इसाई धर्म की दीवार में औरतें
आर एल फ्रांसिस
हर साल महिला असुरक्षा को लेकर ‘अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस’ पर जोरदार भाषण होते हैं. वहीं महिला अस्मिता को लेकर सरकारे भी लम्बे-चौड़े वायदे कर अपनी दरयादिली दिखाने में पीछे नही रहती. तमाम कोशिशों और कानूनों के बावजूद इस बात को लेकर आशंका बनी रहती है कि घर के अंदर और बाहर महिलाओं की स्थिति में कोई बड़ा फर्क आएगा. यह सब इसलिए है क्योंकि महिलाओं की सुरक्षा का मुद्दा बहुत जटिल है और यह तभी हल होगा, जब हम समाज और परंपरा से लेकर कानून व्यवस्था की जड़ता को खत्म नहीं कर लेते.
यह शायद टूट भी जाए लेकिन उन करोड़ों महिलाओं का क्या होगा, जो धार्मिक रीति रिवाजों और परंपराओं की एक अटूट डोर से बंधी हुई हैं और सात पर्दों में ढके हुए उनके जीवन पर कोई चर्चा ही नही करना चाहता. ऐसी महिलाओं की संख्या दुनिया में लाखों में है. कहीं वह छोटे धार्मिक समूहों में है और कहीं कैथोलिक चर्च की विशाल व्यवस्था में. उनमें से अधिकतर के सामने गंभीर चुनौतियां हैं. ऐसी व्यवस्था में उनके लिए अंदर जाने का रास्ता तो होता है लेकिन बाहर आने के सभी दरवाजें बंद कर दिए गए हैं. इस कारण ज्यादातर मानसिक बीमारियों की जकड़न में हैं.
चार साल पहले केरल की एक कैथोलिक नन सिस्टर जेस्मी की आत्मकथा ‘आमीन’ ने कैथोलिक चर्च के दमघोंटू माहौल और धर्म के आडंबर की आड़ में जारी दुराचारों को समाज के सामने लाने का काम किया. तीन साल पहले केरल के कोल्लम जिले की एक कैथोलिक नन अनुपा मैरी की आत्महत्या ने चर्च की कार्यप्रणाली पर ढेरों सवाल खड़े कर दिये थे. इसके पहले सिस्टर अभया ने भी अनुपा मैरी वाला रास्ता चुना था और इन दोनों की लाशें कान्वेंट में ही पाई गई थीं.
अनुपा मैरी ने अपने सुसाइड नोट में साफ लिखा था कि उसे यह रास्ता इसलिए अपनाना पड़ा क्योंकि कान्वेंट में उसका मानसिक उत्पीड़न किया जा रहा था. नन के पिता ने चर्च व्यवस्था पर गंभीर आरोप लगाते हुए कहा था कि उसकी पुत्री का यौन शोषण किया जा रहा था और उसने अपनी तकलीफ को अपनी मां और बहन के साथ साझा किया था.
केरल के कन्नूर जिले की एक और नन सिस्टर मैरी चांडी ने ‘स्वास्ति’ नामक आत्मकथा लिखकर चर्च के अंदर घुट-घुट कर मरती ननों पर बहस को आगे बढ़ाने का काम किया है. सिस्टर मैरी चांडी ने बंद दरवाजों के अंदर यौन कुंठाओं के शिकार अपने ही सहयोगी पादरियों तथा अन्य अधिकारियों के व्यवहारों की व्याख्या के साथ देह की पवित्रता बनाए रखने के नाम पर ननों के लिए गढ़े गए आडंबरों की पोल खोल दी है.
यह दोनों महिलाएं 52 साल की सिस्टर जेसमी और 67 साल की सिस्टर मैरी चांडी कोई साधारण महिलाएं नही हैं. वह पिछले तीस वर्षों से कैथोलिक चर्च के विभिन्न संस्थाओं में अवैतनिक सेवा कर रही हैं. सिस्टर जेसमी अंग्रेजी साहित्य में परास्नातक हैं और अगस्त 2008 तक वह त्रिसूर में चर्च द्वारा चलाए जाने वाले एक कालेज की प्राचार्या थीं. तीन दशक तक चर्च की सेवा करने के बाद उन्होंने चर्च के अंदर ननों के साथ होने वाले अनाचार का राज खोलने का साहस दिखाया है.
हाल ही में आयरलैंड में गर्भपात को लेकर एक बहस दुनिया भर में चली और बंद भी हो गई. क्योंकि वेटिकन- कैथोलिक चर्च ने इसमें कोई छूट देने से मना कर दिया क्योंकि चर्च नहीं चाहता कि धार्मिक कायद-कानूनों में कोई बदलाव किया जाए. जहां तक कैथोलिक ननों का सवाल है तो खुद पोप भी मानते हैं कि दस में से एक नन मानसिक रुप से परेशान होती है और उसे इलाज की जरुरत है.
व्यवस्था के विरुद्व आवाज उठाने वालों को रिट्रीट सैंटर में भेजने और पागल करार देकर इलाज के नाम पर एक अंतहीन शोषण का सिलसिला शुरु किया जाता है (इनमें पादरी और नन दोनो होते हैं), जहां उनकी मर्जी के विरुद्व जबरदस्ती उनका इलाज किया जाता है, जो एक नर्क से कम नही होता.
ऐसे मामले यह दर्शाते हैं कि धर्म की आड़ में बहुत कुछ ऐसा चल रहा है, जिसे उत्पीड़न की हद भी कहा जा सकता है लेकिन इसमें पीड़ितों की सुनवाई कहीं नहीं है. उम्मीद की जानी चाहिए कि दूसरों को मानवाधिकार का पाठ पढ़ाने वाले खुद भी इन्हें अपने काम के तरीकों में अपनायेंगे. देश में केरल ही एक ऐसा राज्य है, जहां से सबसे ज्यादा नन और पादरी आते हैं. एक लाख चालीस हजार ननों में से हर तीसरी नन केरल से आती है. ऐसे ही आंकड़े पादरियों के बारे में भी मिलते हैं.
वेटिकन के एक अध्ययन के मुताबिक सैमनरियों में पादरी तथा नन बनने के दौरान दस में से केवल चार पुरुप ही इस पेशे में टिक पाते हैं तथा बाकी अपने स्वाभाविक जीवन में लौट जाते हैं जबकि महिलाएं बहुत कम संख्या में वापिस लौट पाती हैं. इसकी वजह यह है कि महिलाओं पर परिवारिक और सामाजिक दबाव बहुत ज्यादा होता है, इसलिए वह चाहकर भी वापिस नहीं लौट पातीं.
केरल के कुछ चर्च सुधार समर्थक ईसाइयों की तरफ से कुछ साल पहले राज्य महिला आयोग से मांग की गई कि नन बनने की न्यूनतम आयु तय की जाए क्योंकि विश्वासी परिवार छोटी बच्चियों को ही नन बनने के लिए भेज देते हैं, जबकि वह खुद फैसला लेने में सक्षम नहीं होतीं.
नन बन चुकी लड़कियों का परिवारिक संपत्ति में अधिकार नहीं रहता. एक तरह से वह परिवारों से बेदखल कर दी जाती हैं. आयोग ने उस समय की वाम-मोर्चा सरकार से कई सिफारिशें की. आयोग ने कहा कि जो मां-बाप अपनी बेटी को नन बनने के लिए मजबूर करते हैं, उन पर कानूनी कार्रवाही की जानी चाहिए. ननों की संपति से बेदखली रोकी जानी चाहिए, अगर कोई नन वापिस लौटना चाहें तो उसके पुनर्वास की व्यवस्था की जानी चाहिए.
आयोग ने सरकार से सिफारिश की कि वह एक जांच करवाये, जिसमें यह पता चल सके कि कितनी नाबालिग बच्चियों को नन बनने के लिए बाध्य किया गया और कितनी ननें ऐसी हैं, जो सामाजिक जीवन में लौटना चाहती हैं. लेकिन चर्च के दबाव में किसी भी सरकार ने इस मामले में दखल देना जरुरी नहीं समझा.
चर्च के अधिकारियों ने केरल महिला आयोग के सुझावों को गैरजरुरी तथा अपने धार्मिक अधिकारों में हस्तक्षेप करार देते हुए कहा कि यह केवल सुझाव है और इसे मानने या न मानने के लिए हम आजाद हैं. धर्मसम्मत नियम उन ननों पर ‘दया दिखाने’ को कहता है, जो नन होने का परित्याग कर चुकी हों. अध्ययन बताते हैं कि एक चौथाई से भी ज्यादा ननें अपने धार्मिक जीवन से असंतुष्ट हैं.
कार्डिनल वार्की विथायथिल ने अपनी जीवनी ‘स्ट्रेट फ्रॉम द हार्ट आई’ में माना है कि ननें जिन ‘दयनीय परिस्थितियों में रहती हैं,’ अब उन्हें उससे मुक्त करने का समय आ गया है. मेरा मानना है कि हमारी ननें काफी हद तक आजाद स्त्रियां नही हैं.’ वैसे महिलाओं को न्याय देने में आनाकानी करने में केवल चर्च ही नहीं, दूसरे धार्मिक संस्थानों का रुख भी वैसा ही है और इन पर भी बात करने की जरुरत है.
http://raviwar.com/news/ 844_church-nun-sex-women-rl -frencies.shtml
आर एल फ्रांसिस
हर साल महिला असुरक्षा को लेकर ‘अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस’ पर जोरदार भाषण होते हैं. वहीं महिला अस्मिता को लेकर सरकारे भी लम्बे-चौड़े वायदे कर अपनी दरयादिली दिखाने में पीछे नही रहती. तमाम कोशिशों और कानूनों के बावजूद इस बात को लेकर आशंका बनी रहती है कि घर के अंदर और बाहर महिलाओं की स्थिति में कोई बड़ा फर्क आएगा. यह सब इसलिए है क्योंकि महिलाओं की सुरक्षा का मुद्दा बहुत जटिल है और यह तभी हल होगा, जब हम समाज और परंपरा से लेकर कानून व्यवस्था की जड़ता को खत्म नहीं कर लेते.
यह शायद टूट भी जाए लेकिन उन करोड़ों महिलाओं का क्या होगा, जो धार्मिक रीति रिवाजों और परंपराओं की एक अटूट डोर से बंधी हुई हैं और सात पर्दों में ढके हुए उनके जीवन पर कोई चर्चा ही नही करना चाहता. ऐसी महिलाओं की संख्या दुनिया में लाखों में है. कहीं वह छोटे धार्मिक समूहों में है और कहीं कैथोलिक चर्च की विशाल व्यवस्था में. उनमें से अधिकतर के सामने गंभीर चुनौतियां हैं. ऐसी व्यवस्था में उनके लिए अंदर जाने का रास्ता तो होता है लेकिन बाहर आने के सभी दरवाजें बंद कर दिए गए हैं. इस कारण ज्यादातर मानसिक बीमारियों की जकड़न में हैं.
चार साल पहले केरल की एक कैथोलिक नन सिस्टर जेस्मी की आत्मकथा ‘आमीन’ ने कैथोलिक चर्च के दमघोंटू माहौल और धर्म के आडंबर की आड़ में जारी दुराचारों को समाज के सामने लाने का काम किया. तीन साल पहले केरल के कोल्लम जिले की एक कैथोलिक नन अनुपा मैरी की आत्महत्या ने चर्च की कार्यप्रणाली पर ढेरों सवाल खड़े कर दिये थे. इसके पहले सिस्टर अभया ने भी अनुपा मैरी वाला रास्ता चुना था और इन दोनों की लाशें कान्वेंट में ही पाई गई थीं.
अनुपा मैरी ने अपने सुसाइड नोट में साफ लिखा था कि उसे यह रास्ता इसलिए अपनाना पड़ा क्योंकि कान्वेंट में उसका मानसिक उत्पीड़न किया जा रहा था. नन के पिता ने चर्च व्यवस्था पर गंभीर आरोप लगाते हुए कहा था कि उसकी पुत्री का यौन शोषण किया जा रहा था और उसने अपनी तकलीफ को अपनी मां और बहन के साथ साझा किया था.
केरल के कन्नूर जिले की एक और नन सिस्टर मैरी चांडी ने ‘स्वास्ति’ नामक आत्मकथा लिखकर चर्च के अंदर घुट-घुट कर मरती ननों पर बहस को आगे बढ़ाने का काम किया है. सिस्टर मैरी चांडी ने बंद दरवाजों के अंदर यौन कुंठाओं के शिकार अपने ही सहयोगी पादरियों तथा अन्य अधिकारियों के व्यवहारों की व्याख्या के साथ देह की पवित्रता बनाए रखने के नाम पर ननों के लिए गढ़े गए आडंबरों की पोल खोल दी है.
यह दोनों महिलाएं 52 साल की सिस्टर जेसमी और 67 साल की सिस्टर मैरी चांडी कोई साधारण महिलाएं नही हैं. वह पिछले तीस वर्षों से कैथोलिक चर्च के विभिन्न संस्थाओं में अवैतनिक सेवा कर रही हैं. सिस्टर जेसमी अंग्रेजी साहित्य में परास्नातक हैं और अगस्त 2008 तक वह त्रिसूर में चर्च द्वारा चलाए जाने वाले एक कालेज की प्राचार्या थीं. तीन दशक तक चर्च की सेवा करने के बाद उन्होंने चर्च के अंदर ननों के साथ होने वाले अनाचार का राज खोलने का साहस दिखाया है.
हाल ही में आयरलैंड में गर्भपात को लेकर एक बहस दुनिया भर में चली और बंद भी हो गई. क्योंकि वेटिकन- कैथोलिक चर्च ने इसमें कोई छूट देने से मना कर दिया क्योंकि चर्च नहीं चाहता कि धार्मिक कायद-कानूनों में कोई बदलाव किया जाए. जहां तक कैथोलिक ननों का सवाल है तो खुद पोप भी मानते हैं कि दस में से एक नन मानसिक रुप से परेशान होती है और उसे इलाज की जरुरत है.
व्यवस्था के विरुद्व आवाज उठाने वालों को रिट्रीट सैंटर में भेजने और पागल करार देकर इलाज के नाम पर एक अंतहीन शोषण का सिलसिला शुरु किया जाता है (इनमें पादरी और नन दोनो होते हैं), जहां उनकी मर्जी के विरुद्व जबरदस्ती उनका इलाज किया जाता है, जो एक नर्क से कम नही होता.
ऐसे मामले यह दर्शाते हैं कि धर्म की आड़ में बहुत कुछ ऐसा चल रहा है, जिसे उत्पीड़न की हद भी कहा जा सकता है लेकिन इसमें पीड़ितों की सुनवाई कहीं नहीं है. उम्मीद की जानी चाहिए कि दूसरों को मानवाधिकार का पाठ पढ़ाने वाले खुद भी इन्हें अपने काम के तरीकों में अपनायेंगे. देश में केरल ही एक ऐसा राज्य है, जहां से सबसे ज्यादा नन और पादरी आते हैं. एक लाख चालीस हजार ननों में से हर तीसरी नन केरल से आती है. ऐसे ही आंकड़े पादरियों के बारे में भी मिलते हैं.
वेटिकन के एक अध्ययन के मुताबिक सैमनरियों में पादरी तथा नन बनने के दौरान दस में से केवल चार पुरुप ही इस पेशे में टिक पाते हैं तथा बाकी अपने स्वाभाविक जीवन में लौट जाते हैं जबकि महिलाएं बहुत कम संख्या में वापिस लौट पाती हैं. इसकी वजह यह है कि महिलाओं पर परिवारिक और सामाजिक दबाव बहुत ज्यादा होता है, इसलिए वह चाहकर भी वापिस नहीं लौट पातीं.
केरल के कुछ चर्च सुधार समर्थक ईसाइयों की तरफ से कुछ साल पहले राज्य महिला आयोग से मांग की गई कि नन बनने की न्यूनतम आयु तय की जाए क्योंकि विश्वासी परिवार छोटी बच्चियों को ही नन बनने के लिए भेज देते हैं, जबकि वह खुद फैसला लेने में सक्षम नहीं होतीं.
नन बन चुकी लड़कियों का परिवारिक संपत्ति में अधिकार नहीं रहता. एक तरह से वह परिवारों से बेदखल कर दी जाती हैं. आयोग ने उस समय की वाम-मोर्चा सरकार से कई सिफारिशें की. आयोग ने कहा कि जो मां-बाप अपनी बेटी को नन बनने के लिए मजबूर करते हैं, उन पर कानूनी कार्रवाही की जानी चाहिए. ननों की संपति से बेदखली रोकी जानी चाहिए, अगर कोई नन वापिस लौटना चाहें तो उसके पुनर्वास की व्यवस्था की जानी चाहिए.
आयोग ने सरकार से सिफारिश की कि वह एक जांच करवाये, जिसमें यह पता चल सके कि कितनी नाबालिग बच्चियों को नन बनने के लिए बाध्य किया गया और कितनी ननें ऐसी हैं, जो सामाजिक जीवन में लौटना चाहती हैं. लेकिन चर्च के दबाव में किसी भी सरकार ने इस मामले में दखल देना जरुरी नहीं समझा.
चर्च के अधिकारियों ने केरल महिला आयोग के सुझावों को गैरजरुरी तथा अपने धार्मिक अधिकारों में हस्तक्षेप करार देते हुए कहा कि यह केवल सुझाव है और इसे मानने या न मानने के लिए हम आजाद हैं. धर्मसम्मत नियम उन ननों पर ‘दया दिखाने’ को कहता है, जो नन होने का परित्याग कर चुकी हों. अध्ययन बताते हैं कि एक चौथाई से भी ज्यादा ननें अपने धार्मिक जीवन से असंतुष्ट हैं.
कार्डिनल वार्की विथायथिल ने अपनी जीवनी ‘स्ट्रेट फ्रॉम द हार्ट आई’ में माना है कि ननें जिन ‘दयनीय परिस्थितियों में रहती हैं,’ अब उन्हें उससे मुक्त करने का समय आ गया है. मेरा मानना है कि हमारी ननें काफी हद तक आजाद स्त्रियां नही हैं.’ वैसे महिलाओं को न्याय देने में आनाकानी करने में केवल चर्च ही नहीं, दूसरे धार्मिक संस्थानों का रुख भी वैसा ही है और इन पर भी बात करने की जरुरत है.
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