बुधवार, अगस्त 05, 2015

क्यों 1997 के बाद से संस्थान का दीक्षांत समारोह नहीं हुआ है ?तीन साला पाठ्यक्रमों में वो दो से तीन गुना समय क्यों लगाते आये हैं ?


देखिए कि किस प्रकार पाँच दशकों तक FTII कम्युनिस्ट आपूर्ति केंद्र और राजवंश के चाटुकारों का आश्रय स्थल बना रहा। जानिए कि गजेन्द्र चौहान पहले कौन लोग इसे चलाते आये हैं , और मौजूदा हंगामे के पीछे कौन है ?
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MY TAKE -
FTII : चुके हुए खेमे के पिटे हुए क्षत्रपों का रुदन
-प्रशांत बाजपेई, पाञ्चजन्य, 26 जुलाई 2015

भारतीय फिल्म और दूरदर्शन संस्थान (एफटीआईआई ) में उसके 55 साल के इतिहास की 36 वीं हड़ताल जारी है। बयानों से रोज अखबार और टीवी स्क्रीन लाल हो रहे हैं। बुद्धिजीवी जगत भी दो धड़ों में बँटता नजर आ रहा है। वामपंथी खेमे की शह पर जारी इस हँगामे के असली किरदार परदे के पीछे हैं। कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ इंडिया के छात्र विंग एआईएसए के बैनर पर प्रदर्शन हो रहे हैं।

इसी प्रकार 15 जून को एसएफआई (स्टूडेंट फेडरेशन ऑफ़ इंडिया )ने बयान जारी किया है कि वो एफटीआईआई के 'भगवाकरण' के खिलाफ मजबूती से खड़ा है।संस्था के नए चेयरमैन गजेन्द्र चौहान पर हमला करते हुए कहा गया है कि वे इस पद के लिए अयोग्य है और उन्होंने लोकसभा चुनाव में मोदी जी के प्रचार अभियान में भाग लिया था।

चर्चा को आगे बढ़ाने से पहले एफटीआईआई की छात्र राजनीति पर नज़र डालना जरूरी है। एफटीआईआई सरकार के वित्त पोषण पर पलने वाला ऐसा संस्थान है जिसके छात्रों पर आईआईटी के छात्रों से चार गुना (लगभग 13 लाख रुपए सालाना ) खर्च किया जाता है।

संसाधनो और सुविधाओं का अम्बार है।लेकिन यहाँ से पढ़कर निकलने वाले छात्रों पर सरकार के लिए एक तय समय तक कुछ काम करने की कोई बाध्यता नहीं है। तिस पर भी,चौहान की योग्यता पर सवाल उठाने वाले छात्र गुटों से ये सवाल पूछने वाला कोई नहीं है कि उनके तीन साला पाठ्यक्रमों में वो दो से तीन गुना समय क्यों लगाते आये हैं ? दस -दस सालों से पढ़ रहे इन 'होनहार' विद्यार्थियों पर करदाताओं का पैसा बरबाद क्यों किया जाए ?

क्यों 1997 के बाद से संस्थान का दीक्षांत समारोह नहीं हुआ है ?अधेड़ होते 'छात्रों ' से भरे इस परिसर में अनुशासन की स्थिति ये है कि 1997 के उस अंतिम दीक्षांत कार्यक्रम के मुख्य अतिथि अभिनेता दिलीप कुमार पर भद्दे शब्द उछाले गए। गत 22 जुलाई को सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय ने कुछ तथ्य उजागर किये। इस जाँच के अनुसार जनता की जेब पर भारी इस संस्थान में 40 के लगभग पूर्व छात्र जमे हुए हैं।

बिना कोई पैसा चुकाए ये 'एलमनाइ ' सारी सुविधाओं का लाभ उठा रहे हैं। परिसर में अनधिकृत रूप से रह रहे ये लोग अनुशासनहीनता को बढ़ावा दे रहे हैं और हड़ताल में भाग लेने के अलावा दूसरे छात्रों को संस्था प्रशासन के विरुद्ध भड़का रहे हैं। इनमें से ज्यादातर के कोर्स 2008 -2009 में समाप्त हो चुके हैं। अब ये अध्यनरत विद्यार्थियों के भविष्य से खिलवाड़ कर रहे हैं।

अनुशासनहीनता अब गुंडागर्दी में तब्दील हो रही है। हड़ताल के खिलाफ बोलने वाले अध्यापकों को हड़तालियों द्वारा धमकाकर छुट्टी पर जाने पर मजबूर किया जा रहा है। जामिया मिलिया इस्लामिया के प्राध्यापक और एफ टी आई आई के पूर्व छात्र डॉ दिवाकर के अनुसार ऐसी घटनाएं कोई नयी बात नहीं है। इन गतिविधियों का पढ़ाई लिखाई के ढर्रे पर क्या असर पड़ता है इसे बतलाते हुए दिवाकर कहते हैं कि "परिसर में सुविधाओं और संसाधनो की कोई कमी नहीं है लेकिन छात्र समय पर औपचारिकताएं पूरी नहीं करते। न ही किसी नियम या समय सीमा का पालन करते है।गजेन्द्र चौहान के खिलाफ हड़ताल भी एक और बहाना ही है।"

प्रोफ़ेसर दिवाकर की बात सच है। संस्थान के जन्म के समय से ही चेयरमैन की नियुक्ति केंद्र सरकार के हाथ रही है। ऐसे में चौहान की नियुक्ति को राजनैतिक बतलाने का क्या औचित्य है ? मजेदार बात है कि साढ़े पाँच दशकों में पहली बार 'राजनैतिक नियुक्ति ' का मुद्दा उछाला गया है। जो हड़ताली ये तर्क दे रहे हैं कि एफटीआईआई करदाताओं के पैसे से चलता है और इसलिए उन्हें अपनी मांगें थोपने और हड़ताल करके जनता के पैसे को बर्बाद करने का पूरा अधिकार है वो ये भूल जाते हैं कि उसी जनता ने इस सरकार को चुनाव जिताकर सत्ता पर बिठाया है।

सालों से ये संस्था फिल्म जगत में वामपंथी उत्पाद के निर्यात का केंद्र बनी हुई है। इतने वर्षों में किसी 'बुद्धिजीवी ' को इस पर आपत्ति नहीं हुई। होती भी कैसे, बुद्धिजीविता तो नेहरू काल से ही लाल गलियारे तक कैद रही है। लाल सलाम वालों की गुटबाज़ी भी इतनी जबरदस्त रही है कि एक तो प्रायः 'प्रमाणपत्र ' जारी करने के अधिकार वामपंथियों के हाथ में रहे हैं और दूसरा अलिखित नियम ये , कि गैर वामपंथी कभी न तो बुद्धिजीवी हो सकता है न कला पारखी। न तो साहित्यकार और न ही इतिहासकार। भारतीय फिल्म और दूरदर्शन संस्थान भी इसी भँवर में फँसा हुआ है।

एक और सवाल यह है कि योग्यता और अयोग्यता का पैमाना क्या है ?गजेन्द्र चौहान को काम का मौक़ा दिए बिना कैसे तय किया जा सकता है कि उनकी नियुक्ति गलत है ? मजे की बात है कि गजेन्द्र चौहान तो अभिनय की दुनिया से जुड़े व्यक्ति हैं जबकि फिल्म और टेलीविजन को समर्पित इस संस्थान में कई ऐसे चेयरमैन हो हो चुके है जिनका फिल्म या टेलीविजन से दूर-दूर तक कोई वास्ता नहीं था। तब कोई योग्यता और अयोग्यता आड़े नहीं आई।

हाल ही में FTII के पूर्व प्रमुख और फिल्म निर्देशक मृणाल सेन तथा अभिनेता सौमित्र चटर्जी ने अभिनेता गजेन्द्र चौहान की नियुक्ति का विरोध करते हुए कहा कि उन्होंने ये नाम कभी नहीं सुना और संस्था के प्रमुख को फिल्म निर्माण के हर पहलू की जानकारी होनी चाहिए। सवाल ये है कि जब ये स्वनामधन्य लोग गजेन्द्र चौहान को जानते ही नहीं हैं तो उन्होंने ये कैसे तय कर लिया कि उन्हें फिल्म निर्माण की जानकारी नहीं है ?

दूसरा, मृणाल सेन के ये पद छोड़ने के दो दशक बाद समाजवादी लेखक यू आर अनंतमूर्ति की नियुक्ति हुई। तब मृणाल सेन या सौमित्र चटर्जी ने उनके फिल्म निर्माण के अनुभव पर सवाल क्यों नहीं उठाया ? प्रसिद्ध कार्टूनिस्ट आर के लक्ष्मण भी फिल्म निर्माण का एक दिन का अनुभव लिए बिना इस पद पर रह चुके हैं।

अब एक दृष्टि इस ओर डालते हैं कि किस प्रकार एफटीआईआई एक विचारधारा विशेष को पालने-पोसने और निर्यात करने का गढ़ बना हुआ है। साल 2014 के लोकसभा चुनाव में फिल्म जगत से जुड़े दर्जनो लोगों ने भारतीय जनता पार्टी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी के खिलाफ एक अभियान चलाया था। इसके लिए देश के नाम बाकायदा एक चिट्ठी भी लिखी गयी थी।

इस चिट्ठी पर हस्ताक्षर करने वालों में विशाल भारद्वाज , इम्तियाज़ अली, ज़ोया अख्तर , कबीर खान, नंदिता दास, अंजुम राजबाली, कमलेश पांडे, तुषार गाँधी , तीस्ता सीतलवाड़ , जावेद आनंद वगैरह के साथ दो नाम और थे -महेश भट्ट, जो पूरे मामले के सूत्रधार थे और सईद मिर्जा, जो उनके पिछलग्गू थे। । दोनों एफ टी आई आई के चेयरमैन रह चुके हैं। भट्ट नवम्बर 1995 से सितम्बर 1998 तक, और मिर्ज़ा मार्च 2011 से मार्च 2014 तक।

महेश भट्ट के पिता कांग्रेस के नेता थे। हिंदुत्व और हिंदू संगठनों को हर साँस में कोसने वाले महेश भट्ट ने विगत लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के लिए वोट मांगते हुए 'कारवाँ ए बेदारी' नाम से अभियान चलाया था। 'कारवाँ ए बेदारी' अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय से जुड़ी मिल्लत बेदारी मुहिम कमेटी की उपज है। "केवल कांग्रेस ही सेकुलरिज्म को बचा सकती है.." आप भट्ट को अक्सर कहते सुन सकते हैं।

मुंबई पर हुए 26/11 के जिहादी हमले के बाद अखबार उर्दू सहारा के एडिटर इन चीफ ने एक बेहद खुरापात से भरी किताब लिखी -'26/11 आरएसएस की साज़िश ,' किताब में इस भयंकर आतंकी हमले से पाकिस्तान, आईएसआई और जिहादी आतंकी तंजीमों को क्लीन चिट देते हुए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, भारतीय जनता पार्टी , भारत के सुरक्षा बलों तथा अमेरिकी एवं इजरायली खुफिया एजेंसियों क्रमशः सीआईए और मोसाद पर संयुक्त रूप से इस आतंकी हमले का दोष मढ़ा गया था।

किताब में ये भी दावा किया गया था कि इंडियन मुजाहिदीन वास्तव में बजरंग दल का छद्म नाम है तथा संघ और विश्व हिन्दू परिषद मुसलमानो को बदनाम करने के लिए कूट नामों से आतंकी हमले कर रहे हैं। इस किताब का लोकार्पण और वकालत करने वालों में कांग्रेस नेता दिग्विजय सिंह और महेश भट्ट अग्रगण्य थे। जब मामले ने तूल पकड़ा और किताब पर कानूनी कार्यवाही की बात आई तो लेखक ने माफी मांगते हुए किताब वापिस ले ली और प्रायोजकों ने पल्ला झाड़ लिया। ये पहला मामला नहीं था जब महेश भट्ट इस प्रकार की मनगढ़ंत बातों के आधार पर मज़हबी उन्माद भड़काते देखे गए थे।

निर्देशक, अभिनेता,लेखक और नाट्य लेखक गिरीश कर्नाड फरवरी 1999 से अक्टूबर 2001 तक एफटीआईआई के प्रमुख रहे। गिरीश कर्नाड अपने धुर हिंदुत्व विरोधी रुख के लिए जाने जाते हैं। हिन्दू संगठनो से उनका घोषित द्वेष है। जब महाराष्ट्र की नव निर्मित भाजपा -शिवसेना सरकार ने गौमाँस निषेध क़ानून बनाया तो देश में अनेक स्थानो पर वामपंथियों ने गौमाँस पार्टियों का आयोजन किया। 9 अप्रैल को बेंगलुरु में कम्युनिस्ट धड़ों द्वारा आयोजित ऐसी ही एक गौमाँस पार्टी में कर्नाड ने भी हिस्सा लिया। मौके पर उपस्थित मीडिया से बात करते हुए अपनी इस भड़काऊ हरकत को जायज ठहराते हुए उन्होंने गौमाँस निषेध क़ानून को ही 'भड़काने वाला ' वाला करार दे दिया।

छद्म सेकुलरिज्म के झंडाबरदार गिरीश कर्नाड ने नोबल पुरूस्कार विजेता वी एस नायपॉल को मुस्लिम द्वेषी घोषित कर डाला क्योंकि उन्होंने अपनी किताब में मुस्लिम आक्रमणकारियों द्वारा हिन्दू संस्कृति पर आक्रमण का उल्लेख किया था।

जयपुर साहित्य महोत्सव में गिरीश कर्नाड कवि रवीन्द्रनाथ ठाकुर को 'दोयम दर्जे का नाटककार' और उनके नाटकों को 'असहनीय ' कहकर विवाद खड़ा कर चुके हैं। स्तंभ लेखक संदीप बालकृष्ण ने कन्नड़ दैनिक 'विजय वाणी' के हवाले से बताया कि गिरीश कर्नाड की इस हरकत का विरोध करने के लिए पांडिचेरी के नाट्य निर्देशक कुमार वालवान ने कर्नाड के ही लिखित नाटक 'ड्रीम्स ऑफ़ टीपू सुल्तान ' का उपयोग किया। कुमार ने अपने साथियों के साथ मिलकर इस नाटक का मंचन किया , लेकिन इसके अंत में थोड़ा फेरबदल कर दिया।

नाटक के अंतिम हिस्से में एक आतंकी मंच पर अवतरित होता है जो देश विरोधी बाते कहता जाता है। चूँकि कर्नाड के मूल नाटक में ऐसा कोई दृश्य नहीं है इसलिए अवाक दर्शक समझने की कोशिश में लगे रहते है कि अचानक आतंकी को मार दिया जाता है। फिर आतंकी के चेहरे से कपड़ा हटाया जाता है और नेपथ्य से आवाज आती है -" ये आतंकी नहीं है। ये गिरीश कर्नाड है।.… " गिरीश कर्नाड मर चुका है। " फिर से आवाज आती है -" ये कैसी दुगंध है ?"

मरे हुए आतंकी के शरीर पर कुछ हाथ घूमते हैं जो कुछ कागज़ के टुकड़े ढूंढ निकालते हैं। फिर एक और आवाज़ -"ये सब बकवास है " ...और कागज़ के टुकड़े फाड़कर फेंक दिए जाते हैं।इस प्रस्तुति से बौखलाए कर्नाड समर्थक जब हंगामा करने लगे तो निर्देशक ने मंच पर आकर कहा कि " यदि टैगोर को दोयम दर्जे का नाटककार कहना अभिव्यक्ति की आज़ादी है तो कर्नाड के नाटकों को बकवास कहना भी अभिव्यक्ति की आज़ादी है। "

लेखक यू आर अनंतमूर्ति मार्च 2005 मार्च 2011 तक एफटीआईआई के चेयरमैन रहे। अनंतमूर्ति आजीवन भाजपा-संघ तथा हिंदुत्व विरोधी रहे। 2004 में भाजपा उम्मीदवार के खिलाफ लोकसभा चुनाव भी लड़ा और पराजित हुए। वर्ष 2014 के लोकसभा चुनावों के दौरान अनंतमूर्ति ने बयान दिया कि यदि मोदी चुनाव जीत गए तो वे भारत छोड़ देंगे।

बाद में जब मोदी के नेतृत्व में भाजपा ने चुनाव जीत लिया तो उन्होंने कहा कि उक्त बयान उन्होंने भावावेश में आकर दिया था।
फिल्मकार मृणाल सेन अप्रैल 1984 से सितम्बर 1986 तक एफटीआईआई के चेयरमैन रहे। छात्र जीवन मे सेन कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ इंडिया की 'कल्चरल शाखा ' के साथ जुड़े रहे। उनकी मार्क्सवादी सोच जगजाहिर है , जिसकी छाप उनकी फिल्मों पर भी दिखाई देती है। वर्ग संघर्ष मृणाल सेन का मुख्य विषय रहा है।

रोचक पहलू है कि बीते पांच दशकों में कभी भी एफटीआईआई के 'लाल' रंग पर बुद्धिजीवियों को कोई चिन्ता हुई हो ,ऐसा नहीं हुआ। न ही अभिव्यक्ति की आज़ादी पर कोई 'हाथ' पड़ता दिखाई पड़ा। चिंता तो तब भी नही की गई जब इस कला संस्थान के पहले दो प्रमुख खालिस नौकरशाहों को बनाया गया। अब अचानक एक अभिनेता की नियुक्ति में 'भगवाकरण' की साज़िश, सरकारी दखल, बोलने की स्वतंत्रता पर ख़तरा सब दिखाई पड़ने लगा है।

परिसर के बाहर उठने वाले विरोधी स्वरों में प्रायः अपर्णा सेन, नंदिता दास और विशाल भारद्वाज जैसे फिल्मकार शामिल है जिनकी वैचारिक प्रतिबद्धताएं किसी से छिपी नहीं हैं। विशाल ने हैदर फिल्म के माध्यम से जम्मू कश्मीर पर जो विशाल झूठ दर्शकों के सामने परोसा है वो उनकी वैचारिक पृष्ठभूमि को साफ़ -साफ़ रेखांकित कर देता है। वो अपनी एक फिल्म 'मटरू की बिजली का मंडोला ' में माओत्से तुंग को महिमामंडित कर चुके है। हाल ही में हड़तालियों द्वारा कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी से समर्थन माँगा गया है। कांग्रेस अभी लोकसभा में हंगामा मचाने में व्यस्त है लेकिन आश्चर्य नहीं कि मुद्दों की तलाश में भटक रही कांग्रेस और उसके युवराज इस मुद्दे को लपक लें।

इन सभी बातों पर गौर करें तो साफ़ हो जाता है कि संस्थान की गुणवत्ता या नवनियुक्त चेयरमैन की योग्यता कोई मुद्दा नहीं है। कोशिश ये है कि सेंसर बोर्ड से लेकर भारतीय फिल्म और दूरदर्शन संस्थान तक एनडीए सरकार द्वारा नियुक्त किये गए सारे लोगों को अयोग्य करार दे दिया जाए। उन्हें 'संघ का एजेंट' और 'भगवा एजेंडे वाला' कहकर विवाद खड़े किये जाएं ताकि दशकों से विश्वविद्यालयों से लेकर कला अकादमियों तथा दूसरे संस्थानों में जमी हुई मार्क्सवादी/माओवादी /लेनिनवादी तलछट तथा वंशवादी चाटुकारों को बचाया जा सके।

विरोधियों को एक और बहुत बड़ा भय इस बात का भी है कि आज़ादी के बाद से ही बुद्धिजीविता, शिक्षा, साहित्य, कला , इतिहास आदि क्षेत्रों में जो वामपंथी/समाजवादी/मैकालेवादी प्रतिमान गढ़ दिए गए हैं, और इस वितंडावाद को आधार बनाकर इन क्षेत्रों में दूसरे विचारों और व्यक्तियों के प्रवेश के रास्ते में जो निषेध की दीवार खड़ी कर रखी है, ढह जाएगी। और एक बार ये दीवार ढह गई तो इसके साथ रसूख और एकाधिकार के लाल बुर्ज सदा के लिए विदा हो जाएँगे।

वैसे भी आज तक इन बुर्जो को सहेजने वाला सत्ता का 'हाथ' भी अब मौजूद नहीं है। जहाँ तक एफटीआईआई का प्रश्न है, फिल्म निर्माता श्याम बेनेगल ने हड़तालियों से कहा है कि वे श्री चौहान से बात करें और तब किसी निष्कर्ष पर पहुंचे। चौहान भी छात्रों से कह रहे है कि उनका आकलन उनके काम के आधार पर करें, न कि पूर्वाग्रह के आधार पर। समय इस छाया युद्ध को समझने -समझाने का है। समय चूकने का नहीं है। सो, कहना ही होगा कि 'मत चूको चौहान।'

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