गुरुवार, जनवरी 08, 2015

सच बताना शुरू करो तो मुल्ले आतंक मचाना शुरू कर देते हैं क्यूंकि इनके पास जवाब नहीं होता

जब से मोहम्मद ने इस्लाम के नाम पर अन्धविश्वास फैलाना शुरू किया तब से बुद्धिजीवियों ने उसका तीव्र विरोध किया है उन सबको मुहम्मद ने अपने चमचों से मरवा डाला और ये आज भी जारी है मुह्हमद के बारे में सच बताना शुरू करो तो मुल्ले आतंक मचाना शुरू कर देते हैं क्यूंकि इनके पास जवाब नहीं होता
अस्मा बिन्त मरवान - ६२४
जब मदीना वासियों ने मोहम्मद को अपने नगर में अतिथि की भांति आदर सत्कार से संरक्षण दिया हुआ था, कुछ निवासी मोहम्मद ओर इस्लाम से प्रसन्न नहीं थे. ऐसी ही एक निवासी थी अस्मा. अस्मा इस्लाम को नापसंद करती थी और इसीलिए उसने अपने पूर्वजों की मूर्तिपूजा के पद्दति (जिसे इस्लाम सबसे घोर अपराध कहता है) को नहीं त्यागा था. वो ऑस नामक कबीले के निवासी मरवान की बेटी थी जिसे कविता लिखने में रूचि थी. सन ६२४ में कविता अपने भाव व्यक्त करने के गिने चुने माध्यमों में से एक था.
अस्मा ने एक कविता रची, जिस में उस ने खेद व्यक्त किया कि उस के नगर वासी एक अनजाने व्यक्ति का स्वागत और विश्वास कर रहे थे, जिसने उन्हीके मुखिया की हत्या की थी. ये पंक्तियाँ धीरे धीरे अन्य मूर्तिपूजकों में भी प्रचलित हो गयी और मुसलामानों तक पहुँच गयीं. मुसलमान इस पर क्रोधित हो गए और उन में से एक ओमीर नामक नेत्रहीन मुसलमान (कुछ के अनुसार अस्मा का भूतपूर्व पति) अत्यंत उत्साहित हो गया और उस ने प्रण किया कि वो अस्मा की हत्या करेगा. वो भी ऑस कबीले का ही निवासी था. एक रात वो चुपके से अस्मा के घर में घुस गया. उसने टटोल कर अस्मा के दूध मुहें बच्चे को अलग किया और अपनी तलवार अस्मा के हृदय में इतनी शक्ति से घोंप दी कि वह चारपाई के साथ ही बिंध गयी.
अगली प्रातः जब वो मस्जिद में पहुंचा तो मोहम्मद ने उस से पूछा "क्या तुमने मरवान की बेटी की हत्या कर दी है?" ओमीर ने उत्तर दिया,"हां, परन्तु यह बताएं कि इस में कोई घबराने वाली बात तो नहीं है?" मोहम्मद ने उत्तर दिया,"नहीं, उस के लिए तो कोई दो बकरियां भी आपस में नहीं भिड़ेंगी." फिर वो मस्जिद में एकत्रित लोगों को संबोधित करते हुए कहा,"यदि तुम किसी ऐसे व्यक्ति को देखना चाहते हो जिस ने अल्लाह और उस के नबी की मदद की है तो इसे देखो".
ये सुन कर ओमर ने कहा,"क्या, ये तो अँधा ओमीर है". मोहम्मद ने उत्तर दिया,"इसे अँधा मत कहो, बल्कि कहो ओमीर बशीर (देखने वाला)".
जब वो हत्यारा वापिस अपने घर जा रहा था तो अस्मा के घर के पास से निकला जहां उसके बेटे अस्मा को दफना रहे थे. उन्होंने ओमीर से कहा कि उसी ने उन की माँ की हत्या की है. ओमीर, जो अब निडर हो चुका था ने प्रत्युतर में कहा कि उसीने हत्या की है और यदि उन में से किसी ने भी वैसा कोई कृत्या किया तो वो उन के पूरे वंश का नाश कर देगा.
इस धमकी का अपेक्षित परिणाम हुआ. धीरे धीरे पूरे कबीले ने इस्लाम संप्रदाय अपना लिया. मृत्यु से बचने का यही एक उपाय रह गया लगता था.
स्त्रोत - इब्न इस्हाक़ पृष्ठ -६७५/९९५, The life of Mahomet - William Muir pp 232
अबू अफाक
इस हत्या के कुछ ही सप्ताह पश्चात् ऐसा ही एक और वध इस्लाम के नाम पर और मोहम्मद के आदेश से किया गया. अबू अफाक नामक एक यहूदी भी अस्मा की ही भांति अपने पूर्वजों के संप्रदाय और पद्दति को पसंद करता था, इसलिए इस्लाम का समर्थक नहीं था. उसने भी कुछ पंक्तियाँ लिखी जो मुसलामानों को पसंद नहीं आयी. वो एक वयोवृद्ध था (कुछ के अनुसार १०० वर्ष से अधिक आयु), और बनी अम्र नामक कबीले का मूल निवासी था.
एक दिन मोहम्मद ने अपने अनुयायिओं से कहा," कौन इस विनाशकारी व्यक्ति से मेरा पीछा छुड़ाएगा"? कुछ ही दिनों के उपरान्त एक मुसलमान सलीम बिन उमैर को अवसर मिल गया. अबू अफाक अपने बरामदे में सो रहा था. मुसलमान ने अवसर देख कर सोये हुए वृद्ध की तलवार से हत्या कर दी. वृद्ध की मृत्यु से पूर्व की चीख पुकार ने आस पास के लोगों को आकृष्ट किया, किन्तु जब तक वे पहुँचते, हत्यारा जा चुका था.
स्त्रोत: इब्न इस्हाक़ पृष्ठ ६७५/९९५, The life of Mahomet - William Muir pp 233
काब बिन अशरफ
काब बिन अशरफ बनी नाधिर नामक कबीले की एक यहूदी महिला का बेटा था. वो कुछ समय के लिए इस्लाम संप्रदाय का समर्थक रहा, किन्तु जब मोहम्मद ने किबला (नमाज़ की दिशा) जेरुसलेम से उलट कर काबा की ओर कर दिया तो इस्लाम से पृथक हो गया.
वो कोरिशों की बद्र के झगडे में हुई पराजय से दुखी था. वो मक्का गया और कोरिशों में, अपनी कवितायों द्वारा, जोश भरने लगा कि वो बद्र में दफ़न अपने वीरों की मृत्यु का प्रतिशोध लें.
जब वो वापिस मदीना पहुंचा तो मुसलामानों ने उस पर आरोप लगाया कि वो उन की महिलायों के सन्दर्भ में अशोभनीय पंक्तियाँ लिखता है. मोहम्मद इस प्रभावशाली व्यक्ति द्वारा इस्लाम के विरोध से चिंतित था. एक दिन उस ने उच्च स्वर में नमाज़ अदा करते हुए कहा," अल्लाह मुझे अशरफ के बेटे और उसकी कवितायों और विद्रोह से किसी भी तरह निजात दिलायो". पहले कि भांति, अब भी उस ने अपने किसी अनुयायी को सीधे संबोधित करने की अपेक्षा सभी से कहा,"कौन मुझे अशरफ के बेटे से निजात दिलाएगा, जो मुझे परेशान करता है?" मोहम्मद बिन असलम आगे बढ़ा और बोला,"मैं उस की हत्या करूँगा".
मोहम्मद ने अपनी सहमती जताते हुए उसे कहा कि वो अपने कबीले (बनी ऑस) के मुखिया साद बिन मुआध से परामर्श कर ले. साद बिन मुआध के सुझाने पर उस ने अपने कबीले के चार और व्यक्तियों को अपने साथ ले लिया और मोहम्मद से अपनी योजना के लिए अनुमति लेने के लिए पहुंचा. विशेष अनुमति इस लिए लेनी थी क्योंकि योजना के अनुसार उन्होंने यह ढोंग करना था कि वो मोहम्मद को नापसंद करते हैं ताकि काब का विश्वास जीत सकें. इस गिरोह में अबू नैला भी था, जो कि काब का मुंह बोला भाई था और काब उस पर संदेह नहीं करता था.
योजना के अनुसार अबू नैला ने काब के पास जा कर दुःख जताया कि मोहम्मद के कारण कई लोगों को समस्या हो रही है. आस पास के अरबी कबीले मदीना के शत्रु बनाते जा रहे हैं, जिस से कि व्यापर के लिए जाना और जीविका अर्जित करना कठिन हो गया है. जैसी कि अपेक्षा थी, काब बातों में फंस गया. अबू नैला ने काब से कुछ खाद्य सामग्री (मक्की व खजूरें) उधार मांगी, जिस के लिए काब ने उस से कुछ बदले में रखने को कहा. योजना के अनुसार, अबू ने अपने और साथियों के शस्त्र देना स्वीकार कर लिया. अब वे काब की शंका जगाये बिना उस के पास शस्त्र ला सकते थे.
उन्होंने शाम के समय मोहम्मद के घर जा कर स्थिति से अवगत करवाया. वो चांदनी रात थी. मोहम्मद उन के साथ मदीना के बाहर तक आया और बोला,"जाओ, अल्लाह की रहमत तुम पर हो और तुम्हे ऊपर से मदद मिले".
काब का घर मदीना से लगभग २-३ मील बाहर एक यहूदियों की बस्ती के पास था. जब वे पहुंचे तो वो सो रहा था. उन्होंने काब के घर के बाहर से उसे पुकारा. काब जब उठ कर जाने लगा तो उस की नवविवाहित पत्नी ने कहा,"शत्रुता के वातावरण में रात के समय बाहर जाना उचित नहीं है. मुझे इन के स्वर में बुराई (अथवा रक्त) सुनाई दे रहा है". काब ने चेतावनी को अनसुना करते हुए कहा कि ये तो मेरा भाई अबू नैला है, यदि एक योधा को पुकारा जाये तो भी उसे जाना ही चाहिए. इतना कह कर वो बाहर निकल आया और उन से बातचीत करने लगा. अबू ने कहा कि थोड़ा आगे चलते हैं और उस के सर में हाथ फिराते हुए उस के केशों में से आने वाली महक की प्रशंसा करने लगा. काब ने उत्तर दिया कि ये तो उस की पत्नी की महक है.
फिर अचानक ही उस के बालों को खींचते हुए चिल्लाया,"अल्लाह के शत्रु को काट दो". काब ने वीरता से संघर्ष किया और उन के पास होने से उन की तलवारें असफल सिद्ध हो रही थी. फिर एक को अपने छुरे का ध्यान आया. उसने छुरा उस के पेट में घोंप दिया और पेट को काटते हुए उस के गुप्तांगो तक ले गया. इस प्रकार काब वीर गति को प्राप्त हुआ.
उन्हें मोहम्मद के पास लौटने में अधिक समय लगा क्योंकि उन का एक साथी भी घायल हो गया था. मोहम्मद उस समय नमाज़ कर रहा था और उन्हें देख कर उन के पास आया. उन्होंने हत्या की सूचना मोहम्मद को दी. मोहम्मद ने घायल मुसलमान के घाव पर थूका (मुसलामानों के अनुसार मोहम्मद की थूक भी चमत्कारी थी) और उन्हें जाने को कहा. वे अपने अपने घर चले गए.
स्त्रोत - सही बुखारी; खंड ५, पुस्तक ५९, संख्या ३६९
स्त्रोत - इब्न इस्हाक़ पृष्ठ ३६४-३६९
इस्लाम के सम्मानित इतिहासकार तबरी के अनुसार ये पाँचों व्यक्ति हत्या के पश्चात् काब का सर काट कर लाये थे जिसे मोहम्मद को भेंट स्वरुप दिया गया था.
इस की पुष्टि विल्लियम मुइर द्वारा लिखी मोहम्मद की जीवन कथा से भी होती है. वे बताते हैं:
जब उस का पेट कटा तो काब ने एक हृदय विदारक चीख मारी जो रात के सन्नाटे में दूर तक सुनाई दी. कई घरों में प्रकाश हो उठा. हत्यारे पीछा किये जाने के डर से वहाँ से अपने घायल साथी को ले कर भाग खड़े हुए. जब वे कब्रिस्तान के पास सुरक्षित पहुँच गए तो उन्होंने तकबीर लगाई 'अल्लाह हू अकबर'. जिसे मस्जिद में मोहम्मद ने सुन लिया. वो मस्जिद के द्वार पर उन से मिला और बोला,"स्वागत है, तुम्हारे चेहरे फ़तेह से चमकते लग रहे हैं. उन्होंने उत्तर दिया,"आपका भी ऐ नबी" और कटा हुआ सर मोहम्मद के पाँव में गिरा दिया.
The life of Mahomet - pp 239-240
मोहम्मद द्वारा पहली हत्या
बद्र के आक्रमण के पश्चात् जब मुसलमान अपने घायल ओर मृत साथियों के शवों को ले कर मदीना की ओर जा रहे थे तो राह में ओथील नामक घाटी में रात बिताई. प्रातःकाल जब मोहम्मद बंदियों का निरिक्षण कर रहा था तो उस की दृष्टि नाध्र पर पड़ी, जिसे मिकदाद ने बंदी बनाया था. बंधक ने भय से कांपते हुए अपने पास खड़े व्यक्ति से कहा, "उस दृष्टि में तो मृत्यु दिखाई दे रही थी". व्यक्ति ने उत्तर दिया "नहीं ये तुम्हारा भ्रम है". उस अभागे बंदी को विश्वास न आया.उस ने मुसाब को उस की रक्षा करने के लिए कहा. मुसाब ने उत्तर दिया कि वह (नाध्र) इस्लाम को इनकार करता था और मुसलामानों को परेशान करता था. नाध्र ने कहा,"यदि कोरिशों ने तुम्हें बंधक बनाया होता तो वे तुम्हारी हत्या कभी नहीं करते. उत्तर में मुसाबी ने कहा,"यदि ऐसा है भी तो मैं तुम जैसा नहीं हूँ. इस्लाम किसी बंधन को नहीं मानता. इस पर मिकदाद, जिस ने नाध्र को बंधक बनाया था, बोल उठा "वो मेरा बंदी है." उसे भय था कि यदि नाध्र की हत्या कर दी गयी तो उस के सम्बन्धियों से जो फिरौती का धन प्राप्त हो सकता था, उस से वो वंचित रह जाएगा.
इस अवसर पर मोहम्मद ने आदेश दिया,"उस की गर्दन मारो". इस वाक्य का अर्थ है सर काट देना. हत्यारा गर्दन के पीछे से प्रहार कर के एक ही वार से गर्दन काट देता है. आज भी जहां इस्लामिक शरिया व्यवस्था प्रचलित है, वहां इसी प्रकार से गर्दन काटी जाती है.
शरिया के अनुसार गर्दन काटने का दृश्य
इस के पश्चात् मोहम्मद ने कहा,"अल्लाह, मिकदाद को इस से भी अच्छा माल प्रदान करना." अली जो आगे चल कर मोहम्मद का दामाद बना था, आगे बढ़ा और उस ने नाध्र की गर्दन काट दी.
इस हत्या का कारण संभवतः नाध्र द्वारा मोहम्मद का उपहास उड़ाया जाना था. मोहम्मद जब मक्का में रहता था, वो मक्का निवासियों को ये विश्वास दिलाने की असफल चेष्ट करता रहा कि वो एक पैगम्बर है. उस की बातों से अधिकतर मक्का वासी तटस्थ ही रहते थे. इस्लाम को नकारने वालों में नाध्र भी था. जब मोहम्मद अपनी बात तथा बाईबल और तौरात की कहानियां सुनाता तो नाध्र भी कुछ कहानियाँ सुना देता और चुटकी लेते हुए कहता कि मोहम्मद मुझ से अच्छा कथाकार है.
मोहम्मद ने उस की हत्या से इसी अपमान का प्रतिशोध लिया था. ये हत्या नीति अथवा न्याय सांगत थी अथवा नहीं, ये निर्णय हम पाठकों के विवेक पर छोड़ते हैं.
इस के दो दिन उपरान्त , जब मदीना का रास्ता आधा रह गया था तो मोहम्मद ने एक और बंधक जिस का नाम ओक्बा था, की हत्या का आदेश दिया. जब ओक्बा ने पूछा कि उसे अन्य बंधकों से अधिक दंड क्यों दिया जा रहा है तो मोहम्मद ने उत्तर दिया,"क्योंकि तुम अल्लाह और उस के रुसूल के शत्रु हो." यहाँ मोहम्मद ओक्बा द्वारा मोहम्मद के उपहास में लिखी कविता की और इंगित कर रहा था. ओक्बा ने खिन्न ह्रदय से पूछा कि,"मेरी बेटी का क्या होगा? उसकी देख भाल कौन करेगा?". मोहम्मद ने उत्तर दिया,"जहन्नुम की आग ". इस के पश्चात्, उसे काट कर धरती पर गिरा दिया गया और मोहम्मद बोला,"तुम अत्यंत बुरे और उत्पीड़क थे जो न तो अल्लाह पर, न उस के रुसूल पर और न ही उस की किताब पर विश्वास करते थे. मैं अल्लाह का आभारी हूँ जिस ने तुम्हारी हत्या की और मेरी आँखों को संतोष दिलाया".
जब बचे हुए बंदियों को लेकर मुसलमान मदीना पहुंचे तो मोहम्मद के निकटतम साथियों में से अबू बकर का विचार था कि बंदियों की हत्या न की जाए बल्कि उनके सम्बन्धियों से फिरौती ले कर उन्हें स्वतंत्र कर दिया जाए, जबकि ओमर का विचार था कि सब की हत्या कर दी जाए. ऐसा कहा जाता है कि उस समय कुरान की आयत प्रकट हुई. सुरा ८, आयत ६७
مَا كَانَ لِنَبِيٍّ أَن يَكُونَ لَهُ أَسْرَىٰ حَتَّىٰ يُثْخِنَ فِي الْأَرْضِ ۚ تُرِيدُونَ عَرَضَ الدُّنْيَا وَاللَّـهُ يُرِيدُ الْآخِرَةَ ۗ وَاللَّـهُ عَزِيزٌ حَكِيمٌ
(अनुवाद फारूक खान एवं नदवी):-
कोई नबी जब कि रूए ज़मीन पर (काफिरों का) खून न बहाए उसके यहाँ कैदियों का रहना मुनासिब नहीं तुम लोग तो दुनिया के साज़ो सामान के ख्वाहॉ (चाहने वाले) हो और ख़ुदा (तुम्हारे लिए) आख़िरत की (भलाई) का ख्वाहॉ है और ख़ुदा ज़बरदस्त हिकमत वाला है
इस आयत ने मोहम्मद की दुविधा का निवारण कर दिया. कुछ बंधक जो उसे नापसंद थे, उन की हत्या कर दी गयी और अन्य को फिरौती ले कर स्वतंत्र कर दिया गया.
स्त्रोत : इब्न इस्हाक़ कृत, The Life of Muhammad, अनुवादक A. Guillaume, (Oxford UP, 1955, 2004), pp. 136 (Arabic pages 191-92)
The life of Mahomet by William Muir
अस्मा की हत्या
मदीना में, इस क्रूरता का प्रथम लक्ष्य बनी थी 'अस्मा बिन्त मरवान' नामक एक महिला. उस काल में कविता लिखना एवं बोलना, अपने भावों को व्यक्त करने के गिने चुने माध्यमों में से एक था और ये महिला एक कावय्त्री थी. उसके परिवार ने अपनी परम्परागत शैली एवं धर्म को नहीं त्यागा था इसलिए इस्लाम में उसकी अरुचि थी. उसने बद्र की लड़ाई के उपरान्त के ऐसे व्यक्ति पर कविता लिखी जो अपने ही प्रियजनों का विद्रोही था और युद्ध में उनके मुखिया का हत्यारा था. अन्यों ने ऐसे व्यक्ति पर विश्वास करके उसे अपना लिया था. शीघ्र ही ये कविता सभी में प्रसारित हो गयी. बद्र की लड़ाई को अभी कुछ ही दिन हुए थे. जब ये कविता मुसलामानों के कानों तक पहुंची तो वो भड़क उठे. उनमें से एक 'ओमीर' नामक नेत्रहीन मुसलमान ने, जो अस्मा के ही कबीले का निवासी था (कुछ सूत्रों के अनुसार, उसका पूर्व पति था), ने ये घोषणा की कि वो उस काव्यत्री का वध कर देगा.
एक रात, जब अस्मा और उसके बच्चे सो रहे थे, वो चुपके से अस्मा के घर में घुस गया और टटोल टटोल कर अस्मा के दूध पीते बच्चे को उससे छीन कर अपनी खड़ग, पूरे वेग से, अस्मा के वक्षस्थल में उतार दी. प्रहार इतना शक्तिशाली था कि खड़ग उसे चीर कर खाट में जा धंसी थी.
अगले दिन जब नमाज़ के लिए वो मस्जिद में पहुंचा तो मोहम्मद ने, उससे इस विषय में पूछा
मोहम्मद - 'ओमीर; क्या तुमने मरवान की बेटी को मार दिया है?'.
ओमीर - ' हाँ! पर मुझे ये बताओ कि ये कोई चिंता का विषय तो नहीं है?'
मोहम्मद - चिंता की कोई बात नहीं है. उसके लिए तो दो बकरियां भी आपस में नहीं भिड़ेंगी.
इसके उपरान्त, मोहम्मद ने मस्जिद में एकत्रित मुसलामानों को संबोधित करते हुए कहा
मोहम्मद - अगर तुम किसी ऐसे व्यक्ति को देखना चाहते हो जिसने अल्लाह और उसके नबी की मदद की है तो ओमीर को देखो.
उमर - क्या! अंधे ओमीर को!
मोहम्मद - नहीं! इसे अँधा मत कहो; बल्कि ये तो ओमीर बशीर है. (बशीर अर्थात जो देख सकता है).
ओमीर हत्यारा जब ऊपरी मदीना में स्थित अपने निवास की ओर लौट रहा था तो अस्मा के बेटे अपनी माता के शव को दफना रहे थे. उसे देख कर उन्होंने हत्यारे पर आरोप लगाया कि उसीने उनकी माता का वध किया है. अस्मा ने पूरी निर्लज्जता से इसे न केवल स्वीकार कर लिया अपितु उन बालकों को धमकी देता हुआ बोला कि जिस प्रकार की बातें वो करती थी, यदि किसी ने ऐसा किया तो वो उसके परिवार की भी हत्या कर देगा. इस उग्र धमकी का परिणाम ये हुआ कि मोहम्मद के बढ़ते प्रभाव और उसके चेलों की हिंसक प्रवृति के चलते, अस्मा के परिवार ने ही नहीं, कुछ ही दिनों में सम्पूर्ण कबीला मुसलमान बन गया. इतिहासकारों के अनुसार, रक्त पात से बचने का एक ही उपाय बच जाता था, इस्लाम को अपनाना.
अबू अफाक
इस महिला के पश्चात, जिस कवि की निर्मम हत्या नए सम्प्रदाय इस्लाम के लिए की गयी, वो एक सौ वर्ष से भी अधिक आयु का वृद्ध यहूदी था. अपनी सृजनात्मक कविताओं के द्वारा, अबू अफाक नामक वृद्ध कवि ने कुछ ऐसी कवितायें लिखीं जो मुसलामानों को उचित नहीं लगीं. मोहम्मद ने अपने साथियों से कहा,'कौन मुझे इस कीड़े से मुक्त करवाएगा?' एक नए बने मुसलमान ने, जो अबू अफाक के ही कबीले का था, एक रात, अपने घर के बाहर सोये हुए वृद्ध को अपनी खड़ग से मार डाला. उसकी अंतिम चीख सुन कर निकटवर्ती लोग, जब तक वहां पहुँचते, हत्यारा वहां से भाग चुका था.
यहूदियों में आतंक
जैसा कि अपेक्षित था, महिला और वृद्ध की निर्मम हत्याओं ने यहूदियों एवं सभी उन नागरिकों के मन में, जो मुसलामानों के प्रति अविश्वास अथवा अरुचि रखते थे, एक आतंक व्याप्त हो गया.
बानू कुनैका को मोहम्मद की धमकी
मदीना के साथ ही एक यहूदी कबीला था, बानू कुनैका. बानू कुनैका का मुख्य व्यवसाय सोने की शिल्पकारी का था और मदीना से इस कबीले की मैत्री संधि थी. बद्र की हत्याओं के कुछ दिन पश्चात, मोहम्मद बानू कुनैका नामक यहूदी कबीले में गया और वहां के प्रमुख नागरिकों से एक बैठक में कहने लगा:
अल्लाह कसम! तुम सब जानते हो कि मैं अल्लाह का नबी हूँ इसलिए मुसलमान बन जाओ अन्यथा तुम्हारा भी वही हश्र होगा जो कुरैशियों का हुआ है.
यहूदियों ने मुसलमान बनना अस्वीकार कर दिया और मोहम्मद से कहा कि वो अपने पूर्वजों का मत नहीं त्यागेंगे, भले जो कर लो.
तुरंत 'अल्लाह, की एक नयी आयत मोहम्मद में उतरी.
अध्याय ३, आयत १३:
तुम्हें पहले ही इशारा मिल चूका है, जब दो गिरोह लड़ने के लिए भिड़े तो उनमें से एक अल्लाह की राह में लड़ रहा था और दूसरा काफिर था. ईमानदारों ने देखा कि काफिर उनसे दोगुणा हैं. अल्लाह उसे ही फतह देता है, जिसे वो चाहता है. समझदारों के लिए ये एक इशारा है.
इस प्रकार, एक भीषण परिणाम की धमकी दे कर मोहम्मद चला गया.
इसके कुछ ही समय उपरान्त मोहम्मद को हिंसा का अवसर मिल गया. एक मुसलमान महिला जब एक शिल्पकार के यहाँ किसी आभूषण लेने के लिए बैठी थी तो एक मूर्ख पडोसी ने उसके घाघरे को, उसकी चोली से सिल दिया. जब वो उठी तो घाघरा भी उठ गया. इस असुविधाजनक स्थिति में वो चिल्लाई तो उसे सुन कर एक मुसलमान वहां पहुंचा. उसे जब पता लगा तो उसने ऐसा करने वाले यहूदी को काट दिया. उस यहूदी के भाइयों ने मुसलमान को मार गिराया. उस मुसलमान के साथियों ने मदीना में जा कर, जो मुसलमान बने थे, उन्हें सहायता के लिए कहा. मैत्री संधि के चलते, मोहम्मद चाहता तो शांतिपूर्ण ढंग से, केवल दोषियों को दण्डित कर अथवा करवा सकता था किन्तु उसने मुसलामानों को एकत्रित किया और कुनैका की ओर चल पड़ा. वो श्वेत ध्वज जो उसने लगभग एक महीना पूर्व बद्र में लहराया था, हम्ज़ा को थमाते हुए आक्रमण करने पहुँच गया. कबीले का निर्माण किसी हमले से रक्षा के लिए ही किया गया था, इसलिए कबीले वाले भीतर सुरक्षित थे.
विश्वासघात की प्रशंसा
मुसलामानों ने कबीले को घेर लिया ताकि उन्हें कोई सहायता न मिल सके. कबीलेवासी आशा कर रहे थे कि अब्दुल्लाह बिन उबे एवं खजराज कबीला, जिन से उनके मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध थे, उनकी सहायता करेंगे. उनमें से कोई भी इतना साहस न कर पाया और लगभग १५ दिन तक उनका कबीला अकेला पड़ गया. मुसलमान उन्हें चारों ओर से घेरे रहे. अपने को असहाय स्थिति में पाकर, कुनैका कबीले ने आत्म समर्पण कर दिया. एक एक कर, जब वे बाहर निकले तो उनके हाथ पीछे बाँध कर उन्हें काटने के लिए एक ओर खड़ा कर दिया गया. 'अब्दुल्लाह बिन उबे' अपने पुराने साथियों को इस स्थिति में नहीं देख पाया और उसने मोहम्मद से उन्हें छोड़ने का आग्रह किया. मोहम्मद, जो कि कवच पहने हुए था, ने मुंह फेर लिया तो अब्दुल्लाह ने उसकी भुजा थाम कर अपनी बात दोहराई. मोहम्मद ने चिल्ला कर कहा,' मुझे छोड़!'; किन्तु अब्दुल्लाह ने मोहम्मद को नहीं छोड़ा तो मोहम्मद के हाव भाव से क्रोध झलकने लगा. उसने झल्ला कर कहा:'ऐ नीच! मुझे छोड़!' अब्दुल्लाह ने कहा,' नहीं! मैं तुम्हें तब तक नहीं छोडूंगा जब तक तुम मेरे मित्रों को नहीं छोड़ोगे. मोहम्मद, क्या तुम उन सब को एक ही दिन में काट दोगे जिन्होंने मुझे हदैक और बोआथ की लड़ाइयों में सभी शत्रुओं से सुरक्षा दी. उन लड़ाइयों में ३०० सशत्र कवचधारी और ४०० शास्त्रहीनों नें मेरी रक्षा की थी. मेरा मत है कि समय के साथ अनिष्ट किसी पर भी हो सकता है.'
मोहम्मद अभी इतना शक्तिशाली नहीं हुआ था कि अब्दुल्लाह के कहे को ठुकरा देता. अंततः उसने अपने साथियों से कहा 'इन्हें जाने दो! अल्लाह इन पर अपना कहर बरसायेगा, और इस (अब्दुल्लाह) पर भी!'. मोहम्मद ने उन्हें मारा तो नहीं किन्तु उन्हें अपना कबीला छोड़ कर जाने का आदेश दे दिया और उनकी चल अचल संपत्ति पर मुसलामानों ने अधिकार कर लिया. इस लूट के माल (अन्फाल) में, यहूदियों के स्वर्ण शिल्पकारी के उपकरण, उनके कवच एवं शास्त्र सम्मिलित थे. इनमें से २०%, मोहम्मद के लिए था. इसके अतिरिक्त मोहम्मद ने अपने लिए तीन धनुष, तीन खड़ग और दो कवच अपने कब्ज़े में ले लिए थे.
कुनिकावासी अपनी जान बचा कर एक निकटवर्ती यहूदी काबिले 'वादी अल कोरा' पहुंचे और वहां के यहूदियों की सहायता से उन्हें सीरिया की सीमा तक जाने के लिए सवारी का प्रबंध करने में सहायता मिली.
मोहम्मद की, इब्न इस्हाक़ कृत सर्वप्रथम जीवनी में इस घटना के वर्णन से स्पष्ट होता है कि जिस समय अब्दुल्लाह अपने पुराने सहयोगियों का जीवन बचाने के लिए मोहम्मद से विवाद कर रहा था, उस समय 'बानू ऑस' काबिले का 'उबैदा बिन अल समित', जो स्वयं को कुनैकावासियों का मित्र बताता था, ने कुनैकावासियों की मैत्री त्याग कर मोहम्मद से मैत्री कर ली थी. वो मोहम्मद के निकट आया और बोला,"ऐ अल्लाह के पैगम्बर!मैं अल्लाह को, उसके पैगम्बर को और मुसलामानों को अपना मित्र मानता हूँ और काफिरों से अपनी संधि का त्याग करता हूँ".
इस समय अब्दुल्लाह के संबंध में कुरान की नई पंक्तियाँ प्रकट हुई. अध्याय ५, आयत ५१:
ऐ मुसलामानों! यहूदियों और ईसाईयों को अपना औलिया (मित्र, संरक्षक, सहायक इत्यादि) मत बनाओ. वो तो केवल एक दुसरे के परस्पर औलिया हैं. और यदि तुम में से किसी ने उन्हें अपना मित्र बनाया तो वो भी उनके जैसा ही माना जाएगा. अल्लाह जालिमों (अन्य भगवान् की पूजा करने वालों और अन्याय करने वालों) का साथ नहीं देता.
जिस समय अब्दुल्लाह बिन उबे ने कहा कि 'अनिष्ट किसी पर भी हो सकता है' तो कुरान की आयत प्रकट हुई. अध्याय ५, आयत ५२-५३:
और तुम उन्हें देखो जिनके दिलों में (दोगलेपन की) बीमारी है, वो अपने मित्रों को बचाने के लिए कहते हैं: " हमें भय है कि अनिष्ट किसी पर भी हो सकता है." जब अल्लाह अपनी इच्छा से हमें फतह देगा उस समय वो अपने राज़ छिपाने के कारण शर्मिंदा होंगे...... और जो ईमानदार (मुसलमान) हैं, वो कहेंगे:"क्या ये वही हैं जो अल्लाह की कसम खा कर कहते थे कि हम मुसलामानों के साथ हैं?" उन्होंने जो किया व्यर्थ जाएगा और वो पराजित होंगे.
उबैदा, जिसने अपने पुराने मित्रों का इस गंभीर समय में विश्वासघात करते हुए, मोहम्मद से मित्रता कर ली थी, की प्रशंसा करते हुए कुरान में नई आयत आई.अध्याय ५, आयत ५६:
और जिस शख्स ने अल्लाह और उसके रसूल और मुसलामानों को अपना औलिया बनाया तो (अल्लाह के गिरोह में आ गया और) इसमें शक नहीं कि अल्लाह का गिरोह (ग़ालिब) रहता है.

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