बुधवार, अप्रैल 10, 2013

मानव जीवन के मुख्य संस्कार


मानव जीवन के मुख्य संस्कार

सर्वेश्वर द्वारा निर्धारित संस्कार व्यक्ति को बुराइयों को त्यागने तथा अच्छाईयों को अपनाने व उजागर करने के लिए होते हैं। व्यक्ति बहुधा प्रभु द्वारा फैलाये गय माया जाल में फँसकर अपने विवेक को भूल जाता है। फलत: वह कर्मेन्द्रियों और उनके द्वारा पैदा की गई इच्छाओं का गुलाम बन जाता है। फिर मनुष्य ज्ञानेन्द्रियों पर निंयंंत्रण नहीं रख सकता है। इस हालत में मनुष्य मन को परिष्कृत और सबल करने के लिए प्रभु ने ४० संस्कारों को चलाया है, जिनकी मदद से व्यक्ति में मौजूद खूबियाँ प्रकाश में आ जाती हैं। इससे मनुष्य माया जाल से बाहर निकल सकता है।

ये संस्कार जीवात्मा को परमात्मा के स्वर तक ऊपर उठाने और मोक्ष प्रदान करने के लिए डाले गए हैं। इन संस्कारों का निर्धारण वेदों पर आधारित स्मृतियों में किया गया है। इन पर चलने से मन की मलिनता दूर हो जाती है। फलत: उसमें जो पावनता आ जाती है, उससे भली भावनाओं व विचारों का उदय होने लगता है। उनको अपने कर्मों का आधार बनाने से व्यक्ति देह के स्तर से ऊपर उठकर आत्मा के प्रकाश में आ जाता है। इससे वह मोक्ष-ल्मार्ग पर बढ चलता है।

उस निराकार परब्रह्म के संकल्प से सृष्टि का उदय हुआ। दैवी संकल्प पर ही सृष्टि की स्थिति, पालन और अंतत: विलय आधारित होते हैं। यह इस पुस्तक "मार्ग दर्शनम" के प्रारंभ में ही बताया जा चुका है। गहन विचार करने पर एक शंका का उदय होता है- अंडा और मुर्गी में से पहले कौन अस्तित्व में आया? क्योंकि अंडा मुर्गी से निकलता है और मुर्गी खुद ही अंडे से निकलती है। दोनों एक दूसरे के बिना अस्तित्व में नहीं आ सकते हैं।

उत्तर सरल है- अण्डे को पेट में आने के लिए मुर्गी का गर्भ आवश्यक हो जाता है। द्वितीयत: सभी अंडों से चूजे नहीं निकलते हैं। इसलिए अण्डे के मुर्गी के पहले होने का सवाल ही पैदा नहीं होता है। मुर्गी को निराकार परब्रह्म, अंडे को उनका दैवी संकल्प और चूजे को सृष्टि कहा जा सकता है। यहाँ पर मुर्गे और अंडे का जिक्र किया गया है, क्योंकि उस निराकार परब्रह्म द्वारा निर्धारित संस्कार निम्नादुसार हैं:-

१. गर्भ-धारण :- साधारण तौर पर यह दो शरीरों का शारीरिक सुख पाने की कामना के साथ परस्पर एक दूसरे के समीप आना है। निराकार सर्वेश्वर के मामले में यह गर्भधान विचार का प्रगतीकरण है।

२. पुंसावन : यह प्रभु से विनती है कि गर्भ में पल रहा शिशु गर्भपात का शिकार न हो जाये। यह विनती गर्भाधान के तीसरे महीने में की जाती है। इसको ’गर्भरक्षणम" भी कहते हैं। निराकार के संदर्भ में यह प्रकट विचार को स्थाई बनाने की कोशिश है।

३. सीमांतनम : यह सामाजिक त्यौहार है। इसको गर्भपात के छठे या आठवे महीने में मनाया जाता है, जिससे प्रसवावस्था में नारी प्रसन्न रहा करे। निराकार तो वैसे ही सत, चित आनंद हैं। इसलिए उनके लिए किसी अलग त्यौहार-उत्सव की जरूरत नहीं।

४. जात कर्मम : यह शिशु के जन्म के तुरंत बाद मनाया जाने वाला उत्सव है, जिसके अंतर्गत मिठाइयाँ वितरण कर खुशी मनाई जाती है। निराकार के स्तर पर यह संकल्प के फलस्वरूप सृष्टि है।

५. नामकरणम : नवजात शिशु के जन्म के बाद ग्यारहवें रोज उसका नाम रख दिया जाता है। निराकार के लिए उसकी सृष्टि को ’ब्रह्माण्डीय विश्व’ नाम से जाना जाता है।

अभी तक निराकार के प्रकट विचार और ’ब्रह्माडीय विश्व’ के मध्य अंतर को स्पष्ट रखा जा रहा है। इसके बाद निराकार द्वारा निर्धारित संस्कारों के विवरण में इस अंतर को कम किया जा रहा है।

६. अन्न प्रासनम : छठे मास में शिशु को प्रथम बार अन्न चखाया जाता है। ब्रह्माण्डीय विश्व के जीव ब्रह्माण्डीय प्रकृति के माध्यम से भोजन ग्रहण करते हैं।

७. चौलम : विद्याध्ययन प्रारंभ करने के पूर्व जीव का मंत्रों के साथ चूडा कर्म संस्कार किया जाता है।

८. उपनयनम : बालक के समुचित विकास के लिए उपनयन संस्कार किया जाता है। इस संस्कार के जरिये प्रकृति को संस्कृति में विकसित करने का प्रयास तथा विकृति की ओर जाने से बचाने का प्रयत्न किया जाता है। इस संस्कार के जरिये बालक बौद्धिक और आध्यात्मिक पथ पर बढने लगता है। इसके बाद पुरूष सभी वैदिक कर्मकाण्डों में भाग ले सकता है।

’उपनयन’ शब्द ’उप’ + ’नयन’ के मेल से बना है। ’उप’ का अर्थ समीप अर्थात ज्ञान या ब्रह्म होता है। लेकिन जिज्ञासा पैदा होती है कि यहाँ ’नयन’ (आँख) क्यों आया? यह साधारण आँख न होकर तीसरी आँख है जो ज्ञान प्राप्त करने के लिए होती है। इसका तात्पर्य सामान्य शिक्षा प्राप्त करने की शुरुआत भी होता है। उपनयन संस्कार ८, १२ या १६ साल पूरे करने के पहले सम्पन्न हो जाना चाहिये। सोलह साल के बाद व्यक्ति में काम वासना जागृत होने लगती है। उसके पूर्व ही उपनयन संस्कार हो जाना चाहिए। ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य तीन जाइयों के लोग उपनयन संस्कार करते हैं। ब्राह्मण सभी जातियों के लोगों का गुरू होता है, जब कि अग्निदेव ब्राह्मण के गुरु होते हैं।

ब्रह्मचारी के लिए उपनयन शुरुआती संस्कार है। गुरु उसको आशीष देते हैं। गुरु के निर्देशों के अनुसार शिष्य स्फतिक शिला पर खडे होकर कहता है, "अस्म आरोहणम" (कृपया मुझे सुन्दर स्वास्थ्य की आशीष से अनुगृहित करें) तब गुरु उसको आशीष देते हुए कहते हैं, चट्टान की भाँति दृढ-संकल्प वाले बनो।" ब्रह्मचारी को अपने मन-मस्तिष्क में किसी प्रकार की कमजोरी को प्रवेश करने नहीं देना चाहिए।

उपनयन के बाद ब्रह्मचारी को कुछ नियमों का पालन करना चाहिए - उसको दिन में नहीं सोना है; सौन्दर्य प्रसाधनों का उपयोग नहीं करना है; महिलाओं की संगति में नहीं रहना है; नकारात्मक भावनाओं को भडकने वाली चीजें न तो देखनी है और न ही जुबान पर लानी हैं; फिजूल की गप्पेबाजी में रुचि महीं रखनी है और सांसारिकता से दूर रहना है। सदैव सकारात्मक दृष्टिकोण रखने के लिए उसको शांत चित होना चाहिए, आलस्य से परहेज रखना चाहिए तथा मन में सदैव भली भावनाँए व विचार ही होने चाहिँए।

उपनयन संस्कार संपन्न होने के बाद बालक वेदों का अध्ययन कर सकता है। इस संस्कार के दौरान गुरु मंत्र द्वारा ब्रह्मचारी को दीक्षा देता है। मंत्र तथा उसका अर्थ निम्नवत है:-

’ऊँ’ - आदिनाद जो ब्रह्मा का प्रतीक है।

’भूर’ - भौतिक संसार, जिसमें आध्यात्मिक ऊर्जा या प्राण
मौजूद होते हैं।

’भुव:’ - मानसिक जगत जो सारे कष्टों का निवारक है।

’सुव:’ - देव एवम आध्यात्मिक लोक जो
सुख-सुविधाओं से प्रिपूर्ण है।

’ तत्त’ - निराकार-निर्गुण प्रभु।

’सवितुर’ - विश्व का सृजनकर्ता एवम पालनकर्ता सूरज।

’वरेण्यम" - अति सुन्दर।

’भर्गो’ - सर्व पापनाशक।

’देवस्य’ - सर्वोच्च।

’धीमहि’ - अपने अंदर स्थित कर ध्यान लगाते हैं।

’धियो’ - बुद्धि।

’यो’ - प्रकाश।

’न:’ - हमारा।

’प्रचोदयात’ - उत्साहित करना।

हम विश्व के रचयिता की महिमा पर ध्यान लगाते हैं।

वे पूजनीय हैं, ज्ञान-पुंज एवम प्रकाश के पुंज हैं और सभी पापों व अज्ञान को दूर करने वाले हैं। ऎसे प्रभु हमारी बुद्धि को उज्जवल बनाएँ।

मंत्र का सार इस प्रकार है - ’हे प्रभु! आप जीवनदाता हो, दुख व कष्टों को हरने वाले हो और सुख की वर्षा करने वाले हो। हे विश्व के सृजनकर्ता! हम आपकी पाप-विनाशक प्रकाश -किरणें प्राप्त कर सकें और आप हमारी बुद्धि को सदैव सही मार्ग पर निर्देशित करते रहें।’

गायंत्री मंत्र को तीन भागों में वर्गीकृत किया जाता है:-

(१) प्रशंसा (२) ध्यान (३) प्रार्थना ।

मंत्र का उच्चारण करते हुए हम सर्वप्रथम भगवान अथवा दैवी ब्रह्माण्डीय उर्जा की प्रशंसा करते हैं और पूर्ण आदर भाव के साथ उस पर ध्यान केन्द्रित करते हैं और अंतत: प्रभु से विनती करते हैं कि वे हमारी अथवा किसी अन्य व्यक्ति की बौद्धिक शक्ति को उदबोधित कर उसको सशक्त करें।

यह मंत्र सभी देवी देवताओं के लिए है। इसका किसी धर्म जाति, काल या क्षेत्र से कोई संबंध नहीं है। मंत्र में ’ऊँ, भूर, भुव: सुव:;, तत, सवितुर, वरेण्यम, भर्गो, और देवस्य’ नौ शब्द नौ रगों या भगवान की प्रशंसा हैं तो धीमहि का संबंध ध्यान से और धियो, यो, न: और प्रचोदयात मंत्र का प्रार्थना भाग है।

’गायत्री’ को वेद माता माना जाता है। उनके सावित्री और सरस्वती दो और स्वरूप हैं। ये तीनों हर व्यक्ति में मौजूद माने जाते हैं। इनमें गायत्री व्यक्ति की ज्ञानेन्द्रियों को, सावित्री जीवन-शक्ति प्राण को तथा सरस्वती वाणी और कर्म कॊ पावनता का प्रतिनिधित्व करती हैं। इस मंत्र के उच्चारण से व्यक्ति की बौद्धिक एवम सृजनात्मक शक्तियों को बढावा मिलता है।

गायत्री को पंच्मुखी माना जाता है, जिनमें हर मुख एक ज्ञानेन्द्रिय पर नियंत्रण रखता है। उसी तरह सावित्री पंच-प्राणॊं की रक्षक मानी जाती है। देवी सावित्री का महत्व सावित्री-सत्यवान की कथा से भी संबंधित माना जाता है। सत्यवान कि जीवन अवधि की समाप्ति पर यमराज उनके प्राणों को ले जाने लगते हैं तो सावित्री उनके पीछे-पीछे चलने लगती हैं; क्योंकि पति के प्राणान्त का परिणाम उनका वैधव्य होता। सतीत्व के लिए सावित्री को यह सहनीय नहीं था। यमराज और सावित्री के बीच सत्यवान के प्राणों के लिए चलने वाली इस खींचतान में सतीत्व विजयी होता है और सत्यवान पुन: जी उठते हैं। इस प्रकार अपने सतीत्व के बल पर सावित्री ने मौत के देवता तक को मात दे दी।

इस गायत्री मंत्र को ही सावित्री मंत्र भी कहा जाता है। यह मंत्र सर्वप्रथम महर्षि विश्वामित्र को प्रकट हुआ। उन्हें गायत्री नामक वैदिक छंद में यह मंत्र प्रकट हुआ था। इस मंत्र को सिखाये जाने के प्रारम्भ में शिष्य को तीन तार वाला तिसूती जनेऊ पहनाया हाता है। जनेऊ पर एक गाँठ होती है जो प्रणव का ड्योतक होती है। जनेऊ के तीन तार तीन स्वरूपों के प्रतीक माने जाते हैं -आत्मा (देह सहित), अंतरात्मा (चैतन्य) तथा परमात्मा(ब्रह्माण्डीय ऊर्जा, प्राण वायु या सर्वेश्वर)।

उपनयन संस्कार के समापन पर गुरु शिष्य को वेद शास्त्रों के गहन अध्ययन के लिए गुरुकुल ले जाते हैं। वहाँ पर नीचे दिए गए संस्कार ९ से १२ तक सम्पन्न किए जाते हैं :-

९. प्रजापत्याम ।

१०. सौम्यम ।

११. आग्नेयम ।

१२. विश्वदेवम ।

वास्तव में ये चारों यजुर्वेद के काण्ड हैं। हर काण्ड का नाम उस ऋषि का है, जिसको वह वेद-मंत्र प्रकट हुआ था। इन ऋषियों को ’काण्ड ऋषि’ कहते हैं। ब्रह्मचारी को इन ऋषियों के प्रति सादर नमन करना है। उन्ही के माध्यम से उसको इन मंत्रों का ज्ञान प्राप्त होता है। उसके आभार स्वरूप ब्रह्मचारी उनको प्रणाम करता है। इस प्रणाम को ’उपकर्म’ कहते हैं, जिसका अर्थ वेदों के अध्ययन का शुभारम्भ है।

यजुर्वेद श्रावण (अगस्त - सितम्बर) मास की पूर्णिमा के दिन इस उपकर्म का आयोजन करते हैं। इस पूर्णिमा दिवस को अत्यंत पावन माना जाता है, क्योंकि इस रोज भगवान नारायण ने भगवान हयग्रीव रूप में अवतार लेकर वेदों को ब्रह्मा के हवाले किया। ब्रह्मा को ज्ञान का स्वरूप माना जाता है।

प्रतिवर्ष यजुर्वेद अध्ययन के लिए उपक्र्म समय जनवरी मध्य से अगस्त मध्य तक नियत होता था। साल के शेष महीनों, अर्थात अगस्त मध्य से जनवरी मध्य तक का समय अन्य शास्त्रों के अध्ययन के लिए होता था। एक वेद से सम्पूर्ण अध्ययन में १२ साल लगते थे। शनै: शनै: वैदिक अध्ययन सरे वर्ष भर जारी रखा जने लगा। प्रतिबन्धित महीनों में भी वेदों का अध्ययन जारी रखना कसूर माना जाता था। इस कसूर के निवारण के लिए शिष्य को प्रायश्चित करना पडता था। उपकर्म संस्कार के पूर्व प्रायश्चित करना होता था। साथ ही वेदों के अध्ययन हेतु नियत काल में ऎसा न कर पाना भी अपराध समझा जाता था। इस गलती के निवारण के लिए शिष्य को उत्सर्जन (भूल-चूक) कर्म करना पडता था। एतदर्थ ’कामो कार्षित’ मंत्र का १००८ बार पाठ करना पडता था। कामो कार्शित का अर्थ विषय-वासना और क्रोध से किया गया कार्य होता है।

यह कामो कार्षित मन्यूरा कार्षित जप अपराध बोध और उसकी क्षमा के लिए किया जाता है। सर्वेश्वर के अलावा पवित्र शास्त्रों के अध्ययन में की गई गलती को क्षमा कौन कर सकता है? इसलिए दयालु प्रभु से विनती की जाती है कि वे शिष्य के अन्दर शास्त्रों की ज्योति प्रज्ज्वलित करें, जिससे उसको अंतत: मोक्ष की प्राप्ति हो सके। इस जप के बाद खण्ड ऋषि तर्पणम उपकर्म किया जाता है। यह दोपहर (मध्याह्रिकम) भगवद आराधना के बाद किया जाता है।

१३. समावर्तनम (स्नानम) - गुरुकुल में निवास करते हुय ब्रह्मचर्यपूर्ण करने के उपलक्ष्य में यह संस्कार मनाया जाता है। तदुपरान्त व्यक्ति शादी कर अपने माता पिता की सेवा करते हुय गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करने का पात्र माना हाता है।

१४. विवाह - विवाह के साथ ही व्यक्ति गृह्स्थाश्रम में प्रवेश करता है, जिसकी समाप्ति उसके प्राणान्त से ही होती है। इस आश्रम के दायित्व पूरे करते हुय गृहस्थ कई कर्मकाण्डों के जरिये देवताओं, ब्रह्मा, पितरों, भूत और नर की प्रसन्नता के लिए काम करता है। इस संदर्भ में वह कुछ यज्ञ-याग भी करता है।

धार्मिक संस्कार व कर्मकाण्डों में यज्ञ का बडा महत्व है। वैदिक काल से ही यज्ञ प्रचलित हैं। यज्ञ-कुण्ड के अग्निदेव यज्ञकर्ता द्वारा जाने वाली आहुतियों के स्वरूप में उसके बलिदान के साक्षी रहते हैं। यज्ञ करने वाले मानते हैं कि अग्निदेव के माध्यम से उनकी विनती देवी-देवताओं तक पहुँच जायेगी, जिससे उनकी मनोकामनाओं की पूर्ति हो जायेगी।

यज्ञ का विशद एवम गहन महत्व है। यह प्रमुखतया तीन लक्ष्यों से किया जाता है - (१) देवी-देवताओं कॊ पूजा, (२) संगठित करना (एकता स्थापित करना) और (३) दान। यज्ञ समाज में मेल-मिलाप के साथ रहने तथा उच्च मानवीय मूल्यों पर चलने की शिक्षा देते हैं। यज्ञ आदर्श मानव-संस्कृति के आधार हैं।

वेदों में ४०० यज्ञ दिय गय हैं, जिनमें से २० को नित्य कर्म कहते हैं। उन्हें जीवन में अवश्य किया जाना है। अन्य यज्ञ इच्छानुसार किए जा सकते हैं, क्योंकि वे विभिन्न कामनाओं की पूर्ति से संबंधित होते हैं। नित्य कर्म यज्ञों को, अग्निहोत्रम यज्ञ के अपवाद को छोडकर, हर होज करना आवश्यक नहीं है। बेश्क अग्निहोत्रम यज्ञ दिन में दो बार सूर्योदय एवम सूर्यास्त के समल्य किया जाना आवश्यक है।

पंच महायज्ञ को छोडकर पाक यज्ञ, हविर यज्ञा और सोम यज्ञ में से प्रत्येक में सात-सात यज्ञ होतें हैं।

पंच महायज्ञ :

’तैत्तिरीय आरण्यक’ में दिये गये पंच महायज्ञ निम्नवत हैं :-

१५. देव यज्ञ - इसमें देवी-देवताओं को आहुतियाँ दी जाती हैं।

१६. पितृ यज्ञ - दिवंगत माता-पिता तथा पितरों को आहुतियाँ दी जाती हैं।

१७. नर यज्ञ - अतिथियों के प्रति आहुतियाँ दी जाती हैं।

१८. भूत यज्ञ - जानवरों, पक्षीयों और पेड-पौधों सहित सभी वर्तमान एवम वेगत जीवधारियों को आहुतियाँ दी जाती हैं।

१९. ब्रह्मा यज्ञ - चारोम वेदों में मौजूद विशेष श्लोकों का नियमित तौर पर गायन।

पाक यज्ञ :

ये यज्ञ निम्नवत सात किस्म के होते हैं :-

२०. अष्टकई - यह पितृ कर्म यज्ञ है जो साल में एक बार पितरों के देह-त्याग की तिथि पर आयोजित किया जाता है।

२१. स्थालीपकम - स्थली वह बर्तन है, जिसमें चावल पकाये जाते हैं। इसको उपासना अग्नि पर रखा जाता है, जिसमें चरु नामक चावलों को पका देते है। इस भात को अग्नि को ही होम कर दिया जाता है। इस यज्ञ को शुक्ल पक्ष के पहले रोज किया जाता है।

२२. पारवणम - यह भी पितृ यज्ञ है, जिसका आयोजन हर मास में एक बार किया जाता है।

२३. श्रावणी - इसको साल में एक बार सिर्फ श्रावण मास में करते हैं। इसको ’सर्प बलि’ भी कहते हैं।

२४. अग्रहायणी - इसको भी साल में एक बार मध्य दिसम्बर में आयोजित किया जाता है।

२५. चैत्री - यज्ञ भी साल में केवल एक बार चैत्र मास में करते हैं। इसको ’ईशान बलि’ भी कहते हैं।

२६. आश्वायुजी : इसको साल में सिर्फ एक बार अश्विनी मास (असूज) में मनाया जाता है।

हविर यज्ञ :

यह यज्ञ हर प्रथमा दिवस को आयोजित किया जाता है। इस दिन को ’दर्श-पूर्ण-इस्ती भी कहते हैं (दर्श = शुक्ल पक्ष का चाँद + पूर्ण = पूनम) दोनों को मिलाकर ’इस्ती’ भी कहते हैं। दर्शपूर्णमास इस्ती हविर यज्ञ के लिए उचित समय है। प्रथम चार यज्ञ अग्निहोम, दर्शपूर्ण्मास और आग्रयाणम घर पर ही आयोजित किये जाते हैं; जबकि शेष तीन यज्ञ यज्ञमाला में दिये जाते हलिं।

२७. अग्निदान - यह यज्ञ साल या जीवन में एक ही बार किया जाता है। शादी के बाद अग्नि को दो में विभाजित किया जाता है। शादी के बाद अग्नि को दो में विभाजित किया जाता है - ’गृहयाग्नि’ उपासना के लिए तथा ’श्रोताग्नि’ अग्निहोम और अन्य यज्ञों को करने के लिए।

२८. अग्निहोम - दुध के साथ यह यज्ञ प्रतिदिन किया जाता है। इसमें अक्ष्तों या घी का उपयोग भी किय्ला जा सकता है।

२९. दर्शपूर्णमास- यह यज्ञ महीने के हर पखवाडे के प्रथम दिवस को किया जाता है।

३०. आग्रयाणम - इस यज्ञ को पूर्णिमा के रोज साल या जीवन में एक बार आयोजित करते हैं।

३१. चातुर्मासम - यह यज्ञ साल या जीवन में एक बार बरसात में किया जाता है।

३२. निरुद्ध पशुबंधनम - इसको साल या जीवन में एक बार करते हैं। इस यज्ञ से गोदान की शुरुआत होती है।

३३. सौद्रामणि- साल या जीवन में केवल एक बार आयोजित किया जाता है। ’क्षुद देवताओं’ की प्रसन्नता हेतु किये जाने वाले इस यज्ञ में सुरा का इस्तेमाल भी होता है।

सोम यज्ञ :

इस यज्ञ का नाम सोम नाम के पौधे पर पडा है। कहा हाता है कि इस पौधे का रस देवताओं को अति प्रिय था। अब इस यज्ञ के अंतर्गत देवताओं को प्रसन्न कर अपनी मनौती मनवाने के लिए सोमरस का आहुति में उपयोग किया जाता है। इसके अंतर्गत किए जाने बाले सात यज्ञों में अग्निश्तोम प्रथम यज्ञ है। यह यज्ञ जिस विधि से किया जाता है, शेष छ: यज्ञ भी उसी प्रकार मनाये जाते है।

इन यज्ञों में वाजपेय यज्ञ विशेष माना जाता है। इसका यजमान बलिदान देने के बाद विधिवत स्नान कर जब आता है तो राजा स्वयम छाता ताने उसके पीछे पीछे चलते हैं। वाज का शाब्दिक अर्थ भात और पेय का मतलब पेय पदार्थ होता है। इसको विजय का पेय मानते हैं। बलिदान में सोमरस सहित २२ पशु और अन्न दान के तौर पर दिये जाते हैं। इन सातों यज्ञों को साल में एक बार अथवा जीवन में एक बार किया जाता है। ये यज्ञ इस प्रकार हैं:-

३४. अग्निश्तोम।

३५. अत्यग्निश्तोम।

३६. उक्त्यम।

३७. शोतषि।

३८. वाजपेय।

३९. अदिरायम।

४०. आप्तोयामम।


संस्कारों के उद्देश्य
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संस्कारों के दो उद्देश्य थे। एक उद्देश्य तो प्रकृति में विरोधी शक्तियों के प्रभाव को दूर करना और हितकारी शक्तियों को अपनी ओर आकर्षित करना था, क्योंकि प्राचीन हिंदूओं का भी अन्य प्राचीन जातियों की भांति यह विश्वास था कि मनुष्य कुछ अधिमानव प्रभावों से घिरा हुआ है। इस प्रकार वह बुरे प्रभाव को दूर करके और अच्छे प्रभाव को आकर्षित करके देवताओं और इन अधिमानव शक्तियों की सहायता से समृद्ध और सुखी रहेगा। संस्कारों के द्वारा वे पशु, संतान, दीर्घायु, संपत्ति और समृद्धि की आशा करते थे। संस्कारों के द्वारा मनुष्य अपने हर्षोल्लास को भी व्यक्त करता था।

दूसरा मुख्य उद्देश्य सांस्कृतिक था। मनु के अनुसार मनुष्य संस्कारों के द्वारा इस संसार के और परलोक के जीवन को पवित्र करता है। इसी प्रकार के विचार याज्ञवल्क्य ने व्यक्त किये हैं। प्राचीन भारतीयों का विश्वास था कि प्रत्येक मनुष्य शूद्र उत्पन्न होता है और उसे आर्य बनने से पूर्व शुद्धि या संस्कार की आवश्यकता होती है। इसी उद्देश्य से उपनयन संस्कार किया जाता था। संस्कारों का उद्देश्य मनुष्य का नैतिक उत्थान और उसके व्यक्तित्व का पूर्ण विकास करके जीवन के अंतिम लक्ष्य मोक्ष तक पहुँचने के योग्य बनाना था। संस्कारों का संबंध मनुष्य के संपूर्ण जीवन से था। वे जीवन भर इस संसार में और आत्मा के द्वारा परलोक में भी उस पर प्रभाव डालते थे।

जीवन भर मनुष्य संयम का जीवन बिताता था और उद्देश्य की प्राप्ति के लिए अनुशासन में रहता था। इस प्रकार समाज में समान संस्कृति के और अधिक चरित्रवान व्यक्तियों का प्रादुर्भाव होता था। प्राचीन भारतीयों की धारणा थी कि संस्कारों के द्वारा मनुष्य की आध्यात्मिक उन्नति भी होती है। इन के द्वारा मनुष्य को यह अनुभूति होती है कि संपूर्ण जीवन ही आध्यात्मिक साधना है।

इस प्रकार संस्कारों के द्वारा सांसारिक और आध्यात्मिक जीवन में सुंदर समन्वय स्थापित किया गया था। शरीर और उसके कार्य अंतिम लक्ष्य की प्राप्ति में सहायक माने जाते थे न कि बाधक।

संस्कारों का उद्देश्य मनुष्य की पाशविकता को परिष्कृत- मानवता में परिवर्तित करना था। प्राचीन काल में मनुष्य के जीवन में धर्म का विशेष महत्व था। संस्कारों का उद्देश्य मनुष्य के व्यक्तित्व को इस प्रकार विकसित करना था कि वह विश्व में मानव और अतिमानव शक्तियों के साथ समन्वय स्थापित कर सके। इनका उद्देश्य मनुष्य को बौद्धिक ओर आध्यात्मिक रुप से सुसंस्कृत बनाना था।

गर्भाधान से जन्म तक के संस्कारों का उद्देश्य सुजनन विज्ञान की शिक्षा और विद्यारंभ से समावर्तन तक के संस्कारों का शैक्षिक महत्व था। विवाह संस्कार का सामाजिक महत्व था। इस संस्कार के द्वारा मनुष्य का पारिवारिक जीवन सुखी बनता था और समाज में सुव्यवस्था रहती थी। अंत्येष्टि संस्कार का उद्देश्य पारिवारिक और सामाजिक स्वास्थ्य परिवार के जीवित व्यक्तियों को सांत्वना प्रदान करना था।

ये संस्कार वर्ण- धर्म और आश्रम- धर्म दोनों का अभिन्न भाग थे। वर्ण- धर्म का उद्देश्य व्यक्ति के कार्यों को समाज के हित को ध्यान में रख कर नियंत्रित करना था। आश्रम धर्म का भी यही उद्देश्य है, किंतु इसमें प्रमुख रुप से व्यक्ति के हित को ध्यान में रखा जाता था। इन दोनों दृष्टिकोणों को मिलाने वाली कड़ी संस्कार है। संस्कारों के द्वारा व्यक्ति पहले से अधिक संगठित और अनुशासित होकर एक चरण से दूसरे चरण में प्रवेश करता था। इस प्रकार प्रशिक्षण देकर व्यक्ति को समाज के लिए पूर्णतया उपयोगी बनाया जाता था। गृहस्थाश्रम में योग्य संतान उत्पन्न करके पति- पत्नी समाज के प्रति अपना कर्तव्य पूरा करते थे, किंतु साथ ही वे अपनी निजी उन्नति भी करते थे। गृहस्थाश्रम भी वानप्रस्थ की और इसी प्रकार वानप्रस्थ संन्यास की पृष्ठभूमि हैं। सभी आश्रम व्यक्ति को उस के लक्ष्य मोक्ष की ओर ले जाते हैं।

संस्कार के समय जो धार्मिक क्रियाएँ की जाती हैं, वे व्यक्ति को इस बात की अनुभूति करती है कि उसके जीवन में इस संस्कार के बाद कोई महत्वपूर्ण परिवर्तन होने जा रहा है। उदाहरण के लिए उपनयन संस्कार उसे इस बात की अनुभूति कराता है कि वह इस संस्कार के बाद उस समुदाय की सांस्कृतिक परंपरा का अध्ययन करेगा, जिस समुदाय विशेष का वह सदस्य है। इसी प्रकार विवाह संस्कार के बाद संतानोत्पत्ति करके अपने समुदाय की शक्ति बढ़ाने का निश्चय करता है। गृहस्थाश्रम में प्रविष्ट होकर वह समाज के प्रति अपना कर्तव्य पूरा करके धर्म- संचय करता है, जिससे उसकी आध्यात्मिक उन्नति होती है, जो उसे उसके जीवन के लक्ष्य अर्थात् मोक्ष की ओर अग्रसर करती है।

संस्कारों के समय की जाने वाली धार्मिक क्रियाएँ व्यक्ति को इस बात की अनुभूति कराती थी कि अब उसके ऊपर कुछ नई जिम्मेदारियाँ आ रहीं हैं, जिन्हें पूरा करके ही वह समाज की और अपनी दोनों का उन्नति कर सकता है। इस प्रकार संस्कार पूर्वजन्म के दोषों को दूर करके और गुणों का विकास करने में सहायक होकर व्यक्तित्व का पूर्ण विकास करके व्यक्ति और समाज दोनों की उन्नति में सहायक होते थे, इसलिए प्राचीन भारत में संस्कारों का इतना महत्व था।

कालांतर में जन साधारण संस्कारों के सामाजिक और धार्मिक महत्व को भूल गए। संस्कार एक परम्परा मात्र रह गए। उनमें गतिशीलता न रही। समाज की बदलती हुई परिस्थितियों के अनुसार उनमें परिवर्तन नहीं किए गए। उनमें मानव को सुसंस्कृत बनाने की शक्ति न रही। वे नित्य चर्या से संबंधित धार्मिक- कृत्य मात्र रह गए। उनका जीवन पर प्रभाव लेशमात्र भी न रहा। अब वैज्ञानिक प्रगति के कारण जीवन की संकल्पना ही बदल गयी है। अब मानव उन अतिमानव शक्तियों में विश्वास नहीं करता, जिनके अशुभ प्रभाव को दूर करने और अच्छे प्रभाव को आकर्षित करने के लिए संस्कार किए जाते थे, किंतु मानव जीवन का स्रोत अब भी एक रहस्य है। अतः मनुष्य अब भी संस्कारों के द्वारा अपने जीवन को पवित्र करना चाहता है। मनुष्य अब भी यह भली- भांति जानता है कि जीवन एक कला है। उसको सफल बनाने के लिए जीवन का परिष्कार करने की आवश्यकता है। व्यक्ति के सुसंस्कृत होने पर ही समाज सुसंस्कृत हो सकता है। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए वर्तमान काल में भी संस्कारों का अपना अलग महत्व है। संस्कारों का रुप बदल सकता है, किंतु जीवन को सफल बनाने की दिशा में उनका महत्व कम नहीं हो सकता।

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