चर्च के भीतर समानता नहीं बाहर से दलितों की भलाई का रचते हैं ढोंग
श्री राजीव दिक्षित को सुने जरुर
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कैथोलिक और प्रटोस्टेंट चर्चो ने देश के दलितों ईसाइयों की मुक्ति के लिए 9 दिसम्बर को ‘दलित मुक्ति संडे’ मनाने का एलान किया है। कैथोलिक बिशप कांफ्रेस आॅफ इंडिया और नेशनल कौंसल फार चर्चेज इन इंडिया नामक इन संगठनों को दलितों की दशा पर चिन्ता सताने लगी है। यह दोनों ही चर्च संगठन ‘वेटिकन’ और जनेवा स्थित ‘वल्र्ड चर्च कौंसिल’ के दिशा-निर्देशों के तहत अपने कार्यो को विस्तार देते है।
इसी वर्ष अक्टूबर महीने में पूरे विश्व के कैथोलिक चर्च की एक महासभा वेटिकन टू के नाम से पोप बेडिक्ट सोहलवें के नेतृत्व में हुई है जिसमें बदलते विश्व की परस्थितियों को ध्यान में रखते हुए धर्म-प्रचार को आगे बढ़ाने का आह्रवान किया गया है। इसी आह्रवान को अमली जामा पहनाते हुए चर्च ने ‘मानवाधिकार दिवस’ के मद्दे-नजर भारतीय दलितों के लिए नारा लगाया है कि ‘रुकवटे तोड़ों, विश्व में समानता का निर्माण करो’’!
‘दलित मुक्ति संडे’ के बहाने चर्च नेतृत्व ने अपना वही पुराना राग ‘धर्मांतरित ईसाइयों को अनुसूचित जातियों’ की श्रेणी में शामिल करने की मांग उठाई है। चर्च ने डा. मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली संप्रग सरकार पर वायदा तोड़ने का आरोप लगाते हुए दलित ईसाइयों को अनुसूचित जातियों की सूची में शामिल करने पर जोर दिया है।
चर्च के अंदर धर्मांतरित ईसाइयों की दशा चर्च के इस लिबरेशन संडे की पोल खोल देती है। ‘रुकवटे तोड़ों, विश्व में समानता का निर्माण करो’ का नारा ऊपर से भले ही सुहवना दिखाई देता हो पर स्वाल खड़ा होता है कि जो चर्च नेतृत्व ढाई-तीन करोड़ दलित ईसाइयों के लिए अपने ढांचे (चर्च) के अंदर रुकावटे तोड़ कर समानता का महौल नही बना पाया वह गैर ईसाई दलितों का भला कैसे कर सकता है?
स्वाल खड़ा होता है कि सैकड़ों साल पहले हिन्दू समाज से टूटकर ईसाई बन गए धर्मांतरितों के वंशज आज भी ईसाइयत के अंदर ऐसी स्थिति में क्यों है कि उन्हें पुनः हिन्दू दलितों की श्रेणी में रखा जाये। चर्च का हिस्सा बन जाने के बाद भी यदि उन्हें सामाजिक, आर्थिक विषमताओं से छुटकारा नही मिल पाया तो उनके जीवन में चर्च का योगदान ही क्या है। हालांकि चर्च यह मानता है कि भारत की 70 प्रतिशत ईसाई आबादी दलितों की श्रेणी से आती है। परन्तु इसके बावजूद चर्च ढाचें में उनका कोई खास स्थान नही है। चर्चो के अंदर उनके साथ लगातार भेदभाव बढ़ रहा है। भारतीय चर्च अपनी नकामियों का ठीकरा हिन्दू व्यवस्था के सिर फोड़ते हुए अपने अनुयायियों के लिए वही दर्जा पाने की लालसा रखता है जो हिन्दू व्यवस्था में दलितो को मिला हुआ है।
ईसाइयत जाविाद में विश्वास नही करती इसी कारण जातिवाद से छुटकारे के लिए करोड़ों दलितों ने चर्च का दामन थामा था। खुद कैथोलिक बिशप कांफ्रेस आॅफ इंडिया ने अपने वर्ष 1981 में पारित एक प्रस्ताव में कहा है कि ‘ईसाइयत में जातिप्रथा का कोई स्थान नही है…यह प्रथा मनुष्यों को विभाजित करने वाली भेदभाव कारक है। यह प्रथा ईश्वर द्वारा प्रदत्त समानता और महत्ता जो मनुष्य को मिली है, उसका विनाश करने वाली कुप्रथा है।
फादर एन्टोनी राज का अध्ययन भी यह सिद्व करता है कि तमाम बाइबलीय प्रतिबंधों, वेटिकन के आदेशों और संवैधानिक व्यवस्थाओं के तहत चर्च में जातिवाद और छूआछूत को एक अपराध माना गया है। इसके बावजूद पग-पग पर धर्मांतरित ईसाइयों को चर्च के अंदर अपमान सहना पड़ रहा है। चर्च संसाधनों पर मुठ्ठीभर उच्च जातिय कर्लजी वर्ग का एकाधिकार बना हुआ है। विशाल संसाधनों से लैस और साम्राज्यवाद से ग्रस्त चर्च अपना संख्याबल बढ़ाने के चक्र में अपने ढांचें में जातिवाद और छूआछूत को समाप्त करने की अपेक्षा अपने अनुयायियों पर जातिवाद का संवैधानिक टैग लगना चाहता है। कई दलित इसाई विचारकों का मत है कि इससे चर्च को दोहरा लाभ प्राप्त होता है। एक-उसने चर्च के प्रति दलित ईसाइयों में पनपते आक्रोश को बड़ी ही होशयारी से सरकार की तरफ मोड़ दिया है। दूसरा-उसे जनजातियों की तरह दलितों में अपनी गहरी पैठ बनाने का सुअवसर मिलेगा।
दलित ईसाइयों का विकास भारतीय चर्च का कभी लक्ष्य नही रहा उन्होंने चर्च के कारोबार को बढ़ाने में ही उनका इस्तेमाल किया है। इसे एक छोटे से उदाहरण से ही समझा जा सकता है मौजूदा समय में कैथोलिक चर्च के 168 बिशप है (ईसाई समाज में सर्वाधिक ताकतवर पद) इनमें केवल 4 दलित बिशप है। तेरह हजार डैयसेशन प्रीस्ट, चैदह हजार रिलिजयस प्रीस्ट, पँाच हजार बर्दज और एक लाख के करीब नन है जिनमें से केवल कुछ सौ ही दलित पादरी है और वह भी चर्च ढांचे में हाशिए पर पड़े हुए है। हालही में दिल्ली कैथोलिक आर्चडायसिस के एक मात्र दलित ईसाई पादरी फादर विल्यम प्रेमदास चैधरी ने अपनी आत्मकथा ‘ऐन अन्वाटेंड प्रीस्ट’ में दलित पादरियों की व्यथा पेश की है।
आम धारणा है कि भारत सरकार के बाद चर्च के पास भूमि है वह भी शहरी क्षेत्रों के पाश इलाकों में। भारत में चर्च को कुछ संवैधानिक अधिकार प्राप्त है। भाषा और संस्कृति को संरक्षण देने वाली संवैधानिक धराओं का दुरुपयोग करते हुए चर्च ने भारत में कितनी संपति इकट्ठी की है इसकी निगरानी करने का कोई नियम नही है। चर्चो और उनके संस्थानों को नियंत्रित करने के लिए कानून लाया जाना चाहिए। अकेले कैथोलिक चर्च के पास 480 काॅलेज, 63 मैडीकल और नर्सिग काॅलेज, 9,500 सकेंडरी स्कूल, 4,000 हाई स्कूल, 14,000 प्रईमरी स्कूल, 7,500 नर्सरी स्कूल, 5,00 टेªनिग स्कूल, 9,00 टेकिनिकल स्कूल, 2,60 प्रोफेशनल इंसीट्यूट, 6 इंजिनरिंग काॅलेज और 3,000 होस्टल है। कैथोलिक चर्च 1,000 के करीब अस्पताल भी चला रहा है। अगर प्रोटेस्टेंट चर्चो के संस्थानों को भी मिला लिया जाये तो यह संख्या 50,,000 के करीब करीब है।
भारतीय चर्च के इस विशाल साम्राज्यवाद में दलित ईसाइयों की कितनी हिस्सेदारी है। कितने स्कूलों में ईसाई प्रंसीपल और अध्यापक है, कितने काॅलजों में वह प्रोफसर या डीन है। कितने अस्पतालों में वह डाक्टर है। शिक्षा का डंका बजाने वाले चर्च की कृपा से पढ़-लिखकर कितने उच्च पदों पर है और हजारों करोड़ के विदेशी अनुदान से गरीबों का उद्वार करने वाले चर्च के सामाजिक संगठनों में कितनो के निर्देशक दलित ईसाई है। दलित लिबरेशन संडे मनाने से पहले चर्च को यह सब बताना चाहिए। उसे यह भी बताना चाहिए कि चर्च द्वारा चलाये जाते हजारों कान्वेेट स्कूलों में दलित ईसाई बच्चों का कितना प्रतिशत है। क्योंकि दलित ईसाई लगातार आरोप लगाते रहे है कि चर्च के यह स्कूल अल्पसंख्यक अधिकारों की आड़ में मोटा मुनाफा कमाने के अड्डे बन गए है। देश की राजधानी दिल्ली में ऐसे स्कूलों में दलित ईसाइयों की भागीधारी आधा प्रतिशत भी नही है। चाहे तो चर्च इस पर श्वेत पत्र जारी कर सकता है।
यह सच है कि जिन दलितों ने ईसाइयत को अपनाया वह हिन्दू दलितों के मुकाबले जीवन की दौड़ में पीछे छूट गए है। जहां हिन्दू समाज ने विकास की दौड़ में पीछे छूट गए अपने इन अभाव-ग्रस्त भाई-बहनों को आगे बढ़ने के अवसर उपलब्ध करवाये, वही भारतीय चर्च ने अपना साम्राज्य बढ़ाने को प्रथमिकता दी। आगे बढ़ गए हिन्दू दलितों ने हालही में ‘दलित इंडियन चेम्बर आफ काॅमर्स एण्ड इण्डस्ट्री’ की शुरुआत करके पीछे छूट गए दलित बंधुवों को सस्ते कर्ज देकर अपने रोजगार शुरु करने की पहल की है। लेकिन चर्च नेतृत्व ने दलित ईसाइयों के लिए आज तक विकास का कोई माडल ही नही बनाया। ऐसे लिबरेशन संडे मना कर दलित ईसाइयों का उपहास उड़ाने तथा दूसरो को दोष देने की अपेक्षा ऐसी व्यवस्था बनाई जाए कि दलित ईसाइयों का चर्च संसाधनों पर पहला अधिकार हो, तांकि उनके विकास का मार्ग खुल सके।
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कैथोलिक और प्रटोस्टेंट चर्चो ने देश के दलितों ईसाइयों की मुक्ति के लिए 9 दिसम्बर को ‘दलित मुक्ति संडे’ मनाने का एलान किया है। कैथोलिक बिशप कांफ्रेस आॅफ इंडिया और नेशनल कौंसल फार चर्चेज इन इंडिया नामक इन संगठनों को दलितों की दशा पर चिन्ता सताने लगी है। यह दोनों ही चर्च संगठन ‘वेटिकन’ और जनेवा स्थित ‘वल्र्ड चर्च कौंसिल’ के दिशा-निर्देशों के तहत अपने कार्यो को विस्तार देते है।
इसी वर्ष अक्टूबर महीने में पूरे विश्व के कैथोलिक चर्च की एक महासभा वेटिकन टू के नाम से पोप बेडिक्ट सोहलवें के नेतृत्व में हुई है जिसमें बदलते विश्व की परस्थितियों को ध्यान में रखते हुए धर्म-प्रचार को आगे बढ़ाने का आह्रवान किया गया है। इसी आह्रवान को अमली जामा पहनाते हुए चर्च ने ‘मानवाधिकार दिवस’ के मद्दे-नजर भारतीय दलितों के लिए नारा लगाया है कि ‘रुकवटे तोड़ों, विश्व में समानता का निर्माण करो’’!
‘दलित मुक्ति संडे’ के बहाने चर्च नेतृत्व ने अपना वही पुराना राग ‘धर्मांतरित ईसाइयों को अनुसूचित जातियों’ की श्रेणी में शामिल करने की मांग उठाई है। चर्च ने डा. मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली संप्रग सरकार पर वायदा तोड़ने का आरोप लगाते हुए दलित ईसाइयों को अनुसूचित जातियों की सूची में शामिल करने पर जोर दिया है।
चर्च के अंदर धर्मांतरित ईसाइयों की दशा चर्च के इस लिबरेशन संडे की पोल खोल देती है। ‘रुकवटे तोड़ों, विश्व में समानता का निर्माण करो’ का नारा ऊपर से भले ही सुहवना दिखाई देता हो पर स्वाल खड़ा होता है कि जो चर्च नेतृत्व ढाई-तीन करोड़ दलित ईसाइयों के लिए अपने ढांचे (चर्च) के अंदर रुकावटे तोड़ कर समानता का महौल नही बना पाया वह गैर ईसाई दलितों का भला कैसे कर सकता है?
स्वाल खड़ा होता है कि सैकड़ों साल पहले हिन्दू समाज से टूटकर ईसाई बन गए धर्मांतरितों के वंशज आज भी ईसाइयत के अंदर ऐसी स्थिति में क्यों है कि उन्हें पुनः हिन्दू दलितों की श्रेणी में रखा जाये। चर्च का हिस्सा बन जाने के बाद भी यदि उन्हें सामाजिक, आर्थिक विषमताओं से छुटकारा नही मिल पाया तो उनके जीवन में चर्च का योगदान ही क्या है। हालांकि चर्च यह मानता है कि भारत की 70 प्रतिशत ईसाई आबादी दलितों की श्रेणी से आती है। परन्तु इसके बावजूद चर्च ढाचें में उनका कोई खास स्थान नही है। चर्चो के अंदर उनके साथ लगातार भेदभाव बढ़ रहा है। भारतीय चर्च अपनी नकामियों का ठीकरा हिन्दू व्यवस्था के सिर फोड़ते हुए अपने अनुयायियों के लिए वही दर्जा पाने की लालसा रखता है जो हिन्दू व्यवस्था में दलितो को मिला हुआ है।
ईसाइयत जाविाद में विश्वास नही करती इसी कारण जातिवाद से छुटकारे के लिए करोड़ों दलितों ने चर्च का दामन थामा था। खुद कैथोलिक बिशप कांफ्रेस आॅफ इंडिया ने अपने वर्ष 1981 में पारित एक प्रस्ताव में कहा है कि ‘ईसाइयत में जातिप्रथा का कोई स्थान नही है…यह प्रथा मनुष्यों को विभाजित करने वाली भेदभाव कारक है। यह प्रथा ईश्वर द्वारा प्रदत्त समानता और महत्ता जो मनुष्य को मिली है, उसका विनाश करने वाली कुप्रथा है।
फादर एन्टोनी राज का अध्ययन भी यह सिद्व करता है कि तमाम बाइबलीय प्रतिबंधों, वेटिकन के आदेशों और संवैधानिक व्यवस्थाओं के तहत चर्च में जातिवाद और छूआछूत को एक अपराध माना गया है। इसके बावजूद पग-पग पर धर्मांतरित ईसाइयों को चर्च के अंदर अपमान सहना पड़ रहा है। चर्च संसाधनों पर मुठ्ठीभर उच्च जातिय कर्लजी वर्ग का एकाधिकार बना हुआ है। विशाल संसाधनों से लैस और साम्राज्यवाद से ग्रस्त चर्च अपना संख्याबल बढ़ाने के चक्र में अपने ढांचें में जातिवाद और छूआछूत को समाप्त करने की अपेक्षा अपने अनुयायियों पर जातिवाद का संवैधानिक टैग लगना चाहता है। कई दलित इसाई विचारकों का मत है कि इससे चर्च को दोहरा लाभ प्राप्त होता है। एक-उसने चर्च के प्रति दलित ईसाइयों में पनपते आक्रोश को बड़ी ही होशयारी से सरकार की तरफ मोड़ दिया है। दूसरा-उसे जनजातियों की तरह दलितों में अपनी गहरी पैठ बनाने का सुअवसर मिलेगा।
दलित ईसाइयों का विकास भारतीय चर्च का कभी लक्ष्य नही रहा उन्होंने चर्च के कारोबार को बढ़ाने में ही उनका इस्तेमाल किया है। इसे एक छोटे से उदाहरण से ही समझा जा सकता है मौजूदा समय में कैथोलिक चर्च के 168 बिशप है (ईसाई समाज में सर्वाधिक ताकतवर पद) इनमें केवल 4 दलित बिशप है। तेरह हजार डैयसेशन प्रीस्ट, चैदह हजार रिलिजयस प्रीस्ट, पँाच हजार बर्दज और एक लाख के करीब नन है जिनमें से केवल कुछ सौ ही दलित पादरी है और वह भी चर्च ढांचे में हाशिए पर पड़े हुए है। हालही में दिल्ली कैथोलिक आर्चडायसिस के एक मात्र दलित ईसाई पादरी फादर विल्यम प्रेमदास चैधरी ने अपनी आत्मकथा ‘ऐन अन्वाटेंड प्रीस्ट’ में दलित पादरियों की व्यथा पेश की है।
आम धारणा है कि भारत सरकार के बाद चर्च के पास भूमि है वह भी शहरी क्षेत्रों के पाश इलाकों में। भारत में चर्च को कुछ संवैधानिक अधिकार प्राप्त है। भाषा और संस्कृति को संरक्षण देने वाली संवैधानिक धराओं का दुरुपयोग करते हुए चर्च ने भारत में कितनी संपति इकट्ठी की है इसकी निगरानी करने का कोई नियम नही है। चर्चो और उनके संस्थानों को नियंत्रित करने के लिए कानून लाया जाना चाहिए। अकेले कैथोलिक चर्च के पास 480 काॅलेज, 63 मैडीकल और नर्सिग काॅलेज, 9,500 सकेंडरी स्कूल, 4,000 हाई स्कूल, 14,000 प्रईमरी स्कूल, 7,500 नर्सरी स्कूल, 5,00 टेªनिग स्कूल, 9,00 टेकिनिकल स्कूल, 2,60 प्रोफेशनल इंसीट्यूट, 6 इंजिनरिंग काॅलेज और 3,000 होस्टल है। कैथोलिक चर्च 1,000 के करीब अस्पताल भी चला रहा है। अगर प्रोटेस्टेंट चर्चो के संस्थानों को भी मिला लिया जाये तो यह संख्या 50,,000 के करीब करीब है।
भारतीय चर्च के इस विशाल साम्राज्यवाद में दलित ईसाइयों की कितनी हिस्सेदारी है। कितने स्कूलों में ईसाई प्रंसीपल और अध्यापक है, कितने काॅलजों में वह प्रोफसर या डीन है। कितने अस्पतालों में वह डाक्टर है। शिक्षा का डंका बजाने वाले चर्च की कृपा से पढ़-लिखकर कितने उच्च पदों पर है और हजारों करोड़ के विदेशी अनुदान से गरीबों का उद्वार करने वाले चर्च के सामाजिक संगठनों में कितनो के निर्देशक दलित ईसाई है। दलित लिबरेशन संडे मनाने से पहले चर्च को यह सब बताना चाहिए। उसे यह भी बताना चाहिए कि चर्च द्वारा चलाये जाते हजारों कान्वेेट स्कूलों में दलित ईसाई बच्चों का कितना प्रतिशत है। क्योंकि दलित ईसाई लगातार आरोप लगाते रहे है कि चर्च के यह स्कूल अल्पसंख्यक अधिकारों की आड़ में मोटा मुनाफा कमाने के अड्डे बन गए है। देश की राजधानी दिल्ली में ऐसे स्कूलों में दलित ईसाइयों की भागीधारी आधा प्रतिशत भी नही है। चाहे तो चर्च इस पर श्वेत पत्र जारी कर सकता है।
यह सच है कि जिन दलितों ने ईसाइयत को अपनाया वह हिन्दू दलितों के मुकाबले जीवन की दौड़ में पीछे छूट गए है। जहां हिन्दू समाज ने विकास की दौड़ में पीछे छूट गए अपने इन अभाव-ग्रस्त भाई-बहनों को आगे बढ़ने के अवसर उपलब्ध करवाये, वही भारतीय चर्च ने अपना साम्राज्य बढ़ाने को प्रथमिकता दी। आगे बढ़ गए हिन्दू दलितों ने हालही में ‘दलित इंडियन चेम्बर आफ काॅमर्स एण्ड इण्डस्ट्री’ की शुरुआत करके पीछे छूट गए दलित बंधुवों को सस्ते कर्ज देकर अपने रोजगार शुरु करने की पहल की है। लेकिन चर्च नेतृत्व ने दलित ईसाइयों के लिए आज तक विकास का कोई माडल ही नही बनाया। ऐसे लिबरेशन संडे मना कर दलित ईसाइयों का उपहास उड़ाने तथा दूसरो को दोष देने की अपेक्षा ऐसी व्यवस्था बनाई जाए कि दलित ईसाइयों का चर्च संसाधनों पर पहला अधिकार हो, तांकि उनके विकास का मार्ग खुल सके।
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