मुहम्मद मरे नहीं थे, भारत के महाकवि कालिदास के हाथों मारे गए थे :
इतिहास का एक अत्यंत रोचक तथ्य है कि इस्लाम के पैगम्बर (रसूल) मुहम्मद साहब सन ६३२ में अपनी स्वाभाविक मौत नहीं मरे थे, अपितु भारत के महान साहित्यकार कालिदास के हाथों मारे गए थे. मदीना में दफनाए गए (?) मुहम्मद की कब्र की जांच की जाए तो रहस्य से पर्दा उठ सकता है कि कब्र में मुहम्मद का कंकाल है या लोटा ।
भविष्यमहापुराण (प्रतिसर्गपर्व) में सेमेटिक मजहबों के सभी पैगम्बरों का इतिहास उनके नाम के साथ वर्णित है. नामों का संस्कृतकरण हुआ है I इस पुराण में मुहम्मद और ईसामसीह का भी वर्णन आया है. मुहम्मद का नाम "महामद" आया है. मक्केश्वर शिवलिंग का भी उल्लेख आया है. वहीं वर्णन आया है कि सिंधु नहीं के तट पर मुहम्मद और कालिदास की भिड़ंत हुई थी और कालिदास ने मुहम्मद को जलाकर भस्म कर दिया. ईसा को सलीब पर टांग दिया गया और मुहम्मद भी जलाकर मार दिए गए- सेमेटिक मजहब के ये दो रसूल किसी को मुंह दिखाने लायक नहीं रहे. शर्म के मारे मुसलमान किसी को नहीं बताते कि मुहम्मद जलाकर मार दिए गए, बल्कि वह यह बताते हैं कि उनकी मौत कुदरती हुई थीI
भविष्यमहापुराण (प्रतिसर्गपर्व, 3.3.1-27) में उल्लेख है कि ‘शालिवाहन के वंश में १० राजाओं ने जन्म लेकर क्रमश: ५०० वर्ष तक राज्य किया. अन्तिम दसवें राजा भोजराज हुए । उन्होंने देश की मर्यादा क्षीण होती देख दिग्विजय के लिए प्रस्थान किया । उनकी सेना दस हज़ार थी और उनके साथ कालिदास एवं अन्य विद्वान्-ब्राह्मण भी थे । उन्होंने सिंधु नदी को पार करके गान्धार, म्लेच्छ और काश्मीर के शठ राजाओं को परास्त किया और उनका कोश छीनकर उन्हें दण्डित किया । उसी प्रसंग में मरुभूमि मक्का पहुँचने पर आचार्य एवं शिष्यमण्डल के साथ म्लेच्छ महामद (मुहम्मद) नाम व्यक्ति उपस्थित हुआ । राजा भोज ने मरुस्थल (मक्का) में विद्यमान महादेव जी का दर्शन किया । महादेवजी को पंचगव्यमिश्रित गंगाजल से स्नान कराकर चन्दनादि से भक्तिपूर्वक उनका पूजन किया और उनकी स्तुति की: “हे मरुस्थल में निवास करनेवाले तथा म्लेच्छों से गुप्त शुद्ध सच्चिदानन्दरूपवाले गिरिजापते ! आप त्रिपुरासुर के विनाशक तथा नानाविध मायाशक्ति के प्रवर्तक हैं । मैं आपकी शरण में आया हूँ, आप मुझे अपना दास समझें । मैं आपको नमस्कार करता हूँ ।” इस स्तुति को सुनकर भगवान् शिव ने राजा से कहा- “हे भोजराज ! तुम्हें महाकालेश्वर तीर्थ (उज्जयिनी) में जाना चाहिए । यह ‘वाह्लीक’ नाम की भूमि है, पर अब म्लेच्छों से दूषित हो गयी है । इस दारुण प्रदेश में आर्य-धर्म है ही नहीं । महामायावी त्रिपुरासुर यहाँ दैत्यराज बलि द्वारा प्रेषित किया गया है ।
वह मानवेतर, दैत्यस्वरूप मेरे द्वारा वरदान पाकर मदमत्त हो उठा है और पैशाचिक कृत्य में संलग्न होकर महामद (मुहम्मद) के नाम से प्रसिद्ध हुआ है । पिशाचों और धूर्तों से भरे इस देश में हे राजन् ! तुम्हें नहीं आना चाहिए । हे राजा ! मेरी कृपा से तुम विशुद्ध हो । भगवान् शिव के इन वचनों को सुनकर राजा भोज सेना सहित पुनः अपने देश में वापस आ गये । उनके साथ महामद भी सिंधु तीर पर पहुँच गया । अतिशय मायावी महामद ने प्रेमपूर्वक राजा से कहा- ”आपके देवता ने मेरा दासत्व स्वीकार कर लिया है ।” राजा यह सुनकर बहुत विस्मित हुए। और उनका झुकाव उस भयंकर म्लेच्छ के प्रति हुआ । उसे सुनकर कालिदास ने रोषपूर्वक महामद से कहा- “अरे धूर्त ! तुमने राजा को वश में करने के लिए माया की सृष्टि की है । तुम्हारे जैसे दुराचारी अधम पुरुष को मैं मार डालूँगा ।“ यह कहकर कालिदास नवार्ण मन्त्र (ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे) के जप में संलग्न हो गये । उन्होंने (नवार्ण मन्त्र का) दस सहस्र जप करके उसका दशांश (एक सहस्र) हवन किया । उससे वह मायावी भस्म होकर म्लेच्छ-देवता बन गया । इससे भयभीत होकर उसके शिष्य वाह्लीक देश वापस आ गये और अपने गुरु का भस्म लेकर मदहीनपुर (मदीना) चले गए और वहां उसे स्थापित कर दिया जिससे वह स्थान तीर्थ के समान बन गया। एक समय रात में अतिशय देवरूप महामद ने पिशाच का देह धारणकर राजा भोज से कहा- ”हे राजन् ! आपका आर्यधर्म सभी धर्मों में उत्तम है, लेकिन मैं उसे दारुण पैशाचधर्म में बदल दूँगा । उस धर्म में लिंगच्छेदी (सुन्नत/खतना करानेवाले), शिखाहीन, दढि़यल, दूषित आचरण करनेवाले, उच्च स्वर में बोलनेवाले (अज़ान देनेवाले), सर्वभक्षी मेरे अनुयायी होंगे । कौलतंत्र के बिना ही पशुओं का भक्षण करेंगे. उनका सारा संस्कार मूसल एवं कुश से होगा । इसलिये ये जाति से धर्म को दूषित करनेवाले ‘मुसलमान’ होंगे । इस प्रकार का पैशाच धर्म मैं विस्तृत करूंगा I”
‘एतस्मिन्नन्तरे म्लेच्छ आचार्येण समन्वितः ।
महामद इति ख्यातः शिष्यशाखा समन्वितः ।। 5 ।।
नृपश्चैव महादेवं मरुस्थलनिवासिनम् ।
गंगाजलैश्च संस्नाप्य पंचगव्यसमन्वितैः ।
चन्दनादिभिरभ्यच्र्य तुष्टाव मनसा हरम् ।। 6 ।।
भोजराज उवाच
नमस्ते गिरिजानाथ मरुस्थलनिवासिने ।
त्रिपुरासुरनाशाय बहुमायाप्रवर्तिने ।। 7 ।।
म्लेच्छैर्मुप्ताय शुद्धाय सच्चिदानन्दरूपिणे ।
त्वं मां हि किंकरं विद्धि शरणार्थमुपागतम् ।। 8 ।।
सूत उवाच
इति श्रुत्वा स्तवं देवः शब्दमाह नृपाय तम् ।
गंतव्यं भोजराजेन महाकालेश्वरस्थले ।। 9 ।।
म्लेच्छैस्सुदूषिता भूमिर्वाहीका नाम विश्रुता ।
आर्यधर्मो हि नैवात्र वाहीके देशदारुणे ।। 10 ।।
वामूवात्र महामायो योऽसौ दग्धो मया पुरा ।
त्रिपुरो बलिदैत्येन प्रेषितः पुनरागतः ।। 11 ।।
अयोनिः स वरो मत्तः प्राप्तवान्दैत्यवर्द्धनः ।
महामद इति ख्यातः पैशाचकृतितत्परः ।। 12 ।।
नागन्तव्यं त्वया भूप पैशाचे देशधूर्तके ।
मत्प्रसादेन भूपाल तव शुद्धि प्रजायते ।। 13 ।।
इति श्रुत्वा नृपश्चैव स्वदेशान्पु नरागमतः ।
महामदश्च तैः साद्धै सिंधुतीरमुपाययौ ।। 14 ।।
उवाच भूपतिं प्रेम्णा मायामदविशारदः ।
तव देवो महाराजा मम दासत्वमागतः ।। 15 ।।
इति श्रुत्वा तथा परं विस्मयमागतः ।। 16 ।।
म्लेच्छधनें मतिश्चासीत्तस्य भूपस्य दारुणे ।। 17 ।।
तच्छ्रुत्वा कालिदासस्तु रुषा प्राह महामदम् ।
माया ते निर्मिता धूर्त नृपमोहनहेतवे ।। 18 ।।
हनिष्यामिदुराचारं वाहीकं पुरुषाधनम् ।
इत्युक्त् वा स जिद्वः श्रीमान्नवार्णजपतत्परः ।। 19 ।।
जप्त्वा दशसहस्रंच तदृशांश जुहाव सः ।
भस्म भूत्वा स मायावी म्लेच्छदेवत्वमागतः ।। 20 ।।
मयभीतास्तु तच्छिष्या देशं वाहीकमाययुः ।
गृहीत्वा स्वगुरोर्भस्म मदहीनत्वामागतम् ।। 21 ।।
स्थापितं तैश्च भूमध्येतत्रोषुर्मदतत्पराः ।
मदहीनं पुरं जातं तेषां तीर्थं समं स्मृतम् ।। 22 ।।
रात्रौ स देवरूपश्च बहुमायाविशारदः ।
पैशाचं देहमास्थाय भोजराजं हि सोऽब्रवीत् ।। 23 ।।
आर्यधर्मो हि ते राजन्सर्वधर्मोत्तमः स्मृतः ।
ईशाख्या करिष्यामि पैशाचं धर्मदारुणम् ।। 24 ।।
लिंगच्छेदी शिखाहीनः श्मश्रु धारी स दूषकः ।
उच्चालापी सर्वभक्षी भविष्यति जनो मम ।। 25 ।।
विना कौलं च पशवस्तेषां भक्षया मता मम ।
मुसलेनेव संस्कारः कुशैरिव भविष्यति ।। 26 ।।
तस्मान्मुसलवन्तो हि जातयो धर्मदूषकाः ।
इति पैशाचधर्मश्च भविष्यति मया कृतः ।। 27 ।।’
(भविष्यमहापुराणम् (मूलपाठ एवं हिंदी-अनुवाद सहित), अनुवादक: बाबूराम उपाध्याय, प्रकाशक: हिंदी-साहित्य-सम्मेलन, प्रयाग; ‘कल्याण’ (संक्षिप्त भविष्यपुराणांक), प्रकाशक: गीताप्रेस, गोरखपुर, जनवरी, 1992 ई.)
कुछ विद्वान कह सकते हैं कि महाकवि कालिदास तो प्रथम शताब्दी के शकारि विक्रमादित्य के समय हुए थे और उनके नवरत्नों में से एक थे, तो हमें ऐसा लगता है कि कालिदास नाम के एक नहीं बल्कि अनेक व्यक्तित्व हुए हैं, बल्कि यूं कहा जाए की कालिदास एक ज्ञानपीठ का नाम है, जैसे वेदव्यास, शंकराचार्य इत्यादि. विक्रम के बाद भोज के समय भी कोई कालिदास अवश्य हुए थे. इतिहास तो कालिदास को छठी-सातवी शती (मुहम्मद के समकालीन) में ही रखता है.
कुछ विद्वान "सरस्वतीकंठाभरण", समरांगणसूत्रधार", "युक्तिकल्पतरु"-जैसे ग्रंथों के रचयिता राजा भोज को भी ९वी से ११वी शताब्दी में रखते हैं जो गलत है. भविष्यमहापुराण में परमार राजाओं की वंशावली दी हुई है. इस वंशावली से भोज विक्रम की छठी पीढ़ी में आते हैं और इस प्रकार छठी-सातवी शताब्दी (मुहम्मद के समकालीन) में ही सिद्ध होते हैं.कालिदासत्रयी-
एकोऽपि जीयते हन्त कालिदासो न केनचित्।
शृङ्गारे ललितोद्गारे कालिदास त्रयी किमु॥
(राजशेखर का श्लोक-जल्हण की सूक्ति मुक्तावली तथा हरि कवि की सुभाषितावली में)
इनमें प्रथम नाटककार कालिदास थे जो अग्निमित्र या उसके कुछ बाद शूद्रक के समय हुये। द्वितीय महाकवि कालिदस थे, जो उज्जैन के परमार राजा विक्रमादित्य के राजकवि थे। इन्होंने रघुवंश, मेघदूत तथा कुमारसम्भव-ये ३ महाकाव्य लिखकर ज्योतिर्विदाभरण नामक ज्योतिष ग्रन्थ लिखा। इसमें विक्रमादित्य तथा उनके समकालीन सभी विद्वानों का वर्णन है। अन्तिम कालिदास विक्रमादित्य के ११ पीढ़ी बाद के भोजराज के समय थे तथा आशुकवि और तान्त्रिक थे-इनकी चिद्गगन चन्द्रिका है तथा कालिदास और भोज के नाम से विख्यात काव्य इनके हैं।
इतिहास का एक अत्यंत रोचक तथ्य है कि इस्लाम के पैगम्बर (रसूल) मुहम्मद साहब सन ६३२ में अपनी स्वाभाविक मौत नहीं मरे थे, अपितु भारत के महान साहित्यकार कालिदास के हाथों मारे गए थे. मदीना में दफनाए गए (?) मुहम्मद की कब्र की जांच की जाए तो रहस्य से पर्दा उठ सकता है कि कब्र में मुहम्मद का कंकाल है या लोटा ।
भविष्यमहापुराण (प्रतिसर्गपर्व) में सेमेटिक मजहबों के सभी पैगम्बरों का इतिहास उनके नाम के साथ वर्णित है. नामों का संस्कृतकरण हुआ है I इस पुराण में मुहम्मद और ईसामसीह का भी वर्णन आया है. मुहम्मद का नाम "महामद" आया है. मक्केश्वर शिवलिंग का भी उल्लेख आया है. वहीं वर्णन आया है कि सिंधु नहीं के तट पर मुहम्मद और कालिदास की भिड़ंत हुई थी और कालिदास ने मुहम्मद को जलाकर भस्म कर दिया. ईसा को सलीब पर टांग दिया गया और मुहम्मद भी जलाकर मार दिए गए- सेमेटिक मजहब के ये दो रसूल किसी को मुंह दिखाने लायक नहीं रहे. शर्म के मारे मुसलमान किसी को नहीं बताते कि मुहम्मद जलाकर मार दिए गए, बल्कि वह यह बताते हैं कि उनकी मौत कुदरती हुई थीI
भविष्यमहापुराण (प्रतिसर्गपर्व, 3.3.1-27) में उल्लेख है कि ‘शालिवाहन के वंश में १० राजाओं ने जन्म लेकर क्रमश: ५०० वर्ष तक राज्य किया. अन्तिम दसवें राजा भोजराज हुए । उन्होंने देश की मर्यादा क्षीण होती देख दिग्विजय के लिए प्रस्थान किया । उनकी सेना दस हज़ार थी और उनके साथ कालिदास एवं अन्य विद्वान्-ब्राह्मण भी थे । उन्होंने सिंधु नदी को पार करके गान्धार, म्लेच्छ और काश्मीर के शठ राजाओं को परास्त किया और उनका कोश छीनकर उन्हें दण्डित किया । उसी प्रसंग में मरुभूमि मक्का पहुँचने पर आचार्य एवं शिष्यमण्डल के साथ म्लेच्छ महामद (मुहम्मद) नाम व्यक्ति उपस्थित हुआ । राजा भोज ने मरुस्थल (मक्का) में विद्यमान महादेव जी का दर्शन किया । महादेवजी को पंचगव्यमिश्रित गंगाजल से स्नान कराकर चन्दनादि से भक्तिपूर्वक उनका पूजन किया और उनकी स्तुति की: “हे मरुस्थल में निवास करनेवाले तथा म्लेच्छों से गुप्त शुद्ध सच्चिदानन्दरूपवाले गिरिजापते ! आप त्रिपुरासुर के विनाशक तथा नानाविध मायाशक्ति के प्रवर्तक हैं । मैं आपकी शरण में आया हूँ, आप मुझे अपना दास समझें । मैं आपको नमस्कार करता हूँ ।” इस स्तुति को सुनकर भगवान् शिव ने राजा से कहा- “हे भोजराज ! तुम्हें महाकालेश्वर तीर्थ (उज्जयिनी) में जाना चाहिए । यह ‘वाह्लीक’ नाम की भूमि है, पर अब म्लेच्छों से दूषित हो गयी है । इस दारुण प्रदेश में आर्य-धर्म है ही नहीं । महामायावी त्रिपुरासुर यहाँ दैत्यराज बलि द्वारा प्रेषित किया गया है ।
वह मानवेतर, दैत्यस्वरूप मेरे द्वारा वरदान पाकर मदमत्त हो उठा है और पैशाचिक कृत्य में संलग्न होकर महामद (मुहम्मद) के नाम से प्रसिद्ध हुआ है । पिशाचों और धूर्तों से भरे इस देश में हे राजन् ! तुम्हें नहीं आना चाहिए । हे राजा ! मेरी कृपा से तुम विशुद्ध हो । भगवान् शिव के इन वचनों को सुनकर राजा भोज सेना सहित पुनः अपने देश में वापस आ गये । उनके साथ महामद भी सिंधु तीर पर पहुँच गया । अतिशय मायावी महामद ने प्रेमपूर्वक राजा से कहा- ”आपके देवता ने मेरा दासत्व स्वीकार कर लिया है ।” राजा यह सुनकर बहुत विस्मित हुए। और उनका झुकाव उस भयंकर म्लेच्छ के प्रति हुआ । उसे सुनकर कालिदास ने रोषपूर्वक महामद से कहा- “अरे धूर्त ! तुमने राजा को वश में करने के लिए माया की सृष्टि की है । तुम्हारे जैसे दुराचारी अधम पुरुष को मैं मार डालूँगा ।“ यह कहकर कालिदास नवार्ण मन्त्र (ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे) के जप में संलग्न हो गये । उन्होंने (नवार्ण मन्त्र का) दस सहस्र जप करके उसका दशांश (एक सहस्र) हवन किया । उससे वह मायावी भस्म होकर म्लेच्छ-देवता बन गया । इससे भयभीत होकर उसके शिष्य वाह्लीक देश वापस आ गये और अपने गुरु का भस्म लेकर मदहीनपुर (मदीना) चले गए और वहां उसे स्थापित कर दिया जिससे वह स्थान तीर्थ के समान बन गया। एक समय रात में अतिशय देवरूप महामद ने पिशाच का देह धारणकर राजा भोज से कहा- ”हे राजन् ! आपका आर्यधर्म सभी धर्मों में उत्तम है, लेकिन मैं उसे दारुण पैशाचधर्म में बदल दूँगा । उस धर्म में लिंगच्छेदी (सुन्नत/खतना करानेवाले), शिखाहीन, दढि़यल, दूषित आचरण करनेवाले, उच्च स्वर में बोलनेवाले (अज़ान देनेवाले), सर्वभक्षी मेरे अनुयायी होंगे । कौलतंत्र के बिना ही पशुओं का भक्षण करेंगे. उनका सारा संस्कार मूसल एवं कुश से होगा । इसलिये ये जाति से धर्म को दूषित करनेवाले ‘मुसलमान’ होंगे । इस प्रकार का पैशाच धर्म मैं विस्तृत करूंगा I”
‘एतस्मिन्नन्तरे म्लेच्छ आचार्येण समन्वितः ।
महामद इति ख्यातः शिष्यशाखा समन्वितः ।। 5 ।।
नृपश्चैव महादेवं मरुस्थलनिवासिनम् ।
गंगाजलैश्च संस्नाप्य पंचगव्यसमन्वितैः ।
चन्दनादिभिरभ्यच्र्य तुष्टाव मनसा हरम् ।। 6 ।।
भोजराज उवाच
नमस्ते गिरिजानाथ मरुस्थलनिवासिने ।
त्रिपुरासुरनाशाय बहुमायाप्रवर्तिने ।। 7 ।।
म्लेच्छैर्मुप्ताय शुद्धाय सच्चिदानन्दरूपिणे ।
त्वं मां हि किंकरं विद्धि शरणार्थमुपागतम् ।। 8 ।।
सूत उवाच
इति श्रुत्वा स्तवं देवः शब्दमाह नृपाय तम् ।
गंतव्यं भोजराजेन महाकालेश्वरस्थले ।। 9 ।।
म्लेच्छैस्सुदूषिता भूमिर्वाहीका नाम विश्रुता ।
आर्यधर्मो हि नैवात्र वाहीके देशदारुणे ।। 10 ।।
वामूवात्र महामायो योऽसौ दग्धो मया पुरा ।
त्रिपुरो बलिदैत्येन प्रेषितः पुनरागतः ।। 11 ।।
अयोनिः स वरो मत्तः प्राप्तवान्दैत्यवर्द्धनः ।
महामद इति ख्यातः पैशाचकृतितत्परः ।। 12 ।।
नागन्तव्यं त्वया भूप पैशाचे देशधूर्तके ।
मत्प्रसादेन भूपाल तव शुद्धि प्रजायते ।। 13 ।।
इति श्रुत्वा नृपश्चैव स्वदेशान्पु नरागमतः ।
महामदश्च तैः साद्धै सिंधुतीरमुपाययौ ।। 14 ।।
उवाच भूपतिं प्रेम्णा मायामदविशारदः ।
तव देवो महाराजा मम दासत्वमागतः ।। 15 ।।
इति श्रुत्वा तथा परं विस्मयमागतः ।। 16 ।।
म्लेच्छधनें मतिश्चासीत्तस्य भूपस्य दारुणे ।। 17 ।।
तच्छ्रुत्वा कालिदासस्तु रुषा प्राह महामदम् ।
माया ते निर्मिता धूर्त नृपमोहनहेतवे ।। 18 ।।
हनिष्यामिदुराचारं वाहीकं पुरुषाधनम् ।
इत्युक्त् वा स जिद्वः श्रीमान्नवार्णजपतत्परः ।। 19 ।।
जप्त्वा दशसहस्रंच तदृशांश जुहाव सः ।
भस्म भूत्वा स मायावी म्लेच्छदेवत्वमागतः ।। 20 ।।
मयभीतास्तु तच्छिष्या देशं वाहीकमाययुः ।
गृहीत्वा स्वगुरोर्भस्म मदहीनत्वामागतम् ।। 21 ।।
स्थापितं तैश्च भूमध्येतत्रोषुर्मदतत्पराः ।
मदहीनं पुरं जातं तेषां तीर्थं समं स्मृतम् ।। 22 ।।
रात्रौ स देवरूपश्च बहुमायाविशारदः ।
पैशाचं देहमास्थाय भोजराजं हि सोऽब्रवीत् ।। 23 ।।
आर्यधर्मो हि ते राजन्सर्वधर्मोत्तमः स्मृतः ।
ईशाख्या करिष्यामि पैशाचं धर्मदारुणम् ।। 24 ।।
लिंगच्छेदी शिखाहीनः श्मश्रु धारी स दूषकः ।
उच्चालापी सर्वभक्षी भविष्यति जनो मम ।। 25 ।।
विना कौलं च पशवस्तेषां भक्षया मता मम ।
मुसलेनेव संस्कारः कुशैरिव भविष्यति ।। 26 ।।
तस्मान्मुसलवन्तो हि जातयो धर्मदूषकाः ।
इति पैशाचधर्मश्च भविष्यति मया कृतः ।। 27 ।।’
(भविष्यमहापुराणम् (मूलपाठ एवं हिंदी-अनुवाद सहित), अनुवादक: बाबूराम उपाध्याय, प्रकाशक: हिंदी-साहित्य-सम्मेलन, प्रयाग; ‘कल्याण’ (संक्षिप्त भविष्यपुराणांक), प्रकाशक: गीताप्रेस, गोरखपुर, जनवरी, 1992 ई.)
कुछ विद्वान कह सकते हैं कि महाकवि कालिदास तो प्रथम शताब्दी के शकारि विक्रमादित्य के समय हुए थे और उनके नवरत्नों में से एक थे, तो हमें ऐसा लगता है कि कालिदास नाम के एक नहीं बल्कि अनेक व्यक्तित्व हुए हैं, बल्कि यूं कहा जाए की कालिदास एक ज्ञानपीठ का नाम है, जैसे वेदव्यास, शंकराचार्य इत्यादि. विक्रम के बाद भोज के समय भी कोई कालिदास अवश्य हुए थे. इतिहास तो कालिदास को छठी-सातवी शती (मुहम्मद के समकालीन) में ही रखता है.
कुछ विद्वान "सरस्वतीकंठाभरण", समरांगणसूत्रधार", "युक्तिकल्पतरु"-जैसे ग्रंथों के रचयिता राजा भोज को भी ९वी से ११वी शताब्दी में रखते हैं जो गलत है. भविष्यमहापुराण में परमार राजाओं की वंशावली दी हुई है. इस वंशावली से भोज विक्रम की छठी पीढ़ी में आते हैं और इस प्रकार छठी-सातवी शताब्दी (मुहम्मद के समकालीन) में ही सिद्ध होते हैं.कालिदासत्रयी-
एकोऽपि जीयते हन्त कालिदासो न केनचित्।
शृङ्गारे ललितोद्गारे कालिदास त्रयी किमु॥
(राजशेखर का श्लोक-जल्हण की सूक्ति मुक्तावली तथा हरि कवि की सुभाषितावली में)
इनमें प्रथम नाटककार कालिदास थे जो अग्निमित्र या उसके कुछ बाद शूद्रक के समय हुये। द्वितीय महाकवि कालिदस थे, जो उज्जैन के परमार राजा विक्रमादित्य के राजकवि थे। इन्होंने रघुवंश, मेघदूत तथा कुमारसम्भव-ये ३ महाकाव्य लिखकर ज्योतिर्विदाभरण नामक ज्योतिष ग्रन्थ लिखा। इसमें विक्रमादित्य तथा उनके समकालीन सभी विद्वानों का वर्णन है। अन्तिम कालिदास विक्रमादित्य के ११ पीढ़ी बाद के भोजराज के समय थे तथा आशुकवि और तान्त्रिक थे-इनकी चिद्गगन चन्द्रिका है तथा कालिदास और भोज के नाम से विख्यात काव्य इनके हैं।
bebakuf log kuchh bhi mangadant likh dete hain
जवाब देंहटाएंna koe sachhaie na koe sbut
sabse pahle
Rajabhoj ka janam bhi nhi hua kalidas k time
भोज नाम से और भी राजा हुए हैं जैसे मिहिर भोज। हम यहां बात कर रहे हैं उन राजा भोज की जिन्होंने अपनी राजधानी धार को बनाया था। उनका जन्म सन् 980 में महाराजा विक्रमादित्य की नगरी उज्जैनी में हुआ। राजा भोज चक्रवर्ती सम्राट विक्रमादित्य के वंशज थे। पन्द्रह वर्ष की छोटी आयु में उनका राज्य अभिषेक मालवा के राजसिंहासन पर हुआ। प्रसिद्ध संस्कृत विद्वान डॉ. रेवा प्रसाद द्विवेदी ने प्राचीन संस्कृत साहित्य पर शोध के दौरान मलयाली भाषा में भोज की रचनाओं की खोज करने के बाद यह माना है कि राजा भोज का शासन सुदूर केरल के समुद्र तट तक था।
aur kalidas ka janam
• कालिदास ने शुंग राजाओं के छोड़कर अपनी रचनाओं में अपने आश्रयदाता या किसी साम्राज्य का उल्लेख नहीं किया। सच्चाई तो यह है कि उन्होंने पुरुरवा और उर्वशी पर आधारित अपने नाटक का नामविक्रमोर्वशीयम् रखा। कालिदास ने किसी गुप्त शासक का उल्लेख नहीं किया। विक्रमादित्य नाम के कई शासक हुए, संभव है कि कालिदास इनमें से किसी एक के दरबार में कवि रहे हों। अधिकांश विद्वानों का मानना है कि कालिदास शुंग वंश के शासनकाल में थे, जिनका शासनकाल 100 सदी ईसापू्र्व था।
• अग्निमित्र, जो मालविकाग्निमित्र नाटक का नायक है, कोई सुविख्यता राजा नहीं था, इसीलिए कालिदास ने उसे विशिष्टता प्रदान नहीं की। उनका काल ईसा से दो शताब्दी पूर्व का है और विदिशा उसकी राजधानी थी। कालिदास के द्वारा इस कथा के चुनाव और मेघदूत में एक प्रसिद्ध राजा की राजधानी के रूप में उसके उल्लेख से यह निष्कर्ष निकलता है कि कालिदास अग्निमित्र के समकालीन थे।
• यह स्पष्ट है कि कालिदास का उत्कर्ष अग्निमित्र के बाद (150 ई॰ पू॰) और 634 ई॰ पूर्व तक रहा है, जो कि प्रसिद्ध ऐहोल के शिलालेख की तिथि है, जिसमें कालिदास का महान कवि के रूप में उल्लेख है। यदि इस मान्यता को स्वीकार कर लिया जाए कि माण्डा की कविताओं या 473 ई॰ के शिलालेख में कालिदास के लेखन की जानकारी का उल्लेख है, तो उनका काल चौथी शताब्दी के अन्त के बाद का नहीं हो सकता।
• अश्वघोष के बुद्धचरित और कालिदास की कृतियों में समानताएं हैं। यदि अश्वघोष कालिदास के ऋणी हैं तो कालिदास का काल प्रथम शताब्दी ई॰ से पूर्व का है और यदि कालिदास अश्वघोष के ऋणी हैं तो कालिदास का काल ईसा की प्रथम शताब्दी के बाद ठहरेगा।
जन्म – पहली से तीसरी शताब्दी के बीच ईस पूर्व माना जाता है।
AB YE DONO KA JANAM ASS PASS HAI HI NHI T
KALIDAS BHAGODA JISKI WIFE MARKER BHAGAYE THI
RAJABHOJ USKE 500 SAL BAAD AYA 980 ME
AUR HAZRAT MUHAMMAD KA JANAM
Medina
Born Muḥammad ibn ʿAbdullāh
(Arabic: مُحَمَّد بِن عَبد الله)
c. 570
Mecca, Hejaz, Arabia
(present-day Saudi Arabia)
Died 8 June 632 (aged c. 62)
Medina, Hejaz, Arabia
(present-day Saudi Arabia)
540 ME HUA 632 TAK
SALE ZAHIL LOG ZINDAGI BHER SIRF JHUTI KAHANI LIKHOGE
KIYON K HINDU DHARAM KA KOE ASTITV HI NHI HAI KAHIN
SAB SIRF KAHANI HAI
RAMAYAN KAHANI
MAHABHARAT KAHANI SAB KAHANI HAI
AGER SUCH HAI TO KAHAN HAI SHIV
KIYA HUA GNESH KA USKI SHADI HUE PRIWAR HAI YA BARSON SE PAKAD K BAITHA HAI YA MER GYA
DURGA MA HAI TENO KI SHIV VISNU BARAHMA BIBI BHI WAHI HIA DURGA AUR USKA ROOP
SAB NAZAYAZ HAIBARAHMA APNE BETI KA RAPE KIYA BIBI BNAYA SARASWATI KO
BOLO SARSWATI BETI HAI YA BIBI BARAHMA KI
YA SAB KAHANI HAI
RAMZADE HI HRAMJADE HAIN WARNA SITA KO AGNIPRIKHA KIYON DENI PADTI
RAM KO TO VISWAS NHI THA K YE MERA RAMZADA HAI SAQ THA HRAMZADA HONE KA
TABHI AGNI PRIKHA JMIN ME SAMANA SAB HUA
DUSRE PE UNGLI UTHANE SE PAHLE KHUD KO DEKHO DHONGI LOG
AAJ KOE TALWAR LEKER NHI KHADA HAI K MUSALMAN HO JAO
HAAN TALWAR LEKER KHADA HAI K MUSALMAN HONE NHI DEGEN
MGER AAJ BHI LOG JHUTE HINDU DHARAM KO CHORKER MUSALMAN HO RAHE
Master Amir ((Ex Shiv sena Leader BALBIR SINGH) - interview
[I request every Muslim to remember aim of his life and devote himself to preaching of Islam and not swayed away by revenge sentiments against anti Muslim elements. If Shiv Senik, Bajrang Dal, and other Hindus led by Bal Thakerey, Vinay Khatiar, Uma Bharti, Ashoke Singhal knew the true nature of ISLAM and Muslims then Babri Masjid would be never razed to ground. I am sure if they are convinced that Islam is their real religion they would welcome the rebuilding of Babri Masjid].