद्ध दो सेनाओं के मध्य हुआ करते थे, पर अरबी बर्बरों ने आम जनता को काटने की नई शैली विकसित की थी। वे नगर में घुसे और आम नागरिकों को काटना प्रारम्भ किया। अरबी हत्यारे हत्या, लूट और बलात्कार का लक्ष्य ले कर ही चले थे, क्योंकि उनके उपदेशकों ने उन्हें जन्नत पाने का यही तरीका बताया था। उनके मानस में भर गया था कि हम जितने काफिरों का सर काट लेंगे, जितनी स्त्रियों का बलात्कार कर लेंगे, जन्नत में उतना ही सुख भोगेंगे। कास्कर की प्रजा को आंधी की गति से काटा गया। बचने का मात्र एक ही उपाय था, इस्लाम स्वीकार कर लेना। ईरान की सेना जागती, तबतक आधा नगर काट डाला गया था और शेष मुसलमान बन चुके थे।
अरब सेनानायक 'साद-इब्न-बागा' ने फारस के सम्राट को सन्देश भेजा- "इश्लाम स्वीकार करो, या जजिया दो।"
फारस नरेश ने कहा- युद्ध करो...
637 ई.
फारस सम्राट को अपनी शक्ति पर विश्वास था। उसकी छोटी सैन्य टुकड़ी ने भी कई बार अरबी लुटेरों को पराजित किया था। वह पूरी तैयारी के साथ युद्ध में उतरा।
इधर अरब सेना का नेतृत्व हजरत "अली" कर रहे थे। हजरत ने अपनी आधी सेना ही युद्धभूमि में रखी, शेष सेना कहीं चुपचाप पड़ी हुई थी।
फारस की सेना जैसे ही युद्धक्षेत्र में पहुँची और युद्ध प्रारम्भ हुआ, युद्धक्षेत्र से अलग छिपी आधी अरब सेना फारस की राजधानी में घुस गई। फारस की सेना युद्ध लड़ रही थी, और अरबी लुटेरे इधर राजधानी में निरीह लोगों का सर काट रहे थे, स्त्रियों बच्चियों का बलात्कार कर रहे थे, घरों में आग लगा रहे थे।
युद्धक्षेत्र में फारस नरेश 'यज्द जर्द' तक बात पहुँचती तबतक अरबी लुटेरे राजधानी को ध्वस्त कर उनकी तीन वर्ष की पुत्री को उठा ले गए थे।
फारस नरेश को ऐसी नीचता की आशा नहीं थी। फारस की सेना अरबियों पर ईश्वरीय कोप बन कर टूट पड़ी। फलतः अरबी जान बचा कर भागे...
अरब पहुँच कर "हजरत अली" ने लूट का सामान बांटा, फारस नरेश की तीन साल की राजकुमारी उनके हिस्से में आई। दया के सागर 'अली' ने उसे अपनी पत्नी बना लिया।
फारस नरेश एक पिता था। उसे अपनी पुत्री से उतना ही स्नेह था, जितना एक सामान्य पिता को होता है। उसने प्रण किया कि वह कुछ भी कर के अपनी पुत्री को उन दुष्ट, बर्बर पशुओं से छुड़ा कर लाएगा। फारस की सेना अरब के लिए निकल पड़ी...
पर फारस नरेश को अरब के मरुस्थल की थाह नहीं थी। न उनकी सेना को बालू की आँधी से जूझने का अभ्यास था, न उनके घोड़े उस मरुस्थल में सफल हो पाए। फल यह हुआ कि अरबी तीरों से पूरी फ़ारसी सेना छेद दी गयी...
फारस नरेश के इस कृत्य की सजा पूरे फारस को मिली, अरब सेना ने शासक हीन फारस पर आक्रमण किया और हत्या, लूट, बलात्कार और इस्लामीकरण का नँगा खेल हुआ।
दस दिन के अंदर अधिकांश फारस इस्लाम स्वीकार कर चुका था, पर कुछ धर्म परायण फ़ारसी भाग कर खुरासान में आ छिपे।
खुरासान में सौ वर्षों तक पारसी छिपे रहे, पर सौ वर्ष बाद वहाँ भी इस्लाम की तलवार पहुँच गयी। निरीह पारसी फिर एक बड़े जहाज में बैठ कर भागे, और भारत के पश्चिमी तट पर उतरे...
दमन से पच्चीस मिल दक्षिण में सन 716 ई में अपनी पवित्र अग्नि और जेंडवेस्ता ले कर उतरे कुछ पारसियों ने भारत में अपनी नीव रखी। दमन के हिन्दू शासक ने उन्हें भूमि दी, और पारसियों ने अपनी जन्मभूमि के नाम पर भारत मे 'संजान' नगर बसाया।
युग बीत गए... पारसी धर्म अब मात्र भारत में बचा था। फारस अब ईरान बन चुका था। पर पारसियों के दुख के दिन अभी समाप्त नहीं हुए थे।
अरब से चली इस्लाम की तलवार भारत भी पहुँची, और पन्द्रहवी सदी में उन्होंने पारसियों को फिर से ढूंढ निकाला। फारसियों पर अरबी तलवार फिर बरसी, वे फिर भागे... संजान से भागे पारसी नवसारी में रुके...
आज दुनिया में जितने भी पारसी हैं, उनमें से अधिकांश नवसारी से निकले पारसी ही हैं।
भारत की सहिष्णुता पारसी ही जानते हैं।
क्षमा करना मित्र! इस तस्वीर में तुम्हें भले पहिये के नीचे कुचला हुआ आक्रमणकारी दिख रहा हो, मुझे इस गाड़ी से भागता हुआ एक पारसी दिखाई दे रहा है।
कश्मीर भारत का फारस है पार्थ!
सर्वेश तिवारी श्रीमुख
गोपालगंज, बिहार।

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