रविवार, अक्तूबर 21, 2018

1980 में सबरीमला मंदिर के बागीचे में ईसाई मिशनरियों ने रातों रात एक क्रॉस गाड़ दिया था। सबरीमला मंदिर क्यों सबकी आंखों में खटक रहा है।

जानिये और समझिये कि सबरीमला मंदिर क्यों सबकी आंखों में खटक रहा है।
केरल में सबरीमला के मशहूर स्वामी अयप्पा मंदिर में महिलाओं के प्रवेश के नाम पर चल रहे विवाद के बीच लगातार यह सवाल उठ रहा है कि आखिर इस मंदिर में ऐसा क्या है कि ईसाई और इस्लाम धर्मों को मानने वाले तथाकथित एक्टिविस्ट भी कम से कम एक बार यहां घुसने को बेताब हैं।
इस बात को समझने के लिये हमें केरल के इतिहास और यहां इस्लामी और राज्य में बीते 4-5 दशक से चल रही ईसाई धर्मांतरण की कोशिशों को भी समझना होगा।
मंदिर में प्रवेश पाने के पीछे नीयत धार्मिक नहीं, बल्कि यहां के लोगों की सदियों पुरानी धार्मिक आस्था को तोड़ना है, ताकि इस पूरे इलाके में बसे लाखों हिंदुओं को ईसाई और इस्लाम जैसे अब्राहमिक धर्मों में लाया जा सके।
केरल में चल रहे धर्मांतरण अभियानों में सबरीमला मंदिर बहुत बड़ी रुकावट बनकर खड़ा है।
पिछले कुछ समय से इसकी पवित्रता और इसे लेकर स्थानीय लोगों की आस्था को चोट पहुंचाने का काम चल रहा था।
लेकिन हर कोशिश नाकाम हो रही थी।
लेकिन आखिरकार महिलाओं के मुद्दे पर ईसाई मिशनरियों ने न सिर्फ सबरीमला के अयप्पा मंदिर बल्कि पूरे केरल में हिंदू धर्म के खात्मे के लिए सबसे बड़ी चाल चल दी है।
सबरीमला के इतिहास को समझिये...
1980 से पहले तक सबरीमला के स्वामी अयप्पा मंदिर के बारे में ज्यादा लोगों को नहीं पता था। केरल और कुछ आसपास के इलाकों में बसने वाले लोग यहां के भक्त थे।
70 और 80 के दशक का यही वो समय था जब केरल में ईसाई मिशनरियों ने सबसे मजबूती के साथ पैर जमाने शुरू कर दिये थे।
उन्होंने सबसे पहला निशाना गरीबों और अनुसूचित जाति के लोगों को बनाया।
इस दौरान बड़े पैमाने पर यहां लोगों को ईसाई बनाया गया। इसके बावजूद लोगों की मंदिर में आस्था बनी रही।
इसका बड़ा कारण यह था कि मंदिर में पूजा की एक तय विधि थी जिसके तहत दीक्षा आधारित व्रत रखना जरूरी था।
सबरीमला उन मंदिरों में से है जहां पूजा पर किसी जाति का विशेषाधिकार नहीं है किसी भी जाति का हिंदू पूरे विधि-विधान के साथ व्रत का पालन करके मंदिर में प्रवेश पा सकता है।
सबरीमला में स्वामी अयप्पा को जागृत देवता माना जाता है। यहां पूजा में जाति विहीन व्यवस्था का नतीजा है कि इलाके के दलितों और आदिवासियों के बीच मंदिर को लेकर अटूट आस्था है।
मान्यता है कि मंदिर में पूरे विधि-विधान से पूजा करने वालों को मकर संक्रांति के दिन एक विशेष चंद्रमा के दर्शन होते हैं जो लोग व्रत को ठीक ढंग से नहीं पूरा करते उन्हें यह दर्शन नहीं होते।
जिसे एक बार इस चंद्रमा के दर्शन हो गए माना जाता है कि उसके पिछले सभी पाप धुल जाते हैं।
सबरीमला से आया सामाजिक बदलाव...
सबरीमला मंदिर की पूजा विधि देश के बाकी मंदिरों से काफी अलग और कठिन है।
यहां दो मुट्ठी चावल के साथ दीक्षा दी जाती है इस दौरान रुद्राक्ष जैसी एक माला पहननी होती है।
साधक को रोज मंत्रों का जाप करना होता है।
इस दौरान वो काले कपड़े पहनता है और जमीन पर सोता है।
जिस किसी को यह दीक्षा दी जाती है उसे स्वामी कहा जाता है।
यानी अगर कोई रिक्शावाला दीक्षा ले तो उसे रिक्शेवाला बुलाना पाप होगा इसके बजाय वो स्वामी कहलायेगा।
इस परंपरा ने एक तरह से सामाजिक क्रांति का रूप ले लिया।
मेहनतकश मजदूरी करने वाले और कमजोर तबकों के लाखों-करोड़ों लोगों ने मंदिर में दीक्षा ली और वो स्वामी कहलाये।
ऐसे लोगों का समाज में बहुत ऊंचा स्थान माना जाता है।
यानी यह मंदिर एक तरह से जाति-पाति को तोड़कर भगवान के हर साधक को वो उच्च स्थान देने का काम कर रहा था जो कोई दूसरी संवैधानिक व्यवस्था कभी नहीं कर सकती है।
ईसाई मिशनरियों के लिये मुश्किल
सबरीमला मंदिर में समाज के कमजोर तबकों की एंट्री और वहां से हो रहे सामाजिक बदलाव ने ईसाई मिशनरियों के कान खड़े कर दिये उन्होंने पाया कि जिन लोगों को उन्होंने धर्मांतरित करके ईसाई बना लिया वो भी स्वामी अयप्पा में आस्था रखते हैं और कई ने ईसाई धर्म को त्यागकर वापस सबरीमला मंदिर में ‘स्वामी’ के तौर पर दीक्षा ले ली।
यही कारण है कि ये मंदिर ईसाई मिशनरियों की आंखों में लंबे समय से खटक रहा था।
अमिताभ बच्चन, येशुदास जैसे कई बड़े लोगों ने भी स्वामी अयप्पा की दीक्षा ली है ।
इन सभी ने भी मंदिर में रहकर दो मुट्ठी चावल के साथ दीक्षा ली है इस दौरान उन्होंने चप्पल पहनना मना होता था और उन्हें भी उन्हीं रास्तों से गुजरना होता था जहां उनके साथ कोई रिक्शेवाला, कोई जूते-चप्पल बनाने वाला स्वामी चल रहा होता था।
नतीजा यह हुआ कि ईसाई संगठनों ने सबरीमला मंदिर के आसपास चर्च में भी मकर संक्रांति के दिन फर्जी तौर पर ‘चंद्र दर्शन’ कार्यक्रम आयोजित कराए जाने लगे।
ईसाई धर्म के इस फर्जीवाड़े के बावजूद सबरीमला मंदिर की लोकप्रियता दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ती रही थी।
नतीजा यह हुआ कि उन्होंने मंदिर में 10 से 50 साल तक की महिलाओं के प्रवेश पर लगी रोक को मुद्दा बनाकर सुप्रीम कोर्ट में याचिका डाल दी।
यह याचिका कोर्ट में एक हिंदू नाम वाले कुछ ईसाइयों और एक मुसलमान की तरफ से डलवाई गई।
1980 में सबरीमला मंदिर के बागीचे में ईसाई मिशनरियों ने रातों रात एक क्रॉस गाड़ दिया था।
फिर उन्होंने इलाके में परचे बांट कर दावा किया कि यह 2000 साल पुराना सेंट थॉमस का क्रॉस है इसलिये यहां पर एक चर्च बनाया जाना चाहिये।
उस वक्त आरएसएस के नेता जे शिशुपालन ने इस क्रॉस को हटाने के लिए आंदोलन छेड़ा था और वो इसमें सफल भी हुये थे।
इस आंदोलन के बदले में राज्य सरकार ने उन्हें सरकारी नौकरी से निकाल दिया था।
केरल में हिंदुओं पर सबसे बड़ा हमला
केरल के हिंदुओं के लिए यह इतना बड़ा मसला इसलिये है क्योंकि वो समझ रहे हैं कि इस पूरे विवाद की जड़ में नीयत क्या है।
राज्य में हिंदू धर्म को बचाने का उनके लिये यह आखिरी मौका है।
केरल में गैर-हिंदू आबादी तेज़ी के साथ बढ़ते हुए 35 फीसदी से भी अधिक हो चुकी है।
अगर सबरीमला की पुरानी परंपराओं को तोड़ दिया गया तो ईसाई मिशनरियां प्रचार करेंगी कि भगवान अयप्पा में कोई शक्ति नहीं है और वो अब अशुद्ध हो चुके हैं।
ऐसे में ‘चंद्र दर्शन’ कराने वाली उनकी नकली दुकानों में भीड़ बढ़ेगी।
नतीजा धर्मांतरण के रूप में सामने आएगा।
यह समझना बहुत मुश्किल नहीं है क्योंकि जिन तथाकथित महिला एक्टिविस्टों ने अब तक मंदिर में प्रवेश की कोशिश की है वो सभी ईसाई मिशनरियों की करीबी मानी जाती हैं।
जबकि जिन हिंदू महिलाओं की बराबरी के नाम पर यह अभियान चलाया जा रहा है वो खुद ही उन्हें रोकने के लिये मंदिर के बाहर दीवार बनकर खड़ी हैं।
सनातन में आस्था रखने वाले हर हिन्दू का यह अलिखित कर्तव्य है कि #शबरीमला के इस युद्ध में अभूतपूर्व एकता का परिचय दें एवं इसी मौके का लाभ लेकर आगे भी एकजुट रहें - आगे और भी लड़ाई बाकी है ..


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मेरी माँ ने प्रतीक्षा की|
मेरी पत्नी की माँ ने प्रतीक्षा की|
मेरी पत्नी, मेरी बहनें भी प्रतीक्षा कर रही हैं|
मैंने अपनी माँ की आँखों में उस अद्भुत चमक को देखा है, जब उन्होंने अयप्पा के दर्शन किये थे|
मैं उन्हें सबरीमाला ले गया था, जब वह 50 वर्ष की थीं|
पहले उन्होंने कहा--धुंआरहित दीपावली और पटाखे बैन किये|
फिर उन्होंने कहा कि गणेश पांडाल प्रदूषण और शोर फैलाते हैं|
फिर उसके बाद वो पानी की बर्बादी के नाम पर वाटरलेस होली का शिगूफा लेकर आये और जब उससे भी काम बनता नहीं दिखा तो वीर्य भरे गुब्बारों का झूठा तमाशा शुरू किया|
दुर्गा पूजा पर उनको दिक्क्त है कि महिषासुर को क्यों मरता हुआ दिखाया जाता है और दशहरे पर ये कि रावण को क्यों जलाया जाता है|
उन्होंने शनि सिंगणापुर मंदिर की परम्परा नष्ट कर दी|
फिर उन्होंने कहा कि लिंगायत हिन्दू नहीं है और उन्हें एक अलग धर्म का दर्ज़ा दे दिया|
पर फिर भी कुछ नहीं हुआ|
हिन्दू चाहे-अनचाहे सब कुछ स्वीकार करता रहा, ये कहते हुए कि वो संविधान का सम्मान करता है, संसद का सम्मान करता है, न्यायालय का सम्मान करता है, और भी ना जाने किन किन नामों पर|
और फिर आया #सबरीमाला
पर यहाँ उन्होंने गलत बयाना ले लिया अयप्पा और उनके भक्तों से टकरा कर|
भारत में बहुत से लोग नहीं जानते होंगे कि अयप्पा अपने भक्तों के हृदय में क्या स्थान रखते हैं|
भारतीय परम्पराओं में वो सर्वाधिक पूज्य भगवानों में से एक हैं|
अन्यथा 41 दिन की कठिन अयप्पा दीक्षा, फिर मंदिर की कठिन चढ़ाई चढ़ना और तब दर्शन करना कोई न करे|
सम्भवतः यह संसार के किसी भी भाग में, किसी भी सम्प्रदाय में की जाने वाली सबसे कठिन तपस्या है|
केवल पुरुष नहीं, बल्कि पूरा परिवार इस दीक्षा, इस तपस्या का भाग होता है|
मैंने अपनी अपनी माँ के नेत्रों में वो गर्वपूर्ण श्रद्धा, वो भक्ति देखी है, जब वो मुझे और मेरे भाई को सबरीमाला भेजा करती थी|
इस अनुभव, इस समर्पण को शब्दों की सीमाओं में बांधना असंभव है|
माँ, पत्नी, बहनें, सब इस दीक्षा का भाग होती हैं क्योंकि एक पुरुष को दीक्षा के लिए समर्थ बनाने में पूरे परिवार का समर्पण लगता है|
कारण, दीक्षा की पहली आवशयकता है यौन संबंधों से विरत रहते हुए, ब्रह्चर्य का ढृढ़तापूर्वक पालन करना|
इसमें केवल पुरुष की सोच काम नहीं करती, पत्नी को भी इसे स्वीकार करना होता है और अपने पति को घर से बाहर किसी मंदिर में 41 दिनों तक दूसरे अयप्पा भक्तों के साथ जाकर रहने देना होता है|
क्या आप जानते हैं कि अयप्पा भक्त अपनी माँ, पत्नी और बच्चों को भी स्वामी कहते हैं|
41 दिनों तक अयप्पा भक्तों के लिए प्रत्येक व्यक्ति स्वामी है|
अनगिनत लोग हज़ारों किलोमीटर चलकर सबरीमाला जाते हैं|
वो कहीं कोई बस-कार या कोई अन्य साधन प्रयोग नहीं करते|
वो पैरों में जूते-चप्पल भी नहीं पहनते|
नंगे पैर जाते हैं वो अपने अयप्पा स्वामी के दर्शन करने|
इस अयप्पा दीक्षा में महिलाओं के साथ भेदभाव नहीं किया जाता है|
उनका मान किया जाता है|
कौन ऐसी महिला होगी जो अपने पति, पुत्र या भाई को धूम्रपान, मदिरापान, जुआँ, गलत आचरण से दूर रह कर जीवन में अनुशासित नहीं देखना चाहती होगी|
क्या कोई स्वविकास कार्यक्रम व्यक्ति को ये सब करवा सकता है|
क्या कोई पुनर्सुधार केंद्र किसी व्यक्ति से ये सब करवा सकता है|
केवल अयप्पा व्यक्ति को ये सब करने के लिए प्रेरित कर सकते हैं और लोग स्वामी के लिए ये हृदय से करते हैं|
इसलिए महिलाएं अयप्पा को पूजती हैं और उन्हें देखने के लिए 40 वर्षों की प्रतीक्षा को भी ख़ुशी से स्वीकारती हैं|
लोग इतना सब कठिन व्रत क्यों करते हैं फिर?
ये अयप्पा के प्रति उनका असाधारण विश्वास और एक प्रकार की तपस्या है|
और यदि कोई भगवान् इस तरह की श्रद्धा, इस तरह का विश्वास, इस तरह की तपस्या अपने भक्तों से शताब्दियों से प्राप्त कर रहा है|
तो उस दुःख, पीड़ा, उस क्रोध की कल्पना करिये जो अयप्पा भक्तों के हृदयों में उत्पन्न हो रहा है, जब कोई उसे एक कागज़ के टुकड़े पर एक हस्ताक्षर बनाकर खंडित करने का प्रयास कर रहा है|
उस तकलीफ की भी कल्पना कीजिये जब आपकी अपनी सरकार निहित स्वार्थों के साथ को प्रश्रय दे रही हो और मंदिर की पवित्रता को विनष्ट करने के लिए षड्यंत्र कर रही हो|
जी हाँ, वरना सरकार को क्या जरुरत थी कि किसी मेरी, किसी लिवी या किसी रिहाना के सबरीमाला जाने का समर्थन करने की, केवल कुछ सिद्ध करने के लिए|
क्या इन महिलाओं का अयप्पा और उनकी भक्ति से दूर दूर तक का भी कोई लेना देना है|
यदि हिन्दू महिलाएं पुरुषों द्वारा उन्हें कथित रूप से मंदिर में प्रवेश ना करने को लेकर इतनी ही पीड़ित-प्रताड़ित-दुखी और क्रोध में हैं, तो कोर्ट के निर्णय के बाद अब तक उन्हें हज़ारों-लाखों की संख्या में सबरीमाला दर्शनों के लिए पहुँचना चाहिए था|
क्या एक भी सच्ची महिला भक्त अब तक पहुँची? नहीं
क्या आप जानते हैं कि अयप्पा मात्र 12 वर्ष की आयु के बालक हैं|
इसलिए महिलाएं उन्हें अपना पुत्र समझती हैं और वो महिलाओं को अपनी माँ|
क्या माँ और पुत्र एक दूसरे से घृणा करते हैं या एक दूसरे से भेदभाव करते हैं|
महिलाएं नहीं आएँगी वहां क्योंकि वे जानती हैं कि अयप्पा दीक्षा का महिलाओं के प्रति भेदभाव, उनके रजस्वला होने या इस तरह की किसी अन्य बात से कोई सम्बन्ध नहीं है|
ये पुरुषों के लिए एक तपस्या है, एक आध्यात्मिक यात्रा है|
हिन्दू महिलाओं के लिए ऐसी अनेकों दीक्षाएँ और पूजाएं हैं जिन पर केवल उनका विशेषाधिकार है|
इसलिए वो कभी अपने साथ भेदभाव होता हुआ अनुभव नहीं करती|
हाँ, वो लाखों की संख्या में सड़कों पर उतरी हैं|
पर वो सबरीमाला को बचाने के लिए उतरी हैं क्योंकि वो अयप्पा से प्रेम करती हैं|
कौन ऐसे भगवान् से प्रेम करेगा जो उसके साथ भेदभाव करता है|
कौन ऐसे भगवान् के लिए पुलिस-प्रशासन के अत्याचारों का सामना करेगा जो उसे अपनी पूजा का अधिकार नहीं देता|
पर महिलाएं अयप्पा के लिए, सबरीमाला के लिए लड़ रही हैं तो कोई तो बात होगी ही|
यदि फिर भी कोई हिन्दू पुरुष या महिला अनुभव करता है कि ये पूरा मसला उन दिनों का, वर्जनाओं का या भेदभाव का है, तो इसका अर्थ है कि वो सबरीमाला के बारे में कुछ भी नहीं जानता|
सनातन धर्म का अस्तित्व ही बहुलता को स्वीकार करके है|
और इसीलिए प्रत्येक मंदिर, प्रत्येक तीर्थ स्थान के अपने अलग अलग नियम-कायदे हैं|
यहाँ अब्राहमिक मजहबों की तरह एक ही पुस्तक, एक ही भगवान, एक ही तीर्थ स्थान का नियम नहीं चलता|
यही सनातन की महानता है, यही इसकी सुंदरता है|
कोई इसकी मूल आत्मा को ही कैसे मार सकता है?
अगर सनातन को भी अब्राहमिक मजहबों की तरह एकांगी बना दिया गया तो कोई हिन्दू धर्म बचेगा ही नहीं|
हमारा संविधान धर्म के प्रचार-प्रसार-पालन की स्वतंत्रता प्रदान करता है|
हिन्दुओं ने कभी भी धर्म परिवर्तन कराने में विश्वास नहीं किया|
फिर भी उन्होंने आपत्ति नहीं जताई, जब संविधान ने इस्लाम और ईसाइयत को मतांतरण का अधिकार भी दे दिया, जिनके लिए ये येन केन प्रकारेण करना उनके मजहब का अभिन्न अंग ही है|
जब सभी को उनके अधिकार हिन्दुओं की कीमत पर भी दिए गए हैं, तो क्या हिन्दुओं को अपनी रीति-रिवाजों-परम्पराओं-मान्यताओं और मंदिरों-तीर्थ स्थानों की आचार सहिंताओं को लागू करने, मानने, पालन करने का अधिकार नहीं होना चाहिए, जो उनके धर्म के अभिन्न अंग हैं| अगर आप हिन्दुओं से एक पुस्तक-एक पैगम्बर मजहबों की तरह बनने की अपेक्षा करते हैं, तो ये तय है कि आपने हिन्दुओं को समाप्त करने की ठान ली है क्योंकि जड़ता और हिंदुत्व पूर्ण विलोम हैं| क्या हो, अगर हम भी दूसरे मजहबों की मूल बातों को लेकर विवाद करने लगें, उन्हें अपने हिसाब से चलने के लिए मजबूर करने लगें|
आओ ऐसा करें कि धर्म के अधिकार को समाप्त कर दें और सबसे कहें कि वो केवल पंथनिरपेक्ष संविधान को ही माने|
जिससे कोई भी मुस्लिम महिला मस्जिद में जा सके और नमाज पढ़ सके|
कोई भी नन बिशप बन सके|
कोई भी मुस्लिम या ईसाई किसी हिन्दू को धर्मन्तरित ना कर सके|
कैसा लगा सुनकर, हिन्दू धर्म में ही सारे सुधारों के लिए मर रहे पैरोकारों
(मूल अंग्रेजी पोस्ट विष्णुवर्धन जी की| यहाँ भावार्थ करने का प्रयास किया है मैंने क्योंकि सबरीमाला मामले पर इससे बेहतर कुछ नहीं मिला मुझे अब तक)

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