गुरुवार, दिसंबर 29, 2011

(हिन्दुस्तान का पहला सबसे बड़ा लेख) हिन्दुस्तान का आइना

(हिन्दुस्तान का पहला सबसे बड़ा लेख)

हिन्दुस्तान का आइना

ये लेख नहीं कई महीनो की मेहनत के पश्चात कड़े परिश्रम से तैयार किया वो सच हैं जो आपकी आँखे खोल देगा l दोस्तों ये लेख आपके सभी प्रशनो के का जवान देगा और जान पाएंगे असल में हिन्दुस्तान हैं क्या ...? शुरुवात की दस लाइनों से ही ये लेख आपको बाध्य कर देगा इसे पूर्ण पढने पर l

तो आओ शुरू करते हैं कैसे हिन्दुस्तानियों पर जुल्म हुए और ये नेहरु और गांधी ने क्या कुकर्म किये l

“पुरे विशव को अँधेरी गुफा से निकालकर सूर्य की रश्मि में भिगोने वाले, जो चरों पैरों पर घुडकना सिख रहे थे उन्हें ऊँगली पकड़कर चलना सिखाने वाले हम भारतियों को आज अपने भारतीय होने पर शर्म महसूस होता हैं, हिन् भावना से ग्रसित होकर जीवन जी रहे हैं हमसब........ तभी तो हम भारतीय अपना तर्कसंगत नया साल को छोड़कर अंग्रेजो का नया साल मानते हैं जिसका कोई आधार ही नहीं हैं., हम पूजा-पाठ, यज्ञ-हवन, दान-पुण्य कर घी के दिए को जलाकर अपना जन्म-दिवस मानाने की परंपरा को छोड़कर अंडे से बने गंदे केक पर थूककर बेहूदा और गन्दी परंपरा को बड़े गर्व के साथ निभा रहे हैं, अपनी स्वास्थ्यकर चीजों को छोड़कर रोगों को बुलावा देने वाले चीजो को खाना अपना शान समझते हैं, अपनी मातृभाषा में बात करने में हम अपने आप को अपमानित महसूस करते हैं और उस भाषा को बोलने में गर्व महसूस करते हैं जिसके विद्वानों को खुद उस भाषा के बारे में पता नहीं, खुद उसे अपनी सभ्यता-संस्कृति के इतिहास की कोई जानकारी नहीं और जो हमारे यहाँ के किसी बच्चे से भी कम बुद्धि रखता हैं ........ अगर विश्वास नहीं होता तो किसी इसी से पूछकर देखिये तो की उनके आराधना-स्थल का नाम चर्च क्यों पड़ा.......? क्रिसमस का अर्थ क्या हैं ....? और क्रिसमस को एक्समस (X-mas) क्यों कहा जाता हैं..... ? हम लोगो के तो संस्कृत या हिंदी के प्रत्येक शब्द का अर्थ हैं क्योंकि सब संस्कृत के मूल धातु से उत्पन्न हुआ हैं ........... क्रिसमस को अगर ईसा के जन्मदिवस के रूप में मनाया जाता हैं तो फिर क्रिसमस में तो जन्मदिन जैसा कोई अर्थ नहीं है और उनके जन्म को लेकर ईसाई विद्वानों में ही मतभेद हैं.... और उनके जन्म को 4 ईसा पूर्व बताते हैं तो कोई कुछ......... और ठीक हैं अगर मान लीजिये कि 25 दिसंबर को ही ईसा का जन्म हुआ था तो अपना नया साल एक सप्ताह बाद क्यों ...? आपको तो नया साल का शुरुआत उसी दिन से करना चाहिए था …. ! कोई जवाब नहीं हैं उनके पास लेकिन हमारे पास हैं .... और जिन शब्दों का अर्थ उन्हें नहीं मालुम वो हमें हैं वो इसलिए कि लहरें नदी के जितना विशाल नहीं हो सकती ........ एक और प्रशन कि वो लोग अपना अगला दिन और तिथि रात के 12 बजे उठकर क्यों बदलते हैं जबकि दिन तो सूर्योदय के बाद होता हैं..............

तनिक विचार कीजिये कि अंग्रेजी में सेप्ट (Sept) 7 के लिए प्रयुक्त होता हैं Oct आठ के लिए Deci दस के लिए तो फिर September, October, November & December क्रमश:

नौवा, दसवां, ग्यारहवा और बारहवां महिना कैसे हो गया ........?? सितम्बर को तो सातवाँ महिना होना चाहिए फिर वो बारहवां महीना क्यों और कैसे ........? कभी सोचा आपने ........!!

इसका कारण ये हैं कि 1752 ई0 तक इंग्लैण्ड में मार्च ही पहला महीना हुआ करता था और उसी गणित से 7वां महीना सितम्बर और दसवां महीना दिसंबर था लेकिन १७५२ के बाद जब शुरूआती महीना जनवरी को बनाया गया तब से साड़ी व्यवस्थाये बिगड़ी...तो अब समझे कि क्रिसमस को (X-mas) क्यों कहते हैं .... ! "x जो रोमन लिपि में दस का संकेत हैं और "mas" यानी मॉस, यानी दसवां महीना........ उस समय दिसंबर दसवां महीना था जिस कारण इसका X-mas नाम पड़ा......... और मार्च पहला महीना इसलिए होता था क्योंकि भारतीय लोग इसी महीने में अपना नववर्ष मानते थे और अभी भी मानते हैं .... तो सोचिये कि हम लोग बसंत जैसे खुशाल समय जिसमे पैड-पौधे, फुल पत्ते साड़ी प्रकृति एक नए रंग में रंग जाती हैं और अपना नववर्ष मानती हैं उसे छोड़कर जनवरी जैसे ठन्डे, दुखदायी और पतझड़ के मौसम में अपना नयासाल मानकर हम लोग कितने बेवकूफ बनते हैं ..... सितम्बर यानी सप्त अम्बर यानी आकश का सातवां भाग...... भारतियों ने आकाश को बारह भागों में बाँट रखा था जिसका सातवा, आठवां, नौवां और दसवां भाग के आधार पर ये चरों नाम हैं...... तो अब समझे कि इन चार महीनो का नाम सेप्टेम्बर, अक्तूबर, नवम्बर और दिसंबर क्यों हैं.....l

संस्कृत में ७ को सप्त कहा जाता हैं तो अंग्रेजी में सेप्ट, अष्ट को ओक्ट, दस को डेसी.......अंग्रेज लोग "त" का उच्चारण "ट" और "द" का "ड" करते हैं इसलिए सप्त सेप्ट और दस डेश बन गया ..... तो इतनी समानता क्यों.....?? आप समझ चुके होंगे कि मैं किस और इशारा कर रहा हूँ .......! अगर अभी भी अस्पष्ट हैं तो चिंता कि बात नहीं आगे स्पष्ट हो जाएगा .........

चलिए पहले हम बात कर रहे थे अपने हीन भावना कि तो इसी की बात कर लेते हैं ........ हमारे देशवासियों की अगर ऐसी मानसिकता बन गयी हैं तो इसमें उनका भी कोई दोष नहीं हैं .... भारतियों को रुग्न मानसिकता वाले और हीन भावना से भरने का चाल तो १७३१ से ही चला जा रहा हैं जबसे यहाँ अंग्रेजी शिक्षा लागू हुई............ अंग्रेजी शिक्षा का मुख्य उद्द्येश्य ही यहीं था कि भारतियों को पराधीन मानसिकता वाला बना दिया जाए ताकि वो हमेशा अंग्रेजों के तलवे चाटते रहे... यहाँ के लोगो का के नारियों का नैतिक पतन हो जाए, भारतीय कभी अपने पूर्वजों पर गर्व ना कर सके, वो बस यहीं समझते रहे कि अंग्रेजो के आने से पहले वो बिलकुल असभ्य था उसके पूर्वज अन्धविश्वासी और रुढ़िवादी थे, अगर अंग्रेज ना आये होते तो हम कभी तरक्की नहीं कर पाते... इसी तर्ज पर उन्होंने शिक्षा-व्यवस्था लागू कि थी और सफल हो भी गए .............. और ये हमारा दुर्भाग्य ही हैं आज़ादी के बाद भी हमारा देश का नेत्रित्व किसी योग्य भारतीय के हाँथ में जाने के बजे नेहरु जैसे विकृत, बिलकुल दुर्बल इर रोगी मानसिकता वाले व्यक्ति के हाँथ में चला गया जो सिर्फ नाम से भारतीय था पर मनन और कर्म से तो वो बिलकुल अंग्रेज ही था.... बल्कि उनसे चार कदम आगे ही था........ ऐसा व्यक्ति था जो सुभाष चन्द्र बोस, भगत सिंह, वीर सावरकर और बाल गंगाधर तिलक जैसे हमारे देश भक्तों से नफरत करता था क्योंकि उसकी नजरों में वो लोग मजहबी थे ... उसकी नजर में राष्ट्रवादी होना मजहबी होना था. वो समझता था कि भारतीय बहुत खुशनसीब हैं जो उनके ऊपर गोरे शासन कर रहे हैं, क्योंकि इससे असभ्य भारतीय सभ्य बनेंगे......... उसकी ऐसी मानसिकता का कारण ये था कि उसने भारतीय शिक्षा कभी ली ही नहीं थी l अपनी पूरी शिक्षा उसने विदेश से प्राप्त की थी जिसका ये परिणाम निकला था.... चरित्र ऐसा की बुढ़ारी में इश्कबाजी करना नहीं छोड़े जब उनकी कमर छुक गयी थी और छड़ी के सहारे चलते थे........ भारत के अंतिम वायसराय की पत्नी एडविन माउन्टबेटेन के साथ उनकी रंगरेलियां जग-जाहिर हैं जिसका विस्तृत वर्णन एडविन की बेटी पामेला ने अपनी पुस्तक "India remembered" में किया हैं .....पामेला के पास नेहरु द्वारा उसकी माँ को बक्सा भर-भरकर लिखे गए लव-लेटर्स भी हैं ... वो तो भला हो हमारे लौह पुरुष सरदार बल्लभ भाई पटेल का जिसके कारण आज कश्मीर भारत में हैं नहीं तो पंडित जी ने तो इसे अपने प्यार पर कुर्बान कर ही दिया था ....... और उस लौह पुरुष को भी महात्मा कहे जाने वाले गाँधी ने इतना अपमानित किया था कि बेचारे के आँखों से आंसू चालक पड़े थे .. सच्ची बात तो ये थी कि कश्मीर भारत में रहे या पाकिस्तान में इससे इन दोनों (नेहरु,गांधी) को कोई फर्क नहीं पड़ता था ....... लोग समझते हैं कि अंग्रेजो ने 1947 में भारत को आजाज़ कर दिया था पर सच्चाई ये नहीं हैं.. सच्चाई यह हैं कि उसने नेहरु के रूप में अपना नुमायिन्दा यहाँ छोड़ दिया था.... वो जानता था कि उसका नुमाईन्दा उससे भी ज्यादा निपुणता से भारत देश को बर्बाद करने काम करेगा..... और सच में उसका नुमाईन्दा उसकी आशा से ज्यादा ही खरा उतरा ......नेहरु (सीधी-सीधी कहूँ तो पुरे कांग्रेसियों का) का ही ये प्रभाव हैं कि आज तक मानसिक रूप से आज़ाद नहीं हो पाए अंग्रेजों से हमारी स्थिति इतनी दयनीय हो चुकी हैं कि अमृत भी मिल जाए तो पहले अंग्रेजों से पूछने जायेंगे कि इसे पिए कि नहीं......... अगर कोई विषैला पदार्थ भी मिल गया तो पहले हम अंग्रेजों से ही पूछेंगे कि इसे त्यागना चाहिए या पि लेना चाहिए........... और जिस अंग्रेजों ने आजतक हमलोगों से नफरत कि कभी हमलोगों कि तरक्की सह नहीं पाए, क्या लगता हैं कि वो हमें हमारे भले कि सलहा देंगे .....? पुरे विश्व को सभ्यता हमने सिखाई और आज हम उनसे सभ्यता सिख रहे हैं ..........ध्यान-साधना, योग, आयुर्वेद, ये सारी अनमोल चीजे हमारी विरासत थी लेकिन अंग्रेजों ने हम लोगो के मन में बैठा दिया कि ये सब फालतू कि चीज़े हैं और हमलोगों ने मान भी लिया पर आज जब उनको जरुरत पड़ रही हैं इनसब चीजों कि तो फिर से हमलोगों कि शरण में दौड़े-भागे आ रहे हैं और अब हमारा योग योगा बनकर हमारे पास आया तब जाकर हमें एहसास हो रहा हैं कि जिसे कंचे समझकर खेल रहे थे हम वो हीरा था ...उस आयुर्वेद के ज्ञान को विदेशी वाले अपने नाम से पेटेंट करा रहे हैं जिसके बाद उसका व्यापारिक उपयोग हम नहीं कर पायेंगे. इस आयुर्वेद का ज्ञान इस तरह रच बस गया हैं हमलोगों के खून में कि चाहकर भी हम इसे भुला नहीं सकते ... आज भले ही बहुत कम ज्ञान हैं हमें आयुर्वेद का पर पहले घर कि हरेक औरतों को इसका पर्याप्त ज्ञान था तभी तो आज दादी मान के नुस्खे या नानी माँ के नुख्से पुस्तक बनकर छप रहे हैं उस आयुर्वेदि की छाया प्रति तैयार करके अरबी वाले यूनानी चिकित्सा का नाम देकर प्रचलित कर रहे हैं.....

आज अगर विदेशी वाले हमारे ज्ञान को अपने नाम से पेटेंट करा रहे हैं तो हमारी नपुंसकता के कारण ही ना.? वो तो योग के ज्ञाता नहीं रहे होंगे विदेश में और जब तक होते तब तक स्वामी रामदेव जी आगे नहीं तो ये किसी विदेशी के नाम से पेटेंट हो चूका होता.... हमारी एक और महान विरासत हैं संगीत की जो माँ सरस्वती की देन हैं किसी साधारण मानवों की नहीं ..!! फिर इसे हम तुच्छ समझकर इसका अपमान कर रहे हैं याद हैं आज से साल भर पहले हमारे संगीत-निर्देशक ए.आर. रहमान (पहले दिलीप कुमार था) को संगीत के लिए आस्कर पुरूस्कार दिया गया था .....और गर्व से सीना चौड़ा हम भारतियों का जबकि मुझे ऐसा लग रहा था कि मेरे अपनों ने मुझे जख्म दिया और अंग्रेज उसमे नमक छिड़क रहे हैं और मेरे अपने उसे देखकर खुश हो रहे हैं .. किस तरह भीगा कर जूता मारा था अंग्रेजों ने हम भारतियों के सर पर और हम गुलाम भारतीय उसमे भी खुश हो रहे थे कि मालिक ने हमें पुरुष्कार तो दिया..... भले ही वो जूतों का हार ही क्यों ना हों .?? अरे शर्म से डूब जाना चाहिए हम भारतियों को अगर रत्ती भर भी शर्म बची हैं तो ...? बेशक रहमान कि जगह कोई सच्चा देशभक्त होता तो ऐसे आस्कर को लात मार कर चला आता ........ क्योंकि उसे पुरुष्कार अच्छे संगीत के लिए नहीं दिए गए थे बल्कि उसने पश्चमी संगीत को मिलाया था भारतीय संगीत में इसलिए मिले उसे वो पुरुष्कार ..... यानी कि भारतीय संगीत कितना भी मधुर क्यों न हों आस्कर लेना हैं तो पश्चमी संगीत को अपनाना होगा........सीधा सा मतलब यह हैं कि हमें कौन सा संगीत पसंद करना हैं और कौन सा नहीं ये हमें अब वो बताएँगे ......... इससे बड़ा और गुलामी का सबूत और क्या हो सकता हैं कि हम अपनी इच्छा से कुछ पसंद भी नहीं कर सकते...... कुछ पसंद करने के लिए भी विदेशियों कि मुहर लगवानी पड़ेगी उसपर हमें.... जिसे क,ख,ग भी नहीं पता अब वो हमें संगीत सिखायेंगे

जहाँ संगीत का मतलब सिर्फ गला फाड़कर चिल्ला देना भर होता हैं वो सिखायेंगे....? ज्यादा पुराणी बात भी नहीं हैं ये ......हरिदास जी और उसके शिष्य तानसेन (जो अकबर के दरबारी संगीतज्ञ थे) के समय कि बात हैं जब राज्य के किसी भाग में सुखा और आकाल कि स्थिति पैदा हो जाती थी तो तानसेन को वहां भेजा जाता था वर्षा करने के लिए .......तानसेन में इतनी क्षमता थी कि मल्हार गाके वर्षा करा दे, दीपक राग गाके दीपक जला दे और शीतराग से शीतलता पैदा कर दे तो प्राचीन काल में अगर संगीत से पत्थर मोम बन जाता था जंगल के जानवर खींचे चले आते थे कोई आश्चर्य की बात नहीं होनी चाहिए क्योंकि ये बात कोई भी अनुभव कर सकता हैं की किस तरह दिनों-दिन संगीत-कला विलुप्त होती जा रही हैं ..... और संगीत कला का गुण तो हम भारतियों के खून में हैं ....... किशोर कुमार, उषा मंगेशकर, कुमार सानू जैसे अनगिनत उदाहरण हैं जो बिना किसी से संगीत की शिक्षा लिए बालीवूड में आये थे......... एक और उदहारण हैं जब तानसेन की बेटी ने रात भर में ही "शीत राग" सीख लिया था.......चूँकि दीपक राग गाते समय शरीर में इतनी उश्मता पैदा हो जाती हैं कि अगर अन्य कोई “शीत राग” ना गाये तो दीपक राग गाने वाले व्यक्ति की मृत्यु हो जायेगी... और तानसेन के प्राण लेने के उद्द्येश्य से ही एक चाल चलकर उसे दीपक राग गाने के लिए बाध्य किया था उससे इर्ष्या करने वाले दरबारियों ने .......... और तानसेन भी अपनी मृत्यु निश्चित मान बैठे थे क्योंकि उनके अलावा कोई और इसका ज्ञाता (जानकार) भी नहीं था और रात भर में सीखना संभव भी ना था किसी के लिए पर वो भूल गए थे कि उनकी बेटी में भी उन्ही का खून था और जब पिता के प्राण पर बन आये तो बेटी असंभव को भी संभव करने कि क्षमता रखती हैं ...... तान सेन के ऐसे सैकड़ों कहानियां हैं पर ये छोटी सी कहानी मैंने आपलोगों को अपने भारत के महान संगीत विरासत कि झलक दिखने के लिए लिखी....... अब सोचिये कि ऐसे में अगर विदेशी हमें संगीत कि समझ कराये तो ऐसा ही हैं जैसे पोता दादा जो को धोती पहनना सिखाये, राक्षस साधू-महात्माओं को धर्म का मर्म समझाए और शेर किसी हिरन को अपने पंजे में दबाये अहिंसा कि शिक्षा दे ......नहीं..?? हमलोगों के यहाँ सात सुर से संगीत बनता हैं इसलिए सात तारों से बना सितार बजाते हैं हमलोग, लेकिन अंग्रेजों को क्या समझ में आ गया जो छह तार वाला वाध्य-यंत्र बना लिया और सितार कि तर्ज पर उन्सका नामकरण गिटार कर दिया.....?

इतना कहने के बाद भी हमारे भारतीय नहीं मानेगे मेरी बात .. पर जब कोई अंग्रेज कहेगा कि उसने गायों को भारतीय संगीत सुनाया तो ज्यादा दूध लिया या जब शोध सामने आएगा कि भारतीय संगीत का असर फंसलों पर पड़ता हैं और वे जल्दी-जल्दी बढ़ने लगते हैं तब हम विश्वास करेंगे.... क्यों भी.? ये सब शोध अंग्रेज को भले आश्चर्यचकित कर दे पर अगर ये शोध किसी भारतीय को आश्चर्यचकित करती हैं तो ये दुःख: कि बात नहीं हैं ....? हमारे देश वासियों को लगता हैं हमलोग पिछड़े हुए हैं जो हमरे यहाँ छोटे-छोटे घर हैं और दूसरी और अंग्रेज तकनिकी विद्या के कितने ज्ञानी हैं, वो खुशनसीब हैं जो उनके यहाँ इतनी ऊँची -ऊँची अट्टालिकाए (Buildings) हैं और इतने बड़े-बड़े पुल हैं ........ इसपर मैं अपने देश वासियों से यहीं कहूँगा कि ऊँचे घर बना मज़बूरी और जरुरत हैं उनकी, विशेषता नहीं,, हमलोग बहुत भाग्यशाली हैं जो अपनी धरती माँ कि गोद में रहते हैं विदेशियों कि तरह माँ के सर पर चढ़ कर नहीं बैठते.... हमलोगों को घर के छत, आँगन और द्वार का सुख प्राप्त होता हैं ...... जिसमे गर्मी में सुबह-शाम ठंडी-ठंडी हवा जो हमें प्रकृति ने उपहार-स्वरूप प्रदान किये हैं उसका आनंद लेते हैं और ठण्ड में तो दिन-दिन भर छत या आँगन में बैठकर सूर्य देव कि आशीर्वाद रूपी किरणों को अपने शारीर में समाते हैं विदेशियों कि तरह धुप सेंकने के लिए नागा होकर समुन्द्र के किनारे रेत पर लेटते नहीं हैं.............

रही बात क्षमता कि तो जरुरत पड़ने पर हमने समुन्द्र पर भी पत्थरों का पुल बनाया था और रावण तो पृथ्वी से लेकर स्वर्ग तक सीढ़ी बनाने कि तैयारी कर रहा था. तो अगर वो चाहता तो गगंचुम्भी इमारते भी बना सकता था लेकिन अगर नहीं बनाया तो इसलिए कि वो विद्वान था.......... तथ्यपूर्ण बात तो ये हैं कि हम अपनी धरती माँ के जितने ही करीब रहेंगे रोगों से उतना ही दूर रहंगे और जितना दूर रहेंगे रोगों के उतना करीब जायेंगे ... हमारे मित्रों को इस बात कि भी शर्म महसूस होती हैं कि हमलोग कितने स्वार्थी, बईमान, झूंठे, मक्कार, भ्रष्टाचारी और चोर होते हैं जबकि अंग्रेज लोग कितने ईमानदार होते हैं .... हमलोगों के यहाँ कितनी धुल और गंदगी हैं जबकि उनके यहाँ तो लोग महीने में एक-दो बार ही झाड़ू मारा करते हैं........ तो जान लीजिये कि वैज्ञानिक शोध ये कहती हैं कि साफ़ सुथरे पर्यावरण में पलकर बड़े होने वाले शिशु कमजोर होते हैं, उनके अन्दर रोगों से लड़ने कि शक्ति नहीं होती दूसरी तरफ दूषित वातावरण में पलकर बढ़ने वाले शिशु रोगों से लड़ने के लिए शक्ति संपन्न होते हैं ...... इसका अर्थ ये मत लगा लीजियेगा कि मैं गंदगी पसंद आदमी हूँ, मैं भारत में गंदगी को बढ़ावा दे रहा हूँ ........ मेरा अर्थ ये हैं कि सीमा से बाहर शुद्धता भी अच्छी नहीं होती . और जहाँ तक भारत कि बात हैं तो यहाँ हद से ज्यादा गंदगी हैं जिसे साफ़ करने कि अत्यानोत आवश्यकता हैं....... रही बात झाड़ू मारने कि तो घर गन्दा हो या ना हों झाड़ू तो रोज मारना ही चाहिए क्योंकि झाड़ू मारकर हम सिर्फ धुल-गंदगी को ही बाहर नहीं करते बल्कि अपशकुन को भी झड-फुहाड़ कर बाहर कर देते हैं तभी तो हम गरीब होते हुए भी खुश रहते हैं........ भारतीय को समृद्धि कि सूचि में पांचवे स्थान पर रखा गया था क्योंकि ये पैसे के मामले में भले कम हैं लेकिन और लोगो से ज्यादा सुखी हैं ............ और जहाँ तक हमारे बनने की बात है तो वो सब अंग्रेजों ने ही सिखाया है l हमें नहीं तो उसके आने के पहले हम छल-कपट जानते तक नहीं थे........ उन्होंने हमें धर्म-विहीन और चरित्र-विहीन शिक्षा देना शुरू किया ताकि हम हिन्दू धर्म से घृणा करने लगे और ईसाई बन जाए ....उन्होंने नौकरी आधारित शिक्षा व्यवस्था लागू कि बच्चे नौकरी करने कि पढाई के इलावा और कुछ सोच ही न पाए. इसका परिणाम तो देख ही रहे हैं कि अभी के बच्चे को अगर चरित्र, धर्म या देशहित के बारे में कुछ कहेंगे तो वो सुनना ही नहीं चाहता.......... वो कहता है उसे अभी सिर्फ अपने किर्स कि किताबे से मतलब रखना हैं l और किसी चीज़ से कोई मतलब नहीं उसे...... अभी कि शिक्षा का एकमात्र उद्द्येश्य नौकरी पाना रह गया हैं ....लोगो को किताबी ज्ञान तो बहुत मिल जाता हैं कि वो ……… डाक्टर, इंजिनियर, वकील, आई.ए.एस. या नेता बन जाता हैं पर उसकी नैतिक शिक्षा न्यूनतम स्तर कि भी नहीं होती जिसका कारण रोज एक-से-बढ़कर एक अपराध और घोटाले करते रहते हैं ये लोग........ अभी कि शिक्षा पाकर बच्चे नौकरी पा लेते हैं लेकिन उनका मानसिक और बौद्धिक विकास नहीं हो पाता हैं, इस मामले में वो पिछड़े ही रह जाते हैं जबकि हमारी सभ्यता में ऐसी शिक्षा दी जाती थी जिससे उस व्यक्ति के पूर्ण व्यक्तिगत का विकास होता था.....उसकी बुद्धि का विकास होता था, उसकी सोचने-समझने कि शक्ति बढती थी.....

आज ये अंग्रेज जो पूरी दुनिया में ढोल पित रहे हैं कि ईसाईयत के कारण ही वो सभ्य और विकसित हुए और उनके यहाँ इतनी वैज्ञानिक प्रगति हुई तो क्या इस बात का उत्तर हैं उनके पास कि कट्टर और रुढ़िवादी ईसाई धर्म जो तलवार के बल पर 25-50 कि संख्या से शुरू होकर पूरा विश्व में फैलाया गया., जो ये कहता हों कि सिर्फ बाईबल पर आँख बंदकर भरोषा करने वाले लोग ही सवर्ग जायेंगे बाकी सब नरक जयेंग्गे,,, जिस धर्म में बाईबल के विरुद्ध बोलने कि हिम्मत बड़ा से बड़ा व्यक्ति भी नहीं कर सकता वो इतना विकासशील कैसे बन गया.? चार सौ साल पहले जब गैलीलियों ने यूरोप की जनता को इस सच्चाई से अवगत कराना चाह कि पृथ्वी सूर्य कि परिक्रमा करती हैं तो ईसाई धर्म-गुरुओं ने उसे खम्बे से बांधकर जीवित जलाये जाने का दंड दे दिया.... वो तो बेचारा क्षमा मांगकर बाल-बाल बचा... एक और प्रसिद्ध पोप, उनका नाम मुझे अभी याद नहीं, वे भी मानते थे कि पृथ्वी सूर्य के चारो और घुमती हैं लेकिन जीवन भर बेचारे कभी कहने की हिम्मत नहीं जूता पाए... उनके मरने के बाद उनकी डायरी से ये बात पता चली......क्या ऐसा धर्म वैज्ञानिक उन्नति में कभी सहायक हो सकता हैं ......? ये तो सहायक की बजे बाधक ही बन सकता हैं ..... हिन्दू जैसे खुले धर्म को जिसे गरियाने की पूरी स्वतंत्रता मिली हुई हैं सबको जिसमे कोई मूर्ति-पूजा, करता हैं कोई ध्यान-साधना कोई तन्त्र-साधना कोई मन्त्र-साधना ....... ऐसे अनगिनत तरीके हैं इस धर्म में, जिस धर्म में कोई बंधन नाखी .., जिसमे नित नए खोज शामिल किये जा सकते हैं और समय तथा परिस्थिति के अनुसार बदलाव करने की पूरी स्वतंत्रता हैं, जिसने सिर्फ पूजा-पाठ ही नहीं बल्कि जीवन जीने की कला सिखाई, बसुधैव कुटुम्बकम का नारा दिया, पुरे विश्व को अपना भाईमाना, जिसने अंक शास्त्र, ज्योतिष-शास्त्र, आयुर्वेद-शास्त्र, संगीत-कला, भवन निर्माण कला, काम-कला आदि जैसे अनगिनत कलाए तुम लोगो (ईसाईयों) को दी और तुमलोग कृतघ्न, जो नित्य-रकम के बाद अपने गुदा को पानी से धोना भी नहीं जानते.,, हमें ही गरियाकर चले गए,, अगर ईसाई धर्म के कारण ही तुमने तरक्की की तो वो तो 1800 साल पहले कर ले न चाहिए था पर तुमने तो 200-300 साल पहले जब सबको लूटना शुरू किये और यहाँ (भारत) के ज्ञान को सिख-सीखकर यहाँ के धन-दौलत को हड़पना शुरू किये तबसे तुमने तरक्की की ऐसा क्यों ..? ये दुनिया करोडो वर्ष पुरानी हैं लेकिन तुमलोगों को ईसा और मुहम्मद के पहले का इतिहास पता ही नहीं ......कहते हों बड़े-बड़े विशाल भवन बना दिए तुमने.....अरे जाओ जब आज तक पिछवाडा धोना सिख ही नहीं पाए ,, खाना बनाना सिख ही नहीं पाए जो की अभी तक उबालकर नमक डालकर खाते तो बड़े-बड़े भवन बनाओगे तुम.. एक भी ग्रन्थ तुम्हारे पास-भवन निर्माण के ......? जो भी छोटे-मोटे होंगे वो हमारे ही नक़ल किये हुए होंगे........ प्रोफ़ेसर आक ने तो सिद्ध कर दिया की भारत में जितने प्राचीन भवन हैं वो हिन्दू भवन या मंदिर हैं जिसे मुस्लिम शासकों ने हड़प कर पाना नाम दे दिया......... और विश्व में भी जो बड़े-बड़े भवन हैं उसमे हिन्दू शैली की ही प्रधानता हैं ..... ये भी हंसी की ही बात हैं की मुग़ल शशक महल नहीं सिर्फ मकबरे और मस्जिद ही बनवाया करते थे भारत में .... जो हमेशा गद्दी के लिए अपने -बाप-भाईयों से लड़ता-झगड़ता रहता था, अपना जीवन युद्ध लड़ने में बिता दिया करते थे उसके मन में अपने बाप या पत्नी के लिए विशाल भवन बनाने का विचार आ जाया करता था .. !! इतना प्यार करता था अपनी पत्नी से जिसको बच्चा पैदा करवाते करवाते मार डाला उसने ........!! मुमताज़ की मौत बच्चा पैदा करने के दौरान ही हुई थी और उसके पहले वो 14 बच्चे को जन्म दे चुकी थी ......जो भारत को बर्बाद करने के लिए आया था, यहाँ के नागरिकों को लूटकर, लाखों-लाख हिन्दुओं को काटकर और यहाँ के मंदिर और संस्कृतिक विरासत को तेहस-नहस करके अपार खुसी का अनुभव करता था वो यहाँ कोई सिर्जनात्मक विरासत कार्य करे ये तो मेरे गले से नहीं उतर सकता........ जिसके पास अपना कोई स्थापत्य कला का ग्रन्थ नहीं हैं वो भारत की स्थापत्य कला को देखकर ये कहने को मजबूर हो गया था की भारत इस दुनिया का अस्चर्या हैं इसके जैसा दूसरा देश पूरी दुनिया में कहीं नहीं हो सकता हैं वो लोग अगर ताजमहल बनाने का दावा करता हैं तो ये ऐसा ही हैं जैसा 3 साक जे बा च्चे द्वारा दसवीं का प्रश्न हल करना ...दुःख तो ये हैं की आज़ाद देश आज़ाद होने के बाद भी मुसलमानों को खुस रखने के लिए इतिहास में कोई सुधर नहीं किये हमारे मुस्ल्मालन और ईसाई भाइयों के मूत्र-पान करने वाले हमारे राजनितिक नेताओं ने ........आज जब ये सिद्ध हो चूका हैं की ताजमहल शाहजहाँ ने नहीं बनवाया बल्कि उससे सौ-दो-सौ साल पहले का बना हुआ हैं तो ऐसे में अगर सरकार सच्चाई लाने की हिम्मत करती तो क्या हम भारतीय गर्व का अनुभव नहीं करते ..? क्या हमारी हिन् भावना दूर होने में मदद नहीं मिलती.....? ताजमहल साथ अस्चार्यों में से एक हैं ये स अब जा कांटे हैं पर सात आश्चर्यों में ये क्यों शामिल हैं ये कितने लोग जानते हैं ......? इसके शामिल होने का कारण इसकी उत्कृष्ट स्थापत्य कला .इसकी अदभुत कारीगरी को अब तक आधुनिक इंजिनियर समझने की कोशिश कर रहे हैं ......जिस प्रकार कुतुबमीनार के लौह-स्तम्भ की तकनीक को समझने की कोशिश कर रहे हैं...... जो की अब तक समझ नाखी पाए हैं ...(इस भुलावे में मत रहिएगा की कुतुबमीनार को कुतुबद्दीन एबक ने बनवाया था) मोटा-मोती तो मैं इतना ही जानता हूँ की यमुना नहीं के किनारे के गीली मुलायम मिटटी को इतने विशाल भवन के भार को सेहन करने लायक बनाना, पुरे में सिर्फ पत्थरों का काम करना समान्य सी बात नहीं हैं .........इसको बनाने वाले इंजिनियर के इंजीनियरिंग प्रतिभा को देखकर अभी के इंजिनियर दांतों टेल ऊँगली ताबा रहे हैं ........अगर ये सब बाते जनता के सामने आएगी तभी तो हम अपना खोया आत्मविश्वास प्राप्त कर पायेंगे ........1200 सालों तक हमें लुटते रहे लुटते रहे लुटते वाले इंजिनियर के इंजीनियरिंग प्रतिभा को देखकर अभी के इंजिनियर दांतों तले ऊँगली दबा रहे हैं ........अगर ये सब बाते जनता के सामने आएगी तभी तो हम अपना खोया आत्मविश्वास प्राप्त कर पायेंगे ........1200 सालों तक हमें लूटते रहे लूटते रहे लूटते रहे और जब लुट-खसौट कर कंगाल कर दिया तब अब हमें एहसास करा रहे हों की हम कितने दीन-हीन हैं और ऊपर से हमें इतिहास भी गलत पढ़ा रहे हों इस दर से की कहीं फिर से अपने पूर्वजों का गौरव इतिहास पढ़कर हम अपना आत्म-विश्वास ना पा लें ...! अरे अगर हिम्मत हैं तो एक बार सही इतिहास पढ़कर देखों हमें.....हम स्वाभिमानी भारतीय जो सिर्फ अपने वचन को टूटने से बचाने के लिए जान तक गवां देते थे इतने दिनों तक दुश्मनों के अत्याचार सहते रहे तो ऐसे में हमारा आत्म-विश्वास टूटना स्वभाविक ही हैं .....हम भारतीय जो एक-एक पैसे के लिए, अन्न के एक-एक दाने के लिए इतने दिनों तक तरसते रहे तो आज हीन भावना में डूब गए, लालची बन गए स्वार्थी बन गए तो ये कोई शर्म की बात नहीं........

ऐसी परिस्थिति में तो धर्मराज युधिष्ठिर के भी पग डगमगा जाए...... आखिर युधिष्ठिर जी भी तो बुरे समय में धर्म से विचलित हो गए थे जो अपनी पत्नी तक को जुए में दावं पर लगा दिए थे l चलिए इतिहास तो बहुत हो गया अब वर्तमान पर आते हैं ........ वर्तमान में आपलोग देख ही रहे हैं कि विदेशी हमारे यहाँ से डाक्टर-इंजिनियर और मैनेजर को ले जा रहे हैं इसलिए कि उनके पास हम भारतियों कि तुलना में दिमाग बहुत ही कम हैं आपलोग भी पेपरों में पढ़ते रहते होंगे कि अमेरिका में गणित पढ़ाने वाले शिक्षकों की कमी हो जाती हैं जिसके लिए वो भारत में शिक्षक की मांग करते हैं तो कभी ओबामा भारतीय बच्चो की प्रतिभा से कर दर कर अमेरिकी बच्चो को सावधान होने की नसीहत देते हैं ......पूर्वजों द्वारा लुटा हुआ माल हैं तो अपनी कंपनी कड़ी कर लेते हैं लेकिन दिमाग कहाँ से लायेंगे....उसके लिए उन्हें यहीं आना पड़ता हैं ....हम बिचारे भारतीय गरीब पैसे के लालच में बड़े गर्व से उनकी मजदूरी करने चले जाते थे पर अब परिस्थिति बदलनी शुरू हो गयी हैं अब हमारे युवा भी विदेश जाने की बजे अपने देश की सेवा करना शुरू कर दिए हैं ....वो दीन दूर नहीं जब हमारे युवाओं पर टिके विदेशी फिर से हमारे गुलाम बनेंगे ........ फिर से इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि पुरे विश्व पर पहले हमारा शासन चलता था जिसका इतिहास मिटा दिया गया हैं ..........लेकिन जिस तरह सालों पहले हुई हत्या जिसकी खुनी ने अपने तरफ से सारे सबुत मिटा देने की भरसक कोशिश की हों., उसकी जांच अगर की जाती हैं तो कई सुराग मिल जाते हैं जिससे गुत्थी सुलझ ही जाती हैं बिलकुल यहीं कहानी हमारे इतिहास के साथ भी हैं जिस तरह अब हमारे युवा विदेशों के करोड़ों रुपये की नौकरी को ठुकराकर अपने देश में ही इडली, बड़ा पाव सब्जी बेचकर या चालित शौचालय, रिक्शा आदि का कारोबार कर करोड़ों रुपये सालाना कम रहे हैं ये संकेत हैं की अब हमारे युवा अपना खोया आत्म-विशवास प्राप्त कर रहे हैं और उनमे नेत्रित्व क्षमता भी लौट चुकी हैं तो वो दीन भी दूर नहीं जब पुरे विश्व का नेत्रित्व फिर से हम भारतियों के हांथों में होगा और हम पुन: विश्वगुरु का सिंहआसन पर आसीन होंगे...........

जिस तरह हरेक के लिए दिन के बाद रात और रात के बाद दिन आता है वैसे हमलोगों के 1200 सालों से ज्यादा रात का समय कट चूका हैं अब दिन निकल आया हैं ...इसका उदाहरण देख लो मीरट की झारखंड राज्य कइ जनसँख्या 3 करोड़ की नहीं हैं और यहाँ 14000 करोड़ का घोटाला हो जाता हैं फिर भी ये राज्य प्रगति कर रहा है... इसलिए अपने पराधीन मानसिकता से बहार आओ, डर को निकालों अपने अन्दर से हमें किसी दुसरे का सहारा लेकर नहीं चलना हैं ..खुद हमारे पैर ही इतने मजबूत हैं की पूरी दुनिया को अपने पैरों टेल रौंद सकते हैं हम ... हम वहीँ हैं जिसने विश्वेजता का सपना देखने वाले सिकन्दर का दंभ चूर-चूर कर दिया था गौरी को 13 बार अपने पैरों पर गिराकर गिडगिडानेको मजबूर किया और जीवनदान दिया जिस प्रकार बिल्ली चूहे के साथ खेलती रहती हैं वैसे ही,. ये दुर्भाग्य था हमारा जो शत्रू के चंगुल में फंस गए क्योंकि उस चूहे ने अपने ही की सहायता ले ली पर हमने उसे छोड़ा नहीं, अँधा हो जाने के बावजूद भी उसे मारकर मरे........जिसप्रकार जलवाष्प की नन्ही-नन्ही पानी की बुँदे भी एकत्रित हो जाने पर घनघोर वर्षा कर प्रलय ला देती है, अदृश्य हवा भी गति पाकर भयंकर तबाही मचा देता है, नदी-नाले की छोटी लहरें नदी में मिलकर एक होती है तो गर्जना करती हुई अपने आगे आने वाली हरेक अवरोधों को हटती हुई आगे बढती रहती है वैसे ही मैं अभी भले ही जलवाष्प की एक कहती सी बूंद हूँ पर अगर आपलोग मेरा साथ दो तो इसमें कोई शक नहीं की हम भारतीय फिर से इस दुनिया को अपने चरों में झुका देंगे.......और मुझे पता हैं दोस्त.........मेरे जैसे करोड़ों बुँदे एककृत होकर बरसाने को बेकरार हैं इसलिए अब और ज्यादा विलंभ ना करों और मेरे हाँथ में अपना हाँथ दो मित्र ……..Contd………..

लेख में अभी बाकी हैं

(नेहरु मुस्लिम था, हमारा राष्ट्रीय गान भी हमारा नहीं हैं, इंडिया और भारत में अंतर, और भी बहुत कुछ तो पढने के लिए प्रतीक्षा करे अगली पोस्ट का धन्यवाद

ये जानता हूँ की टायपिंग मिस्टेक होंगी इसके लिए क्षमा चाहता हूँ, और अगर किसी को इस लेख से किसी भी प्रकार की चोट पहुंचाई तो उसके लिए भी क्षमा मांगता हूँ

-By Rawal Kishore

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