रविवार, अगस्त 05, 2012

भारत का विभाजन-क्या अंग्रेजों तथा मुस्लिम लीग की मिलीभगत थी?


क्या अंग्रेजों तथा मुस्लिम लीग की मिलीभगत
इतिहास दृष्टि
भारत का विभाजन-1

क्या अंग्रेजों तथा मुस्लिम लीग की मिलीभगत थी?

तथ्यों एवं प्रमाणों के आधार पर अंग्रेजों तथा मुस्लिम लीग के पाकिस्तान के निर्माण में गहरे संबंधों को झुठलाया नहीं जा सकता है।

डा.सतीश चन्द्र मित्तल
यह आज भी एक ऐतिहासिक विश्लेषण का विषय बना हुआ है कि भारतीयों ने विभाजित भारत, खंडित भारत, अथवा 'इंडिया दैट इज भारत' क्यों स्वीकार किया? क्या भारत का विभाजन रोका या टाला जा सकता था? क्या यह अनिवार्य था? क्या यह अटल था? क्या यह अंग्रेजों तथा मुस्लिम लीग का क्रूर षड्यंत्र था? यह कांग्रेसी नेताओं का उतावलापन था या उनकी मजबूरी थी? आज भी ऐसे अनेक प्रश्न यथावत बने हुए हैं। भारतीय इतिहास की इस महान विघटनकारी घटना को संक्षेप में तीन प्रमुख तत्वों - अंग्रेजों की धूर्त्त कूटनीति तथा अवसरवादिता, मुसलमानों के मजहबी कट्टरपन तथा जिन्ना की हठ, और कांग्रेसी नेतृत्व की अदूरदर्शिता एवं बुद्धिहीनता के रूप में विश्लेषित किया जा सकता है।
अंग्रेजों की धूर्त्त कूटनीति

यह तथ्य बहुत महत्वपूर्ण है कि अन्तरराष्ट्रीय स्थिति तथा भारत की आंतरिक परिस्थितियों ने अंग्रेजों को पाकिस्तान के निर्माण के लिए अधिक प्रेरित किया। प्रथम विश्व युद्ध (1914-18) में अंग्रेज जीत गए थे परंतु अन्तरराष्ट्रीय जगत में उनका मनमानी का एकाधिकार समाप्त हो गया था। द्वितीय विश्व युद्ध (1939-1945) ने उसकी विश्वव्यापी साम्राज्य की जड़ों को हिला दिया था। उसका आर्थिक ढांचा चरमरा गया था। परंतु उसने अपनी विश्वव्यापी राजनीतिक महत्वाकांक्षा को तिलांजलि नहीं दी। इससे भी अधिक अंग्रेज एशिया संबंधी अपनी भावी रणनीति के प्रति सजग हो गए, जिसके प्रत्यक्ष प्रमाण के रूप में भारत विभाजन को देखा जा सकता है।



अंग्रेजों के लिए भारत आर्थिक और सामरिक दृष्टि से एशिया की राजनीति की मुख्य धुरी था। ब्रिटिश साम्राज्य के लिए आर्थिक दृष्टि से भारत एक कामधेनु गाय की तरह था तथा राजनीतिक तथा सामरिक उथल-पुथल में भी भारत कम महत्वपूर्ण नहीं था। अंग्रेज भारत के उत्तर-पश्चिम में अपने प्रभावाधीन एक सशक्त मुस्लिम राज्य चाहते थे जो मध्य एशिया, रूस तथा चीन से उठने वाली आपत्तियों को चुनौती दे सके। पहले उसने अफगानिस्तान को इसी दृष्टि से पाला-पोसा तथा अपना मोहरा बनाया। फिर उसे लगा कि पाकिस्तान का निर्माण उसकी आगामी योजना में प्रभावी तथा अधिक सहायक हो सकता था।


अत: पाकिस्तान का निर्माण उसकी छद्म कूटनीति का आधार था। साथ ही मध्य पूर्व में फारस की खाड़ी में तेल के भंडारों के लिए भी इंग्लैण्ड बड़ा लालायित था। वह इस संदर्भ में सोवियत संघ से सावधान था। अमरीका भी एशिया में सोवियत संघ के विस्तार को रोकने में इंग्लैण्ड का सहायक बन गया था। इंग्लैण्ड ने उत्तर तथा उत्तर-पश्चिम में भारत की सुरक्षा तथा अंतरराष्ट्रीय राजनीति को ध्यान में रखते हुए अपने सामरिक अड्डे बनाये थे। गिलगित, जम्मू-कश्मीर के क्षेत्र पर भी उसकी गिद्ध-दृष्टि रही, जो भारत विभाजन के बाद भी बनी रही। इसी प्रकार भारत के दक्षिण में हिन्द महासागर तथा उसके निकट के टापुओं पर भी उसने अपना वर्चस्व बनाया। अत: पाकिस्तान का निर्माण अंग्रेजों की एशियाई नीति का एक अंग था।


भारत की आंतरिक परिस्थितियों तथा घटनाचक्र ने अंग्रेजों को द्वितीय विश्व युद्ध के पश्चात भारत छोड़ने के लिए बाध्य किया। जहां एक ओर ब्रिटिश अनुदार दल के नेताओं-ब्रिटेन में सर विन्स्टन चर्चिल तथा भारत के तत्कालीन वायसरायों लार्ड लिन लिथगो तथा लार्ड वेबल ने मुस्लिम लीग की मजहबी आधार पर पाकिस्तान की मांग तथा निर्माण के लिए मार्ग प्रशस्त किया, उसी भांति ब्रिटेन की लेबर पार्टी के अध्यक्ष प्रो. लास्की, प्रधानमंत्री क्लीमेंट ऐटली तथा भारत के वायसराय लार्ड माउंटबेटन ने कांग्रेस के नेताओं को खंडित भारत को स्वीकार करने के लिए प्रेरित किया।
मुसलमानों का मजहबी उन्माद

यह सर्वविदित है कि मुस्लिम लीग वस्तुत: अलीगढ़ के प्रधानाचार्य आर्च बोल्ड तथा वायसराय लार्ड मिन्टो के निजी सचिव डनलप स्मिथ की उपज थी। दोनों के संयुक्त प्रयास से एक मुस्लिम प्रतिनिधिमण्डल, सर आगा खां के नेतृत्व में लार्ड मिन्टो से मिला था। सर आगा खां को मुस्लिम लीग का स्थायी अध्यक्ष बना दिया गया परंतु 1913 में मतभेद होने पर वे लीग से अलग हो गए। परंतु मोहम्मद अली जिन्ना के अनुरोध पर दिसम्बर, 1928 में उन्हें अखिल मुस्लिम सम्मेलन का अध्यक्ष बनाया गया। ब्रिटिश सरकार ने 1909 के सुधारों में लीग की मांगों को संरक्षण दिया, पर टर्की के प्रश्न पर उसके मतभेद हो गये।



अंग्रेजों ने अपनी कूटनीति का पहला मोहरा जिन्ना को बनाया। जिन्ना (1876-1948) इंग्लैण्ड में पहले दादा भाई नौरोजी के निजी सचिव रहे थे। इंग्लैण्ड से वकालत पास कर जब वह भारत लौटे तो पूर्णत: अंग्रेजियत के रंग में रचे-पगे थे। वह मजहब को किंचित भी महत्व नहीं देते थे। उन्होंने एक अमीर पारसी लड़की से विवाह किया, जिसकी शीघ्र ही मृत्यु हो गई। पहले वे कांग्रेस से जुड़े तथा बाद में मुस्लिम लीग के प्रमुख नेता बन गए। वे खिलाफत आंदोलन को भारत के राष्ट्रीय आंदोलन के साथ जोड़ने के पक्ष में नहीं थे, अत: उन्होंने कांग्रेस छोड़ दी थी। उन्होंने 1928 में नेहरू रपट को स्वीकार न कर अपनी 14 मांगें रखी थीं। शीघ्र ही भारत की राजनीति से क्षुब्ध हो वे इंग्लैण्ड प्रिवी काउंसिल में वकालत करने चले गए। इंग्लैण्ड में रहते हुए उनके जीवन में बड़ा परिवर्तन हुआ। उसके सर आगा खां से पुन: गहरे संबंध स्थापित हुए तथा उनके सम्पर्क से वे इंग्लैंड के नेता सर विन्स्टन चर्चिल से मिले और तभी से उनकी चर्चिल से निकटता आई तथा पत्र व्यवहार प्रारंभ हुआ।



1937 में जब जिन्ना भारत लौटे तो बिल्कुल बदले हुए थे। वह अब पक्के तथा कट्टर मजहबी उन्माद से ग्रसित थे। 1937 के चुनाव में मुस्लिम लीग की भारी पराजय से वह बहुत कुपित हुए। उन्होंने 'इस्लाम खतरे में' बोलना प्रारंभ किया। वह शीघ्र ही भारतीय मुसलमानों के निर्विवाद नेता बन गए। वे कांग्रेस के सातों मंत्रिमंडलों के त्यागपत्र से बेहद खुश थे। उन्होंने सम्पूर्ण भारत में 'मुक्ति दिवस' मनाने को कहा। परंतु वे अभी तक कभी मस्जिद नहीं गए थे और न ही मुसलमानों के मजहबी रीति-रिवाजों से पूर्वत: अवगत थे। ऐसा माना जाता है कि 1940 के लाहौर में मुस्लिम लीग केअधिवेशन से पूर्व वे लाहौर की मस्जिद में पहली बार गए थे। इस वर्ष पाकिस्तान की मांग की गई थी।



अब उनका चर्चिल से पत्र-व्यवहार होने लगा था। इंग्लैण्ड की प्रसिद्ध इंडियन हाउस लाइब्रेरी से प्राप्त दस्तावेजों से ज्ञात होता है कि चर्चिल ने इसे गुप्त रखने के लिए पत्र-व्यवहार का अपना पता न देकर किसी मिस ई.ए. गिलियट का पता दिया था, ताकि किसी को कोई संदेह न हो (देखें-द ट्रिब्यून-16 मार्च, 1983)। चर्चिल के भारत के बारे में सदैव कटु विचार थे। वह भारतीयों को असभ्य तथा जानवर कहता था। महात्मा गांधी के प्रति भी उसकी धारणा बेहद खराब थी। वह भारत की स्वतंत्रता का विरोधी था।


1942 में जब जापानी सेनाएं सिंगापुर तथा रंगून तक पहुंच गई तथा अमरीका के राष्ट्रपति रुजवेल्ट ने भारत की समस्याओं पर सहानुभूतिपूर्वक विचार करने की सलाह दी, तब मुसलमानों की वकालत करते हुए चर्चिल ने यह झूठ बोला कि भारतीय सेना में 75 प्रतिशत मुसलमान हैं, अत: भारत की स्वतंत्रता देने से पहले मुसलमानों के अधिकारों को प्राथमिकता देनी होगी।


वस्तुत: यह झूठ जान-बूझकर बोला गया था, क्योंकि भारतीय सेना में मुसलमान कुल 35 प्रतिशत थे। इसके बारे में चर्चिल ने लिखा है कि युद्ध के समय झूठ बोलने से उसे कोई हिचकिचाहट नहीं थी। इतना ही नहीं, जब दिसम्बर, 1946 में जिन्ना कुछ समय के लिए पुन: इंग्लैण्ड गए तब परस्पर संबंधों को सुदृढ़ बनाने के लिए जिन्ना ने 12 दिसम्बर, 1946 को दोपहर के भोजन के समय किसी होटल में मिलने का समय चाहा, परंतु चर्चिल ने इस बारे में उत्तर दिया था, 'ऐसे दिनों में यह अधिक विवेकपूर्ण होगा कि लोगों की उपस्थिति में हम परस्पर न मिलें।' वस्तुत: जैसे चर्चिल 1942 के 'क्रिप्स मिशन' के भारत आगमन से दु:खी तथा उसकी असफलता से बहुत खुश था। उसी भांति लार्ड माउंटबेटन के भारत आने से दु:खी तथा भारत विभाजन अथवा पाकिस्तान के निर्माण से अत्यधिक संतुष्ट था।



अनुदार दल के नेता चर्चिल ने जो भूमिका इंग्लैण्ड में अपनाई, वही भूमिका मुस्लिम लीग के प्रति भारत में लार्ड लिन लिथगो (1936-1943) तथा लार्ड वेबल (1943-1946) ने अपनाई। लार्ड लिन लिथगो ने जिन्ना के द्विराष्ट्रवाद के विचार का समर्थन किया तथा कहा कि जिन्ना के विचार तत्कालीन राजनीति में संतुलन कर सकेंगे। उसकी अगस्त, 1940 की घोषणा एक प्रकार से मुस्लिम लीग की पाकिस्तान की मांग का खुला समर्थन थी। यह मुस्लिम लीग की मांग को सुदृढ़ता प्रदान करती थी। लार्ड लिन लिथगो ने भारत मंत्री जैटलैंड को एक तार में कहा, 'जिन्ना अल्पसंख्यकों का प्रतिनिधित्व करता है और यदि उसकी मदद करें तो वह कांग्रेस के ऊपर दबाव बनाये रख सकेगा।'



1943 में लार्ड लिन लिथगो के भारत से चले जाने के पश्चात लार्ड वेबल भारत आया। आते ही उसके जिन्ना से गहरे सम्बंध हो गये। 1945 में उसने भारत की राजनीतिक स्थिति डांवाडोल देखी तथा ब्रिटिश सरकार से 4-5 बिग्रेड ब्रिटिश सेना भारत भेजने का सुझाव दिया, जो ब्रिटेन की तत्कालीन स्थिति में संभव न था, अत:उसका प्रस्ताव अस्वीकृत हो गया। भारत में ब्रिटिश सरकार की पुलिस की स्वामिभक्ति के प्रति संदेह, सरकारी कर्मचारियों में बढ़ते असंतोष, सैनिकों की वफादारी के प्रति संदेह, 1946 की फरवरी में नौसेना में विद्रोह तथा थल तथा वायु सेना में हलचलों ने उसे डिगा दिया।
फरवरी, 1946 में लार्ड वेबल ने पहली बार भारत के टुकड़े करने का सुझाव रखा। मार्च, 1946 में उसने एक तार में लिखा, 'पहला अत्यंत महत्वपूर्ण विषय पाकिस्तान का है। आवश्यकता है कि हिज मैजेस्टी गवर्नमेंट उस पर विचार करे।' उसने दोहरी नीति अपनाते हुए कहा, 'भारत की एकता महत्वपूर्ण है, परंतु पाकिस्तान न बनने पर गृहयुद्ध हो सकता है।' 6 जुलाई, 1946 को उसने भारत मंत्री के सम्मुख पाकिस्तान निर्माण के निमित्त प्रत्येक जिले का ब्योरा भी दिया कि कौन-सा जिला पाकिस्तान के साथ मिलाया जाना चाहिए। अत: उपरोक्त तथ्यों एवं प्रमाणों के आधार पर अंग्रेजों तथा मुस्लिम लीग के पाकिस्तान के निर्माण में गहरे संबंधों को झुठलाया नहीं जा सकता है।

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