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प्रधानमंत्री राहत कोष दरअसल एक प्राइवेट संस्था है. देश में कोई भी सरकार
हो, कांग्रेस का अध्यक्ष इसकी मैनेजिंग कमेटी का मेंबर होगा. ऐसा नियम
1948 में बनाया गया था. इस फंड से किसे पैसा मिला और क्यों, इस बारे में आप
तो क्या, संसद भी सवाल नहीं पूछ सकती. भारत की सबसे बड़ी न्यूज मैगजीन
'इंडिया टुडे' का सनसनीखेज खुलासा...
नन्हे तीन वर्षीय रिषु और उसकी मां संगीता को उसके पिता ने घर से बाहर
निकाल दिया था क्योंकि रिषु के दिल में सुराख था. संगीता बचपन में ही अपने
मां-बाप को खो चुकी थी. सो, मजबूरन मां-बेटे ने लखनऊ के एक छोटे से मस्जिद
में शरण ली. तब सपा सांसद अखिलेश यादव (अब मुख्यमंत्री) ने रिषु के इलाज के
खर्च के लिए प्रधानमंत्री को चिट्ठी लिखी. जिसके बाद प्रधानमंत्री राहत
कोष से 50,000 रुपये की सहायता जारी की गई. लेकिन हार्ट सर्जरी के लिए रिषु
को पीएम राहत कोष से मिली मामूली सहायता की खबर आरटीआइ एक्टिविस्ट अजय
कुमार गोयल के दिल को छलनी कर गई. आखिर पीएमओ ने किस आधार पर मामूली राशि
मंजूर की? निर्णय के लिए क्या तरीका अपनाया गया? अगर पीएमओ ने रिषु के
परिवार को गरीब माना तो उसे इलाज के लिए उन अस्पतालों में क्यों नहीं भेजा
जहां गरीबों का मुफ्त इलाज करना अस्पतालों की कानूनी बाध्यता है?
जेहन में घुमड़ते सवालों को गोयल ने फौरन आरटीआइ आवेदन की शक्ल दी और रिषु
को मिली मामूली मदद का आधार जानने के लिए फौरन प्रधानमंत्री कार्यालय से
सूचना के अधिकार के तहत फाइल दिखाने की मांग की. लेकिन पीएमओ ने इसे थर्ड
पार्टी मामला और रिषु की निजता में दखल करार देते हुए आरटीआइ कानून की धारा
8(1) के तहत फाइल दिखाने से इनकार कर दिया. इस धारा के तहत किसी व्यक्ति
से जुड़ी निजी सूचना नहीं दी जा सकती. लेकिन गोयल कहते हैं, 'जब रिषु को
मिली मदद की खबर सार्वजनिक हो चुकी थी, तो यह थर्ड पार्टी मामला कैसे है?'
यह मामला केंद्रीय सूचना आयोग पहुंचा, लेकिन गोयल का आरोप है, 'तत्कालीन
केंद्रीय मुख्य सूचना आयुक्त वजाहत हबीबुल्ला ने मेरिट पर फैसला नहीं दिया
था, क्योंकि वे खुद पीएमओ में संयुक्त सचिव रह चुके हैं.' लेकिन इंडिया
टुडे से बातचीत में हबीबुल्ला उदाहरण देते हुए कहते हैं, 'अभी उत्तराखंड
में सैलाब आया और राहत कोष से राशि दी गई. यह जानकारी सार्वजनिक की जा सकती
है कि राहत के लिए कितनी राशि दी गई, लेकिन उस पैसे से किसका घर बना इसकी
जानकारी नहीं दी जा सकती.' देश के पहले मुख्य सूचना आयुक्त हबीबुल्ला जो
खुद पीएमओ में संयुक्त सचिव के तौर पर राहत कोष का प्रभार संभाल चुके हैं,
मानते हैं, 'इस फंड में पारदर्शिता होनी चाहिए. किस मुद्दे के लिए राशि दी
गई, उसे बताया जा सकता है. मैंने सीआइसी के तौर पर अपने फैसले में कहा था
कि राहत कोष भी लोक प्राधिकरण (पब्लिक अथॉरिटी) के दायरे में आता है.'
लेकिन पीएमओ इसे नहीं मानता.
कैसे और किसके लिए है कोष?
यह सवाल जितना सीधा है, जवाब उतना ही पेचीदा. इस कोष की स्थापना देश के
पहले प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू की जनवरी 1948 में जारी अपील से हुई
थी, जिसमें उन्होंने पाकिस्तान से आए विस्थापितों की सहायता के लिए
प्रधानमंत्री राष्ट्रीय राहत कोष बनाया था. उस अपील के मुताबिक फंड का
संचालन एक कमेटी करेगी, जिसमें प्रधानमंत्री, कांग्रेस अध्यक्ष, उप
प्रधानमंत्री, वित्त मंत्री, टाटा न्यासियों का, प्रतिनिधि और प्रधानमंत्री
राहत कोष की प्रबंध समिति में फेडरेशन ऑफ इंडियन चैंबर्स ऑफ कॉमर्स द्वारा
नामित सदस्य होंगे. लेकिन पीएमओ की वेबसाइट के मुताबिक, सारे निर्णय पीएम
ही विवेक से करते हैं. अब इस कोष का इस्तेमाल बाढ़, चक्रवात, भूकंप,
दुर्घटनाओं-दंगों के पीडि़तों को राहत देने के अलावा दिल की सर्जरी, गुर्दा
प्रत्यारोपण, कैंसर जैसी गंभीर और महंगे इलाज के लिए भी होता है. यह फंड
बजटीय प्रावधान से नहीं, बल्कि नागरिकों, कंपनियों, संस्थाओं से मिले दान
से संचालित होता है. इसमें दान करने वालों को अंशदान पर इनकम टैक्स भुगतान
में छूट मिलती है. लेकिन इस फंड से मिलने वाली सहायता के पात्र व्यक्तियों
के चयन की कोई प्रक्रिया नहीं है. सहायता पूरी तरह से प्रधानमंत्री के
विवेक और उनके निर्देशों के अनुसार दी जाती है. इस कोष का काम पीएमओ के
संयुक्त सचिव स्तर का अधिकारी राहत कोष के सचिव के तौर पर देखता है, जबकि
उनकी सहायता के लिए निदेशक स्तर का अधिकारी तैनात होता है.
आपदा के समय प्रधानमंत्री राहत राशि का ऐलान करते हैं, लेकिन गंभीर
बीमारियों के लिए गरीब व्यक्ति एक सादे कागज पर आवेदन दे सकता है. लेकिन इस
कोष से हर किसी को सहायता मिल जाती है, ऐसा सोचना नासमझी होगी. पीएमओ से
उपलब्ध आंकड़ों के मुताबिक, वर्ष 2000 से 21 सितंबर, 2008 तक 2,14,558
आवेदन आए, लेकिन इस दौरान सिर्फ 82, 310 लोगों को ही राहत कोष से सहायता
मिल पाई. ये लोग कैसे चुने गए यह कोई नहीं जानता. न आप यह पूछ सकते हैं.
यानी यहां घोटाले का पूरा सामान तैयार है.
यहां एक और बात दिलचस्प है कि जब रिषु को दिल की सर्जरी के लिए पीएमओ ने
50,000 रुपये की मामूली सहायता दी, उस वित्तीय वर्ष 2008-09 में पीएम राहत
कोष में कुल 1,611 करोड़ रुपये शेष थे, जबकि 2011-12 में 1,698 करोड़
रुपये. रिषु मामले पर अजय गोयल सवाल उठाते हैं, 'पीएमओ ने वित्तीय मदद की
बजाए ऐसी व्यवस्था क्यों नहीं की, जिससे रियायती दर पर सरकार से जमीन लेने
वाले अस्पतालों में उसका मुफ्त इलाज हो सके. आखिर पीएमओ ने उन अस्पतालों को
गरीबों के इलाज के लिए धनराशि क्यों जारी की, जो कानूनी तौर पर गरीबों का
इलाज करने के लिए बाध्य हैं.' इस कोष का ऑडिट संवैधानिक संस्था कैग नहीं,
बल्कि बाहरी चार्टर्ड एकाउंटेंट करता है.
छुपाने के लिए सुर्खियों में कोष
2005 में सूचना के अधिकार अधिनियम के लागू होने के बाद से प्रधानमंत्री
राष्ट्रीय राहत कोष सूचना छिपाने को लेकर ही सुर्खियों में रहा है. हालांकि
केंद्रीय सूचना आयोग प्रधानमंत्री कार्यालय की उन दलीलों को खारिज कर चुका
है कि वह आरटीआइ के दायरे में नहीं आता. प्रथम सूचना आयुक्त हबीबुल्ला ने
शैलेष गांधी बनाम पीएमओ केस में फैसला दिया था, चूंकि इस राहत कोष का
संचालन पीएमओ करता है, इसलिए सूचना मुहैया कराई जानी चाहिए. हालांकि वही
शैलेष गांधी बाद में केंद्रीय सूचना आयुक्त बना दिए गए, जिन्होंने
प्रधानमंत्री राहत कोष की जानकारी सार्वजनिक कराने के लिए लंबे समय तक
मोर्चा खोल रखा था. आयुक्त बनने से पहले 2006 में गांधी ने राहत कोष से दो
साल में जारी की गई कुल राशि, संस्थाओं की संख्या, सहायता पाने वाले
संस्थाओं के नाम, उद्देश्य, कितनी राशि दी गई और बैलेंस शीट मांगा था.
लेकिन पीएमओ ने गांधी को स्पष्ट जवाब भेजने के बजाए पीएमओ की आधिकारिक
वेबसाइट देखने का निर्देश दिया. शैलेष गांधी ने सूचना आयुक्त नियुक्त होने
के बाद इस मामले में ऐसी कोई पहल नहीं की है जो सार्वजनिक जानकारी में हो.
यह मामला जब केंद्रीय सूचना आयोग पहुंचा तो पीएमओ ने दो-टूक कहा कि पीएम
राहत कोष चूंकि लोक प्राधिकरण नहीं है इसलिए वह इस कोष के बारे में कोई भी
सूचना देने के लिए बाध्य नहीं है. सीआइसी को दिए लिखित जवाब में पीएमओ ने
कहा, 'पीएम राहत कोष की स्थापना संविधान, संसद-विधानसभा के बनाए कानून या
किसी उपयुक्त सरकार की अधिसूचना के तहत नहीं हुई है. इस कोष पर सरकार का
नियंत्रण नहीं है.' पीएमओ के मुताबिक, ‘
यह एक प्राइवेट फंड है जो स्वैच्छिक
रूप से मिलने वाले दान से चलता है, जिसका सरकार से कोई लेना-देना नहीं
है.' पीएमओ ने संसद के दोनों सदनों की कार्यवाही नियमों का हवाला भी दिया,
जिसके मुताबिक राहत कोष से जुड़े सवाल को संसद में उठाने की अनुमति नहीं दी
जाती है. लेकिन तत्कालीन मुख्य सूचना आयुक्त हबीबुल्ला ने 15 मार्च, 2007
को अपने फैसले में कहा है, 'भले पीएम राहत कोष ट्रस्ट या वैधानिक संस्था
नहीं है, लेकिन यह फंड प्रधानमंत्री कार्यालय के नियंत्रण में है और वही
क्रियान्वयन करता है. यह स्वतंत्र लोक प्राधिकरण नहीं हो सकता, लेकिन चूंकि
इसकी सूचना पीएमओ रखता है, इसलिए लोक प्राधिकरण के रूप में आरटीआइ के तहत
वे सारी सूचनाएं उपलब्ध कराई जानी चाहिए जो कानून की धारा 8 के तहत नहीं
आती.' लेकिन इस फैसले में आयोग ने लाभार्थियों के नाम को गुप्त रखने की
पीएमओ की दलील मान ली.
हरियाणा निवासी और आरटीआइ एक्टिविस्ट असीम तकयार ने 2009 से 2011 की बीच
पीएम राहत कोष में दान देने वालों और लाभार्थियों का ब्यौरा मांगा, लेकिन
आदतन पीएमओ ने फिर धारा-8 की दुहाई दी. लेकिन 6 जून, 2012 को अपने फैसले
में मुख्य सूचना आयुक्त ने कहा, 'यह सच है कि इस राहत कोष में सरकारी फंड
नहीं आता. लेकिन यह भी तथ्य है कि पीएमओ इसका संचालन करता है. अक्सर देखा
गया है कि कई दानकर्ता अपना नाम मीडिया में प्रचारित करते हैं, इसलिए अगर
दानकर्ता अपना नाम गुप्त रखने की मांग नहीं करता, तो समय-समय पर सूची जारी
करना एक अच्छा विचार हो सकता है. कम से कम दान देने वाली संस्था का नाम तो
जारी किया ही जाना चाहिए.' हालांकि आयोग ने लाभार्थियों के मामले में नाम न
बताने के निर्णय को जारी रखा. इस मामले में केंद्र सरकार ने दिल्ली
हाइकोर्ट में अपील की. जुलाई, 2012 को सूचना आयोग के आदेश पर कोर्ट ने स्टे
लगा दिया. पीएम राहत कोष आखिर पारदर्शिता के मामले में इतना अडिय़ल क्यों
है. नाम गुप्त रखना मजबूरी है या माजरा कुछ और है?
विशेषज्ञ की रायः सुभाष चंद्र अग्रवाल
सार्वजनिक कोष या निजी जागीर?
प्रधानमंत्री राष्ट्रीय राहत कोष को लेकर काफी विवाद रहा है क्योंकि इसमें
दान देने वालों और लाभार्थियों के नाम गुप्त रखे जाते हैं. केंद्रीय सूचना
आयोग ने अपने फैसले में इस कोष को प्रधानमंत्री कार्यालय से प्रशासित कोष
माना है, जिसे अन्य लोगों के अतिरिक्त कई सार्वजनिक प्राधिकरणों से भी धन
प्राप्त होता है. यह बड़ा विवाद अब भी बना हुआ है कि प्रधानमंत्री राहत कोष
से अनुदान प्राप्त करने वाले लोगों के नाम सार्वजनिक किए जाएं या नहीं.
केंद्रीय सूचना आयोग ने दानकर्ता का नाम जाहिर करने को कहा है, अगर वह
गुप्त न रखना चाहे तो.
मगर पीएम राहत कोष के लाभार्थियों के नामों का खुलासा अवश्य किया जाना
चाहिए क्योंकि ये लाभार्थी एक सार्वजनिक प्राधिकरण से धन प्राïप्त कर रहे
हैं. जनता को यह भी जानने का हक है कि पीएम राहत कोष से मदद पाने के
आवेदनों को किस ढंग से निस्तारित किया जाता है. शहनाई वादक भारत रत्न
बिस्मिल्ला खान ने मीडिया के माध्यम से आर्थिक मदद तथा अपने परिवार के लिए
आजीविका के साधन (गैस एजेंसी) का इंतजाम किए जाने के अनुरोध को सार्वजनिक
किया. यदि किसी को सरकार की मदद की दरकार हो तो उसे इसमें शर्म नहीं महसूस
करनी चाहिए. लाभार्थियों के नामों को सार्वजनिक किया जाना किसी ऐसे व्यक्ति
द्वारा अपने अधिकार के दुरुपयोग किए जाने को भी रोकेगा जो अवसरवादी
राजनीति के वर्तमान युग में किसी तरह प्रधानमंत्री का महत्वपूर्ण पद हासिल
करने में कामयाब हो गया हो. इससे उच्च पदस्थ लोगों द्वारा किसी को इस कोष
से मदद देने की सिफारिश पर लिए जाने वाले पक्षपातपूर्ण निर्णयों पर भी
अंकुश लगेगा. पीएम राहत कोष सार्वजनिक निधि है और लोगों को अनुदान
लाभार्थियों की वास्तविक जरूरतों के हिसाब से दिया जाना चाहिए न कि सिफारिश
करने वाले लोगों के हिसाब से.
(लेखक आरटीआइ एक्टिविस्ट हैं.)