Jitendra Pratap Singh
*कुतुबुद्दीन ऐबक की मौत और स्वामीभक्त घोड़े 'शुभ्रक' का बलिदान*
किसी भी देश पर शासन करना है तो उस देश के लोगों का ऐसा ब्रेनवाश कर दो कि वो अपने देश, अपनी संस्कृति और अपने पूर्वजों पर गर्व करना छोड़ दें। इस्लामी हमलावरों और उनके बाद अंग्रेजों ने भी भारत में यही किया। हम अपने पूर्वजों पर गर्व करना भूलकर उन अत्याचारियों को महान समझने लगे जिन्होंने भारत पर बे-हिसाब जुल्म किये थे।
*कुतुबुद्दीन* कुल चार साल (1206 से 1210 तक) दिल्ली का शासक रहा। इन चार साल में वो अपने राज्य का विस्तार, इस्लाम के प्रचार और बुतपरस्ती का खात्मा करने में लगा रहा। हाँसी, कन्नौज, बदायूँ, मेरठ, अलीगढ़, कालिंजर, महोबा, आदि को उसने जीता। अजमेर के विद्रोह को दबाने के साथ राजस्थान के भी कई इलाकों में उसने काफी आतंक मचाया।
जिसे क़ुतुबमीनार कहते हैं वो महाराजा वीर विक्रमादित्य की वेधशाला थी जहाँ बैठकर खगोलशास्त्री *वराहमिहिर* ने ग्रहों, नक्षत्रों, तारों का अध्ययन कर, भारतीय कैलेण्डर *'विक्रम संवत'* का आविष्कार किया था। यहाँ पर 27 छोटे-छोटे भवन (मंदिर) थे जो 27 नक्षत्रों के प्रतीक थे और मध्य में *'विष्णुस्तम्भ'* था, जिसको *'ध्रुवस्तम्भ'* भी कहा जाता था।
दिल्ली पर कब्जा करने के बाद उसने उन 27 मंदिरों को तोड़ दिया। विशाल विष्णुस्तम्भ को तोड़ने का तरीका समझ न आने पर उसने उसको तोड़ने के बजाय अपना नाम दे दिया। तबसे उसे *क़ुतुबमीनार* कहा जाने लगा। कालान्तर में यह यह झूठ प्रचारित किया गया कि क़ुतुब मीनार को कुतुबुद्दीन ने बनवाया था, जबकि वो एक विध्वंसक था न कि कोई निर्माता।
*अब बात करते हैं कुतुबुद्दीन की मौत की।* इतिहास की किताबो में लिखा है कि उसकी मौत पोलो खेलते समय घोड़े से गिरने पर से हुई। ये अफगान / तुर्क लोग 'पोलो' नहीं खेलते थे, अफगान / तुर्क लोग *बुजकशी* खेलते हैं जिसमें एक बकरे को मारकर उसे लेकर घोड़े पर भागते हैं, जो उसे लेकर मंजिल तक पहुँचता है, वो जीतता है।
कुतबुद्दीन ने अजमेर के विद्रोह को कुचलने के बाद राजस्थान के अनेकों इलाकों में कहर बरपाया था। उसका सबसे कड़ा विरोध उदयपुर (वर्तमान उदयपुर से भिन्न) के राजा ने किया, परन्तु कुतुबद्दीन उसको हराने में कामयाब रहा। उसने धोखे से राजकुँवर को बंदी बना लिया और उनको और उनके घोड़े शुभ्रक को पकड़कर लाहौर ले आया।
एक दिन राजकुँवर ने कैद से भागने की कोशिश की, लेकिन पकड़ा गया। इस पर क्रोधित होकर कुतुबुद्दीन ने उसका सिर काटने का हुकुम दिया। दरिंदगी दिखाने के लिए उसने कहा - बुजकशी खेला जाएगा लेकिन इसमें बकरे की जगह राजकुँवर का कटा हुआ सर इस्तेमाल होगा।
कुतुबुद्दीन ने इस काम के लिए, अपने लिए घोड़ा भी राजकुँवर का *'शुभ्रक'* चुना।
कुतुबुद्दीन शुभ्रक पर सवार होकर अपनी टोली के साथ जन्नत बाग में पहुँचा। राजकुँवर को भी ज़ंज़ीरों में बाँधकर वहाँ लाया गया। राजकुँवर का सर काटने के लिए जैसे ही उनकी जंज़ीरों को खोला गया, *शुभ्रक ने उछलकर कुतुबुद्दीन को अपनी पीठ से नीचे गिरा दिया और अपने पैरों से उसकी छाती पर कई वार किये जिससे कुतुबुद्दीन वहीं पर मर गया*।
इससे पहले कि सिपाही कुछ समझ पाते राजकुँवर शुभ्रक पर सवार होकर वहाँ से निकल गए। कुतुबुदीन के सैनिको ने उनका पीछा किया मगर वो उनको पकड़ न सके।
शुभ्रक कई दिन और कई रात दौड़ता रहा और अपने स्वामी को लेकर उदयपुर के महल के सामने आकर रुका। वहाँ पहुँचकर जब राजकुँवर ने उतरकर पुचकारा तो वह मूर्ति की तरह शांत खड़ा रहा।
वह मर चुका था, सिर पर हाथ फेरते ही उसका निष्प्राण शरीर लुढ़क गया।
कुतुबुद्दीन की मौत और शुभ्रक की स्वामिभक्ति की इस घटना के बारे में हमारे स्कूलों में नहीं पढ़ाया जाता है लेकिन इस घटना के बारे में फारसी के प्राचीन लेखकों ने काफी लिखा है।
धन्य है भारत की भूमि जहाँ इंसान तो क्या जानवर भी अपनी स्वामीभक्ति के लिए प्राण दाँव पर लगा देते हैं।
सोमवार, जनवरी 30, 2017
शुभ्रक घोड़े का बलिदान
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