गणितज्ञ डा वशिष्ठ नारायण सिंह
14 मार्च को मैथ डे के रूप में मनाया जाता है। मैथ डे मूल रूप से एक ऑनलाइन कम्प्टीशन था, जिसकी शुरुआत 2007 से हुई थी। इसी दिन पाई डे (Pi) भी मनाया जाता है, जिसका उपयोग हम मैथ में करते हैं। मैथ डे पर हम आपको बता रहे हैं एक ऐसे गणितज्ञ के बारे में, जिनका लोहा पूरी अमेरिका मानती है। इन्होंने कई ऐसे रिसर्च किए, जिनका अध्ययन आज भी अमेरिकी छात्र कर रहे हैं। हाल-फिलहाल डा वशिष्ठ नारायण सिंह मानसिक बीमारी सीजोफ्रेनिया से ग्रसित हैं। इसके बावजूद वे मैथ के फॉर्मूलों को सॉल्व करते रहते हैं।
इनकी गिनती दुनिया के महान गणितज्ञों में होती थी, लेकिन गरीबी की वजह से ये शख्स अब खुद में खोया रहता है।मानसिक बीमारी सीजोफ्रेनिया से जूझ रहे डा वशिष्ठ नारायण सिंह बिहार के भोजपुर जिले बसंतपुर के रहने वाले हैं। इनकी गिनती दुनिया के महान गणितज्ञों में होती थी, लेकिन गरीबी की वजह से ये शख्स अब खुद में खोया रहता है। आर्यभट्ट ने जहां जीरो देकर पूरी दुनिया को नई राह दिखाई थी। वहीं, अमेरिका में जाने के साथ ही ‘साइकिल वेक्टर स्पेश थ्योरी’ पर शोध कर डा वशिष्ठ ने पूरी दुनिया का ध्यान अपनी ओर खींचा था।
वशिष्ठ नारायण सिंह बेहद गरीब परिवार से आते हैं। लेकिन, प्रतिभा उनमें कूट-कूट कर भरी थी। उन्होंने नेतरहाट स्कूल में एडमिशन लिया और मैट्रिक की परीक्षा में पूरे बिहार में टॉप किया। वहीं साइंस कॉलेज से इंटर की परीक्षा में भी पूरे बिहार में अव्वल रहे
डा सिंह ने न सिर्फ आइंस्टिन के सिद्धांत E=MC2 को चैलेंज किया, बल्कि मैथ में रेयरेस्ट जीनियस कहा जाने वाला गौस की थ्योरी को भी उन्होंने चैलेंज किया था। लेकिन, बीमारी की वजह से कुछ भी नहीं हो सका।
अमेरिका में आज भी इनके शोध किए गए विषयों को पढ़ाया जाता है। भारत के लोग भले ही वशिष्ठ नारायण सिंह को नहीं जानते, लेकिन अमेरिका में इन्हें काफी सम्मान की नजर से देखा जाता है।
ऐसा कहा जाता है कि अपोलो मिशन के दौरान डा सिंह नासा में मौजूद थे, तभी गिनती करने वाले कम्प्यूटर में खराबी आ गई। ऐसे में कहा जाता है कि डा वशिष्ठ नारायण सिंह ने उंगलियों पर गिनती शुरू कर दी। बाद में साथी वैज्ञानिकों ने उनकी गिनती को सही माना था। लेकिन, इस बात की आधिकारिक रूप से कहीं भी पुष्टि नहीं है।
अमेरिका में पढ़ने का न्योता जब डा वशिष्ठ नारायण सिंह को मिला तो उन्होंने ग्रेजुएशन के तीन साल के कोर्स को महज एक साल में पूरा कर लिया था।
यह वशिस्ठ नारायण जी है जो पुरे भारतवर्ष में सबसे महान गणित के विद्वान् रहे! इन्होने अपने जीवनकाल में कंप्यूटर को मात दी थी! गणित की जो गणना कंप्यूटर करता था उससे कम समय में यह करके सामने रख देते थे! कई लोग इनको आइन्स्टीन से भी जाएदा प्रखर और विद्वान मानते थे! अमेरिकी नासा को जब इनके अदबुध दिमाग का पता चला तोह इनको कई सारे लुभावने अवसर देने की पेशकश की, जैसे की न्यूयौक में विशाल बंगला, गाडी, एक अच्छी सैलरी जैसा की वोह हर भारतीय विज्ञानिक को देके अपने पास बुलावा लेते है!
लेकिन इन्होने उन सभी लुभावने असवर को दरकिनार करते हुए कहा की मुझे मेरे देश की सेवा करनी है, मुझे जो कुछ भी मिला है वोह इस गाओ, समाज और देश ने दिया है और जब मुझे मौका मिला है तोह मैं इनकी सेवा करुगा ना की अमेरिका की!
बाद में इनका विवाह भी एक संपन्न घराने की स्त्री के साथ हुआ था जिनसे वोह बहुत अधिक प्रेम करते थे!
लेकिन अमेरिका को यह बात खली और उसने केंद्र की कांग्रेस सरकार और बिहार की कांग्रेस राज्य सरकार को निर्देश दिया की इनको जाएदा से जाएदा परेशान किया जाए!
आप जानते है कांग्रेस का देशविरोधी इतिहास, उसने यह काम बखूबी किया! जो भी रिसर्च वोह करते थे इनके जूनियर उस डेरी को फाड़ दिया करते थे! इनके चाय और पानी में इनको पागल करने की दवाई दी जाने लगी थी जिस वजह से यह धीरे धीरे भूलने लगे और इनको भूलने की बिमारी हो गई और बाद में यह पागल हो गए!
इनकी बीवी ने इनको छोर्ड दिया और यह वापस अपने माँ के पास पुराने घर आ गए! कई साल तक गुमनामी की ज़िन्दगी जीने के बाद इनको सड़क किनारे भीख मांगते हुए ढूंढा गया था जिसमे मेरे दादा जी भी थे, उन्होंने इनको पहचाना और सरकार की तरह से कुछ सुविधायें दिलवाई थी!
लेकिन यह आज भी पागल है और केंद्र और राज्य सरकार इनको कोई आर्थिक मदद नहीं देती!
लेकिन आज भी इनके जुबान पर अपनी पत्नी का नाम और भारत माता का नाम रह रह कर आता है!
इनको प्रणाम!
अखिलेश शर्मा!
श्रीनिवास रामानुजन्
श्रीनिवास रामानुजन् इयंगर (तमिल ஸ்ரீனிவாஸ ராமானுஜன் ஐயங்கார்) (22 दिसम्बर, 1887 – 26 अप्रैल, 1920) एक महान भारतीय गणितज्ञ थे। इन्हें आधुनिक काल के महानतम गणित विचारकों में गिना जाता है। इन्हें गणित में कोई विशेष प्रशिक्षण नहीं मिला, फिर भी इन्होंने विश्लेषण एवं संख्या सिद्धांत के क्षेत्रों में गहन योगदान दिए। इन्होंने अपने प्रतिभा और लगन से न केवल गणित के क्षेत्र में अद्भुत अविष्कार किए वरन भारत को अतुलनीय गौरव भी प्रदान किया।
ये बचपन से ही विलक्षण प्रतिभावान थे। इन्होंने खुद से गणित सीखा और अपने जीवनभर में गणित के 3,884 प्रमेयों का संकलन किया। इनमें से अधिकांश प्रमेय सही सिद्ध किये जा चुके हैं। इन्होंने गणित के सहज ज्ञान और बीजगणित प्रकलन की अद्वितीय प्रतिभा के बल पर बहुत से मौलिक और अपारम्परिक परिणाम निकाले जिनसे प्रेरित शोध आज तक हो रहा है, यद्यपि इनकी कुछ खोजों को गणित मुख्यधारा में अब तक नहीं अपनाया गया है। हाल में इनके सूत्रों को क्रिस्टल-विज्ञान में प्रयुक्त किया गया है। इनके कार्य से प्रभावित गणित के क्षेत्रों में हो रहे काम के लिये रामानुजन जर्नल की स्थापना की गई है।
आगे एक परेशानी आई। रामानुजन का गणित के प्रति प्रेम इतना बढ़ गया था कि वे दूसरे विषयों पर ध्यान ही नहीं देते थे। यहां तक की वे इतिहास, जीव विज्ञान की कक्षाओं में भी गणित के प्रश्नों को हल किया करते थे। नतीजा यह हुआ कि ग्यारहवीं कक्षा की परीक्षा में वे गणित को छोड़ कर बाकी सभी विषयों में फेल हो गए और परिणामस्वरूप उनको छात्रवृत्ति मिलनी बंद हो गई। एक तो घर की आर्थिक स्थिति खराब और ऊपर से छात्रवृत्ति भी नहीं मिल रही थी। रामानुजन के लिए यह बड़ा ही कठिन समय था। घर की स्थिति सुधारने के लिए इन्होने गणित के कुछ ट्यूशन तथा खाते-बही का काम भी किया। कुछ समय बाद 1907 में रामानुजन ने फिर से बारहवीं कक्षा की प्राइवेट परीक्षा दी और अनुत्तीर्ण हो गए। और इसी के साथ इनके पारंपरिक शिक्षा की इतिश्री हो गई।
आरंभ में रामानुजन ने जब अपने किए गए शोधकार्य को प्रोफेसर हार्डी के पास भेजा तो पहले उन्हें भी पूरा समझ में नहीं आया। जब उन्होंने अपने मित्र गणितज्ञों से सलाह ली तो वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि रामानुजन गणित के क्षेत्र में एक दुर्लभ व्यक्तित्व है और इनके द्वारा किए गए कार्य को ठीक से समझने और उसमें आगे शोध के लिए उन्हें इंग्लैंड आना चाहिए। अतः उन्होने रामानुजन को कैंब्रिज आने के लिए आमंत्रित किया।
रामानुजन ने लंदन की धरती पर कदम रखा। वहां प्रोफेसर हार्डी ने उनके लिए पहले से व्ववस्था की हुई थी अतः इन्हें कोई विशेष परेशानी नहीं हुई। इंग्लैण्ड में रामानुजन को बस थोड़ी परेशानी थी और इसका कारण था उनका शर्मीला, शांत स्वभाव और शुद्ध सात्विक जीवनचर्या। अपने पूरे इंग्लैण्ड प्रवास में वे अधिकांशतः अपना भोजन स्वयं बनाते थे। इंग्लैण्ड की इस यात्रा से उनके जीवन में क्रांतिकारी परिवर्तन आया। उन्होंने प्रोफेसर हार्डी के साथ मिल कर उच्चकोटि के शोधपत्र प्रकाशित किए। अपने एक विशेष शोध के कारण इन्हें कैंब्रिज विश्वविद्यालय द्वारा बी.ए. की उपाधि भी मिली। लेकिन वहां की जलवायु और रहन-सहन की शैली उनके अधिक अनुकूल नहीं थी और उनका स्वास्थ्य खराब रहने लगा। डॉक्टरों ने इसे क्षय रोग बताया। उस समय क्षय रोग की कोई दवा नहीं होती थी और रोगी को सेनेटोरियम मे रहना पड़ता था। रामानुजन को भी कुछ दिनों तक वहां रहना पड़ा। वहां इस समय भी यह गणित के सूत्रों में नई नई कल्पनाएं किया करते थे।
14 मार्च को मैथ डे के रूप में मनाया जाता है। मैथ डे मूल रूप से एक ऑनलाइन कम्प्टीशन था, जिसकी शुरुआत 2007 से हुई थी। इसी दिन पाई डे (Pi) भी मनाया जाता है, जिसका उपयोग हम मैथ में करते हैं। मैथ डे पर हम आपको बता रहे हैं एक ऐसे गणितज्ञ के बारे में, जिनका लोहा पूरी अमेरिका मानती है। इन्होंने कई ऐसे रिसर्च किए, जिनका अध्ययन आज भी अमेरिकी छात्र कर रहे हैं। हाल-फिलहाल डा वशिष्ठ नारायण सिंह मानसिक बीमारी सीजोफ्रेनिया से ग्रसित हैं। इसके बावजूद वे मैथ के फॉर्मूलों को सॉल्व करते रहते हैं।
इनकी गिनती दुनिया के महान गणितज्ञों में होती थी, लेकिन गरीबी की वजह से ये शख्स अब खुद में खोया रहता है।मानसिक बीमारी सीजोफ्रेनिया से जूझ रहे डा वशिष्ठ नारायण सिंह बिहार के भोजपुर जिले बसंतपुर के रहने वाले हैं। इनकी गिनती दुनिया के महान गणितज्ञों में होती थी, लेकिन गरीबी की वजह से ये शख्स अब खुद में खोया रहता है। आर्यभट्ट ने जहां जीरो देकर पूरी दुनिया को नई राह दिखाई थी। वहीं, अमेरिका में जाने के साथ ही ‘साइकिल वेक्टर स्पेश थ्योरी’ पर शोध कर डा वशिष्ठ ने पूरी दुनिया का ध्यान अपनी ओर खींचा था।
वशिष्ठ नारायण सिंह बेहद गरीब परिवार से आते हैं। लेकिन, प्रतिभा उनमें कूट-कूट कर भरी थी। उन्होंने नेतरहाट स्कूल में एडमिशन लिया और मैट्रिक की परीक्षा में पूरे बिहार में टॉप किया। वहीं साइंस कॉलेज से इंटर की परीक्षा में भी पूरे बिहार में अव्वल रहे
डा सिंह ने न सिर्फ आइंस्टिन के सिद्धांत E=MC2 को चैलेंज किया, बल्कि मैथ में रेयरेस्ट जीनियस कहा जाने वाला गौस की थ्योरी को भी उन्होंने चैलेंज किया था। लेकिन, बीमारी की वजह से कुछ भी नहीं हो सका।
अमेरिका में आज भी इनके शोध किए गए विषयों को पढ़ाया जाता है। भारत के लोग भले ही वशिष्ठ नारायण सिंह को नहीं जानते, लेकिन अमेरिका में इन्हें काफी सम्मान की नजर से देखा जाता है।
ऐसा कहा जाता है कि अपोलो मिशन के दौरान डा सिंह नासा में मौजूद थे, तभी गिनती करने वाले कम्प्यूटर में खराबी आ गई। ऐसे में कहा जाता है कि डा वशिष्ठ नारायण सिंह ने उंगलियों पर गिनती शुरू कर दी। बाद में साथी वैज्ञानिकों ने उनकी गिनती को सही माना था। लेकिन, इस बात की आधिकारिक रूप से कहीं भी पुष्टि नहीं है।
अमेरिका में पढ़ने का न्योता जब डा वशिष्ठ नारायण सिंह को मिला तो उन्होंने ग्रेजुएशन के तीन साल के कोर्स को महज एक साल में पूरा कर लिया था।
यह वशिस्ठ नारायण जी है जो पुरे भारतवर्ष में सबसे महान गणित के विद्वान् रहे! इन्होने अपने जीवनकाल में कंप्यूटर को मात दी थी! गणित की जो गणना कंप्यूटर करता था उससे कम समय में यह करके सामने रख देते थे! कई लोग इनको आइन्स्टीन से भी जाएदा प्रखर और विद्वान मानते थे! अमेरिकी नासा को जब इनके अदबुध दिमाग का पता चला तोह इनको कई सारे लुभावने अवसर देने की पेशकश की, जैसे की न्यूयौक में विशाल बंगला, गाडी, एक अच्छी सैलरी जैसा की वोह हर भारतीय विज्ञानिक को देके अपने पास बुलावा लेते है!
लेकिन इन्होने उन सभी लुभावने असवर को दरकिनार करते हुए कहा की मुझे मेरे देश की सेवा करनी है, मुझे जो कुछ भी मिला है वोह इस गाओ, समाज और देश ने दिया है और जब मुझे मौका मिला है तोह मैं इनकी सेवा करुगा ना की अमेरिका की!
बाद में इनका विवाह भी एक संपन्न घराने की स्त्री के साथ हुआ था जिनसे वोह बहुत अधिक प्रेम करते थे!
लेकिन अमेरिका को यह बात खली और उसने केंद्र की कांग्रेस सरकार और बिहार की कांग्रेस राज्य सरकार को निर्देश दिया की इनको जाएदा से जाएदा परेशान किया जाए!
आप जानते है कांग्रेस का देशविरोधी इतिहास, उसने यह काम बखूबी किया! जो भी रिसर्च वोह करते थे इनके जूनियर उस डेरी को फाड़ दिया करते थे! इनके चाय और पानी में इनको पागल करने की दवाई दी जाने लगी थी जिस वजह से यह धीरे धीरे भूलने लगे और इनको भूलने की बिमारी हो गई और बाद में यह पागल हो गए!
इनकी बीवी ने इनको छोर्ड दिया और यह वापस अपने माँ के पास पुराने घर आ गए! कई साल तक गुमनामी की ज़िन्दगी जीने के बाद इनको सड़क किनारे भीख मांगते हुए ढूंढा गया था जिसमे मेरे दादा जी भी थे, उन्होंने इनको पहचाना और सरकार की तरह से कुछ सुविधायें दिलवाई थी!
लेकिन यह आज भी पागल है और केंद्र और राज्य सरकार इनको कोई आर्थिक मदद नहीं देती!
लेकिन आज भी इनके जुबान पर अपनी पत्नी का नाम और भारत माता का नाम रह रह कर आता है!
इनको प्रणाम!
अखिलेश शर्मा!
श्रीनिवास रामानुजन्
श्रीनिवास रामानुजन् इयंगर (तमिल ஸ்ரீனிவாஸ ராமானுஜன் ஐயங்கார்) (22 दिसम्बर, 1887 – 26 अप्रैल, 1920) एक महान भारतीय गणितज्ञ थे। इन्हें आधुनिक काल के महानतम गणित विचारकों में गिना जाता है। इन्हें गणित में कोई विशेष प्रशिक्षण नहीं मिला, फिर भी इन्होंने विश्लेषण एवं संख्या सिद्धांत के क्षेत्रों में गहन योगदान दिए। इन्होंने अपने प्रतिभा और लगन से न केवल गणित के क्षेत्र में अद्भुत अविष्कार किए वरन भारत को अतुलनीय गौरव भी प्रदान किया।
ये बचपन से ही विलक्षण प्रतिभावान थे। इन्होंने खुद से गणित सीखा और अपने जीवनभर में गणित के 3,884 प्रमेयों का संकलन किया। इनमें से अधिकांश प्रमेय सही सिद्ध किये जा चुके हैं। इन्होंने गणित के सहज ज्ञान और बीजगणित प्रकलन की अद्वितीय प्रतिभा के बल पर बहुत से मौलिक और अपारम्परिक परिणाम निकाले जिनसे प्रेरित शोध आज तक हो रहा है, यद्यपि इनकी कुछ खोजों को गणित मुख्यधारा में अब तक नहीं अपनाया गया है। हाल में इनके सूत्रों को क्रिस्टल-विज्ञान में प्रयुक्त किया गया है। इनके कार्य से प्रभावित गणित के क्षेत्रों में हो रहे काम के लिये रामानुजन जर्नल की स्थापना की गई है।
आरंभिक जीवनकाल
रामानुजन का जन्म 22 दिसम्बर1887 को भारत के दक्षिणी भूभाग में स्थित कोयंबटूर के ईरोड नामके गांव में हुआ था। वह पारंपरिक ब्राह्मण परिवार में जन्मे थे। इनकी की माता का नाम कोमलताम्मल और इनके पिता का नाम श्रीनिवास अय्यंगर था। इनका बचपन मुख्यतः कुंभकोणम में बीता था जो कि अपने प्राचीन मंदिरों के लिए जाना जाता है। बचपन में रामानुजन का बौद्धिक विकास सामान्य बालकों जैसा नहीं था। यह तीन वर्ष की आयु तक बोलना भी नहीं सीख पाए थे। जब इतनी बड़ी आयु तक जब रामानुजन ने बोलना आरंभ नहीं किया तो सबको चिंता हुई कि कहीं यह गूंगे तो नहीं हैं। बाद के वर्षों में जब उन्होंने विद्यालय में प्रवेश लिया तो भी पारंपरिक शिक्षा में इनका कभी भी मन नहीं लगा। रामानुजन ने दस वर्षों की आयु में प्राइमरी परीक्षा में पूरे जिले में सबसे अधिक अंक प्राप्त किया और आगे की शिक्षा के लिए टाउन हाईस्कूल पहुंचे। रामानुजन को प्रश्न पूछना बहुत पसंद था। उनके प्रश्न अध्यापकों को कभी-कभी बहुत अटपटे लगते थे। जैसे कि-संसार में पहला पुरुष कौन था? पृथ्वी और बादलों के बीच की दूरी कितनी होती है? रामानुजन का व्यवहार बड़ा ही मधुर था। इनका सामान्य से कुछ अधिक स्थूल शरीर और जिज्ञासा से चमकती आखें इन्हें एक अलग ही पहचान देती थीं। इनके सहपाठियों के अनुसार इनका व्यवहार इतना सौम्य था कि कोई इनसे नाराज हो ही नहीं सकता था। विद्यालय में इनकी प्रतिभा ने दूसरे विद्यार्थियों और शिक्षकों पर छाप छोड़ना आरंभ कर दिया। इन्होंने स्कूल के समय में ही कालेज के स्तर के गणित को पढ़ लिया था। एक बार इनके विद्यालय के प्रधानाध्यापक ने यह भी कहा था कि विद्यालय में होने वाली परीक्षाओं के मापदंड रामानुजन के लिए लागू नहीं होते हैं। हाईस्कूल की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद इन्हें गणित और अंग्रेजी मे अच्छे अंक लाने के कारण सुब्रमण्यम छात्रवृत्ति मिली और आगे कालेज की शिक्षा के लिए प्रवेश भी मिला।आगे एक परेशानी आई। रामानुजन का गणित के प्रति प्रेम इतना बढ़ गया था कि वे दूसरे विषयों पर ध्यान ही नहीं देते थे। यहां तक की वे इतिहास, जीव विज्ञान की कक्षाओं में भी गणित के प्रश्नों को हल किया करते थे। नतीजा यह हुआ कि ग्यारहवीं कक्षा की परीक्षा में वे गणित को छोड़ कर बाकी सभी विषयों में फेल हो गए और परिणामस्वरूप उनको छात्रवृत्ति मिलनी बंद हो गई। एक तो घर की आर्थिक स्थिति खराब और ऊपर से छात्रवृत्ति भी नहीं मिल रही थी। रामानुजन के लिए यह बड़ा ही कठिन समय था। घर की स्थिति सुधारने के लिए इन्होने गणित के कुछ ट्यूशन तथा खाते-बही का काम भी किया। कुछ समय बाद 1907 में रामानुजन ने फिर से बारहवीं कक्षा की प्राइवेट परीक्षा दी और अनुत्तीर्ण हो गए। और इसी के साथ इनके पारंपरिक शिक्षा की इतिश्री हो गई।
औपचारिक शिक्षा की समाप्ति और संघर्ष का समय
विद्यालय छोड़ने के बाद का पांच वर्षों का समय इनके लिए बहुत हताशा भरा था। भारत इस समय परतंत्रता की बेड़ियों में जकड़ा था। चारों तरफ भयंकर गरीबी थी। ऐसे समय में रामानुजन के पास न कोई नौकरी थी और न ही किसी संस्थान अथवा प्रोफेसर के साथ काम करने का मौका। बस उनका ईश्वर पर अटूट विश्वास और गणित के प्रति अगाध श्रद्धा ने उन्हें कर्तव्य मार्ग पर चलने के लिए सदैव प्रेरित किया। नामगिरी देवी रामानुजन के परिवार की ईष्ट देवी थीं। उनके प्रति अटूट विश्वास ने उन्हें कहीं रुकने नहीं दिया और वे इतनी विपरीत परिस्थितियों में भी गणित के अपने शोध को चलाते रहे। इस समय रामानुजन को ट्यूशन से कुल पांच रूपये मासिक मिलते थे और इसी में गुजारा होता था। रामानुजन का यह जीवन काल बहुत कष्ट और दुःख से भरा था। इन्हें हमेशा अपने भरण-पोषण के लिए और अपनी शिक्षा को जारी रखने के लिए इधर उधर भटकना पड़ा और अनेक लोगों से असफल याचना भी करनी पड़ी।विवाह और गणित साधना
वर्ष 1908 में इनके माता पिता ने इनका विवाह जानकी नामक कन्या से कर दिया। विवाह हो जाने के बाद अब इनके लिए सब कुछ भूल कर गणित में डूबना संभव नहीं था। अतः वे नौकरी की तलाश में मद्रास आए। बारहवीं की परीक्षा उत्तीर्ण न होने की वजह से इन्हें नौकरी नहीं मिली और उनका स्वास्थ्य भी बुरी तरह गिर गया। अब डॉक्टर की सलाह पर इन्हें वापस अपने घर कुंभकोणम लौटना पड़ा। बीमारी से ठीक होने के बाद वे वापस मद्रास आए और फिर से नौकरी की तलाश शुरू कर दी। ये जब भी किसी से मिलते थे तो उसे अपना एक रजिस्टर दिखाते थे। इस रजिस्टर में इनके द्वारा गणित में किए गए सारे कार्य होते थे। इसी समय किसी के कहने पर रामानुजन वहां के डिप्टी कलेक्टर श्री वी. रामास्वामी अय्यर से मिले। अय्यर गणित के बहुत बड़े विद्वान थे। यहां पर श्री अय्यर ने रामानुजन की प्रतिभा को पहचाना और जिलाधिकारी श्री रामचंद्र राव से कह कर इनके लिए 25 रूपये मासिक छात्रवृत्ति का प्रबंध भी कर दिया। इस वृत्ति पर रामानुजन ने मद्रास में एक साल रहते हुए अपना प्रथम शोधपत्र प्रकाशित किया। शोध पत्र का शीर्षक था "बरनौली संख्याओं के कुछ गुण” और यह शोध पत्र जर्नल ऑफ इंडियन मैथेमेटिकल सोसाइटी में प्रकाशित हुआ था। यहां एक साल पूरा होने पर इन्होने मद्रास पोर्ट ट्रस्ट में क्लर्क की नौकरी की। सौभाग्य से इस नौकरी में काम का बोझ कुछ ज्यादा नहीं था और यहां इन्हें अपने गणित के लिए पर्याप्त समय मिलता था। यहां पर रामानुजन रात भर जाग कर नए-नए गणित के सूत्र लिखा करते थे और फिर थोड़ी देर तक आराम कर के फिर दफ्तर के लिए निकल जाते थे। रामानुजन गणित के शोधों को स्लेट पर लिखते थे। और बाद में उसे एक रजिस्टर में लिख लेते थे।रात को रामानुजन के स्लेट और खड़िए की आवाज के कारण परिवार के अन्य सदस्यों की नींद चौपट हो जाती थी।प्रोफेसर हार्डी के साथ पत्रव्यावहार
इस समय भारतीय और पश्चिमी रहन सहन में एक बड़ी दूरी थी और इस वजह से सामान्यतः भारतीयों को अंग्रेज वैज्ञानिकों के सामने अपने बातों को प्रस्तुत करने में काफी संकोच होता था। इधर स्थिति कुछ ऐसी थी कि बिना किसी अंग्रेज गणितज्ञ की सहायता लिए शोध कार्य को आगे नहीं बढ़ाया जा सकता था। इस समय रामानुजन के पुराने शुभचिंतक इनके काम आए और इन लोगों ने रामानुजन द्वारा किए गए कार्यों को लंदन के प्रसिद्ध गणितज्ञों के पास भेजा। पर यहां इन्हें कुछ विशेष सहायता नहीं मिली लेकिन एक लाभ यह हुआ कि लोग रामानुजन को थोड़ा बहुत जानने लगे थे। इसी समय रामानुजन ने अपने संख्या सिद्धांत के कुछ सूत्र प्रोफेसर शेषू अय्यर को दिखाए तो उनका ध्यान लंदन के ही प्रोफेसर हार्डी की तरफ गया। प्रोफेसर हार्डी उस समय के विश्व के प्रसिद्ध गणितज्ञों में से एक थे। और अपने सख्त स्वभाव और अनुशासन प्रियता के कारण जाने जाते थे। प्रोफेसर हार्डी के शोधकार्य को पढ़ने के बाद रामानुजन ने बताया कि उन्होने प्रोफेसर हार्डी के अनुत्तरित प्रश्न का उत्तर खोज निकाला है। अब रामानुजन का प्रोफेसर हार्डी से पत्रव्यवहार आरंभ हुआ। अब यहां से रामानुजन के जीवन में एक नए युग का सूत्रपात हुआ जिसमें प्रोफेसर हार्डी की बहुत बड़ी भूमिका थी। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो जिस तरह से एक जौहरी हीरे की पहचान करता है और उसे तराश कर चमका देता है, रामानुजन के जीवन में वैसा ही कुछ स्थान प्रोफेसर हार्डी का है। प्रोफेसर हार्डी आजीवन रामानुजन की प्रतिभा और जीवन दर्शन के प्रशंसक रहे। रामानुजन और प्रोफेसर हार्डी की यह मित्रता दोनो ही के लिए लाभप्रद सिद्ध हुई। एक तरह से देखा जाए तो दोनो ने एक दूसरे के लिए पूरक का काम किया। प्रोफेसर हार्डी ने उस समय के विभिन्न प्रतिभाशाली व्यक्तियों को 100 के पैमाने पर आंका था। अधिकांश गणितज्ञों को उन्होने 100 में 35 अंक दिए और कुछ विशिष्ट व्यक्तियों को 60 अंक दिए। लेकिन उन्होंने रामानुजन को 100 में पूरे 100 अंक दिए थे।आरंभ में रामानुजन ने जब अपने किए गए शोधकार्य को प्रोफेसर हार्डी के पास भेजा तो पहले उन्हें भी पूरा समझ में नहीं आया। जब उन्होंने अपने मित्र गणितज्ञों से सलाह ली तो वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि रामानुजन गणित के क्षेत्र में एक दुर्लभ व्यक्तित्व है और इनके द्वारा किए गए कार्य को ठीक से समझने और उसमें आगे शोध के लिए उन्हें इंग्लैंड आना चाहिए। अतः उन्होने रामानुजन को कैंब्रिज आने के लिए आमंत्रित किया।
विदेश गमन
कुछ व्यक्तिगत कारणों और धन की कमी के कारण रामानुजन ने प्रोफेसर हार्डी के कैंब्रिज के आमंत्रण को अस्वीकार कर दिया। प्रोफेसर हार्डी को इससे निराशा हुई लेकिन उन्होनें किसी भी तरह से रामानुजन को वहां बुलाने का निश्चय किया। इसी समय रामानुजन को मद्रास विश्वविद्यालय में शोध वृत्ति मिल गई थी जिससे उनका जीवन कुछ सरल हो गया और उनको शोधकार्य के लिए पूरा समय भी मिलने लगा था। इसी बीच एक लंबे पत्रव्यवहार के बाद धीरे-धीरे प्रोफेसर हार्डी ने रामानुजन को कैंब्रिज आने के लिए सहमत कर लिया। प्रोफेसर हार्डी के प्रयासों से रामानुजन को कैंब्रिज जाने के लिए आर्थिक सहायता भी मिल गई। रामानुजन ने इंग्लैण्ड जाने के पहले गणित के करीब 3000 से भी अधिक नये सूत्रों को अपनी नोटबुक में लिखा था।रामानुजन ने लंदन की धरती पर कदम रखा। वहां प्रोफेसर हार्डी ने उनके लिए पहले से व्ववस्था की हुई थी अतः इन्हें कोई विशेष परेशानी नहीं हुई। इंग्लैण्ड में रामानुजन को बस थोड़ी परेशानी थी और इसका कारण था उनका शर्मीला, शांत स्वभाव और शुद्ध सात्विक जीवनचर्या। अपने पूरे इंग्लैण्ड प्रवास में वे अधिकांशतः अपना भोजन स्वयं बनाते थे। इंग्लैण्ड की इस यात्रा से उनके जीवन में क्रांतिकारी परिवर्तन आया। उन्होंने प्रोफेसर हार्डी के साथ मिल कर उच्चकोटि के शोधपत्र प्रकाशित किए। अपने एक विशेष शोध के कारण इन्हें कैंब्रिज विश्वविद्यालय द्वारा बी.ए. की उपाधि भी मिली। लेकिन वहां की जलवायु और रहन-सहन की शैली उनके अधिक अनुकूल नहीं थी और उनका स्वास्थ्य खराब रहने लगा। डॉक्टरों ने इसे क्षय रोग बताया। उस समय क्षय रोग की कोई दवा नहीं होती थी और रोगी को सेनेटोरियम मे रहना पड़ता था। रामानुजन को भी कुछ दिनों तक वहां रहना पड़ा। वहां इस समय भी यह गणित के सूत्रों में नई नई कल्पनाएं किया करते थे।
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