यह लेख फारवार्ड प्रेस के अक्टूबर अंक में छपा है। इस लेख से एक बात तो साफ
होती है कि अंबेडकर भारतीय धर्मों में ही कोई ऐसी जगह तलाश रहे थे, जहां
अछूतों के लिए भी बराबरी की जगह हो। ईसाइयत और इस्लाम से अलग भारतीय
परंपरा में सिक्ख पन्थ की ओर उनके कदम बढ़े, लेकिन अंतत: बौद्ध सम्प्रदाय
उन्हें सबसे सटीक लगा। इस लेख में उनकी धार्मिक खोज के एक प्रसंग का
उल्लेख किया गया है l
1936 के आसपास, सिक्ख पन्थ के प्रति अंबेडकर का आकर्षण हमें पहली बार दिखलाई देता है। यह आकर्षण अकारण नहीं था। सिक्ख पन्थ भारतीय था और समानता में विश्वास रखता था, पूर्वज भी हिन्दू थे और अंबेडकर के लिए ये तीनो बातें महत्वपूर्ण थीं। अंबेडकर को इस बात का एहसास था कि हिंदू धर्म के “काफी नजदीक” होने के कारण, सिक्ख धर्म अपनाने से उन हिंदुओं में भी अलगाव का भाव पैदा नहीं होगा, जो कि यह मानते हैं कि धर्मपरिवर्तन से विदेशी धर्मों की ताकत बढ़ेगी।
सन 1936 में अंबेडकर, हिंदू महासभा के अखिल भारतीय अध्यक्ष डाक्टर मुंजे से मिले और उन्हें इस संबंध में अपना एक विचारों पर आधारित एक वक्तव्य सौंपा। बाद में यह वक्तव्य, एम आर जयकर, एम सी राजा व अन्यों को भी सौंपा गया। यह दिलचस्प है कि जहां डाक्टर मुंजे ने कुछ शर्तों के साथ अपनी सहमति दे दी, वहीं गांधी ने सिक्ख पन्थ अपनाने के इरादे की कड़े शब्दों में निंदा की।
अप्रैल 1936 में अंबेडकर अमृतसर पहुंचे, जहां उन्होंने सिक्ख मिशन द्वारा अमृतसर में आयोजित सम्मेलन में भाग लिया। उन्होंने कई भीड़ भरी सभाओं को संबोधित किया। उन्होंने सम्मेलन में कहा कि हिंदू धर्म त्यागने का निर्णय तो ले लिया है, परंतु अभी यह तय नहीं किया है कि वे कौन सा धर्म अपनाएगें। इस सम्मेलन में उनका भाग लेना, “जात-पात तोड़क मंडल” को नागवार गुजरा।
मंडल ने उन्हें लाहौर में आयोजित अपने सम्मेलन में भाग लेने के लिए आमंत्रित किया था, परंतु आयोजक चाहते थे कि वे अपने भाषण से वेदों की निंदा करने वाले कुछ हिस्से हटा दें। अंबेडकर ने ऐसा करने से इंकार कर दिया और भाषण को “जाति का विनाश” शीर्षक से स्वयं ही प्रकाशित करवा दिया। इस भाषण में, एक स्थान पर वे कहते हैं, “सिक्खों के गुरु नानक के नेतृत्व में, धार्मिक व सामाजिक क्रांति हुई थी।” महाराष्ट्र के “सुधारवादी” भक्ति आंदोलन के विपरीत वे सिक्ख धर्म को क्रांतिकारी मानते थे। अंबेडकर का तर्क यह था कि सामाजिक व राजनीतिक क्रांति से पहले, मस्तिष्क की मुक्ति, दिमागी आजादी जरूरी हैः “राजनीतिक क्रांति हमेशा सामाजिक व धार्मिक क्रांति के बाद ही आती है”।
उस समय, सिक्ख पन्थ को चुनने के पीछे के कारण बताने वाला उनका वक्तव्य दिलचस्प है। “शुद्धतः हिंदुओं के दृष्टिकोण से अगर देखें तो ईसाइयत, इस्लाम व सिक्ख सम्प्रदाय में से सर्वश्रेष्ठ कौन सा है? स्पष्टतः सिक्ख पन्थ ।
अगर दमित वर्ग, मुसलमान या ईसाई बनते हैं तो वे न केवल हिंदू धर्म छोड़ेंगे बल्कि हिंदू संस्कृति को भी त्यागेंगे। दूसरी ओर, अगर वे सिक्ख धर्म का वरण करते हैं तो कम से कम हिंदू संस्कृति में तो वे बने रहेंगे। यह हिंदुओं के लिए अपने-आप में बड़ा लाभ है। इस्लाम या ईसाई धर्म कुबूल करने से, दमित वर्गों का अराष्ट्रीयकरण हो जावेगा। अगर वो इस्लाम अपनाते हैं तो मुसलमानों की संख्या दोगुनी हो जाएगी और देश में मुसलमानों का प्रभुत्व कायम होने का खतरा उत्पन्न हो जावेगा। दूसरी ओर, अगर वे ईसाई धर्म को अपनाएंगे तो उसके ब्रिटेन की भारत पर पकड़ और मजबूत होगी।”
उस दौर में बहस का एक विषय यह भी था कि क्या सिक्ख (या कोई और) पन्थ-सम्प्रदाय अपनाने वालों को पूना पैक्ट या अन्य कानूनों के तहत अनुसूचित जाति के रूप में उन्हें मिलने वाले अधिकार मिलेंगे। मुंजे का कहना था कि सिक्ख पन्थ अपनाने वालों को ये अधिकार मिलते रहेंगे।
अंततः, 18 सितंबर 1936 को अंबेडकर ने अपने अनुयायियों के एक समूह को सिक्ख पन्थ का अध्ययन करने के लिए अमृतसर के सिक्ख मिशन में भेजा। वे लोग अंबेडकर की भांति बुद्धिमान तो थे नही, तो वहां अपने जोरदार स्वागत से इतने अभिभूत हो गये कि – अपने मूल उद्देश्य को भुलाकर – सिक्ख पन्थ अपना लिया। उसके बाद उनके क्या हाल बने, यह कोई नहीं जानता, अधिकाँश को तो बाद में दलित सिक्खों की ही कई जातियों में विभाजित कर दिया गया l बहुत से दलित सिक्खों को गुरु ग्रन्थ साहिब कंठस्थ होने के बावजूद जीवन में उन्हें कभी ग्रंथी या जत्थेदार नहीं बनाया गया l उनके गुरुद्वारों को धन आदि से भी सहायता में हाशिये पर ही रखा जाने लगा l
सन 1939 में बैसाखी के दिन, अंबेडकर ने अपने अनुयायियों के साथ अमृतसर में अखिल भारतीय सिक्ख मिशन सम्मलेन में हिस्सेदारी की। वे सब पगड़ियां बांधे हुए थे। अंबेडकर ने अपने एक भतीजे को अमृत चख कर खालसा सिक्ख बनने की इजाजत भी दी।
बाद में, अंबेडकर और सिक्ख नेता मास्टर तारा सिंह के बीच मतभेद पैदा हो गये। तारा सिंह, निस्संदेह, अंबेडकर के राजनीतिक प्रभाव से भयभीत थे। उन्हें डर था कि अगर बहुत बड़ी संख्या में अछूत सिक्ख बन गये तो वे मूल सिक्खों पर हावी हो जाएंगे और अंबेडकर, सिक्ख पंथ के नेता बन जाएंगे। यहां तक कि, एक बार अंबेडकर को 25 हजार रुपये देने का वायदा किया गया परंतु वे रुपये अंबेडकर तक नहीं पहुंचे बल्कि तारा सिंह के अनुयायी, मास्टर सुजान सिंह सरहाली को सौंप दिए गये।
इस प्रकार, अपने जीवन के मध्यकाल में अंबेडकर का सिक्खों और उनके नेताओं से मेल-मिलाप बढ़ा और वे सिक्ख पन्थ की ओर आकर्षित भी हुए। यह जानना महत्वपूर्ण है कि अंततः उन्होंने सिक्ख पन्थ से मुख क्यों मोड़ लिया।
निस्संदेह, इसका एक कारण तो यह था कि अंबेडकर इस तथ्य से अनजान नहीं थे कि सिक्ख धर्म में भी अछूत प्रथा है। यद्यपि, सिद्धांत में सिक्ख धर्म पन्थ में विश्वास करता था तथापि दलित सिक्खों को – जिन्हें मजहबी सिक्ख या ‘रविदासी’ कहा जाता था – अलग-थलग रखा जाता था। इस प्रकार, सिक्ख पन्थ में भी एक प्रकार का भेदभाव था। सामाजिक स्तर पर, पंजाब के अधिकांश दलित सिक्ख भूमिहीन थे और वे प्रभुत्वशाली जाट सिक्खों के अधीन, कृषि श्रमिक के रूप में काम करने के लिए बाध्य थे।
असल में, जिन कारणों से अंबेडकर सिक्ख पन्थ की ओर आकर्षित हुए थे, उन्हीं कारणों से उनका उससे मोहभंग हो गया। अगर सिक्ख पन्थ “हिंदू संस्कृति का हिस्सा” था, तो उसे अपनाने में क्या लाभ था? जातिप्रथा से ग्रस्त “हिंदू संस्कृति’ पूरे सिक्ख समाज पर हावी रहती। सिक्ख पन्थ के अंदर भी दलित, अछूत ही बने रहते – पगड़ी पहने हुए अछूत। जट्ट सिखों द्वारा उन्हें कभी आगे बढने ही नहीं दिया गया l
अंबेडकर को लगने लगा के बौद्ध धर्म इस मामले में भिन्न है। सिक्ख पन्थ की ही तरह वह “विदेशी” नहीं बल्कि भारतीय है और सिक्ख पन्थ की ही तरह, वह न तो देश को विभाजित करेगा, न मुसलमानों का प्रभुत्व कायम करेगा और न ही ब्रिटिश साम्राज्यवादियों के हाथ मजबूत करेगा।
बौद्ध धर्म में शायद एक तरह की तार्किकता थी, जिसका सिक्ख पन्थ में अभाव था। अंबेडकर, बुद्ध द्वारा इस बात पर बार-बार जोर दिये जाने से बहुत प्रभावित थे कि प्रत्येक व्यक्ति को अपने अनुभव और तार्किकता के आधार पर, अपने निर्णय स्वयं लेने चाहिए – अप्प दीपो भवs (अपना प्रकाश स्वयं बनो)। इस तरह, अंबेडकर का, सिक्ख पन्थ की तुलना में, बौद्ध सम्प्रदाय के प्रति आकर्षण अधिक शक्तिशाली और स्थायी साबित हुआ। यद्यपि बौद्ध सम्प्रदाय उतना सामुदायिक समर्थन नहीं दे सकता था जितना कि सिक्ख पन्थ परंतु बौद्ध सम्प्रदाय को अंबेडकर, दलितों की आध्यात्मिक और नैतिक जरूरतों के हिसाब से, नये कलेवर में ढाल सकते थे। सिक्खों का धार्मिक ढांचा पहले से मौजूद था और अंबेडकर चाहे कितने भी प्रभावशाली और बड़े नेता होते, उन्हें उस ढांचे के अधीन और खासकर जट्ट सिक्खों के अधीन रहकर ही काम करना होता।
इस तरह, अंततः, अंबेडकर और उनके लाखों अनुयायियों के स्वयं के लिए उपयुक्त धर्म की तलाश बौद्ध धर्म पर समाप्त हुई और सिक्ख पन्थ पीछे छूट गया।
1936 के आसपास, सिक्ख पन्थ के प्रति अंबेडकर का आकर्षण हमें पहली बार दिखलाई देता है। यह आकर्षण अकारण नहीं था। सिक्ख पन्थ भारतीय था और समानता में विश्वास रखता था, पूर्वज भी हिन्दू थे और अंबेडकर के लिए ये तीनो बातें महत्वपूर्ण थीं। अंबेडकर को इस बात का एहसास था कि हिंदू धर्म के “काफी नजदीक” होने के कारण, सिक्ख धर्म अपनाने से उन हिंदुओं में भी अलगाव का भाव पैदा नहीं होगा, जो कि यह मानते हैं कि धर्मपरिवर्तन से विदेशी धर्मों की ताकत बढ़ेगी।
सन 1936 में अंबेडकर, हिंदू महासभा के अखिल भारतीय अध्यक्ष डाक्टर मुंजे से मिले और उन्हें इस संबंध में अपना एक विचारों पर आधारित एक वक्तव्य सौंपा। बाद में यह वक्तव्य, एम आर जयकर, एम सी राजा व अन्यों को भी सौंपा गया। यह दिलचस्प है कि जहां डाक्टर मुंजे ने कुछ शर्तों के साथ अपनी सहमति दे दी, वहीं गांधी ने सिक्ख पन्थ अपनाने के इरादे की कड़े शब्दों में निंदा की।
अप्रैल 1936 में अंबेडकर अमृतसर पहुंचे, जहां उन्होंने सिक्ख मिशन द्वारा अमृतसर में आयोजित सम्मेलन में भाग लिया। उन्होंने कई भीड़ भरी सभाओं को संबोधित किया। उन्होंने सम्मेलन में कहा कि हिंदू धर्म त्यागने का निर्णय तो ले लिया है, परंतु अभी यह तय नहीं किया है कि वे कौन सा धर्म अपनाएगें। इस सम्मेलन में उनका भाग लेना, “जात-पात तोड़क मंडल” को नागवार गुजरा।
मंडल ने उन्हें लाहौर में आयोजित अपने सम्मेलन में भाग लेने के लिए आमंत्रित किया था, परंतु आयोजक चाहते थे कि वे अपने भाषण से वेदों की निंदा करने वाले कुछ हिस्से हटा दें। अंबेडकर ने ऐसा करने से इंकार कर दिया और भाषण को “जाति का विनाश” शीर्षक से स्वयं ही प्रकाशित करवा दिया। इस भाषण में, एक स्थान पर वे कहते हैं, “सिक्खों के गुरु नानक के नेतृत्व में, धार्मिक व सामाजिक क्रांति हुई थी।” महाराष्ट्र के “सुधारवादी” भक्ति आंदोलन के विपरीत वे सिक्ख धर्म को क्रांतिकारी मानते थे। अंबेडकर का तर्क यह था कि सामाजिक व राजनीतिक क्रांति से पहले, मस्तिष्क की मुक्ति, दिमागी आजादी जरूरी हैः “राजनीतिक क्रांति हमेशा सामाजिक व धार्मिक क्रांति के बाद ही आती है”।
उस समय, सिक्ख पन्थ को चुनने के पीछे के कारण बताने वाला उनका वक्तव्य दिलचस्प है। “शुद्धतः हिंदुओं के दृष्टिकोण से अगर देखें तो ईसाइयत, इस्लाम व सिक्ख सम्प्रदाय में से सर्वश्रेष्ठ कौन सा है? स्पष्टतः सिक्ख पन्थ ।
अगर दमित वर्ग, मुसलमान या ईसाई बनते हैं तो वे न केवल हिंदू धर्म छोड़ेंगे बल्कि हिंदू संस्कृति को भी त्यागेंगे। दूसरी ओर, अगर वे सिक्ख धर्म का वरण करते हैं तो कम से कम हिंदू संस्कृति में तो वे बने रहेंगे। यह हिंदुओं के लिए अपने-आप में बड़ा लाभ है। इस्लाम या ईसाई धर्म कुबूल करने से, दमित वर्गों का अराष्ट्रीयकरण हो जावेगा। अगर वो इस्लाम अपनाते हैं तो मुसलमानों की संख्या दोगुनी हो जाएगी और देश में मुसलमानों का प्रभुत्व कायम होने का खतरा उत्पन्न हो जावेगा। दूसरी ओर, अगर वे ईसाई धर्म को अपनाएंगे तो उसके ब्रिटेन की भारत पर पकड़ और मजबूत होगी।”
उस दौर में बहस का एक विषय यह भी था कि क्या सिक्ख (या कोई और) पन्थ-सम्प्रदाय अपनाने वालों को पूना पैक्ट या अन्य कानूनों के तहत अनुसूचित जाति के रूप में उन्हें मिलने वाले अधिकार मिलेंगे। मुंजे का कहना था कि सिक्ख पन्थ अपनाने वालों को ये अधिकार मिलते रहेंगे।
अंततः, 18 सितंबर 1936 को अंबेडकर ने अपने अनुयायियों के एक समूह को सिक्ख पन्थ का अध्ययन करने के लिए अमृतसर के सिक्ख मिशन में भेजा। वे लोग अंबेडकर की भांति बुद्धिमान तो थे नही, तो वहां अपने जोरदार स्वागत से इतने अभिभूत हो गये कि – अपने मूल उद्देश्य को भुलाकर – सिक्ख पन्थ अपना लिया। उसके बाद उनके क्या हाल बने, यह कोई नहीं जानता, अधिकाँश को तो बाद में दलित सिक्खों की ही कई जातियों में विभाजित कर दिया गया l बहुत से दलित सिक्खों को गुरु ग्रन्थ साहिब कंठस्थ होने के बावजूद जीवन में उन्हें कभी ग्रंथी या जत्थेदार नहीं बनाया गया l उनके गुरुद्वारों को धन आदि से भी सहायता में हाशिये पर ही रखा जाने लगा l
सन 1939 में बैसाखी के दिन, अंबेडकर ने अपने अनुयायियों के साथ अमृतसर में अखिल भारतीय सिक्ख मिशन सम्मलेन में हिस्सेदारी की। वे सब पगड़ियां बांधे हुए थे। अंबेडकर ने अपने एक भतीजे को अमृत चख कर खालसा सिक्ख बनने की इजाजत भी दी।
बाद में, अंबेडकर और सिक्ख नेता मास्टर तारा सिंह के बीच मतभेद पैदा हो गये। तारा सिंह, निस्संदेह, अंबेडकर के राजनीतिक प्रभाव से भयभीत थे। उन्हें डर था कि अगर बहुत बड़ी संख्या में अछूत सिक्ख बन गये तो वे मूल सिक्खों पर हावी हो जाएंगे और अंबेडकर, सिक्ख पंथ के नेता बन जाएंगे। यहां तक कि, एक बार अंबेडकर को 25 हजार रुपये देने का वायदा किया गया परंतु वे रुपये अंबेडकर तक नहीं पहुंचे बल्कि तारा सिंह के अनुयायी, मास्टर सुजान सिंह सरहाली को सौंप दिए गये।
इस प्रकार, अपने जीवन के मध्यकाल में अंबेडकर का सिक्खों और उनके नेताओं से मेल-मिलाप बढ़ा और वे सिक्ख पन्थ की ओर आकर्षित भी हुए। यह जानना महत्वपूर्ण है कि अंततः उन्होंने सिक्ख पन्थ से मुख क्यों मोड़ लिया।
निस्संदेह, इसका एक कारण तो यह था कि अंबेडकर इस तथ्य से अनजान नहीं थे कि सिक्ख धर्म में भी अछूत प्रथा है। यद्यपि, सिद्धांत में सिक्ख धर्म पन्थ में विश्वास करता था तथापि दलित सिक्खों को – जिन्हें मजहबी सिक्ख या ‘रविदासी’ कहा जाता था – अलग-थलग रखा जाता था। इस प्रकार, सिक्ख पन्थ में भी एक प्रकार का भेदभाव था। सामाजिक स्तर पर, पंजाब के अधिकांश दलित सिक्ख भूमिहीन थे और वे प्रभुत्वशाली जाट सिक्खों के अधीन, कृषि श्रमिक के रूप में काम करने के लिए बाध्य थे।
असल में, जिन कारणों से अंबेडकर सिक्ख पन्थ की ओर आकर्षित हुए थे, उन्हीं कारणों से उनका उससे मोहभंग हो गया। अगर सिक्ख पन्थ “हिंदू संस्कृति का हिस्सा” था, तो उसे अपनाने में क्या लाभ था? जातिप्रथा से ग्रस्त “हिंदू संस्कृति’ पूरे सिक्ख समाज पर हावी रहती। सिक्ख पन्थ के अंदर भी दलित, अछूत ही बने रहते – पगड़ी पहने हुए अछूत। जट्ट सिखों द्वारा उन्हें कभी आगे बढने ही नहीं दिया गया l
अंबेडकर को लगने लगा के बौद्ध धर्म इस मामले में भिन्न है। सिक्ख पन्थ की ही तरह वह “विदेशी” नहीं बल्कि भारतीय है और सिक्ख पन्थ की ही तरह, वह न तो देश को विभाजित करेगा, न मुसलमानों का प्रभुत्व कायम करेगा और न ही ब्रिटिश साम्राज्यवादियों के हाथ मजबूत करेगा।
बौद्ध धर्म में शायद एक तरह की तार्किकता थी, जिसका सिक्ख पन्थ में अभाव था। अंबेडकर, बुद्ध द्वारा इस बात पर बार-बार जोर दिये जाने से बहुत प्रभावित थे कि प्रत्येक व्यक्ति को अपने अनुभव और तार्किकता के आधार पर, अपने निर्णय स्वयं लेने चाहिए – अप्प दीपो भवs (अपना प्रकाश स्वयं बनो)। इस तरह, अंबेडकर का, सिक्ख पन्थ की तुलना में, बौद्ध सम्प्रदाय के प्रति आकर्षण अधिक शक्तिशाली और स्थायी साबित हुआ। यद्यपि बौद्ध सम्प्रदाय उतना सामुदायिक समर्थन नहीं दे सकता था जितना कि सिक्ख पन्थ परंतु बौद्ध सम्प्रदाय को अंबेडकर, दलितों की आध्यात्मिक और नैतिक जरूरतों के हिसाब से, नये कलेवर में ढाल सकते थे। सिक्खों का धार्मिक ढांचा पहले से मौजूद था और अंबेडकर चाहे कितने भी प्रभावशाली और बड़े नेता होते, उन्हें उस ढांचे के अधीन और खासकर जट्ट सिक्खों के अधीन रहकर ही काम करना होता।
इस तरह, अंततः, अंबेडकर और उनके लाखों अनुयायियों के स्वयं के लिए उपयुक्त धर्म की तलाश बौद्ध धर्म पर समाप्त हुई और सिक्ख पन्थ पीछे छूट गया।
When Ambedkar Almost Became A Sikh, Finaly Embraced Buddhism Instead.
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