शनिवार, फ़रवरी 20, 2021

टीका Vaccination जो अंग्रेजो ने भारत मे 300 साल पहले देखा।

 

शीतला माता का इलाज, तीनसौ वर्ष पूर्व
कोरोनाके अवसरपर मेरी पुस्तक शीतला माताका कथ्य --
सन्‌ १८०२ में इंग्लंडके श्री जेनरने चेचकके लिए वैक्सीनेशन खोजा। यह गायपर आए चेचकके दानोंसे बनाया जाता था। लेकिन इससे दो सौ वर्ष पहलेसे भारतमें बच्चोंपर आए चेचकके दानोंसे वैक्सीन बनाकर दूसरे बच्चोंका बचाव करनेकी विधी थी। इस बाबत दसेक वर्ष पहले विस्तारसे खोजबीन और लेखन किया है इंग्लंडके श्री आरनॉल्ड ने। उसीकी यह संक्षिप्त प्रस्तुति है।
मेरा कथ्य ---
कुछ वर्षों पहले मुझे पुणेसे डॉ देवधरका फोन आया - यह बतानेके लिए कि वे American Journal for Health Sciences के लिए एक पुस्तककी समीक्षा कर रहे हैं। पुस्तक थी लंदन यूनिवर्सिटीके प्रोफेसर आरनॉल्ड लिखित Colonizing Body। पुस्तकका विषय है कि प्लासीकी लड़ाई अर्थात्‌ १७५६ से लेकर १९४७ तक अपने राजकालमें अंग्रेजी राज्यकर्ताओंने भारतमें प्रचलित कतिपय महामारियोंको रोकनेके लिए क्या-क्या किया। इसे लिखनेके लिए लेखकने अंग्रेजी अफसरोंके द्वारा दो सौ वर्षोंके दौरान लिखे गये कई सौ डिस्ट्रिक्ट गझेटियर और सरकारी फाइलोंकी पढ़ाई की और जो जो पढ़ा उसे ईमानदारीसे इस पुस्तकमें लिखा। पुस्तकके तीन अध्यायोंमें चेचक, प्लेग और कॉलरा जैसी तीन महामारियोंके विषयमें विस्तारसे लिखा गया है। अन्य अध्याय विश्लेषणात्मक हैं।

डॉ० देवधरकी सूचना थी कि मैं चेचकसे संबंधित अध्याय अवश्य पढूं और अपना मत लिखूं जो उनकी पुस्तक समीक्षामें मेरे नामके साथ शामिल किया जाएगा। बादमें अपनी समीक्षाके अन्तमें उन्होंने लिखा था - ''मेरा डॉक्टरी ज्ञान केवल ऍलोपैथीसे है। इस पुस्तकमें वर्णित कुछ घटनाएँ - जो शायद उस जमानेकी आयुर्वेदिक पद्धतियोंको उजागर करती है, मेरी समझसे बाहर है। इसलिय मैंने ऐसे व्यक्तिको पूरक समीक्षा लिखनेके लिए कहा जिसे आयुर्वेदकी समझके साथ यह भी ज्ञान है कि समाजके लिए स्वास्थ्य - विचार कैसे किया जाता है।'' इन शब्दोंके आगे मेरी समीक्षाको जोड़कर उसे जर्नलमें छापा गया।

मेरी समीक्षा केवल चेचकके अध्याय के लिए ही सीमित थी, लेकिन उस अध्यायमें लेखकने जो कुछ लिखा है वह इतना महत्वपूर्ण है कि मेरे कई मित्रोंने उसके विषयमें विस्तारके लिखनेका आग्रह किया है।

सत्रहवीं, अठारवीं और उन्नीसवीं सदीमें या शायद उससे कुछ सदियों पहले भी चेचककी महामारीसे बचनेके लिए हमारे समाजमें एक खास व्यवस्था थी। उसका विवरण देते हुए लेखकने काशी और बंगालकी सामाजिक व्यवस्थाओंके विषयमें अधिक जानकारी दी है। चेचकको शीतलाके नामसे जाना जाता था और यह माना जाता था कि शीतला माताका प्रकोप होनेसे बीमारी होती है। लेकिन इससे जूझनेके लिए जो समाज व्यवस्था बनाई गई थी उसमें धार्मिक भावनाओंका अच्छा खासा उपयोग किया गया था। शीतला माताको प्रेम और सम्मानसे आमंत्रित किया जाता था, उसकी पूजाका विधि विधान भी किया गया था। चैत्रके महीनेमें शीतला उत्सव भी मनाया जाता था। यही महीना है जब नई कोंपलें और फूल खिलते हैं, और यही महीना है जब शीतला बीमारी अर्थात्‌ चेचकका प्रकोप शुरू होने लगता है। शीतला माताको बंगालमें बसन्ती-चण्डीके नामसे भी जाना जाता है।

काशीके गुरूकुलोंसे गुरूका आशीर्वाद लेकर शिष्य निकलते थे और अपने-अपने सौंपे गये गाँवोंमें इस पूजा विधानके लिये जाते थे। चार-पांच शिष्योंकी टोली बनाकर उन्हें तीस-चालीस गांव सौंपे जाते थे। गुरूके आशीर्वादके साथ-साथ वे अन्य कुछ वस्तुएं भी ले जाते थे - चाँदी या लोहेके धारदार ब्लेड और सुईयाँ, और रुईके फाहोंमें लिपटी हुई ''कोई वस्तु''।

इन शिष्योंका गाँवमें अच्छा सम्मान होता था और उनकी बातें ध्यानसे सुनी व मानी जाती थीं। वे तीनसे पन्द्रह वर्षकी आयुके उन सभी बच्चों और बच्चियोंको इकट्ठा करते थे जिन्हें तब तक शीतलाका आशीर्वाद न मिला हो (यानि चेचककी बीमारी न हुई हो)। उनके हाथमें अपने ब्लेडसे धीमे धीमे कुरेदकर रक्तकी मात्र एकाध बूंद निकलने जितनी एक छोटीसी जख्म करते थे। फिर रूईका फाहा खोलकर उसमें लिपटी वस्तुको जख्म पर रगड़ते थे। थोड़ी ही देरमें दर्द खतम होनेपर बच्चा खेलने कूदनेको तैयार हो जाता। फिर उन बच्चोंपर निगरानी रख्खी जाती। उनके माँ-बापके साथ अलग मीटिंग करके उन्हें समझाया जाता कि बच्चेके शरीरमें शीतला माता आने वाली है, उनकी आवभगतके लिये बच्चेको क्या क्या खिलाया जाय। यह वास्तवमें पथ्य विचारके आधार पर तय किया जाता होगा।

एक दो दिनोंमें बच्चोंको चेचकके दाने निकलते थे और थोड़ा बुखार भी चढ़ता थ। इस समय बच्चेको प्यारसे रख्खा जाता और इच्छाएं पूरी की जाती। ब्राम्हण शिष्योंकी जिम्मेदारी होती थी कि वह पूजा पाठ करता रहे ताकि जो देवी आशीर्वादके रूपमें पधारी हैं, वह प्रकोपमें न बदल पाये। दाने बड़े होकर पकते थे और फिर सूख जाते थे - यह सारा चक्र आठ-दस दिनोंमें सम्पन्न होता था। फिर हर बच्चेको नीमके पत्तोंसे नहलाकर उसकी पूजा की जाती और उसे मिष्ठान दिये जाते। इस प्रकार दसेक दिनोंके निवासके बाद शीतला माता उस बच्चेके शरीसे विदा होती थीं और बच्चेको ''आशीर्वाद'' मिल जाता कि जीवन पर्यन्त उसपर शीतलाका प्रकोप कभी नहीं होगा।

उन्हीं आठ-दस दिनोंमें ब्राम्हण शिष्य चेचकके दानोंकी परीक्षा करके उनमेंसे कुछ मोटे-मोटे, पके दाने चुनता था। उन्हें सुई चुभाकर फोड़ता था और निकलने वाले पीबको साफ रुईके छोटे-छोटे फाहोंमें भरकर रख लेता था। बादमें काशी जाने पर ऐसे सारे फाहे गुरूके पास जमा करवाये जाते। वे अगले वर्ष काममें लाये जाते थे।

यह सारा वर्णन पढ़कर मैं दंग रह गई। थोड़े शब्दोंमें कहा जाय तो यह सारा पल्स इम्युनाइजेशन प्रोग्राम था जो बगैर अस्पतालोंके एक सामाजिक व्यवस्थाके रूपमें चलाया जा रहा था। ब्राह्मणोंके द्वारा किये जाने वाले विधि विधान या पथ्य एक तरहसे कण्ट्रोलके ही साधन थे। हालांकि पुस्तकमें सारा ब्यौरा बंगाल व बनारका है, लेकिन मैं जानती हूं कि महाराष्ट्र में, और देशके अन्य कई भागोंमें शीतला सप्तमीका व्रत मनया जाता है और हर गाँवके छोर पर कहीं एक शीतला माताका मंदिर भी होता है।

इससे अधिक चौंकाने वाली दो बातें इस अध्यायमें आगे लिखी गई थीं।

अंग्रेज जब यहाँ आये तो अंग्रेज अफसरों और सोल्जरोंको देसी बीमारियोंसे बचाये रखनेके लिए अलगसे कैण्टोनमेंट बने जो शहरसे थोड़ी दूर हटकर थे। लेकिन यदि महामारी फैली तो अलग कैण्टोंमें रहने वाले सोल्जरोंको भी खतरा होगा। अतः महामारीके साथ सख्तीसे निपटनेकी नीति थी। महामारीके मरीजोंको बस्तियोंसे अलग अस्पतालोंमें रखना पड़ता था। उन्हें वह दवाईयाँ देनी पड़ती थीं जो अंग्रेजी फार्मोकोपियामें लिखी हैं, क्योंकि देसी लोगोंकी दवाईयोंका ज्ञान तो अंगेजोंको था नहीं और उनपर विश्र्वास भी नहीं था। अंग्रेजोंके लिये यह भी जरूरी था कि कैन्टोंके चारों ओर भी एक बफर जोन हो - अर्थात्‌ वहाँ रहनेवाले भारतीय (प्रायः नौकर चाकर, धोबी, कर्मचारी इत्यादि) विदेशी टीके द्वारा संरक्षित हों।

वैसे देखा जाय तो ब्रिटानिका इनसाइक्लोपीडियामें जिक्र है कि अठारवीं सदीके आरंभमें चेचकसे बचनेके लिए टीका लगवानेकी एक प्रथा भारतसे आरंभ कर अफगानिस्तान व तुर्किस्तानके रास्ते यूरोप में - खासकर इंग्लैंडमें पहुँची थी। जिसे Variolation का नाम दिया गया था। अक्सर डॉक्टर लोग इसे ढकोसला मानते थे फिर भी ऐसे कई गणमान्य लोग इसके प्रचारमें जुटे थे जिन्हें इंग्लैंडके समाजमें अच्छा सम्मान प्राप्त था। सन्‌ १७६७ में हॉवेलने एक विस्तृत विवरण लिखकर इंग्लैण्डकी जनताको Variolation के संबंधमें आश्वस्त करानेका प्रयास किया। स्मरण रहे कि तबतक जेनरविधी जैसी कोई बात नही थी।

सन्‌ १७९६ में डाँ. जेनरने गायके चेचकके दानोंसे चेचकका वॅक्सिन बनानेकी खोज की। चूंकि यह एक अंग्रेज डॉक्टरका खोजा हुआ तरीका था, अतः इसपर तत्काल विश्वास किया गया और भारतमें उसे तत्काल लागू किये जानेकी सिफारिश की गई ताकि अंग्रेज सिपाहियोंकी स्वास्थ्य रक्षा हो सके। इन वॅक्सिनोंको बर्फके बक्सोंमें रखकर भारत लाया जाता था। फिर उससे भारतीयोंको चेचकके टीके लगवाये जाते थे। टीका लगानेका तरीका ठीक वही था जो हमारे ब्राह्मण इस्तेमाल करते थे लेकिन इस पद्धतिका नाम पडा वॅक्सिनेशन। इसके लिये बड़ी सख्ती करनी पड़ती थी क्योंकि यदि किसी भारतीयने अंग्रेजी टीका नहीं लगवाया तो अंग्रेज डॉक्टरोंका डर था कि आगे उसे चेचक निकलेंगे और वह महामारी फैलानेका एक माध्यम बनेगा। आरंभकालमें अंग्रेजी टीका लगानेके तरीके काफी दुखद होते थे। उनकी जख्में बड़ी होती थीं और बच्चे या बूढ़े उन्हें लगवानेसे डरते और रोते पीटते थे। जेनर विधिके अर्न्तगत वैक्सिनेशनका टीका लगवाने पर उस जगह घाव हो जाता था और बुखार भी निकलता था, लेकिन चेचकके दाने नहीं उभरते थे जैसा कि देसी वेरीओलेशनकी प्रणालीमें निकलते थे। कई बार टीकेका बुखार तीव्र होकर मृत्यु भी हो जाती जिस कारण भारतियोंका विरोध अधिक था।

ऐसा लगता है कि देशी विधासे इम्युनायझेशन कराने वाला कोई ब्राह्मण गुरू या शिष्य अंग्रेजोंको यह समझानेकी स्थितिमें नहीं था कि शीतलाके लिये वे जो कुछ करते हैं वह क्या है और न ही कोई खुद समझ पाया था कि अंग्रेजी डॉक्टर टीका लगाते हैं तो क्या करते हैं। लेखकका वर्णन पढनेसे ऐसा लगता है मानों दोनों ओरसे लोग अनभिज्ञ थे कि वे एक ही काम कर रहे हैं। फिर भी कहीं ना कहीं अंग्रेजोंको यह समझ थी कि जबतक काशीके ब्राह्मणोंके शिष्य अपना वेरिओलेशनका कार्यक्रम कर रहे हैं तबतक उनके लिये चुनौती कायम रहेगी। उसे रोकनेके लिए देशी तरीकेको अशास्त्रीय करार दिया गया और शीतलाका टीका लगाने वाले ब्राह्मणोंको जेल भिजवाया जाने लगा। तब ब्राह्मणोंने अपनी विद्या गाँव गाँवके सुनार और नाइयोंको सिखाई। इस प्रकार उनके माध्यमसे भी यह देसी पद्धतिसे टीके लगानेका काम कुछ वर्षोंतक चलता रहा। जिन सुनार या नाइयोंको यह विद्या सिखाई गई उनका नाम पडा टीकाकार और आज भी बंगाल व ओरिसामें टीकाकार नामसे कई परिवार पाये जाते हैं, जो मूलतः सुनार या नाई दोनों जातियोंसे हो सकते हैं। शायद उनके वंशज नहीं जानते थे कि यह नाम उनके हिस्सेमें कहाँसे आया।

हमारे पुराने सारे कर्मकाण्डोंमें यह पाया जाता है कि एक छोटीसी शास्त्रीय घटनाको केन्द्रमें रखकर ऊपरसे उत्सवोंका और कर्मकाण्डोंका भारी भरकम चोला पहनाया जाता था। वह चोला दिखाई पड़ता था, उसमें चमक-दमक होती थी। लोग उसे देखते, उन कर्मकाण्डोंको करते और सदियोंतक याद रखते।आज भी रखते हैं। लेकिन प्रायः उनकी आत्मा अर्थात्‌ वह छोटासा शास्त्रीय काम जिसके लिए यह सारा ताम झाम किया गया, कालके बहावमें लुप्त हो जाता क्योंकि उसके जानकार लोग कम रह जाते थे। आज भी महाराष्ट्र, कर्नाटक और आन्ध्रमें रिवाज हे कि चैत्र मासमें छोटे-छोटे बच्चे सिरपर तांबेका कलश लेकर नदीमें नहाने जाते हैं। कलशको नीमके पत्तोंसे सजाया जाता है। गीले बदन नदीसे देवीके मंदिरतक आकर कलशका पानी कुछ शीतला देवीपर चढ़ाते हैं और कुछ अपने सिरपर उंडेलते हैं। इसी प्रकार शीतला सप्तमीका व्रत भी प्रसिद्ध है जो श्रावण मासमें किया जाता है।

आरंभसे आयुर्वेदके प्रचार प्रसारमें विकेन्द्रीकरणका बड़ा महत्व रखा गया था जो आधुनिक केन्द्रीकरण और अस्पताल व्यवस्थाके बिल्कुल भिन्न है। आयुर्वेदके विभिन्न सिद्धान्तोंको अत्यन्त छोटे छोटे कर्मकाण्डों और रीति रिवाजोंमें बाँटकर घर घरतक पहुँचाया गया था। उन सिद्धान्तोंके अनुपालन में परिवारकी महिला सदस्योंका विशेष स्थान था। अतएव आयुर्वेदका ज्ञान महिलाओंके पास सुरक्षित रहता था और प्रायः उन्हींके द्वारा उपयोगमें लाया जाता। औरतोंको परिवारमें सम्मानका स्थान मिलनेके जो कई कारण थे उसमें स्वास्थ्य रक्षाका भी एक महत्वपूर्ण कारण था। यह आयुर्वेदका ज्ञान औरतों द्वारा परिवारके पास पडोसकी सेवाके लिये लगाया जाता। यदि कोई परिवार आर्थिक अडचनमें आए तभी यह ज्ञान परिवारके पुरुषोंके माध्यमसे आर्थिक आय जुटानेके काममें प्रयुक्त किया जाता। परिवारमें औरतोंका सम्मान घटनेका एक कारण यह भी रहा है कि आयुर्वेदके माध्यमसे स्वास्थ्य रक्षाका जो ज्ञान उनके पास था वह अब छिन चुका है।

विकेन्द्रीकरणका एक माध्यम यदि महिलाएं थीं तो दूसरा माध्यम था समाजके विभिन्न वर्ग। उदाहरणस्वरूप हम ब्राह्मण जातिको देखें। साधरणतया ब्राह्मण बच्चोंको छोटी आयुमें ही विद्याध्ययनके लिये गुरुके पास भेज दिया जाता था जहाँ उन्हें बिना आर्थिक भेदभावके करीब पन्द्रहसे बीस वर्ष गुरुके पास बिताने पड़ते । इस दौरान देश-प्रांत घूमकर वे सारे काम भी पूरा करने पड़ते थे जेसा गुरू आदेश दे, और इसीका नमूना था शीतलाके टीके लगाना जिसका पहले वर्णन किया गया है। इन पर्यटनशील ब्राह्मण शिष्योंके माध्यमसे वे सारी सामाजिक व्यवस्थाएं चलाई जातीं जिनमें बड़े पैमानेपर एक साथ क्रियान्वयनकी आवश्यकता होती थी जैसा कि शीतला माताके संबंधमें देखा जा सकता है। इसीलिये जो भी ब्राह्मण गृहस्थश्रममें न हो उसके लिये देश देशान्तरोंमें घूमना और अपरिग्रह जैसे नियम आवश्यक थे। इस विकेन्द्रीकृत सामाजिक व्यवस्था द्वारा आयुर्वेदके लिये आवश्यक विकेन्द्रीकरण संभव हुआ करता था।

यह भी सोचनेकी बात है कि यदि यह देशी व्यवस्था कारगर थी तो चेचककी महामारी इतनी भयावह क्यों थी? उन्नींसवी सदीमें चेचकके विषयमें सभी अंग्रेज डॉक्टरोंका मत था कि यह भारतकी सबसे खतरनाक बीमारी थी जिसके कारण हर वर्ष प्रायः लाख-एक लोगोंकी मृत्यु हो जाती थी और प्रायः दो लाखसे अधिक लोग चेचके दागों के साथ जीवन गुजारते जिनमेंसे कई अंधे भी हो जाते थे। इसके उत्तरके लिए अधिक रिसर्च आवश्यक है।

लेखकने अपनी पुस्तकमें Variolation तथा Vaccination दोनों प्रक्रियाओंके विषयमें लिखा है। दोनोंमें बहुत अंतर भी नहीं है। दोनों प्रक्रियायोंका उद्देश्यों था कि रोग हो ही नहीं। लेकिन रोग हो जानेपर टीका नहीं लगाया जा सकता। लेखक ने यह भी बताया है कि रोग होनेपर क्या किया जाता था। चेचक या मसूरिका रोगके विषयमें चरक या सुश्रुत संहितामें अत्यन्त कम वर्णन पाया जाता है जिससे प्रतीत होता है कि पॉचवीं सदीमें इस रोगकी भयावहता अधिक नहीं थी। किन्तु आठवीं सदीके प्रसिद्ध आयुर्वेदिक ग्रन्थ माधवनिदानमें इसका विस्तृत वर्णन है। एक बार रोग हो जाये तो इसकी कोई दवा नहीं थी, केवल पथ्य विचार था। माँस-मछली, दूध, तेल, घी और मसाले कुपथ्य माने जाते थे। केला, गन्ना, पके हुए चावल, भंग, तरबूजे आदि पथ्यकर थे। बीमारीकी पहचानके बाद वैद्य, ब्राम्हणों या कविराजकी कोई जरूरत नहीं रहती क्योंकि दवाई तो कोई होती नहीं थी। शीतला माताके मंदिरोंके पुजारी प्रायः माली समाजसे या बंगालमें मालाकार समाजसे होते थे। बीमारोंकी परिचर्याके लिए उन्हींको बुलाया जाता था ''माली '' आनेके बाद वह घरमें सारे माँसाहारी खाने बंद करवाता था। घी, तेल व मसाले भी बंद करवाये जाते। मरीजकी कलाईमें कुछ कौडियाँ, कुछ हल्दीके टुकडे और सोनेका कोई गहना बांधा जाता था। उसे केलेके पत्तेपर सुलाया जाता और केवल दूधका आहार दिया जाता। उसे नीमके पत्तोंसे हवा की जाती। उसके कमरेमें प्रवेश करने वालेको नहा धोकर आना पड़ता। शीतला माताकी पंचधातुकी मूर्तिका अभिषेक कर वही चरणोदक बीमारको पिलाया जाता। रातभर शीतला माताके गीत गाये जाते। लेखकने एक पूरे गीतका अंग्रेजी अनुवाद भी किया है जो माताकी प्रार्थना के लिये गाया जाता था। दानोंकी जलन कम करनेके लिए शरीर पर पिसी हुई हल्दी, मसूर दालका आटा या शंखभस्मका लेप किया जाता। सात दिनोंतक कलश पूजा भी होती जिसमें चावलकी खीर, नारियल, नीमके पत्ते इत्यादिका भोग लगता। चेचकके दाने पक चुकनेके बाद जलनको कम करनेकी आवश्यकता होने पर किसी तेज कांटेसे उन्हें फोड़कर पीब निकाल दिया जाता। इसके बादके एक सप्ताहतक बीमार व्यक्तिकी हर इच्छाको माताकी इच्छा मानकर पूरा किया जाता और माताको ससम्मान विदा किया जाता।''

लेखकके अनुसार शीतला माताका एक बड़ा मंदिर गुडगाँवामें था जिसमें बड़ी यात्रा लगती थी। लेकिन पूरे उत्तरी भारत, राजस्थान, बिहार, बंगाल व ओडिसामें छोटे-छोटे मंदिर थे, जहाँ चैत्र शीतला माताके पर्वके लिये यात्राएं और मेले लगते थे। बंगाल व पंजाबके कई मुस्लिम परिवारोंमें भी शीतला माताकी पूजाका रिवाज था जिसे समाप्त करनेके लिए फराइजी मुस्लिम संगठनके कार्यकर्ता कोशिश किया करते।

लेखकके अनुसार बीमारी न होनेका उपाय करना ब्राह्मणोंके जिम्मे था जो कि गाँव गाँव जाकर टीके लगवाते थे। बंगाल व ओरिसामें आज भी टीकाकार नामके कई परिवार हैं। इस विधिका भारतमें काफी प्रचार था। लेकिन बीमारी हो जाने पर रोगी की व्यवस्था देखनेका काम मालियोंके जिम्मे था।

इस प्रकार हम देखते हैं कि इम्युनाझेशनके लिये बीमार व्यक्तिको ही साधन बनानेका सिद्धान्त और चेचक जैसी बीमारीमें टीका लगानेका विधान भारतमें उपजा था।तेरहवींसे अठारवीं सदीतक यह उत्तरी भारतके सभी हिस्सोंमें प्रचलित था। १७६७ में डॉ हॉवेलने भारतीय टीकेकी पद्धतिका विस्तृत ब्यौरा लंडनके कॉलेजऑफ फिजिक्समें प्रस्तुत किया था और इसकी भारी प्रशंसाकी थी। यह पद्धति इंग्लैंडमें नई-नई आई थी और हॉवेल उन्हें इसके विषयमें आश्वस्त कराना चाहता था। हॉवेलने बताया कि टीका लगानेके लिये भारतीय टीकाकार पिछले वर्षके पीबका उपयोग करते थे, नयेका नहीं। साथ ही यह पीब उसी बच्चेसे लिया जाता जिसे टीकेके द्वारा शीतलाके दाने दिलवाये गये हों अर्थात जिसका कण्ट्रोल्ड एनवायर्नमेंट रहा हो। टीका लगानेसे पहले रुईमें स्थित दवाईको गंगाजल छिड़ककर पवित्र किया जाता था। बच्चोंके घर और पास पड़ोसके पर्यावरणका विशेष ध्यान रखा जाता था। बूढ़े व्यक्ति या गर्भवती महिलाओंको अलग घरोंमें रख्खा जाता ताकि उनतक बीमारीका संसर्ग न फैले। हॉवेलके मुताबिक इस पूरे कार्यक्रममें न तो किसी बच्चेको तीव्र बीमारी होती और न ही उसका संसर्ग अन्य व्यक्तियोंतक पहुँचता - यह पूर्णतया सुरक्षित कार्यक्रम था। सन्‌ १८३९ में राधाकान्त देवने भी इस टीके की पद्धति का विस्तृत ब्यौरा देने वाली पुस्तक लिखी है। आरनॉल्ड कहता है - ''हालॉकि हॉवेल या डॉ देव यह नहीं लिख पाये कि टीका देनेकी यह पद्धति समाजमें कितनी गहराई तक उतरी थी, लेकिन १८४८ से १८६७ के दौरान बंगालके सभी जेलोंके आँकड़े बताते हैं कि करीब अस्सी प्रतिशत कैदी भारतीय विधानसे टीका लगवा चुके थे। असम, बंगाल, बिहार और ओरिसामें कम से कम साठ प्रतिशत लोक टीके लगवाते थे। आरनॉल्डने वर्णन किया है कि बंगाल प्रेसिडेन्सीमें १८७० के दशकमें चेचकसे संबंधित कई जनगणनाएँ कराई गईं। ऐसी ही एक गणना १८७२-७३ में हुई। उसमें १७६९७ लोगोंकी गणनामें पाया गया कि करीब ६६ प्रतिशत लोग देसी विधानके टीके लगवा चुके थे, ५ प्रतिशतका Vaccination कराया गया था, १८ प्रतिशतको चेचक निकल चुका था और अन्य ११ प्रतिशतको अभी तक कोई सुरक्षा बहाल नहीं की गई थी। बंगाल प्रेसिडेन्सी के बाहर काशी, कुमाँऊ, पंजाब, रावलपिण्डी, राजस्थान, सिंध, कच्छ, गुजरात और महाराष्ट्रके कोंकण प्रान्तमें भी यह विधान प्रचलित था। लेकिन दिल्ली, अवध, नेपाल, हैदराबाद और मेसूरमें इसके चलनका कोई संकेत लेखकको नहीं मिल पाया। मद्रास प्रेसिडेन्सीके कुछ इलाकोंमें ओरिया ब्राह्मणों द्वारा टीके लगवाये जाते थे। टीके लगवानेके लिये अच्छी खासी फीस मिल जाती। लेकिन कई इलाकोंमें औरतोंको टीका लगानेपर केवल आधी फीस मिलती थी। राधाकान्त देवके अनुसार टीका लगानेका काम ब्राह्मणोंके अलावा, आचार्य, देबांग (ज्योतिषी), कुम्हार, सांकरिया (शंख वाले) तथा नाई जमातके लोग भी करते थे। बंगालमें माली समाजके लोग और बालासोरमें मस्तान समाजके तो बिहारमें पछानिया समाजके लोग, मुस्लिमोंमें बुनकर और सिंदूरिये वर्गके लोग टीका लगाते थे। कोंकणमें कुनबी समाज तो गोवामें कॅथोलिक चर्चोंके पादरी भी टीका लगाते थे। टीका लगानेके महीनोंमें अर्थात्‌ फाल्गुन, चैत्र, बैसाखमें हर महीने सौ सवा सौ रुपयेकी कमाई हो जाती जो उस जमानेमें अच्छी खासी सम्पत्ति थी। कई गाँवोंका अपना खास टीका लगवानेवाला होता था और कई परिवारोंमें यह पुश्तैनी कला चली आई थी। लेखकके मुताबिक ''चूँकि टीका लगवानेकी यह विधि ब्रिटेनमें भी धीरे-धीरे मान्य हो रही थी, अतः बंगालके कई अंग्रेज परिवार भी टीके लगवाने लगे थे। लेकिन सन्‌ 1798 में सर जेनरने गायके थनपर निकले चेचकके दानोंसे Vaccine बनानेकी विधि ढूँढ़ी तो इंग्लैंडमें उसका भारी स्वागत हुआ। ''अब उस जादू टोने वाले देशके टीकेकी बजाय हम अपने डॉक्टरकी विधिका प्रयोग करेंगे।'' जैसे ही जेनरकी विधि हाथमें आई अंग्रेजोंने मान लिया कि इसके सिवा जो भी विधि जहाँ भी हो, वह बकवास है और उसे रोकना पड़ेगा।

जेनरकी विधि सबसे पहले १८०२में मुम्बईमें लाई गई और १८०४ में बंगालमें। इसके बाद ब्रिटिश राजने हर तरहसे प्रयास किया कि भारतीयोंकी टीका लगानेकी विधि अर्थात्‌ Variolation को समाप्त किया जाए। इसका सबसे अच्छा उपाय यह था कि Variolation के द्वारा टीका लगवानेको गुनाह करार दिया गया और टीका लगवाने वालोंको जेल भेजा गया। करीब १८३० के बाद चेचकके विषयमें अंग्रेजोंके द्वारा लिखित जितने भी ब्यौरे मिलेंगे उनमें Variolation की विधिको बकवास बताया गया है और भारतीयोंकी तथा उनकी अंधश्रद्धाकी भरपूर निन्दा की गई ''जिसके कारण वे जेनर साहबके Vaccination जैसे अनमोल रत्नको ठुकरा रहे थे जो उन्हें अंग्रेज डॉक्टरोंकी दयासे मिल रहा था और जिसके प्रति कृतज्ञता दर्शाना भारतीयोंका कर्तव्य था।'' भारतीयों द्वारा देसी पद्धतिसे टीका लगवानेको ''मृत्युका व्यापार '' या "Murderous trade" कहा गया।

अन्य जगहोंपर आरनॉल्डने लिखा है -
''उत्तर पूर्व भारतसे अंग्रेजोंके द्वारा भारतीय टीकेके संबंधमें कई विवरण मिलते हैं जो काफी अलग अलग हैं क्योंकि कई बार ये विवरण लेखककी अपनी समझपर निर्भर हैं। फिर भी देखा जा सकता है कि सन्‌ १८०० से पहलेके रिपोर्ट प्रायः इस प्रणालीकी प्रशंसा करते थे।''-- आरनॉल्ड

''देशी टीका पद्धतिको दकियानूसी कहकर बंद करवानेके प्रयासके कारण देशी टीकाकार छिप-छिपाकर टीके लगाने लगे। अतएव अब वे पहले जितनी देखभाल या पथ्य विचार नहीं कर सकते थे। देशी टीका पद्धति यदि कहीं-कहीं अप्रभावी होने लगी, तो उसका एक कारण यह भी था।'' -- आरनॉल्ड

''जो अंग्रेज शासन अभी बंदूककी नोकके सहारे था, और मराठोंके साथ अभीतक लड़ाईयाँ लड़ रहा था, उसके लिए वॅक्सीनेशन एक ऐसा मुद्दा बन गया जिसके माध्यमसे नेटिवोंको एहसानमंद किया जा सकता था और कहा जा सकता था कि कंपनीका राज कितनी हमदर्दीसे चल रहा है।''-- आरनॉल्ड

''वैक्सीनेशनको भारतीयोंने शीघ्रता से सरआँखोंपर नहीं लिया इससे कई अंग्रेज अफसर रुष्ट थे। शूलब्रेडने उन्हें मूर्ख, अज्ञानी और हर नये अविष्कार का शत्रु कहा (१८०४) तो डंकन स्टेवार्टने अकृतज्ञ और मूढ कहा (१८४०) जबकि १८७८ में कलकत्ताके सॅनिटरी कमिश्नरने उन्हें अंधिविश्वासी, रूढ़िवादी और जातीयवादी कहा। भारतीयोंकी टीका पद्धतीको ही इस व्यवहारका कारण माना गया और कहा गया कि सारे भारतीय टीकाकार अपनी रोजी रोटी छिन जानेके डरसे वॅक्सिनेशनके बारेमें गलत बातें फैला रहे थे, जबकि भारतीय पद्धतिमें ही अधिक लोग मरते हैं।'' -- आरनॉल्ड

''खुद नियतिने यह विधान किया कि हम इस देशपर राज करें और यहाँ लाखों करोड़ों मूढ़ और अज्ञानी प्रजाजनोंको उस आत्मक्लेशसे बचायें जिसके कारण वे भारतीय टीका लगवाते हैं - शूलब्रेड।''

लेकिन शूलब्रेडके ही समकालीन बुचाननने इस पद्धतिमें कई अच्छाइयों का वर्णन किया है और १८६० में कलकत्ताके वॅक्सीनेशनके सुपरिटेंडेंट जनरल चार्लस्‌ ने लिखा है ''यदि सारे विधी विधानोंका ठीकसे पालन हो तो भारतीय पद्धतीमें चेचककी महामारी फैलनेकी कोई संभावना नहीं है। हालाँकि मैं स्वयं वॅक्सिनेशनको बेहतर समझता हूँ फिर भी मेरा सुझाव है कि भारतीय टीकादारोंपर पाबन्दी लगानेके बजाय उनका रजिस्ट्रेशन करके उन्हें उनकी अपनी प्रणालीसे टीके लगाने दिये जायें।'' जाहिर है कि यह सुझाव अंग्रेजी हुकूमतको पसंद नहीं आया।

अंग्रेजी पद्धतिके लोकप्रिय न होनेका एक कारण यह भी था कि काफी वर्षोंतक अंग्रेजी पद्धतीमें कई कठिनाईयाँ रही थीं। उन्नींसवीं सदीके अंततक यह पद्धती काफी क्लेशकारक भी थी। भारतवर्षमें गायोंको चेचककी बीमारी नहीं होती थी। अतः गायके चेचकका पीब (जिसे वॅक्सिन कहा गया) इंग्लैंडसे लाया जाता था। फिर बगदादसे बंबईतक इसे बच्चोंकी श्रृखंलाके द्वारा लाया जाता था - अर्थात्‌ किसी बच्चेको गा के वॅक्सीनसे टीका लगा कर उसे होने वाली जख्मके पकने पर उसमेंसे पीब निकालकर अगले बच्चेको टीका लगाया जाता था।''

बादमें गायके वॅक्सिनको शीशीमें बन्द करके भेजा जाने लगा। परंतु गर्मीसे या देरसे पहुँचनेपर उसका प्रभाव नष्ट हो जाता था। उसके कारण बड़े बड़े नासूर भी पैदा होते थे। गर्मियोंमें दिये जाने वाले टीके कारगर नहीं थे, अतएव छह महीनोंके बाद टीके बंद करने पड़ते थे और अगले वर्ष फिरसे बच्चोंकी श्रृखंला बनाकर ही टीकेका वॅक्सिन भारतमें लाया जा सकता था। यूरोप और भारतमें कुछ लोगोंने इसे बच्चोंके प्रति अन्याय बताया और यह भी माना जाता था कि इसी पद्धतिके कारण सिफिलस या कुष्ट रोग भी फैलते हैं।

सन्‌ १८५० में बम्बईमें वॅक्सिनेशन डिविजनने गायके बछड़ोंमें वॅक्सिनेशन कर उनके पीबसे टीके बनानेका प्रयास किया परंतु यह खर्चीला उपाय था।

सन्‌ १८९३ में बंगालके सॅनिटरी कमिश्नर डायसनने लिखा है - अंग्रेजी पद्धतिमें एक वर्षसे कम आयुके बच्चोंको टीका दिया जाता था। जिस बच्चेका घाव पक गया हो उसे दूसरे गाँवोंमें ले जाकर उसके घावोंका पीब निकालकर अन्य बच्चोंको टीका लगया जाता। कई बार घावको जोरसे दबा-दबाकर पीब निकाला जाता ताकि अधिक बच्चोंको टीका लगाया जा सके। बच्चे, उनकी माएं और अन्य परिवारवाले रोते कलपते थे। टीका लगवानेवाले परिवार भी रोते क्योंकि उनके बच्चोंको भी आगे इसी तरहसे प्रयुक्त किया जाता था। गाँव वाले मानते थे कि इन अंग्रेज टीकादारोंसे बचनेका एक ही रास्ता था - कि उन्हें चाँदीके सिक्के दिये जायें। यह सही है कि इस विधीमें बच्चे को कोई बीमारी नहीं होती थी या उसे चेचकके दाने नहीं निकलते थे जबकि भारतीय पद्धतिमें पचास से सौ तक दाने निकल आते थे। फिर भी कुल मिलाकर भारतीय पद्धतिमें तकलीफें कम थीं। जो भी थीं उन्हे शीतला माताकी इच्छा मानकर स्वीकार कर लिया जाता था।

इस सारे विवरणको विस्तारसे पढ़नेके बाद कुछ प्रश्न खड़े होते हैं। सबसे पहला प्रश्न यह आता है कि शीतलाका टीका लगानेकी इस विधिके विषयमें हमारे आयुर्वेदके विद्वान क्या और कितना जानते हैं? आज भी काशी इत्यादि तीर्थ क्षेत्रोंमें पण्डोंके पास उनके यजमान कुटुंबोंके कई पीढ़ियोंके इतिहास या वंशावलियाँ सुरक्षित हैं। क्या इनमेंसे किसीके पास या आयुर्वेदकी पुरानी पोथियाँ संभाल कर रखनेवाले परिवारोंमें किसीके पास इस संबंधमें अधिक जानकारी मिल सकती है? दूसरा विचार यह है कि कभी हमारे समाजमें यह क्षमता थी कि इस प्रकारकी विकेंद्रित प्रणालीका आयोजन किया जा सकता था। आज वह क्षमता लुप्तसी होती दिखाई पड़ती है जोकि गहरी चिन्ताका विषय है। यह भी विचारणीय है कि जैसा गहन रिसर्च आरनॉल्डने यह पुस्तक लिखनेके लिये किया वैसा गहन रिसर्च हमारे ही देशकी स्वास्थ्य प्रणालीके विषयमें कितने लोग या कितने आयुर्वेदिक डॉक्टर कर पाते हैं? नकी क्षमता बढ़ानेके लिये सरकारके पास क्या नीतियाँ हैं और वे कितनी कारगर हैं?

सबसे पहले प्रयासके रूपमें इतना तो अवश्य किया जा सकता है कि हमारे आयुर्वेदके डॉक्टर और सरकारी अफसर इस पुस्तकको या कम से कम इस अध्यायको पढ़ लें।

--लीना मेहेंदळे
(2000 में कभी) -- देशबन्धु में प्रकाशित

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