सच्चा मुसलमान किसी के साथ नहीं रह सकता। सहजीवन उसके डिक्शनरी के बाहर का शब्द है। मुसलमान जैसे तैसे सहजीवन में जीना सीखे भी तो सच्चा इस्लाम उसके रास्ते का रोड़ा बनता है। अचानक से किसी दिन कोई लीडर उनके बीच से निकलता है और कहता है कि गैर मुस्लिमों के साथ रहना गैर इस्लामिक है। कुरान और हदीस हमें इसकी इजाजत नहीं देते। और देखते ही देखते पूरी जमात उस लीडर के पीछे चल देती है। दो चार तर्क वितर्क करें भी तो उनकी आवाज नक्कारखानें में तूती से ज्यादा अहमियत नहीं रखती।
इसीलिए इकबाल ने मुसलमानों के लिए अलग राज्य मांगा। बाद में जिन्ना ने इसी अलग राज्य को पाकिस्तान बना दिया। क्या तर्क था उनका? हम हिन्दुओं के साथ नहीं रह सकते। हमारा मजहब इसकी इजाजत नहीं देता। हमारे उनके बीच कुछ भी कॉमन नहीं है, तो फिर हम उनके साथ कैसे रह सकते हैं?
यह ऐसा अकाट्य तर्क था जिसे कोई नहीं काट सकता था। खान अब्दुल गफ्फार खान, मौलाना अबुल कलाम आजाद या फिर दारुल उलूम देओबंद इसके खिलाफ थे तो उनके कारण अलग अलग थे। खान साहब पंजाबियों के चंगुल में नहीं फंसना चाहते थे। आजाद इसे मुसलमानों की बेहतरी के खिलाफ मानते थे और दारुल उलूम देओबंद को आशंका थी कि इससे मुसलमानों की ताकत कमजोर हो जाएगी। बहुत उदार से उदार मुसलमान भी ऐसी संकट की घड़ी में गैर मुस्लिमों की बात नहीं कर रहा था। सहजीवन का कोई तर्क उस समय नहीं दिया गया क्योंकि उसे चिंता थी तो सिर्फ मुसलमानों की।
लेकिन आजादी के बाद और देश के तीन टुकड़ों में बांट देने के बाद मुसलमानों को गंगा जमुना याद आ गयी। लंगड़ा लूला सेकुलरिज्म याद आ गया जिसमें सेकुलरिज्म तो हो लेकिन पर्सनल लॉ की पूरी आजादी हो। पर्सनल लॉ के जो भी कानून बने वो सिर्फ गैर मुस्लिमों के लिए बने। इस्लाम को “संविधान के मुताबिक” अपने धर्म के पालन और विस्तार की आजादी दी जाए। साथ रहने के हर वो तर्क जो सैंतालिस में कुतर्क नजर आते थे सैंतालिस के बाद मुसलमानों की जबान के पान हो गये। तो क्या यह पान की कोई ऐसी गिलौरी है जिसे समय मिलने पर फिर से मुसलमान थूक देने वाला है?
हां। बिल्कुल। कश्मीर में सहजीवन और गंगा जमुना का वह पान नापदान में थूका जा चुका है। जहां जहां मुसलमान बहुसंख्यक होता है वहां वह सहजीवन का पान नापदान में थूक देता है। उसका सहजीवन उसका आदर्श नहीं, उसकी मजबूरी है। योजना है। रणनीति है। वरना नक्शे पर आज पंजाब के हरे भरे खेतों के बीचोबीच सफेद रेखा नजर नहीं आती। मुसलमानों के भीतर से अगर सहजीवन की कोई आवाज उठे भी तो इस्लाम के नाम पर मुसलमान ही उसके विरोध में खड़ा हो जाता है।
मुसलमानों के सहजीवन में सबसे बड़ी बाधा है मदरसे और कुरान की शिक्षाएं जो किसी गैर मुस्लिम को दोयम दर्जे का इंसान बताती हैं। जो मुस्लिम को गैर मुस्लिम से अलग करती हैं। उन्हें यह समझाती हैं कि अब वो पाक हैं, इसलिए नापाक काफिरों के साथ रहना उनके लिए तौहीन की बात होगी। हर मदरसा अपने यहां बच्चों को शरीयत के नाम पर जब यह समझाएगा कि गैर मुस्लिम का शासन कुफ्र है, और हमें इस कुफ्र को खत्म करना है तो उन बच्चों की क्या समझ बनेगी? इसलिए एक पाबंद मुसलमान के सामने दो ही रास्ता रहता है। या तो गैर मुस्लिम को इस्लाम स्वीकार करवा लें, या फिर अपने लिए अलग जमीन मांग लें। जैसे उन्होंने १९४७ में मांग लिया था।
बदलते समय के साथ इस्लाम में इस सोच को खत्म करके नयी सोच और शिक्षा विकसित करने की जरूरत है कि अब बदलती दुनिया में इस सोच के साथ जिन्दा रह पाना मुश्किल है। लेकिन कमाल की बात तो ये है कि आज इस इक्कीसवीं सदी में सोच और शिक्षाओं में सुधार करने की बजाय मुसलमान मजहबी तौर पर अपनी मान्यताओं के प्रति और अधिक कट्टर होता जा रहा है।
इससे गैर मुस्लिमों का अब कुछ नहीं बिगड़ेगा। हां, इस्लाम जरूर अप्रासंगिक होता चला जाएगा। दुनिया के इस भूमंडलीकरण के युग में सहजीवन जरूरी हो न हो, मजबूरी जरूर बनता जा रहा है। अब हर धर्म और मान्यता को सहजीवन सीखना होगा। जो सीखेगा वो बच जाएगा, जो नहीं सीखेगा वह खत्म हो जाएगा। अब अगर मुसलमानों को ये लगता है कि पूरी दुनिया उनके खिलाफ लामबंद हो रही है तो यह भी उनकी भूल है। उन्होंने ही इस्लामिक और गैर इस्लामिक का ध्रुवीकरण कर दिया है। उन्हें ही सोचना है कि अपने भीतर वो कौन से बदलाव लायें कि इस्लामिक और गैर इस्लामिक का यह भेदभाव उनके भीतर से खत्म हो। जितना इस्लाम दूसरे धर्मों की स्वीकार्यता अपने भीतर पैदा करेगा उतना ही दूसरे धर्म उसे स्वीकार करेंगे। अगर आज भी वह यही मानता रहेगा कि दुनिया से कुफ्र खत्म करना उसका काम है तो आज नहीं तो कल पूरी दुनिया मिलकर इस वैचारिक आतंकवाद को खत्म कर देगी।
आमीन।
साभार विस्फोट डॉट कॉम
इसीलिए इकबाल ने मुसलमानों के लिए अलग राज्य मांगा। बाद में जिन्ना ने इसी अलग राज्य को पाकिस्तान बना दिया। क्या तर्क था उनका? हम हिन्दुओं के साथ नहीं रह सकते। हमारा मजहब इसकी इजाजत नहीं देता। हमारे उनके बीच कुछ भी कॉमन नहीं है, तो फिर हम उनके साथ कैसे रह सकते हैं?
यह ऐसा अकाट्य तर्क था जिसे कोई नहीं काट सकता था। खान अब्दुल गफ्फार खान, मौलाना अबुल कलाम आजाद या फिर दारुल उलूम देओबंद इसके खिलाफ थे तो उनके कारण अलग अलग थे। खान साहब पंजाबियों के चंगुल में नहीं फंसना चाहते थे। आजाद इसे मुसलमानों की बेहतरी के खिलाफ मानते थे और दारुल उलूम देओबंद को आशंका थी कि इससे मुसलमानों की ताकत कमजोर हो जाएगी। बहुत उदार से उदार मुसलमान भी ऐसी संकट की घड़ी में गैर मुस्लिमों की बात नहीं कर रहा था। सहजीवन का कोई तर्क उस समय नहीं दिया गया क्योंकि उसे चिंता थी तो सिर्फ मुसलमानों की।
लेकिन आजादी के बाद और देश के तीन टुकड़ों में बांट देने के बाद मुसलमानों को गंगा जमुना याद आ गयी। लंगड़ा लूला सेकुलरिज्म याद आ गया जिसमें सेकुलरिज्म तो हो लेकिन पर्सनल लॉ की पूरी आजादी हो। पर्सनल लॉ के जो भी कानून बने वो सिर्फ गैर मुस्लिमों के लिए बने। इस्लाम को “संविधान के मुताबिक” अपने धर्म के पालन और विस्तार की आजादी दी जाए। साथ रहने के हर वो तर्क जो सैंतालिस में कुतर्क नजर आते थे सैंतालिस के बाद मुसलमानों की जबान के पान हो गये। तो क्या यह पान की कोई ऐसी गिलौरी है जिसे समय मिलने पर फिर से मुसलमान थूक देने वाला है?
हां। बिल्कुल। कश्मीर में सहजीवन और गंगा जमुना का वह पान नापदान में थूका जा चुका है। जहां जहां मुसलमान बहुसंख्यक होता है वहां वह सहजीवन का पान नापदान में थूक देता है। उसका सहजीवन उसका आदर्श नहीं, उसकी मजबूरी है। योजना है। रणनीति है। वरना नक्शे पर आज पंजाब के हरे भरे खेतों के बीचोबीच सफेद रेखा नजर नहीं आती। मुसलमानों के भीतर से अगर सहजीवन की कोई आवाज उठे भी तो इस्लाम के नाम पर मुसलमान ही उसके विरोध में खड़ा हो जाता है।
मुसलमानों के सहजीवन में सबसे बड़ी बाधा है मदरसे और कुरान की शिक्षाएं जो किसी गैर मुस्लिम को दोयम दर्जे का इंसान बताती हैं। जो मुस्लिम को गैर मुस्लिम से अलग करती हैं। उन्हें यह समझाती हैं कि अब वो पाक हैं, इसलिए नापाक काफिरों के साथ रहना उनके लिए तौहीन की बात होगी। हर मदरसा अपने यहां बच्चों को शरीयत के नाम पर जब यह समझाएगा कि गैर मुस्लिम का शासन कुफ्र है, और हमें इस कुफ्र को खत्म करना है तो उन बच्चों की क्या समझ बनेगी? इसलिए एक पाबंद मुसलमान के सामने दो ही रास्ता रहता है। या तो गैर मुस्लिम को इस्लाम स्वीकार करवा लें, या फिर अपने लिए अलग जमीन मांग लें। जैसे उन्होंने १९४७ में मांग लिया था।
बदलते समय के साथ इस्लाम में इस सोच को खत्म करके नयी सोच और शिक्षा विकसित करने की जरूरत है कि अब बदलती दुनिया में इस सोच के साथ जिन्दा रह पाना मुश्किल है। लेकिन कमाल की बात तो ये है कि आज इस इक्कीसवीं सदी में सोच और शिक्षाओं में सुधार करने की बजाय मुसलमान मजहबी तौर पर अपनी मान्यताओं के प्रति और अधिक कट्टर होता जा रहा है।
इससे गैर मुस्लिमों का अब कुछ नहीं बिगड़ेगा। हां, इस्लाम जरूर अप्रासंगिक होता चला जाएगा। दुनिया के इस भूमंडलीकरण के युग में सहजीवन जरूरी हो न हो, मजबूरी जरूर बनता जा रहा है। अब हर धर्म और मान्यता को सहजीवन सीखना होगा। जो सीखेगा वो बच जाएगा, जो नहीं सीखेगा वह खत्म हो जाएगा। अब अगर मुसलमानों को ये लगता है कि पूरी दुनिया उनके खिलाफ लामबंद हो रही है तो यह भी उनकी भूल है। उन्होंने ही इस्लामिक और गैर इस्लामिक का ध्रुवीकरण कर दिया है। उन्हें ही सोचना है कि अपने भीतर वो कौन से बदलाव लायें कि इस्लामिक और गैर इस्लामिक का यह भेदभाव उनके भीतर से खत्म हो। जितना इस्लाम दूसरे धर्मों की स्वीकार्यता अपने भीतर पैदा करेगा उतना ही दूसरे धर्म उसे स्वीकार करेंगे। अगर आज भी वह यही मानता रहेगा कि दुनिया से कुफ्र खत्म करना उसका काम है तो आज नहीं तो कल पूरी दुनिया मिलकर इस वैचारिक आतंकवाद को खत्म कर देगी।
आमीन।
साभार विस्फोट डॉट कॉम
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