रविवार, जनवरी 21, 2018

सारे धर्म एक ही शिक्षा देते हैं? : ताबिश सिद्दीकी

Tabish Siddiqui
एक स्टेटमेंट, जो लगभग हर धर्म जाति का आम इंसान आपको कहता हुवा मिलेगा कि "सारे धर्म एक ही शिक्षा देते हैं, सभी धर्मों का मूल एक है, सारे अवतारों, पैगम्बरों और संतों की शिक्षा एक ही है.. ईश्वर अल्लाह तेरे नाम".. ये मेरे हिसाब से ऐसा स्टेटमेंट होता है जिसका सत्य से दूर दूर तक कोई नाता नहीं है.. मगर ये स्टेटमेंट इतना आम है और हमारे स्कूलों की दीवारों और पब्लिक प्लेस में इतनी बहुतायत से लिखा मिलता है कि धीरे धीरे हमारा अवचेतन इस पर बिना कोई सवाल उठाए स्वीकार कर लेता है
पहली बात तो ये कि अगर ये सच होता कि सारे धर्मों की शिक्षा एक है तो फिर इतने धर्म दुनिया मे होते ही न.. इतने अलग अलग धर्मों का होना अपने आप मे ऊपर के स्टेटमेंट का विरोधाभास है
जो कहते हैं कि ईश्वर अल्लाह एक है तो उनसे पूछिये कि वो मंदिर में कभी अल्लाह अल्लाह जप लिया करें और मस्जिद में कभी राम राम.. जपेंगे वो?? जो बात मुहम्मद साहब ने कही वही बुद्ध भी कहते हैं तो फिर वो लोग क्यूं नहीं क़ुरआन छोड़ के धम्मपद पढ़ते हैं? जब सब कुछ आप लोगों के हिसाब से इतना सीधा और साफ़ है तो फिर झगड़ा किस बात का है आप लोगों के बीच?
ये बिल्कुल ग़लत बात है अगर आप कहें कि बुद्ध ने जो कहा वही सारे पैगम्बरों और अवतारों ने कहा है.. ये एकदम गलत स्टेटमेंट है.. और इस भ्रम से छुटकारा पाना होगा सभी को.. एक दो उदाहरणों से मैं आपको इस घातक स्टेटमेंट की असलियत समझाना चाहूंगा.. ये घातक इसलिए है क्योंकि बरसों से इसी चक्कर में हमारे युवा अपनी खोज बन्द किये बैठे हैं.. जब एक मुसलमान युवक से आप ये कह देते हैं कि जो मुहम्मद ने कहा वही बुद्ध ने और जो तुम्हारा अल्लाह है वही ईश्वर है तो आप उसके खोज की संभावना ख़त्म कर देते हैं.. क्यूंकि जब सब एक ही हैं तो फिर अब किसी को क्या पढ़ना.. बस क़ुरआन पढ़ लो.. यही चालाकी ज़ाकिर नायक जैसे करते हैं.. वो वेदों को क़ुरआन सम्मत साबित करने की जी तोड़ कोशिश करते हैं ताकि सब कुछ क़ुरआन सम्मत हो जाय और क़ुरआन के मानने वालों का अहंकार और चरम पर पहुंच जाए और वो उसी को पकड़े बैठे रहें.. उनकी कोशिश ये रहती है कि चालाकी से ऐसा दिखाया जाए कि सब कुछ क़ुरआन में है और मुसलमानो के खोज की सारी संभावनाओं पर लगाम लगा दी जाय
छोटा सा उदाहरण लीजिये.. एक धार्मिक मुसलमान दाढ़ी रखता है.. एक हिन्दू संत भी दाढ़ी रखता है.. एक सिख भी दाढ़ी रखता है.. अब ऊपर ऊपर से आप देखेंगे तो आपको सबकी दाढ़ी एक जैसी लगेगी.. और आपके उस स्टेटमेंट के हिसाब के अनुसार कि "ईश्वर अल्लाह एक है", के हिसाब से ये सारी दाढ़ियां एक होनी चाहिए.. मगर इन सारी दाढ़ियों के पीछे का मूल एकदम अलग है
मुसलमानो में दाढ़ी रखने की शुरुवात अरबों की देन है.. ज़्यादातर अरब पहले भी दाढ़ी रखते थे और उसकी मूल वजह थी वहां का शुष्क वातावरण और धूल.. दाढ़ी रेत के फ़िल्टर का काम करती थी.. फिर जब इस्लाम आया और धार्मिक खींचतान शुरू हुई तो मुसलमानो को ये समझ आया कि धार्मिक यहूदी तो पहले से दाढ़ी रखता है तो एक धार्मिक यहूदी और धार्मिक मुसलमान के बीच भेद कैसे किया जाय? तो मुसलमानो ने मूछ हटा दी.. बिना मूंछ की दाढ़ी ने मुसलमानो को यहूदियों से अलग कर दिया.. और फिर आगे के नए इस्लाम के अनुयायियों ने बिना मूंछ के दाढ़ी रखना शुरू किया.. और उन्होंने ये दाढ़ी सिर्फ इसलिए रखी क्यूंकि मुहम्मद साहब भी दाढ़ी रखे हुए थे और बाद के ख़लीफ़ाओं ने भी दाढ़ी रखी हुई थी.. तो मुसलमानो की दाढ़ी नक़ल होती है मुहम्मद की और उनके साथियों की.. दाढ़ी रखकर मुसलमान अपने पैग़म्बर की सुन्नत (कार्य) अदा करता है.. इस्लाम मे दाढ़ी ले पीछे की सिर्फ यही एक अवधारणा है बस.. मुसलमान अपने पैग़म्बर के जैसा बनना चाहता है दाढ़ी रखा कर.. इस भेद पर ध्यान दीजियेगा
एक हिन्दू संत जब सन्यास के मार्ग पर निकलता है तो उसकी पहली शिक्षा होती है प्रकृति से अपने सारे विरोध को ख़त्म करना.. प्रकृति से एकाकार होना हिन्दू संत का पहला कर्तव्य होता है.. जो कुछ भी प्राकृतिक है वो सब स्वीकार्य है और अब उसका कोई भी विरोध नहीं होगा.. पुरुषों की दाढ़ी प्राकृतिक रूप से स्वयं उगती है और उसे हम जब काट देते हैं तो एक तरह से हम प्रकृति को ये बताते हैं कि तुम्हारे द्वारा दिये गए ये बाल हमे स्वीकार्य नहीं हैं.. तो एक सनातनी संत इस विरोध को पहले ही दिन से ख़त्म कर देता है और वो दाढ़ी और मूछों के बालों को भी प्राकृतिक रूप से स्वीकार कर लेता है.. आप ग़ौर किजियेगा तो देखिएगा कि संत सिर्फ़ दाढ़ी ही नहीं सिर के बाल भी नहीं काटता है.. क्यूंकि समूचा विरोध उसे ख़तम करना होता है प्रकृति के साथ.. तो हिंदुओं में सन्यास की इस अवधारणा के साथ दाढ़ी का जन्म होता है.. कोई संत, राम या कृष्ण की नकल करने के लिए दाढ़ी नहीं रखता है.. राम और कृष्ण वैसे भी ज़्यादातर बिना दाढ़ी के ही दिखाए जाते हैं..इसलिए दाढ़ी की अवधारणा सनातन में इस्लाम से एकदम भिन्न है
अब जब कोई सिख अपने बाल और दाढ़ी बढ़ाता है तो उसके पीछे न तो सनातन के प्राकृतिक विरोध की शिक्षा होती है और न ही अरब की कोई संस्कृति.. जब सिख केश और कृपाण धारण करता है तो उसके पीछे उनके गुरु की दीक्षा होती है.. एक दृढ़ता और एक जूझने का भाव जो उस समय की परिस्थितियों के अनुसार पैदा हुआ.. इसलिए सिख को धार्मिक सिख होना होता है तो दाढ़ी और केश रखने होते हैं
तो देखिए सिर्फ़ एक छोटी सी धार्मिक रीति, दाढ़ी और मूछ के पीछे कितनी भिन्न मान्यता है.. इसलिए क्या आप ये कहेंगे कि "सबकी दाढ़ी एक समान, चाहे हिन्दू हो या मुसलमान"??
इसलिए अपने युवकों को कंफ्यूज मत कीजिये ऐसे स्टेटमेंट दे कर कि "सारे धर्म एक ही शिक्षा देते हैं".. युवकों से कहिये की सब अलग अलग हैं और सबको पढ़ो और जानो कि कौन क्या शिक्षा देता है.. यहां कुछ भी एक नहीं है.. इसीलिये इतनी मारकाट है हमारे बीच.. हम सब एक नहीं हैं.. और ये कटु सत्य है
ऐसे ही अन्य बातें भी हैं.. लेख बड़ा हो रहा है वरना मैं ईश्वर, अल्लाह और क़ुरआन, गीता और वेद की शिक्षा में भी भिन्नता बताता.. इसलिए वो फिर कभी किसी अन्य लेख में.. अभी के लिए इतना ही.. धन्यवाद
~ताबिश

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