शनिवार, जनवरी 21, 2012

अलोकतांत्रिक है, सलमान रुश्दी का विरोध : जाहिद खान

भारतीय मूल के विवादास्पद ब्रिटिश लेखक सलमान रुश्दी एक बार फिर चर्चा में हैं। रुश्दी की चर्चा उनकी कोई नई किताब को लेकर नहीं, बल्कि उनके भारत आने को लेकर है। वे भारत आएं, इससे पहले ही उनकी यात्रा को लेकर विवाद शुरू हो गया है। विरोध का ये झंडा उठाया है, दारुल उलूम देवबंद ने। उस दारुल उलूम ने जो दुनिया में इस्लामी तालीम का सबसे बड़ा मरकज माना जाता है। दारुल उलूम देवबंद के कुलपति मौलाना अब्दुल कासिम नोमानी ने भारत सरकार से मांग की है कि वह रुश्दी को भारत न आने दे। क्योंकि, उन्होंने अपने उपन्यास में मुसलमानों के मजहबी जज्बात को चोट पहुंचाई है।

दारुल उलूम से विरोध की यह आवाज उठी, तो इससे और भी आवाजें मिल गईं। जमीयत उलेमा-ए-हिंद और दूसरे मजहबी इदारे व अंजुमनों के साथ-साथ सियासी पार्टियां भी इस वाक् युद्ध में शामिल हो गईं। सबके अपने-अपने एतराज और दलीले हैं। अपने छोटे से सियासी फायदे के लिए उन्हें इस बात की जरा सी भी परवाह नहीं कि इस विवाद से दुनिया में मुल्क की क्या छवि बनेगी और उसकी लोकतांत्रिक छवि को कितना नुक्सान पहुंचेगा? इस सब के बाद आखिरकार रुश्दी ने अपनी भारत यात्रा फिलहाल स्थगित कर दी है।

गौरतलब है कि सलमान रुश्दी राजस्थान की राजधानी जयपुर में 20 से 24 जनवरी तक होने वाले साहित्य महोत्सव में हिस्सा लेने वाले थे। उनकी यात्रा विशुद्ध साहित्यिक यात्रा थी, लेकिन इस यात्रा को भी तंगनजर मजहबी उलेमाओं और मतलबपरस्त सियासतदानों ने विवाद का मौजू बना कर रख दिया है। रुश्दी की मुखालफत उनकी उस किताब ‘सैटेनिक वर्सेज’ को लेकर हो रही है, जो आज से 24 साल पहले लिखी गई थी। रुश्दी पर इल्जाम है कि उन्होंने अपनी इस किताब में जानते-बूझते एक ऐसा किरदार गढ़ा, जिससे मुसलमानों के मजहबी जज्बात भड़कें। सैटेनिक वर्सेज के विरोध से इतर जिन पाठकों ने इस किताब को पढ़ा है, उनका मानना है कि किताब में ऐसा कुछ भी नहीं, जो एतराज के काबिल हो। सच बात तो यह है कि किताब में सलमान रुश्दी ने एक इमाम का जो किरदार दिखलाया है, वह ईरान के सर्वोच्च धार्मिक लीडर अयातुल्लाह खुमैनी से मिलता-जुलता है।

जाहिर है, जब यह किताब उस वक्त बाजार में आई, तो इसका सबसे ज्यादा विरोध ईरान में ही हुआ। ईरान में न सिर्फ किताब सैटेनिक वर्सेज का विरोध हुआ बल्कि किताब के लेखक सलमान रुश्दी का भी विरोध हुआ। यहां तक कि ईरान हुकूमत ने ‘ईश निंदा’ के इल्जाम में रुश्दी के खिलाफ मौत का फतवा जारी कर दिया। पूरी दुनिया में सैटेनिक वर्सेज को कुछ इस तरह से प्रचारित किया गया कि किताब इस्लाम और उसके पैगम्बर का मखौल उड़ाती है। जबकि, विरोध करने वालों में से शायद ही कुछ ऐसे हों, जिन्होंने यह किताब पढ़ी हो या उसे कुछ समझा हो। सारा विरोध केवल सुनी सुनाई बातों पर ही आधारित है।

बहरहाल, कई इस्लामिक मुल्कों के साथ-साथ भारत में भी कट्टरपंथियों के दबाव में तत्कालीन भारतीय हुकूमत ने सैटेनिक वर्सेज पर पाबंदी लगा दी। तब से किताब पर यह पाबंदी आज तक जारी है। अलबत्ता, सलमान रुश्दी कई बार भारत आ चुके हैं। जिस जयपुर लिटरेरी फेस्टिवल में उनके आने को लेकर बवाल मचा हुआ है, वहां वे साल 2007 में भी शिरकत कर चुके हैं। लेकिन तब ऐसा कोई हंगामा नहीं हुआ। फिर अचानक ऐसी क्या बात हुई कि उनका विरोध होना शुरू हो गया? जबाव ज्यादा मुश्किल नहीं। उत्तर प्रदेश समेत 5 राज्यों में विधान सभा चुनाव हो रहे हैं। जिसमें उत्तर प्रदेश का चुनाव सबसे खास है।

उत्तर प्रदेश में 100 से ज्यादा ऐसी सीटे हैं, जहां मुसलमानों के वोट निर्णायक साबित होंगे। जाहिर है, इन्हीं वोटों की खातिर सभी राष्ट्रीय और क्षेत्रीय पार्टियां मुसलमानों को लुभाने के लिए कोई कोर कसर नहीं छोड़ रहीं। भारत में यह बात कई बार साबित हो चुकी है कि यहां का मुसलमान आर्थिक, राजनीतिक मुद्दों की बजाय धार्मिक भावनात्मक मुद्दों पर बहुत जल्दी प्रभावित होता है। लिहाजा सभी सियासी पार्टियां, खास तौर पर चुनाव के समय भावनात्मक मुद्दे उछालकर मुस्लिम वोटों की फसल काटती रहती हैं। सलमान रुश्दी का मुद्दा भी इससे इतर नहीं।
ताज्जुब की बात यह है कि इस मर्तबा यह मुद्दा कोई सियासी पार्टी ने नहीं बल्कि दारुल उलूम देवबंद जैसे इस्लामिक शैक्षणिक संस्थान ने उठाया है। जिस देवबंद ने भारत की आजादी के हक में नारा बुलंद किया हो और जिसने मुल्क के बंटवारे की सख्त मुखालफत की हो, उसका सलमान रुश्दी के खिलाफ इस तरह का गैर जिम्मेवाराना रुख बिल्कुल बेतुका है।

सलमान रुश्दी और उनकी किताब सैटेनिक वर्सेज के अप्रिय प्रसंग को सारी दुनिया ने लगभग बिसरा दिया है। खुद, ईरान जहां से रुश्दी के खिलाफ मौत का फतवा आया, अब इस पर जरा भी जोर नहीं देता। तब भारत जैसे लोकतांत्रिक और सहिष्णु मुल्क में रुश्दी के खिलाफ उस फतवे के आधार पर विरोध करना कितना जायज है? रुश्दी को भारत आने से रोकने की मांग न सिर्फ अलोकतांत्रिक बल्कि अभारतीय है। भारत सरकार को कट्टरपंथियों की सलमान रुश्दी के वीजा रद्द करने की मांग को जरा सा भी गंभीरता से नहीं लेना चाहिए। अलबत्ता, यदि कुछ मुस्लिम तंजीमों और सियासी पार्टियों को लगता है कि सलमान रुश्दी के भारत आने से मुल्क का अमन या कानून का बंदोबस्त बिगड़ेगा तो वे अदालत जा सकते थे। लेकिन बिला वजह की बयानबाजी ने माहौल को बिगाड़ने का ही काम किया है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं साहित्यकार हैं)

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