मंगलवार, दिसंबर 28, 2021

#जीसस_की_कब्र_भारत_में_है

 

#जीसस_की_कब्र_भारत_में_है

यह संयोग मात्र ही नहीं है कि जब भी कोई सत्य के लिए प्यासा होता है, अनायास ही वह भारत में उत्सुक हो उठता हे, अचानक वह पूरब की यात्रा पर निकल पड़ता है। और यह केवल आज की ही बात नहीं यह उतनी ही प्राचीन बात है जितने पुराने प्रमाण और उल्लेख मौजूद हैं। आज से पच्चीस सौ वर्ष पूर्व, सत्य की खोज में पाइथागोरस भारत आया था। #ईसामसीह भी भारत आए थे।

ईसामसीह की तेरह से तीस वर्ष की उम्र के बीच का #बाइबिल में कोई उल्लेख नहीं है। और यही उनकी लगभग पूरी जिंदगी थी, क्योंकि तैंतीस की उम्र में तो उन्हें सूली पर ही चढ़ा दिया गया था। तेरह से तीस तक के सत्रह सालों का हिसाब गायब है। इतने समय वे कहां रहे, और बाइबिल में उन सालों को क्यों नहीं रिकार्ड किया गया? उन्हें जान-बूझकर छोड़ा गया है, कि वह एक मौलिक धर्म नहीं है, कि ईसामसीह जो भी कर रहे हैं वे उसे सनातन भारत से लाए हैं।

यह बहुत ही विचारणीय बात है। वे एक यहूदी की तरह जन्में, #यहूदी की तरह जिए, और यहूदी की तरह मरे। स्मरण रहे कि वे ईसाई नहीं थे, उन्होंने तो-ईसा और ईसाई ये शब्द भी नहीं सुने थे। फिर क्यों यहूदी उनके इतने खिलाफ थे? यह सोचने जैसी बात है, आखिर क्यों? न तो ईसाइयों के पास इस सवाल का ठीक-ठीक जवाब है, न ही यहूदियों के पास। क्योंकि इस व्यक्ति ने किसी को कोई नुकसान नहीं पहुचाया। वे उतने ही निर्दोष थे, जितनी कि कल्पना की जा सकती है।

...पर उनका अपराध बहुत सूक्ष्म था। पढे़-लिखे यहूदियों और चतुर रबाईयों ने स्पष्ट देख लिया कि वे पूरब से विचार ला रहे हैं, जो कि गैर-यहूदी हैं। वे कुछ अजीबोगरीब और विजातीय बातें ला रहे हैं। और यदि इस दृष्टिकोण से देखो तो तुम्हें समझ आएगा कि क्यों वे बार-बार कहते हैं- "अतीत के पैगम्बरों ने तुमसे कहा था कि यदि कोई तुम पर क्रोध करे, हिंसा करे, तो आंख के बदले में आंख लेने और ईंट का जवाब पत्थर से देने को तैयार रहना। लेकिन मैं तुमसे कहता हूं कि अगर कोई तुम्हें चोट पहुंचाता है, एक गाल पर चांटा मारता है, तो उसे अपना दूसरा गाल भी दिखा देना।" यह पृर्णतः गैर-यहूदी बात है। उन्होंने ये बातें भारत में  गौतम बुद्ध और महावीर की देशनाओं से सीखी थीं।

वे जब भारत आए थे-तब सनातन बौद्ध पंथ  बहुत जीवंत था, यद्यपि बुद्ध की मृत्यु हो चुकी थी। गौतम बुद्ध के पांच सौ साल बाद जीसस यहां आए, पर बुद्ध ने इतना विराट आंदोलन, इतना बडा तूफान खड़ा किया था कि तब तक भी पूरा मुल्क उसमें डूबा हुआ था। उनकी करुणा, क्षमा, प्रेम के उपदेशों को पिए हुआ था। जीसस कहते हैं कि "अतीत के पैंराम्बरों द्वारा यह कहा गया था"- कौन हैं ये पुराने पैगम्बर? वे सभी प्राचीन यहूदी पैगम्बर हैंः इजेकिएल, इलिजाह, मोसेस,-"कि ईश्वर बहुत ही हिंसक है, और वह कभी क्षमा नहीं करता।?"

यहां तक कि उन्होंने ईश्वर के मुंह से भी ये शब्द कहलवा दिए हैं। पुराने टेस्टामेंट के ईश्वर के वचन हैं, " मैं कोई सज्जन पुरुष नहीं हूं, तुम्हारा चाचा नहीं हूं। मैं बहुत क्रोधी और ईष्र्यालु हूं, और याद रहे जो भी मेरे साथ नहीं हैं वे सब मेरे शत्रु हैं।"

और ईसामसीह कहते हैं कि "मैं तुमसे कहता हूंः परमात्मा प्रेम है।" यह ख्याल उन्हें कहां से आया कि परमात्मा प्रेम है? गौतम बुद्ध की शिक्षाओं के सिवाय दुनिया में कहीं भी परमात्मा को प्रेम कहने का कोई और उल्लेख नहीं है।

उन सत्रह वर्षों में जीसस इजिप्त, भारत, लद्दाख और तिब्बत की यात्रा करते रहे। और यही उनका अपराध था कि वे यहूदी परंपरा में बिल्कुल अपरिचित और अजनबी विचारधाराएं ला रहे थे। न केवल अपरिचित बल्कि वे बातें यहूंदी धारणाओं से एकदम विपरीत थीं।

तुम्हें जानकर आश्चर्य होगा कि अंततः उनकी मृत्यु भी भारत में हुई। और #ईसाई रिकार्ड्स इस तथ्य को नजरअंदाज करते रहे हैं। यदि उनकी बात सच है कि जीसस पुनर्जीवित हुए थे, तो फिर पुनर्जीवित होने के बाद उनका क्या हुआ? आजकल वे कहा हैं? क्योंकि उनकी मृत्यु का तो कोई उल्लेख है ही नहीं!

सच्चाई यह है कि वे कभी पुनर्जीवित नहीं हुए। वास्तव में वे सूली पर कभी मरे ही नहीं थे। क्योंकि यहूदियों की सूली आदमी को मारने की सर्वाधिक बेहूदी तरकीब है। उसमें आदमी को मरने में करीब-करीब अड़तालीस घंटे लग जाते हैं। चूंकि हाथों में और पैरों में कीलें ठोंक दी जाती हैं, तो बूंद-बूंद करके उनसे खून टपकता रहता है। यदि आदमी स्वस्थ है तो साठ घंटे से भी ज्यादा लोग जीवित रहे ऐसे उल्लेख हैं। औसत अड़तालीस घंटे तो लग ही जाते हैं। और जीसस को तो सिर्फ छः घंटे बाद ही सूली से उतार दिया गया था। यहूदी सूली पर कोई भी छः घंटे में कभी नहीं मरा है, कोई मर ही नहीं सकता है।

यह एक मिलीभगत थी (जीसस के शिष्यों की) पोंटियस पॅायलट के साथ। पोंटियस यहूदी नहीं था, वह रोमन वायसरॉय था। क्योंकि जूडिया उन दिनों रोमन साम्राज्य के आधीन था, और इस निर्दोष युवक की हत्या में उसे कोई रुचि नहीं थी। उसके दस्तखत के बगैर यह हत्या नहीं हो सकती थी, और उसे अपराध भाव अनुभव हो रहा था कि वह इस भद्दे और क्रूर नाटक में भाग ले रहा है। चूंकि पूरी यहूदी भीड़ पीछे पड़ी थी कि जीसस को सूली लगनी चाहिए, वह एक जीसस मुद्दा बन चुका था। पोंटियस पॅायलट दुविधा में था; यदि वह जीसस को छोड़ देता है, तो वह पूरी जूडिया को, जो कि यहूदी है, अपना दुश्मन बना लेता है। यह कूटनीतिक नहीं होगा। और यदि वह इस व्यक्ति को सूली देता है तो उसे सारे देश का समर्थन तो मिल जाएगा मगर उसके स्वयं के अंतःकरण में एक घाव छूट जाएगा कि राजनैतिक परिस्थिति के कारण एक निरपराध व्यक्ति की हत्या की गई, जिसने कुछ भी गलत नहीं किया था।

तो उसने शिष्यों के साथ यह व्यवस्था की कि शुक्रवार को, जितनी संभव तो सके उतनी देर से सूली दी जाए। चूंकि सूर्यास्त होते ही शुक्रवार की शाम को यहूदी सब प्रकार के कामधाम बंद कर देते हैं; फिर शनिवार को कुछ भी काम नहीं होता, वह उनका पवित्र दिन है। यद्यपि सूली दी जानी थी शुक्रवार की सुबह, पर उसे स्थगित किया जाता रहा; ब्यूरोक्रेसो तो किसी भी कार्य में देर लगा सकती है। अतः जीसस को दोपहर के बाद सूली पर चढ़ाया, और सूर्यास्त के पूर्व ही उन्हें जीवित उतार लिया गया, यद्यपि वे बेहोश थे, क्योंकि शरीर से रक्त स्राव हुआ था, और कमजोरी आ गई थी। फिर जिस गुफा में उनकी देह को रखा गया वहां का चैकीदार... पवित्र दिन के पश्वात् यहूदी उन्हें पुनः सूली पर चढ़ाने वाले थे, मगर वह चैकीदार, गुफा का रक्षक रोमन था...इसीलिए यह संभव हो सका कि शिष्यगण जीसस को बाहर निकाल लिए और फिर जूडिया के भी बाहर गए।

#जीसस ने भारत में जाना क्यों पसंद किया? क्योंकि अपनी युवावस्था में भी वे वर्षों तक भारत में रह चुके थे। उन्होंने अध्यात्म का और ब्रह्म का परम स्वाद इतनी निकटता से चखा था, कि उन्होंने वहीं लौटना चाहा। तो जैसे ही स्वस्थ हुए, वे वापस भारत आए, और फिर एक सौ बारह साल की उम्र तक जिए।

#कश्मीर में अभी भी उनकी कब्र/ समाधि है। उस पर जो लिखा है, वह हिब्रु भाषा में है...स्मस्ण रहे भारत में कोई यहूदी नहीं रहते। उस शिलालेख पर खुदा है ‘जोशुआ’- वह हिब्रू भाषा में ईसामसीह का नाम है। ‘जीसस’ जोशुआ का ग्रीक रूपांतरण है। "जोशुआ यहां आए"- समय, तारीख वगैरह सब दी हैं। "एक महान सद्गुरु, जो स्वयं को भेड़ों का गडरिया पुकारते थे, अपने शिष्यों के साथ शांतिपूर्वक एक सौ बारह साल की दीर्घायु तक यहां रहे" इसी वजह से वह स्थान "भेडों के चरवाहे का गांव" कहलाने लगा। तुम वहाँ जा सकते हो, वह शहर अभी भी है- ‘पहलगाम’, उसका कश्मीरी में वही अर्थ है- ‘गड़रिए का गांव।’

वे यहाँ रहना चाहते थे, ताकि और अधिक आत्मिक विकास कर सके। एक छोटे से शिष्य समूह के साथ वे रहना चाहते थे ताकि वे सभी शांति में, मौन में डूबकर आध्यात्मिक प्रगति कर सकें। और उन्होंने मरना भी यहीं चाहा, क्योंकि यदि तुम जीने की कला जानते हो तो यहाँ जीवन एक सौंदर्य है, और यदि तुम मरने की कला जानते हो तो यहाँ मरना भी अत्यंत अर्थपूर्ण है।

केवल #भारत में ही मृत्यु की कला खोजी गई है, ठीक वैसे ही जैसे जीने की कला खोजी गई है। वस्तुतः तो वे एक ही प्रक्रिया के दो अंग हैं।

इससे भी अधिक आश्चर्यजनक तथ्य यह है कि मूसा ने भी भारत में आकर देह त्यागी। उनकी और जीसस की समाधियां एक ही स्थान में बनी है। शायद जीसस ने ही महान सदगुरु मूसा के बगल वाला स्थान स्वयं के लिए चुना होगा। पर मूसा ने क्यों काश्मीर में आकर मृत्यु में प्रवेश किया।

#मूसा ईश्वर के देश "इजराइल" की खोज में यहूदियों को इजिप्त के बाहर ले गए थे। उन्हें चालीस वर्ष लगे, जब इजराइल पहुंचकर उन्होंने घोषणा की कि "यही है वह जमीन, परमात्मा की जमीन, जिसका वादा किया गया था। और मैं अब वृद्ध हो गया हूं तथा अवकाश लेना चाहता हूं। हे नई पीढ़ी वालो, अब तुम संभालो।"

क्योंकि जब उन्होंने इजिप्त से यात्रा प्रारंभ की थी, तब की पीढ़ी लगभग समाप्त हो चुकी थी। बूढ़े मरते गये, जवान बूढ़े हो गये, नए बच्चे पैदा होते रहे। जिस मूल समूह ने मूसा के साथ शुरूआत की थी, वह अब बचा ही नहीं था। मूसा करीब-करीब एक अजनबी की भांति अनुभव कर रहे थे। उन्होंने युवा लोगों को शासन और व्यवस्था का कार्यभार सौंपा और इजराइल से विदा हो लिए।

यह अजीब बात है कि यहूदी धर्मशास्त्रों में भी, उनकी मृत्यु के संबंध में, उनका क्या हुआ इस बारे में कोई उल्लेख नहीं है। हमारे यहां (काश्मीर में) उनकी कब्र है। उस समाधि पर भी जो शिलालेख है, वह हिबु्र भाषा में ही है। और पिछले चार हजार सालों से एक यहूदी परिवार पीढ़ी दर पीढ़ी उन दोनों समाधियों की देखभाल कर रहा है।

मूसा भारत आना क्यों चाहते थे? केवल मृत्यु के लिए? हां, कई रहस्यों में से एक रहस्य यह भी है कि यदि तुम्हारी मृत्यु एक बुद्धक्षेत्र में हो सके, जहां केवल मानवीय ही नहीं वरन् भगवत्ता की ऊर्जा-तरंगें हों, तो तुम्हारी मृत्यु भी एक उत्सव और निर्वाण बन जाती है।

सदियों से, सारी दुनिया से साधक इस धरती पर आते रहे हैं। यह देश दरिद्र है, उसके पास भेंट देने को कुछ भी नहीं, पर जो संवेदनाशील हैं; उनके लिए सबसे अधिक समृद्ध कौम इस पृथ्वी पर कहीं और नहीं है। लेकिन यह समृद्धि आंतरिक है।

– ओशो

मेरा स्वर्णिम भारत
परिशिष्ट-१
भारत: एक अनूठी संपदा

शनिवार, दिसंबर 25, 2021

सेंटा का गिफ्ट... (आज सेंटा सेंटा चिल्लाने वाले बेशर्म, बेवकूफों के लिए)

 


सन 1510
गोआ के तात्कालिक मुश्लिम शासक यूसुफ आदिल शाह को पराजित कर पुर्तगालियों ने गोआ में अपनी सत्ता स्थापित की। अगले पच्चीस तीस वर्षों में गोआ पर पुर्तगाली पूरी तरह स्थापित हो गए। फिर शुरू हुआ गोआ का ईसाईकरण। कुछ लोग उनकी कथा के प्रभाव में आ कर धर्म बदल लिए और ईसाई हुए। जो धन ले कर बदले उन्हें धन दिया गया, जो भय से बदल सकते थे उन्हें भयभीत कर बदला गया। और जो नहीं बदले?

गांव के बीच मे एक हिन्दू को खड़ा करा कर उसे आरा से चीरा जाता, हिन्दू युवतियों को नग्न कर सँड़सी से उनके स्तन नोंचे जाते... स्त्रियों को नग्न कर उनकी दोनों टांगो में दो रस्सी बाँध दी जाती और दोनों रस्सियां दो घोड़ों से जोड़ दी जातीं। दोनों घोड़े दो ओर दौड़ाये जाते और पल भर में एक शरीर दो भाग में बंट जाता। अरे रुकिए! यह कार्य केवल पुर्तगाली सैनिक नहीं करते थे, उनके साथ एक पादरी रहता था जो बाइबल पढ़ कर अपनी देख-रेख में कार्य प्रारम्भ कराता था। पुर्तगाली ईसाइयों को किसी गाँव मे यह खेल दो बार खेलने की आवश्यकता नहीं हुई, क्योंकि जिस गाँव मे एक बार यह आयोजन हो जाता, उस गाँव की सारी प्रजा उसी दिन ईसाई हो जाती थी।

पर भारत तो भारत है न! यहाँ के हिन्दू इतनी जल्दी कैसे हार मान लेते? ऊपर से सारा गोआ ईसाई हो गया था, पर अंदर ही अंदर फिर अधिकांश जन हिन्दू हो गए थे। घर में मिट्टी के नीचे दबा कर सनातन धर्मग्रंथ रखे जाने लगे। बच्चों को धर्म का ज्ञान दिया जाने लगा। रामायण-महाभारत, वेद-पुराण पढ़े-पढ़ाने जाने लगे।

पर ईसाई भी तो ईसाई थे न! वे भी इतनी शीघ्रता से कैसे पराजय स्वीकार कर लेते? तो सन 1560...

गोआ के बीचोबीच एक चिता तैयार की गई थी। लकड़ी की नहीं, हिन्दू धर्मग्रंथों की। पिछले छह महीने में हर हिन्दू के घर का कोना कोना छान कर,मिट्टी कोड़ कोड़ कर इन धर्मग्रंथों को निकाला गया था। मराठी और संस्कृत भाषा में लिखे गए इन महत्वपूर्ण धर्मग्रन्थों की चिता, और उसके ऊपर हाथ पैर बाँध कर डाले गए हिन्दू... कुछ किताबें कहती हैं पाँच सौ लोग थे, कुछ कहती हैं हजार... कुछ किवदन्तियां कई हजार बताती हैं। ईश्वर जाने कितने थे।

निकट खड़े पादरी ने अपनी पवित्र (अपवित्र) पुस्तक पढ़ी, और फिर सैनिक की ओर संकेत किया। सैनिक ने चिता में अग्नि प्रवाहित की और भारत धू-धू कर जल उठा। अग्नि की लपटें बढ़ीं, और उनके साथ ही बढ़ती गयीं दो प्रकार की ध्वनियां... एक जीवित जल रहे हिंदुओं के चीत्कार की ध्वनि, और दूसरी निकट खड़े ईसाइयों के अट्ठहास की ध्वनि...
सनातन जल रहा था, और अग्नि की लपटों के साथ ऊपर उठता जा रहा था चर्च! और वहाँ से हजारों कोस दूर रोम में बैठा सेंटा-क्लॉज मुस्कुरा उठा था।
यह भारत मे ईसाई धर्म के प्रारम्भ का सत्य था।
अपने बच्चों को सेंटा क्लॉज की पोशाक पहना कर खुश होने वाले हिन्दुओं! तुम्हारा सेंटा जब मुस्कुराता है तो लगता है कि वह गोआ की बेटियों की नोची गयी छातियों पर मुस्कुरा रहा है, एक वहशी दैत्य की तरह! तुम नहीं जानते कि क्रिसमस का जो केक तुम खा रहे हो वह गोआ की उन माओं के रक्त से सना हुआ है जिनके नग्न शरीर को घोड़े से चीरवा दिया गया था। क्रिसमस की तुम्हारी शुभकामनाओं में मुझे अपने उन पूर्वजों की चीखें सुनाई देती हैं जिन्हें उनके धर्मग्रन्थों के साथ जीवित ही जला दिया गया था। क्यों? केवल इसी लिए कि वे हिन्दू थे।
गोआ एक उदाहरण मात्र है। भारत मे अंग्रेजी सत्ता के काल मे हिंदुओं-मुसलमानों पर ऐसे असंख्य अत्याचार ईसाइयों ने किए हैं। गिनने लगेंगे तो घृणा अपने चरम पर पहुँच जाएगी।
सेंटा क्लॉज गिफ्ट नहीं देता। सेंटा ने जब भी दिया, भारत को नरसंहार, अत्याचार, शोषण का ही गिफ्ट दिया है। सेंटा क्लॉज भारत पर हुए अत्याचार का प्रतीक है। इसका सम्मान करना, इसका त्योहार मनाना अपने पूर्वजों के अपमान जैसा है।
तुम इसे धर्मनिरपेक्षता कहते हो? शत्रु-परम्पराओं का सम्मान धर्मनिरपेक्षता नहीं, मूर्खता है मित्र! वे झारखण्ड के जंगलों में तुम्हारे देवी-देवताओं को गाली देते हैं और तुम उनके पर्वों को उत्साह से मनाते हो? वे तमिलनाडु, आंध्रप्रदेश, गोआ, केरल में तुम्हारे पूर्वजों को गाली देते हैं और तुम उनका सम्मान करते हो? वे आसाम, मेघालय, नागालैंड, अरुणाचल प्रदेश में सनातन धर्म का लगभग-लगभग नाश कर चुके और तुम इससे अनभिज्ञ प्रेम के गीत गा रहे हो? तनिक सोचो तो, क्या हो तुम? मित्र! तुम अनजाने में अपनी संस्कृति, अपने धर्म, अपने राष्ट्र, अपनी परम्पराओं, अपने पूर्वजों की प्रतिष्ठा की हत्या में सहयोग कर रहे हो। मित्र! तुम हत्या कर रहे हो...
और सेक्युलरिज्म? इसे भारत को क्या ईसाइयों से सीखना होगा? एक उदाहरण देता हूँ, सातवीं शताब्दी में भारत के एक हिन्दू शासक अनंगपाल ने राय पिथौरा किले के पास एक ही प्रांगण में 'हिन्दू,बौद्ध और जैन' तीनो धर्मों के सत्ताईस मन्दिरों का निर्माण कराया था। यहाँ जाने वाला हर श्रद्धालु तीन धर्मों के आराध्यों की एक ही साथ पूजा करता था। भारत का वह मन्दिर कुतुबुद्दीन ऐबक ने तेरहवीं शताब्दी के प्रारम्भ में ही तोड़ दिया, पर क्या कोई आज भी मुझे पूरी दुनिया मे ऐसा कोई दूसरा स्थान दिखा सकता है? क्या कोई ऐसा स्थान है जहाँ किसी ईसाई ने किसी दूसरे धर्म का धर्मस्थल बनवाया हो? नहीं न?
मित्र! इस धरा पर धर्मनिरपेक्षता हमसे ही प्रारम्भ हो कर हम पर ही समाप्त हो जाती है। पर यह याद रहे, धर्मनिरपेक्षता के भ्रम में आत्महंता बनना केवल और केवल मूर्खता है।
स्वतन्त्रता के बाद वामपंथियों द्वारा थोपी गयी षड्यंत्रपूर्ण परिभाषा के अनुसार मेरी बातें साम्प्रदायिक दिख रही होंगी, पर मुझे गर्व है अपने साम्प्रदायिक होने पर.. मैं अपने पूर्वजों के हत्यारों को क्षमा नहीं कर सकता। मेरे अंदर यदि किसी को घृणा भरी हुई दिखती है तो गर्व है मुझे अपनी घृणा पर। अपने शत्रुओं के प्रति इसी घृणा ने भारत की रक्षा की है, नहीं तो यूनान, मिस्र, रोम कबके मिट गए। साभार सर्वेश कुमार तिवारी

गुरुवार, नवंबर 18, 2021

कुछ अच्छाइयां.. अपने जीवन में ऐसी भी करनी चाहिए, जिनका ईश्वर के सिवाय.. कोई और गवाह् ना हो...!!

 एक समय की बात है ।

मैं पैदल वापस घर आ रहा था । रास्ते में एक बिजली के खंभे पर एक कागज लगा हुआ था । पास जाकर देखा, लिखा था:

कृपया पढ़ें

"इस रास्ते पर मैंने कल एक 50 का नोट गंवा दिया है ।
मुझे ठीक से दिखाई नहीं देता । जिसे भी मिले कृपया इस पते पर दे सकते हैं ।" ...

यह पढ़कर पता नहीं क्यों उस पते पर जाने की इच्छा हुई ।
पता याद रखा ।
यह उस गली के आखिरी में एक घऱ था ।
वहाँ जाकर आवाज लगाया तो एक वृद्धा लाठी के सहारे धीरे-धीरे बाहर आई ।
मुझे मालूम हुआ कि वह अकेली रहती है ।
उसे ठीक से दिखाई नहीं देता ।

"माँ जी", मैंने कहा - "आपका खोया हुआ 50 मुझे मिला है उसे देने आया हूँ ।"

यह सुन वह वृद्धा रोने लगी ।

"बेटा,
अभी तक करीब 50-60 व्यक्ति मुझे 50-50 दे चुके हैं ।
मै पढ़ी-लिखी नहीं हूँ, ।
ठीक से दिखाई नहीं देता ।
पता नहीं कौन मेरी इस हालत को देख मेरी मदद करने के उद्देश्य से लिख गया है ।"

बहुत ही कहने पर माँ जी ने पैसे तो रख लिए ।
पर एक विनती की -
' बेटा, वह मैंने नहीं लिखा है । किसी ने मुझ पर तरस खाकर लिखा होगा ।
जाते-जाते उसे फाड़कर फेंक देना बेटा ।
'मैनें हाँ कहकर टाल तो दिया पर मेरी अंतरात्मा ने मुझे सोचने पर मजबूर कर दिया कि उन 50-60 लोगों से भी "माँ" ने यही कहा होगा ।
किसी ने भी नहीं फाड़ा ।
जिंदगी मे हम कितने सही और कितने गलत है,
ये सिर्फ दो ही शक्स जानते है..
परमात्मा और अपनी अंतरआत्मा..!!
मेरा हृदय उस व्यक्ति के प्रति कृतज्ञता से भर गया ।
जिसने इस वृद्धा की सेवा का उपाय ढूँढा ।
सहायता के तो बहुत से मार्ग हैं , पर इस तरह की सेवा मेरे हृदय को छू गई ।
और मैंने भी उस कागज को फाड़ा नहीं ।
मदद के तरीके कई हैं सिर्फ कर्म करने की तीव्र इच्छा मन मॆ होनी चाहिए

कुछ नेकियाँ
और
कुछ अच्छाइयां..
अपने जीवन में ऐसी भी करनी चाहिए,
जिनका ईश्वर के सिवाय..
कोई और गवाह् ना हो...!!

रविवार, नवंबर 14, 2021

अब्दुल जन्मजात सबसे बड़ा कायर होता है

 अब्दुल जन्मजात सबसे बड़ा कायर होता है 

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फट्टू होता है
फटान होता है

इसीलिए केवल बड़ी बड़ी बातें करता है
भीड़ में हुआँ हुआँ करता है

इसलिए झूठ फैलाता रहता है
अब्दुल मरने से नही डरता है

इन्होंने एक लड़ाई संसार में नहीं जीती
भगोड़े फट्टू केवल धोखा दे सकते हैं
हारने पर माफी मांग लो ताकि
फिर से धूर्तता कर सको

🚫 हमने सद्दाम को सीवर की नाली में छुपे देखा जिसे अमेरिकी सेना ने बाल पकड़कर बाहर निकाला और फंदे से लटका कर फांसी दे दी

🚫 कर्नल गद्दाफ़ी इनका हीरो बनता फिरता था
उसको सड़क की पुलिया के पाईप में छुपे देखा

🚫ओसामा बिन लादेन को अपनी बीवियों के पीछे छिपते देखा जिसे अमेरिकी सैनिकों ने कुत्ते की मौत मारा और समुद्र में फेंक आए ..शार्क खा गई

🚫 ईदी अमीन को बुरका पहनकर महिला के वेश में भागकर सऊदी अरब में शरण लेते देखा

🚫 रोहिंग्याओं को वर्मा से शांतिप्रिय बौद्धों से भागते हुए देखा

🚫 सीरिया में ISIS लड़ाकों को बुर्के मे भागते देखा

🚫 1971 में इमरान के चाचा जरनल नियाजी को भी जान बचाने के लिए सरेंडर करते हुए देखा

🚫 93000 सैनिकों को घुटनों के बल बैठाया है भारतीय सेना ने 1971 में

और हाँ

🚫 अभी अभी उ प्र मेँ आजम खान को पाजाम गीला करता हुआ सबने देखा

🚫मुख्तार अंसारी डर के मारे व्हील चेयर पर पाजामा गीला करता रहा कि गाड़ी न पलट जाय जब उसे पंजाब से युप्पी लाया जा रहा था

🚫 जिसके बदसूरत होठों के दोनों किनारों से थूक निकल जाती है ..भचर भचर बोलने में ..वह जाकिर नाइक डर के मारे मलेशिया में छिपा बैठा है
जो कहता है हम केवल अल्लाह से डरते हैं
उसे अपने बाप की मय्यत तक में आने की हिम्मत नहीं हुई

और अब तो सभी ने ताजा ताजा देखा ही है

🚫 अफगानी फटानों को प्लेन के बाहर लटककर अपने बीबी बच्चो को तालिबान को सौंपकर भागते हुए

अब्दुल मरने से नहीं डरता
जब बोले तो उसे ये सारे नाम गिनवा देना
और कहना तुम संसार के सबसे बड़े फट्टू होते हो मियाँ..

इस्लामोफोबिया की बात तुम्हारे जैसे कायरों के मुँह से तो शोभा नहीं ही देती

तुमसे डरता ही कौन है
☺️☺️☺️☺️
जय राम जी की

गुरुवार, नवंबर 11, 2021

हमारे हिन्दू पर्वों के साथ एक विचित्र परिवर्तन हो रहा है छठ सूर्य देवता की आराधना का पर्व है

 हमारे हिन्दू पर्वों के साथ एक विचित्र परिवर्तन हो रहा है

छठ सूर्य देवता की आराधना का पर्व है
यह छठी मैया का पर्व बन गया
लोग तर्क देते हैं
षष्ठी तिथि के चलते इसे मैया मान लिया गया

चलिए ठीक है
तिथि भी पवित्र होती है
माता होती है
मान लिया

दीपावली इसलिए मनाई जानी शुरू हुई
क्योंकि प्रभु श्रीराम चौदह वर्षों बाद अयोध्या जी लौटे थे
घी के दीयों से सारी नगरी सजाई गई

धीरे से हमारी दीपावली लक्ष्मी गणेश जी की पूजा में बदल गयी
हमने नयी नयी कहानियां ढूंढ निकाली
ये तिथि महालक्ष्मी जी की पूजा का भी है

धन्वंतरी आयुर्वेद के जनक थे
उनकी तिथि धनतेरस बन गयी
च्यवनप्राश खरीदो मत खरीदो
बर्तन भांडे जरूर खरीद लेना
स्कूटर कार मोटर साइकिल किश्तों पर ही ले आना
पर ले आना जरूर

गहने भी अब फाइनेंस होने लगे हैं
सोना जरूर खरीदो धनतेरस को
पर खरीद जरूर लेना

होली में किसे याद रहता है
यह होलिका और प्रह्लाद को याद करने का दिन है

सुबह से भर पेट शराब पी कर..
फटे कपड़ों डाल लो..
सिर पर जेहादियों सी हरी गोल टोपी या नुकीली जोकर टोपी डाल के..
गली में हिलते डगमगाते चलते रहो
ताकि लोग समझ लें
कितने संस्कारी हो

और तो और होली को भी महालक्ष्मी जी को प्रसन्न करो ..पूजन करो ..नयी नयी चीजें खरीदो
ये नया कंसेप्ट भी आने वाला है

कौन लोग हैं
जो आपको अपनी संस्कृति.. अपने धर्म अपने पर्वों त्यौहारों के ..असली अर्थ से भटका रहे हैं

टी वी पर नयी नयी लच्छेदार बातों से ये बाजार वाले आपको उलझा रहे हैं

उनका छिपा एजेंडा क्या है
जानिए तो जरा..!!

आपने कभी सुना कि हालेलुइया वाले
क्रिसमस में जीसस के अलावा किसी और को पूजते हैं

आपने कभी सुना कि मुहर्रम में हाय हसन ..हाय हुसैन के अलावा वे कोई अन्य क्रियाकलाप करते हैं

आपकी होली की तिथि ..दीपावली की तिथि तक को ये शक्तियाँ.. दो दो दिन करा देती हैं
आप कंफ्यूज रहते हैं
होली कब है.. धुलेंडी कब है
वे ठहाके लगाते हैं

जागो.. पग पग पर षड्यंत्र हो रहे हैं
जागो हिन्दुओं जागो
🙏🙏🙏🙏
जय राम जी की

बुधवार, नवंबर 10, 2021

वाल्मीकि समाज का 1857 की क्रान्ति एवं भारत देश की आजादी का गौरवशाली इतिहास

 वाल्मीकि समाज का 1857 की क्रान्ति एवं भारत देश की आजादी का गौरवशाली इतिहास ---

(1) श्री मातादीन वाल्मीकि 1857 सैनिक विद्रोह के महा नायक जिन्हें मंगल पांडे से पहले बैरकपुर में फांसी दी गई।

(2) श्री गंगु वाल्मीकि 1857-58 के क्राँन्तिकारी सोरो एटा के जिन्हें कानपुर में फाँसी दी गई।

(3) श्री राम चन्द्र वाल्मीकि

(4) श्री किशन वाल्मीकि 10 मार्च1919 को दिल्ली में फाँसी दी गई।

(5)श्री सालव वाल्मीकि।

(6)श्री सेहजा वाल्मीकि। दोनों को क्रान्तिकारी घोषित कर दिल्ली में फाँसी दी गई।

(7) श्री बुध्दा

( श्री हरि राम

(9) श्री सुरेन सिह मजहबी

(10) श्री पल्ला वाल्मीकि। चारों महापुरुष 13 अप्रैल1919 अम्रतसर जलियावाला बाग हत्या काण्ड में ब्रिटिश सेना की गोलीबारी में शहीद।

(11) श्री शेरू लाल वाल्मीकि गाजियाबाद 1857 में शहीद

(12) श्री राम स्वरूप वाल्मीकि बिजनौर 1857 में शहीद।

(13) श्री रुढा वाल्मीकि 21 जुलाई 1857 में शहीद।

(14)श्री बालू वाल्मीकि 1857 में शहीद।

(15) श्री सत्तादीन ( सत्तीवा) इलाहाबाद बहुआ गाँव 31 जुलाई 1857 को फाँसी।

(16) श्री भूरा वाल्मीकि 1857 दिल्ली चाँदनी चौक पर फाँसी।

(17) श्री गनेशी वाल्मीकि दिल्ली नि0 18 नवम्बर 1857 को फाँसी दी गई।

(18)श्री मातादिन वाल्मीकि गुडगाँव हरियाणा नि0 15 दिसम्बर 1857 को फाँसी दी गई।

(19) श्री मनोरा वाल्मीकि दिल्ली नि0 22 फरवरी 1857 को फाँसी दी गई।

(20) श्री हरदन वाल्मीकि नि0 गाँव सिसौली मुजफ्फरनगर 1857 में शहीद।

(21) श्री रामजस वाल्मीकि नि0 गाँव नगलिया मुजफ्फरनगर 1857 में शहीद।

(22) श्री बारु वाल्मीकि नि0 गाँव मुण्डभर कैराना मुजफ्फरनगर 1857 में शहीद।
(23) श्री जमादार रजवार वाल्मीकि 20 सितम्बर 1857 में शहीद।
(24) श्री हीरा डोम 22 फरवरी 1857 में फांसी।

(25) श्री महावीर वाल्मीकि 1857 गोरखपुर में शहीद।

(26) श्री भोला वाल्मीकि अहीर जमीरा जिला आरा 1942 में शहीद।
(27) श्री ननकाऊ वाल्मीकि

(28) श्री कन्हैया लाल बक्सी बाजार इलाहाबाद दोनों को चोरी चोरा काण्ड में 12 अगस्त 1942 -45 मैं कारावास।

(29) श्री नरसिह देव जोधपुर राज0 स्वतन्त्रता सेनानी।

(30) श्री राम जी सर्वटे स्वतंत्रता सेनानी

(31) श्री काशी राम वाल्मीकि

(32) श्री अमीर चन्द्र। सूरतगंज फतेहपुर , बाराबंकी भारत छोडो आन्दोलन में 1942 में कारावास।

(33) श्री मातादीन नेता जी नि0 रामपुरवा कानपुर 15 अक्टूबर 1940 में कारावास।

(34) श्री सदन लाल वाल्मीकि स्वतंत्रता सेनानी।

(35) श्रीनाथु राम वाल्मीकि टीकम गढ म0प्र0 स्वतन्त्रता सेनानी।

(36) श्री राम किशन वाल्मीकि दिल्ली।
(37) कल्लु दास वाल्मीकि काम्टी ,नागपुर महाराष्ट्र।

(38) श्री मा0 राम नारायण वाल्मीकि मोतीलाल जयपुर

(39) श्री अजब सिह वाल्मीकि।

(40) श्री शुगन चन्द्र वाल्मीकि मुजफ्फनगर।

(41)श्री उल्फत सिह वाल्मीकि स्वतंत्रता सेनानी नि 0 भरई , भिण्ड , म0प्र0

"1857 की क्रान्ति एव भारतत्र देश की आजादी में वाल्मीकि वीरागनाओं का योगदान"

(1) श्रीमती महावीरी देवी जिन्होंने साथी महिलाओं के साथ मिलकर वर्छी भालों से 18 अंग्रेज सैनिकों को मारकर शहीद हो गई।

(2) श्रीमती रणवीरी वाल्मीकि 10 मई 1857 मैं शहीद।

(3) श्रीमती कमला मोहन्ती उडीसा 1943 मैं कारावास

(4) श्रीमती लाजो देवी

नोट: "लाजो देवी" सफाई कर्मचारी ने मंगल पांडेय को मेरठ छावनी में कारतूस में चर्बी मिले होने के बारे मे बताया था। जिसके बाद 1857 की क्रांति की शुरुआत हुई @लाजो@ नाम से एक पुस्तिका भी रजनी तिलक जी ने लिखी..... लाजो पर पुस्तक लिखने वाली लेखिका रजनी तिलक अब इस दुनिया में नहीं है।
जय वाल्मीकि जय श्री राम
🙏🚩🚩

साभार 🙏

मंगलवार, अक्टूबर 19, 2021

बंग्लादेश में हिन्दू उत्पीडन

 बंग्लादेश में हिन्दू उत्पीडन

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नार्वे में एक शख्स ने तीर-कमान से कहीं हमला बोल दिया। कुल पांच लोग तत्काल मौत के शिकार हो गए। इनमें चार महिलाएं और एक पुरुष हैं। इस खबर में यह जानकारी भी आई कि एस्पन एंडरसन ब्राथेन नाम के 37 साल के इस शख्स ने कुछ ही समय पहले इस्लाम कुबूल कर लिया था।

बांग्लादेश में दुर्गा पूजा उत्सव को कई जगहों पर तहसनहस किया गया। मूर्तियां तोड़ दी गईं। मुसलमानों की अराजक भीड़ के हमलों में चार श्रद्धालु मारे गए। 22 जिलों में अर्द्धसैनिक बल तैनात करने पड़े। शेख हसीना ने कहा कि हिंदू खुद को अल्पसंख्यक न समझें। आपको इस देश का नागरिक माना जाता है।

इन घटनाओं के कुछ ही घंटों के अंदर अफगानिस्तान में एक शिया मस्जिद में धमाके में 18 लोग मारे गए। खून से लथपथ कई लोग इबादत भूलकर यहां-वहां जान बचाते नजर आए। इन घटनाओं से कुछ ही दिन पहले मस्जिद में एक ऐसे ही धमाके में 50 से ज्यादा शिया मारे जा चुके हैं।

कुछ दिन पहले कश्मीर में बाकायदा नाम और पहचान पूछकर कुछ सिख और हिंदुओं को मार डाला गया। मारने वाले बौद्ध, जैन, पारसी या सिख नहीं थे और न ही कोई हिंदू किसी रंजिश में हिसाब बराबर करने आया था। वे हत्यारे मुसलमान ही थे।

इससे पहले उत्तरप्रदेश में इफ्तखारुद्दीन नाम के एक आईएएस अफसर ने अपनी प्रशासनिक बिरादरी और इस बिरादरी में काम कर रहे दीन के पक्के अफसरों की जमकर जगहंसाई कराई। वह कमिश्नर कोठी को मजहब का कोठा बनाकर बैठ गया था और उसकी आगबबूला तकरीरें ऐसी हैं कि अभी बस चले तो पूरे मुल्क का कलमा पढ़वा दे।

ये बीते दो हफ्तों की कुछ ताजा मिसालें हैं, जिनमें समानता एकमात्र ही है। नार्वे की घटना में एक ताजा धर्मांतरित शख्स नया मजहब कुबूल करने के बाद कहीं शांति से योग या ध्यान साधना में नहीं बैठा है। वह हमला करने निकल पड़ा है और पहले ही धावे में पांच लोगों को मार डाला है। बांग्लादेश की भीड़ कुछ दशकों पुराने धर्मांतरित हैं और वे भी वैसा ही कर रहे हैं। अफगानिस्तान में तालिबान हों या आईएस या वे बेकसूर शिया, जो दो हमलों में लगातार मारे गए हैं, सारे के सारे मुसलमान हैं। मारने वाले भी। मारे जाने वाले भी।

कश्मीर में आतंक का पर्याय बने लोग धर्मांतरण के लिहाज से दो-चार सदियों पुराने होंगे, जो ऐसे ही बाहरी हमलावरों के झपट्टे में अपने पूर्वजों का मूल धर्म छोड़ने पर मजबूर हुए होंगे।

इस्लाम की कुल यात्रा 14 सौ साल पुरानी है और यह विचारधारा संभवत: सर्वाधिक तीव्र गति से फैलने वाली है, जिसके 50 से ज्यादा मुल्कों में अनुयायी हैं। किसी धर्म के मूल तत्व क्या हैं? कोई भी विचार कब एक सुसंगठित धर्म की संज्ञा प्राप्त करने का अधिकारी हो जाता है और उसकी आधारभूत संरचना कैसी होनी चाहिए? धर्म के लक्षण क्या हैं?

स्पष्ट है कि मनुष्य ही वह कसौटी है, जो किसी विचार की महानता को स्थापित करते हैं। एक बौद्ध अपने आचरण से गौतम बुद्ध की देशना का जीता-जागता प्रमाण होता है और एक जैन या सिख पर भी यही बात लागू होती है। सच्चे धर्म की साख उसके अनुयायियों के अाचरण पर निर्भर करती है। एक सच्चे सिख का आचरण महान दस गुरुओं के सम्मान में वृद्धि करने वाला होता है और इस अर्थ में धर्म एक ऐसा विचार नहीं है, जिसे अंधों की तरह ढोया जाता है।

गहरे अर्थ में धर्म हरेक मनुष्य पर एक महान उत्तरदायित्व है, जो उसे अपने मानवीय व्यवहार से जीवनपर्यंत निरंतर निभाना होता है। एक जैन को सदैव अपने महान तीर्थंकरों के आदर्श अपने भीतर उतारने का अंतसंघर्ष करना ही होता है। यही बात करोड़ों हिंदुओं पर लागू है कि वे अपनी दस हजार साल की सनातन यात्रा में आए अवतारों की लाज रखें। अंतत: धर्म एक ऐसी व्यवस्था के रूप में सामने आता है, जो अपने अनुयायियों को आदर्श स्वरूप में ढालने का एक लगातार परिवर्तनशील मैकेनिज्म अपने भीतर विकसित करे और किसी जड़ व्यवस्था की तरह ठोस न हो। फिर भी अच्छे और बुरे अपवाद कहीं भी हो सकते हैं।

अवतारों, तीर्थंकरों, बुद्ध पुरुषों और गुरुओं के बाद हर धर्म में ऋषियों, विचारकांे, दार्शनिकों, विद्वानों, आचार्याें की एक समकालीन श्रृंखला हर कालखंड में रहती है, जो स्थापित आदर्शों का निरंतर स्मरण कराती है। वह ट्रैफिक कंट्रोल जैसी व्यवस्था में जुटे अनुयायी होते हैं। भारतीय मूल के प्रचलित और लोकप्रिय धर्मों में मनुष्य के जन्म के महान उद्देश्य और हर मनुष्य में ईश्वर बनने की संभावनाओं के द्वार खुले हुए हैं। वे प्रकृति के हर अंश में ईश्वर की ध्वनि सुन सकते हैं। पांचों तत्वों में उन्हें परमात्मा के दर्शन होते हैं। उनका ईश्वर कहीं आठ आसमानों के पार से धमका नहीं रहा, न ही खौफ में रहने के हुक्म भेज रहा है और न ही मनुष्य को जन्मजात पाप का पुतला घोषित कर रहा है।

शिव के रूप में वह आदि योगी है। कृष्ण के रूप में बांसुरी बजा रहा है। राम के रूप में राजपाट छोड़कर जनसमाज में जा रहा है। गुरुओं के रूप में वह शास्त्रों के साथ आतंक के विरुद्ध सशस्त्र बिगुल बजा रहा है। बुद्ध और महावीर के रूप में वह मनुष्य के जीवन की गरिमा और महान उद्देश्यों की पूर्ति कर रहा है। मूर्तियों और तस्वीरों के प्रतीक रूप में ये सब सदियों से हमारे ह्दय के निकट हैं और हम इनसे मंदिरों, विहारों और गुरुद्वारों में संवाद करते हैं। उनका मूर्ति स्वरूप करोड़ों आम लोगों के लिए एक आश्वासन है। प्रमाण है। अनुभूति है। आस्था है।

इस्लाम में वे आलिम हैं। वे मौलवी हैं, हाफिज हैं, मुफ्ती हैं, इमाम हैं, जिनका महान दायित्व अपने अनुयायियों को अपने आदर्शरूप में गढ़ने और दिशा देने का है। वे यह काम बखूबी कर रहे हैं। आबादी के फैलाव के अनुपात में मस्जिदों और मदरसों का लगातार फैलता संजाल इनके प्रयासों को एक सुसंगठित ढांचा दे रहा है। नार्वे, बांग्लादेश, अफगानिस्तान, कश्मीर और उत्तरप्रदेश की इन चंद घटनाओं में शेष समाज के लिए क्या सबक हैं?

भौतिकी के नियमों से गति और शक्ति को देखें तो किसी भी विचार को गति करने के लिए शक्ति चाहिए। शक्ति ईंधन से प्राप्त होती है। वह ईंधन साधना और तप-त्याग से अर्जित करने का अनुभव केवल भारत के पास है और वो सबसे पुराना है।

इस्लाम का ईंधन क्या है? वह किनसे अपनी गति के लिए शक्ति हासिल करता है? यह एक टेढ़ा सवाल है। घटनाएं सिर्फ एक खबर नहीं हैं। उनमें जवाब छिपे होते हैं। इस टेढ़े सवाल का सीधा जवाब है कि इस्लाम का ईंधन हैं वे लोग जो उसके अनुयायी नहीं हैं और वे भी जो उसके अनुयायी हैं। इस ईंधन में जलकर धुआं कोई भी हो गति इस्लाम की है। काफिर मरें या मोमिन, परचम दीन का ही बुलंद है। तकबीर का एक ही नारा हवाओं का सीना चीरेगा।

तकनीक ने यह सुविधा दे दी है कि आप दुनिया के दूसरे सिरे की घटनाओं का विश्लेषण तत्काल कर सकते हैं। इंटरनेट ने सदियों के फासले भी मिटा दिए हैं। अब 14 सौ साल पहले के अरब के घटनाक्रम और उनके ढाई-तीन सौ साल बाद संकलित किए गए दस्तावेजों के हर अल्फाज को घर बैठे अपनी भाषा में जान सकते हैं। इस सुविधा ने पिछले दो सालों में एक लहर ऐसे लोगों की पैदा कर दी है, जो अपने वर्तमान और अपने भविष्य के फैसले स्वयं ले रहे हैं। यह एक्स-मुस्लिमों की एक ऐसी लहर है, जो हर दिन तेज हो रही है। वे नार्वे से लेकर बांग्लादेश और कश्मीर से लेकर उत्तरप्रदेश की हरकतों को देख रहे हैं।

यकीन न हो तो यूट्यूब पर डॉ. फौजिया रऊफ, अमीना सरदार, हारिस सुल्तान, गालिब कमाल, महलीज सरकारी, सना खान, यास्मीन, जफर हेरेटिक, अलमोसाे फ्री, सचवाला, कोहराम, सलीम अहमद नास्तिक अनगिनत नाम हैं। ये सब अरब और यूरोप से लेकर पाकिस्तान और भारत तक फैले हुए हैं। आप इनमें से किसी का नाम भी डालिए, ऐसे कई और नामचीन लोगों तक आप खुद पहुंच जाएंगे। इस्लाम के विभिन्न आयाम और असर पर इनके बीच जमकर शास्त्रार्थ चल रहे हैं। लाखों की फॉलोइंग वाले ये सब इस्लाम के नए अवतार हैं, जो कुरान और हदीसों पर खुली चर्चा कर रहे हैं।

धरती पर ये ऐसे हिम्मतवर लोग हैं, जो अब किसी बंजर विचार का ईंधन बनकर राख होने के लिए तैयार नहीं हैं।
लेखक- विजय मनोहर तिवारी
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गुरुवार, सितंबर 30, 2021

Hindushahi हिन्दूशाही भाग 1

 

भाग - 1

#हिन्दूशाही की लूट का माल जब गजनी में प्रदर्शित किया गया तो पड़ोसी मुल्कों के राजाओं की आंखें फटी की फटी रह गईं......

कंबोडिया के अंकोरवाट मंदिर को हम देखते हैं तो पता चलता है कि भारत गुप्तकाल में किस भव्यता के साथ खड़ा था। 7वीं सदी के पूर्व भारतीय लोग शांत और सुरक्षित जीवन जी रहे थे। युद्ध थे लेकिन युद्ध का स्वरूप अलग था। इससे पूर्व गुप्तकाल को भारत का स्वर्णकाल कहा जाता है। इससे पूर्व बौद्धकाल में भारत ने दर्शन, विज्ञान और ज्ञान की नई ऊंचाइयों को छूआ था, लेकिन हर्षवर्धन के जाने के बाद भारत का भाग्य पलट गया। विदेशी आक्रांताओं ने भारत को खंडहर में बदल दिया। भारत पर यूनानी, मंगोल, अरबी, ईराकी, पुर्तगाली, फ्रांसीसी, मुगल और अंग्रेज ने राज किया। ये सभी विदेशी थे। इनके शासनकाल में जहां भारतीय गौरव को नष्ट किया गया वहीं बड़े पैमाने पर धर्मांतरण भी हुआ। आज भी इन विदेशी आक्रांताओं के चिन्ह मौजूद हैं।

अफगानिस्तान (आर्याना) में हिन्दूशाही राजवंश राज करता था। अरब और तुर्कमेनिस्तान के लुटेरों और खलीफाओं ने सबसे पहले अफगानिस्तान पर हमला किया। अफगानिस्तान के बामियान, जलालाबाद, बगराम, काबुल, बल्ख आदि स्थानों पर हजारों मूर्तियों, स्तूपों, संघारामों, विश्वविद्यालयों और मंदिरों को तोड़ा गया और बेरहमी से कत्लेआम किया गया। धृतराष्ट्र की पत्नी गांधारी, महान संस्कृत व्याकरणाचार्य पाणिनी और गुरु गोरखनाथ अफगानिस्तान के ही थे।

ईसा सन् 7वीं सदी तक गांधार के अनेक भागों में बौद्ध धर्म काफी उन्नत था। 7वीं सदी के बाद यहां पर अरब और तुर्क आदि जगह के मुसलमानों ने आक्रमण करना शुरू किया और 870 ई. में अरब सेनापति याकूब एलेस ने अफगानिस्तान को अपने अधिकार में कर लिया। इसके बाद यहां के हिन्दू और बौद्धों का जबरन धर्मांतरण अभियान शुरू ‍हुआ। कई महीनों-सालों तक लड़ाइयां चलीं और अंत में काफिरिस्तान को छोड़कर सारे अफगानी लोग मुसलमान बन गए और आज अपने ही अपनों के खिलाफ हैं।

मुस्लिम इतिहासकार फरिश्ता के अनुसार हिन्दूशाही की लूट का माल जब गजनी में प्रदर्शित किया गया था तो पड़ोसी मुल्कों के राजाओं की आंखें फटी की फटी रह गईं। भीमनगर (नगरकोट) से लूटकर ले गए माल को गजनी तक लाने के लिए ऊंटों की कमी पड़ गई थी।

711 ईस्वी में मोहम्मद बिन कासिम ने सिंध पर कब्जा कर ब्राह्मण राजा दाहिर को पलायन करने पर मजबूर कर दिया था। 200 साल अंग्रेजों के शासन सहित भारतीय लोग लगभग 700 वर्षों से ज्यादा वर्ष तक विदेशी गुलामी में जीते रहे। कुल गुलामी का काल 1,236 वर्ष से भी ज्यादा रहा। अंग्रेजों ने संपूर्ण भारत को अपने अधीन कर लिया था जबकि विदेशी आक्रांता मुगल ऐसा नहीं कर पाए।

सिंध पर बहुत समय तक कभी हिन्दू तो कभी विदेशी मुस्लिम राजा राज करते रहे, लेकिन 1176 ईस्वी में शहाबुद्दीन मुहम्मद गौरी ने सभी को आसानी से उखाड़ दिया। इससे पूर्व सुबुक्तगीन के नेतृत्व में मुसलमानों ने हमले करके पंजाब छीन लिया था और गजनी के सुल्तान महमूद ने 997 से 1030 ई. के बीच भारत पर 17 हमले किए और हिन्दू राजाओं की शक्ति कुचल डाली।

12वीं सदी में इस्लामी आक्रमण बढ़ गए तब उत्तर और केंद्रीय भारत का अधिकांश भाग दिल्ली सल्तनत के अंतर्गत आ गया। बाद में अधिकांश भारत मुगल वंश के अधीन चला गया। लेकिन दक्षिण भारत, महाराष्ट्र और राजस्थान के राजाओं ने कभी मुगल अधीनता स्वीकार नहीं की और वे लड़ते रहे। दक्षिण भारत में विजयनगरम साम्राज्य सबसे शक्तिशाली था।

गजनवी और गौरी : महमूद गजनवी और मुहम्मद गौरी सबसे बड़े आक्रांता थे। महमूद गजनवी ने सिन्धु नदी के पूर्व में तथा यमुना नदी के पश्चिम में बसे साम्राज्यों पर आक्रमण कर कई बार इसे लूटा और यहां की हजारों स्त्रियों को बंदी बनाकर उन्हें अफगान और अरब भेजा। गोर वंश के सुल्तान मुहम्मद गौरी ने उत्तर भारत पर योजनाबद्ध तरीके से हमले किए। उसका उद्देश्य इस्लाम को बढ़ाना था। मुहम्मद गौरी और पृथ्वीराज चौहान के बीच तराईन के मैदान में दो युद्ध हुए। शहाब-उद-दीन मुहम्मद गौरी 12वीं शताब्दी का अफगान सेनापति था, जो 1202 ई. में गौरी साम्राज्य का शासक बना। मुहम्मद गौरी ने मुल्तान पर आक्रमण करने के बाद पाटन (गुजरात) पर आक्रमण किया, जहां उसे मुंह की खानी पड़ी। राजा भीम द्वितीय ने उसे बुरी तरह पराजित करके छोड़ दिया। मोहम्मद गौरी ने भारत में विजित साम्राज्य का अपने सेनापतियों को सौंप दिया और वह गजनी चला गया। बाद में गौरी के गुलाम कुतुबुद्दीन ऐबक ने गुलाम राजवंश की नींव डाली।

गुलाम वंश (1206-1526) : दिल्ली पर तुर्क वंश के 4 लोगों ने राज किया। अंतिम शासक अफगानी था। 5वें वंश को गुलाम वंश कहा गया। इसमें खिलजी, तुगलक, सैयद और लौधी वंश। मुहम्मद गौरी का गुलाम कुतुबुद्दीन ऐबक इस वंश का पहला सुल्तान था। ऐबक का साम्राज्य पूरे उत्तर भारत तक फैला था। इसके बाद खिलजी वंश ने मध्यभारत पर कब्जा किया। चूंकि गुलामों को अपनी योग्यता और अपने कार्यों को अच्छे से प्रदर्शित करना होता है तो उन्होंने भरत के महान स्तंभों, मंदिरों और स्तूपों को तोड़कर उनका इस्लामीकरण करने का कार्य अधिक किया। 1526 में मुगल सल्तनत द्वारा इस इस साम्राज्य का अंत हुआ।

मुगल वंश के अंत के बाद तुर्क वंश के आक्रांताओं ने एक बार फिर भारत पर आक्रमण कर अपनी सत्ता कायम की। इस क्रम में बाबर (1526-1530), हुंमायूं (1530-1556), अकबर (1556-1605), जहांगीर (1605-1627), शाहजहां (1627-1658), औरंगजेब (1658-1707) और अंतिम मुगल बहादुरशाह जफर (1837-1858) ने क्रमश: शासन किया।

अंतिम बादशाह बहादुर शाह जफर के बाद ब्रिटेन का शासन शुरू हुआ। मैसूर के युद्ध के बाद संपूर्ण भारत ब्रिटिश शासन के अंतर्गत आ गया। 18वीं शताब्दी के शुरू में अंग्रेजों की ईस्ट इंडिया कंपनी ने बंबई (मुंबई), मद्रास (चेन्नई) तथा कलकत्ता (कोलकाता) पर कब्जा कर लिया। उधर फ्रांसीसियों की ईस्ट इंडिया कंपनी ने माहे, पांडिचेरी तथा चंद्रानगर पर कब्जा कर लिया। इस तरह ब्रिटेन ने धीरे-धीरे कई छोटी-बड़ी लड़ाइयां लड़कर संपूर्ण भारत को अपने अधीन कर लिया।

7वीं सदी से 1947 तक भारत के हिन्दू और हिन्दू से मुसलमान बने लोग भी गुलामी की जिंदगी जीते रहे हैं। इस दौरान गुलाम वंश के शासकों, मुगलों, अंग्रेजों आदि ने भारत की सांस्कृतिक अस्मिता व अभिमान को कुचलने के साथ ही सबसे बड़े धार्मिक, राजनीतिक और ज्योतिषी प्रतीकों को ध्वस्त करके उसकी जगह अपनी विजेता शक्ति का प्रतीक कायम ‍किया। ये ध्वस्त प्रतीक आज विवादित प्रतीक माने जाते हैं।

तुर्क और अरब के आक्रांताओं ने जब भारत पर आक्रमण किया तो उन्होंने सबसे पहले हिन्दू और बौद्ध धर्म के सबसे बड़े प्रतीकों को ढहाना शुरू किया। उनमें अयोध्या, काशी, मथुरा और उत्तर भारत के तमाम मंदिर, स्मारक, स्थल और स्तंभ थे। इस दौरान उनको अधिक से अधिक संख्‍या में नमाज के लिए मस्जिदें और रहने के लिए महल भी बनवाने थे, इसलिए उन्होंने शुरुआत में अधिकतर मंदिरों को मस्जिद में बदल दिया, तो राजपूताना महलों को अपने रहने और सेना के रुकना का स्थान बना लिया। तुर्क और अरब के आक्रांता तो चले गए। बस मुट्ठीभर ही उनके वंश के लोग बचे होंगे, लेकिन वे अपने पिछे ध्वस्त किए हुए स्थान और धर्मान्तरित किए हुए हिन्दू छोड़ गए। आज भी उत्तर प्रदेश के ऐसे कई परिवार और गांव हैं जहां पर एक भाई हिन्दू है तो दूसरा मुसलमान है। लेकिन शहरों का माहौल बदल गया है। वैसे तो हजारों विवादित स्थल है उनमें से कुछ ध्वस्त स्थल है जैसे नालंदा और तक्षशिला के विश्‍वविद्यालय।

आओ जानते हैं कि भारत में ऐसे कौन कौन से 10 स्थल या स्मारक हैं जो पहले बौद्ध, गुप्त और राजपूत काल में बनवाए गए थे और जिन पर अब विवाद की‍ स्थिति बना दी गई है।

#ताजमहल : आगरा का ताजमहल भारत की शान और प्रेम का प्रतीक चिह्न माना जाता है। उत्तरप्रदेश का तीसरा बड़ा जिला आगरा ऐतिहासिक दृष्टि से काफी महत्वपूर्ण है। भारतीय इतिहास के पन्नों में यह लिखा है कि ताजमहल को शाहजहां ने मुमताज के लिए बनवाया था। वह मुमताज से प्यार करता था। दुनियाभर में ताजमहल को प्रेम का प्रतीक माना जाता है, लेकिन कुछ इतिहासकार इससे इत्तेफाक नहीं रखते हैं। उनका मानना है कि ताजमहल को शाहजहां ने नहीं बनवाया था वह तो पहले से बना हुआ था। उसने इसमें हेर-फेर करके इसे इस्लामिक लुक दिया था। दरअसल, यह हिन्दुओं का 'तेजोमहालय' था।

शब्द ताजमहल के अंत में आए 'महल' मुस्लिम शब्द है ही नहीं, अफगानिस्तान से लेकर अल्जीरिया तक किसी भी मुस्लिम देश में एक भी ऐसी इमारत नहीं है जिसे कि महल के नाम से पुकारा जाता हो। बाद में यह प्रचारित किया गया कि मुमताज-उल-जमानी को ही मुमताज महल कहा जाता था।

प्रसिद्ध शोधकर्ता और इतिहासकार पुरुषोत्तम नागेश ओक ने अपनी शोधपूर्ण पुस्तक में तथ्‍यों के माध्यम से ताजमहल के रहस्य से पर्दा उठाया है। ओक के अनुसार जयपुर राजा से हड़प किए हुए पुराने महल को शाहजहां ने मुमताज की कब्र के रूप में प्रचारित किया। कब्र होने के कारण किसी ने यह नहीं सोचा कि बादशाह ने दरअसल इसे अपनी दौलत रखने का स्थान बनाया था। शाहजहां ने वहां अपनी लूट की दौलत छुपा रखी थी इसलिए उसे कब्र के रूप में प्रचारित किया गया।

लेखकर के अनुसार शाहजहां के दरबारी लेखक 'मुल्ला अब्दुल हमीद लाहौरी' ने अपने 'बादशाहनामा' में मुगल शासक बादशाह का सम्पूर्ण वृतांत 1000 से ज्यादा पृष्ठों मे लिखा है, जिसके खंड एक के पृष्ठ 402 और 403 पर इस बात का उल्लेख है कि शाहजहां की बेगम मुमताज-उल-जमानी जिसे मृत्यु के बाद, बुरहानपुर मध्य प्रदेश में अस्थाई तौर पर दफना दिया गया था और इसके 06 माह बाद, तारीख 15 जमदी-उल- अउवल दिन शुक्रवार को अकबराबाद आगरा लाया गया। फिर उसे महाराजा जयसिंह से लिए गए आगरा में स्थित एक असाधारण रूप से सुंदर और शानदार भवन (इमारते आलीशान) में पुनः दफनाया गया। लाहौरी के अनुसार राजा जयसिंह अपने पुरखों कि इस महला से बेहद प्यार करते थे, पर बादशाह के दबाव में वह इसे देने के लिए तैयार हो गए थे। इस बात की पुष्टि के लिए जयपुर के पूर्व महाराज के गुप्त संग्रह में वे दोनों आदेश अभी तक रखे हुए हैं जो शाहजहां द्वारा ताज भवन समर्पित करने के लिए राजा जयसिंह को दिए गए थे।

इतिहासकारों अनुसार प्रारंभिक दौर में मुस्लिम शासकों के समय प्रायः मृत दरबारियों और तुर्क राजघरानों के लोगों को दफनाने के लिए कब्जे में लिए गए मंदिरों और भवनों का प्रयोग किया जाता था। हुमायूं, अकबर, सफदर जंग आदि ऐसे ही प्राचीन भारतीय भवनों में दफनाएं गए हैं। बाद में हिन्दू से मुसलमान बने लोगों के लिए कब्रिस्तान बनाए गए।

#कुतुबमीनार : कुतुब मीनार को पहले विष्णु स्तंभ कहा जाता था। इससे पहले इसे सूर्य स्तंभ कहा जाता था। इसके केंद्र में ध्रुव स्तंभ था जिसे आज कुतुब मीनार कहा जाता है। इसके आसपास 27 नक्षत्र के आधार पर 27 मंडल थे। इसे वराहमिहिर की देखरेख में बनाया गया था। चंद्रगुप्त द्वितिय के आदेश से यह बना था। ज्योतिष स्तंभों के अलावा भारत में कीर्ति स्तम्भ बनाने की परंपरा भी रही है। खासकर जैन धर्म में इस तरह के स्तंभ बनाए जाते रहे हैं। आज भी देश में ऐसे कई स्तंभ है, लेकिन तथाकथित कुतुब मीनार से बड़े नहीं। राजस्थान के चित्तौड़गढ़ में ऐसा ही एक स्तंभ स्थित है।

ऐसा भी कहते हैं कि समुद्रगुप्त ने दिल्ली में एक वेधशाला बनवाई थी, यह उसका सूर्य स्तंभ है। कालान्तर में अनंगपाल तोमर और पृथ्वीराज चौहान के शासन के समय में उसके आसपास कई मंदिर और भवन बने, जिन्हें मुस्लिम हमलावरों ने दिल्ली में घुसते ही तोड़ दिया था। कुतुबुद्दीन ने वहां 'कुबत−उल−इस्लाम' नाम की मस्जिद का निर्माण कराया और इल्तुतमिश ने उस सूर्य स्तंभ में तोड़-फोड़कर उसे मीनार का रूप दे दिया था।

माना जाता है कि गुलाम वंश के पहले शासक कुतुबुद्दीन ऐबक ने 1199 में कुतुब मीनार का निर्माण शुरू करवाया था और उसके दामाद एवं उत्तराधिकारी शमशुद्दीन इल्तुतमिश ने 1368 में इसे पूरा किया था। लेकिन क्या यह सच है? मीनार में देवनागरी भाषा के शिलालेख के अनुसार यह मीनार 1326 में क्षतिग्रस्त हो गई थी और इसे मुहम्मद बिन तुगलक ने ठीक करवाया था। इसके बाद में 1368 में फिरोजशाह तुगलक ने इसकी ऊपरी मंजिल को हटाकर इसमें दो मंजिलें और जुड़वा दीं। इसके पास सुल्तान इल्तुतमिश, अलाउद्दीन खिलजी, बलबन व अकबर की धाय मां के पुत्र अधम खां के मकबरे स्थित हैं।

उसी कुतुब मीनार की चारदीवारी में खड़ा हुआ है एक लौह स्तंभ। दिल्ली के कुतुब मीनार के परिसर में स्थित यह स्तंभ 7 मीटर ऊंचा है। इसका वजन लगभग 6 टन है। इसे गुप्त साम्राज्य के चन्द्रगुप्त द्वितीय (जिन्हें चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य भी कहा जाता है) ने लगभग 1,600 वर्ष पूर्व बनवाया। यह लौह स्तंभ प्रारंभ से यहां नहीं था। सवाल उठता है कि क्या यह लौह स्तंभ भी कुतुबुद्दीन ऐबक ने बनवाया था? इतनी बड़ी मीनार जब बनी होगी तो यदि यह स्तंभ पहले से यहां रहा होगा तो उसी समय में हट जाना चाहिए था।

गुप्त साम्राज्य के सोने के सिक्कों से यह प्रमाणित होता है कि यह स्तंभ विदिशा (विष्णुपदगिरि/उदयगिरि- मध्यप्रदेश) में स्थापित किया गया था। कुतुबुद्दीन ऐबक ने जैन मंदिर परिसर के 27 मंदिर तोड़े तब यह स्तंभ भी उनमें से एक था। दरअसल, मंदिर से तोड़े गए लोहे व अन्य पदार्थ से उसने मीनार में रिकंस्ट्रक्शन कार्य करवाया था। उनके काल में यह स्तंभ समय बताने का भी कार्य करता था। सम्राट अशोक ने भी कई स्तंभ बनवाए थे, उसी तरह चंद्रगुप्त द्वितीय ने भी कई स्तंभ बनवाए थे। ऐसा माना जाता है कि तोमर साम्राज्य के राजा विग्रह ने यह स्तंभ कुतुब परिसर में लगवाया। लौह स्तंभ पर लिखी हुई एक पंक्ति में सन् 1052 के तोमर राजा अनंगपाल (द्वितीय) का जिक्र है।

जाट इतिहास के अनुसार ऐबक को मीनार तो क्या, अपने लिए महल व किला बनाने तक का समय जाटों ने नहीं दिया। उसने तो मात्र 4 वर्ष तक ही शासन किया। इस मीनार को जाट सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य (विक्रमादित्य) के कुशल इंजीनियर वराहमिहिर के हाथों चौथी सदी के चौथे दशक में बनवाया गया था। यह मीनार दिलेराज जाट दिल्ली के राज्यपाल की देखरेख में बनी थी।

हरिदत्त शर्मा ने अपनी किताब ज्योतिष विश्व कोष में लिखा है कि कुतुब मीनार के दोनों ओर दो पहाड़ियों के मध्य में से ही उदय और अस्त होता है। आचार्य प्रभाकर के अनुसार 27 नक्षत्रों का वेध लेने के लिए ही इसमें 27 भवन बनाए गए थे। 21 मार्च और 21 सितंबर को सूर्योदय तुगलकाबाद के स्थान पर और सूर्यास्त मलकपुर के स्थान पर होता देखा जा सकता है। मीनार का प्रवेश द्वार उत्तर की ओर है न कि इस्लामिक मान्यता के अनुसार पश्चिम की ओर। अंदर की ओर उत्कीर्ण अरबी के शब्द स्पष्ट ही बाद में अंकित किए हुए नजर आते हैं। मुस्लिम विश्वविद्यालय, अलीगढ़ के संस्थापक ने यह स्वीकार किया है कि यह हिन्दू भवन है। स्तंभ का घेरा 27 मोड़ों और त्रिकोणों का है। बाद के लोगों ने कुतुब मीनार को कुतुबुद्दीन ऐबक से जोड़ दिया जबकि 'कुतुब मीनार' का अर्थ अरबी में नक्षत्रीय और वेधशाला होता है। इसका पुराना नाम 'ध्रुव स्तंभ' और 'विष्णु स्तंभ'था। मुस्लिम शासकों ने इसका नाम बदला और इस पर से कुछ हिन्दू चिह्न मिटा दिए जिसके निशान आज भी देखे जा सकते हैं।

राजा विक्रमादित्य के समय में उज्जैन और दिल्ली की कालजयी बस्ती के बीच का 252 फुट ऊंचा स्तंभ है। वराह मिहिर के अनुसार 21 जून को सूर्य ठीक इसके ऊपर से गुजरता है। पड़ोस में जो बस्ती है उसे आजकल महरौली कहते हैं जबकि वह वास्तव में वह मिहिरावली थी। इस मीनार के आसपास 27 नक्षत्र मंडप थे जिसे ध्वस्त कर दिया गया।

यह माना जाता है कि कुववत-उल-इस्लाम मस्जिद और कुतुब मीनार के परिसर में सत्ताइस हिन्दू मंदिरों के अवशेष आज भी मौजूद हैं। महरौली स्थित लौह स्तम्भ जंग लगे बिना विभिन्न संघर्षों का मूक गवाह रहा है और राजपूत वंश के गौरव और समृद्धि की कहानी को बयां करता है।

#लालकिला : कहते हैं कि इतिहास वही लिखता है, जो जीतता है या जो शासन करता है। लाल किला किसने बनवाया था? यदि यह सवाल भारतीयों से पूछा जाए तो सभी कहेंगे शाहजहां ने। मुगल लाल किले को कभी लाल किला नहीं लाल हवेली कहते थे। क्यों? कुछ इतिहासकारों के अनुसार इसे लालकोट का एक पुरातन किला एवं हवेली बताते हैं जिसे शाहजहां ने कब्जा करके इस पर तुर्क छाप छोड़ी थी। दिल्ली का लालकोट क्षेत्र हिन्दू राजा पृथ्वीराज चौहान की 12वीं सदी के अंतिम दौर में राजधानी थी। लालकोट के कारण ही इसे लाल हवेली या लालकोट का किला कहा जाता था। बाद में लालकोट का नाम बदलकर शाहजहानाबाद कर दिया गया।

लाल कोट अर्थात लाल रंग का किला, जो कि वर्तमान दिल्ली क्षेत्र का प्रथम निर्मित नगर था। इसकी स्थापना तोमर शासक राजा अनंगपाल ने 1060 में की थी। साक्ष्य बताते हैं कि तोमर वंश ने दक्षिण दिल्ली क्षेत्र में लगभग सूरज कुण्ड के पास शासन किया, जो 700 ईस्वी से आरम्भ हुआ था। फिर चौहान राजा, पृथ्वी राज चौहान ने 12वीं सदी में शासन ले लिया और उस नगर एवं किले का नाम किला राय पिथौरा रखा था। राय पिथौरा के अवशेष अभी भी दिल्ली के साकेत, महरौली, किशनगढ़ और वसंत कुंज क्षेत्रों में देखे जा सकते हैं।

इतिहासकार मानते हैं कि शाहजहां (1627-1658) ने जो कारनामा तेजोमहल के साथ किया वही कारनामा लाल कोट के साथ। लाल किला पहले लाल कोट कहलाता था। दिल्ली का लाल किला शाहजहां के जन्म से सैकड़ों साल पहले 'महाराज अनंगपाल तोमर द्वितीय' द्वारा दिल्ली को बसाने के क्रम में ही बनाया गया था। महाराजा अनंगपाल तोमर द्वितीय अभिमन्यु के वंशज तथा परमवीर पृथ्वीराज चौहान के नानाजी थे।

शाहजहां ने 1638 में आगरा से दिल्ली को राजधानी बनाया तथा दिल्ली के लाल किले का निर्माण प्रारंभ किया। अनेक मुस्लिम विद्वान इसका निर्माण 1648 ई. में पूरा होना मानते हैं। लेकिन ऑक्सफोर्ड बोडिलियन पुस्तकालय में एक चित्र सुरक्षित है जिसमें 1628 ई. में फारस के राजदूत को शाहजहां के राज्याभिषेक पर लाल किले में मिलता हुआ दिखलाया गया है। यदि किला 1648 ई. में बना तो यह चित्र सत्य का अनावरण करता है।

इसका सबसे बड़ा प्रमाण है कि तारीखे फिरोजशाही में लेखक लिखता है कि सन 1296 के अंत में जब अलाउद्दीन खिलजी अपनी सेना लेकर दिल्ली आया तो वो कुश्क-ए-लाल (लाल प्रासाद/महल ) की ओर बढ़ा और वहां उसने आराम किया।

कई भारतीय विद्वान इसे लाल कोट का ही परिवर्तित रूप मानते हैं। इसमें संदेह नहीं कि लाल किले में अनेक प्राचीन हिन्दू विशेषताएं-किले की अष्टभुजी प्राचीर, तोरण द्वार, हाथीपोल, कलाकृतियां आदि भारतीयों के अनुरूप हैं। शाहजहां के प्रशंसकों तथा मुस्लिम लेखकों ने उसके द्वारों, भवनों का विस्तारपूर्वक वर्णन नहीं किया है।

इतिहास के अनुसार लाल किले का असली नाम 'लाल कोट' है जिसे महाराज अनंगपाल द्वितीय द्वारा सन् 1060 ईस्वी में बनवाया गया था। बाद में इस लाल कोट को पृथ्वीराज चौहान ने ‍जीर्णोद्धार करवाया था। लाल किले को एक हिन्दू महल साबित करने के लिए आज भी हजारों साक्ष्य मौजूद हैं। यहां तक कि लाल किले से संबंधित बहुत सारे साक्ष्य पृथ्वीराज रासो में मिलते हैं।

तारीखे फिरोजशाही के लेखक के अनुसार सन् 1296 के अंत में जब अलाउद्दीन खिलजी अपनी सेना लेकर दिल्ली आया तो वो कुश्क-ए-लाल (लाल प्रासाद/ महल) की ओर बढ़ा और वहां उसने आराम किया। सिर्फ इतना ही नहीं, अकबरनामा और अग्निपुराण दोनों ही जगह इस बात के वर्णन हैं कि महाराज अनंगपाल ने ही एक भव्य और आलीशान दिल्ली का निर्माण करवाया था। शाहजहां से 250 वर्ष पहले 1398 ईस्वी में आक्रांता तैमूरलंग ने भी पुरानी दिल्ली का उल्लेख किया हुआ है।

लाल किले के एक खास महल में सूअर के मुंह वाले चार नल अभी भी लगे हुए हैं। इस्लाम के अनुसार सूअर हराम है। साथ ही किले के एक द्वार पर बाहर हाथी की मूर्ति अंकित है, क्योंकि राजपूत राजा हाथियों के प्रति अपने प्रेम के लिए विख्यात थे। इसी किले में दीवाने खास में केसर कुंड नामक कुंड के फर्श पर कमल पुष्प अंकित है। दीवाने खास और दीवाने आम की मंडप शैली पूरी तरह से 984 ईस्वीं के अंबर के भीतरी महल (आमेर/पुराना जयपुर) से मिलती है, जो कि राजपुताना शैली में बनी हुई है। आज भी लाल किले से कुछ ही गज की दूरी पर बने हुए देवालय हैं जिनमें से एक लाल जैन मंदिर और दूसरा गौरीशंकर मंदिर है, जो कि शाहजहां से कई शताब्दी पहले राजपूत राजाओं के बनवाए हुए हैं। लाल किले के मुख्य द्वार के ऊपर बनी हुई अलमारी या आलिया इस बात का पुख्ता प्रमाण है कि यहां पहले गणेशजी की मूर्ति रखी होती थी। पुरानी शैली के हिन्दू घरों के मुख्य द्वार के ठीक ऊपर या मंदिरों के द्वार के ऊपर एक छोटा सा आलिया बना होता है जिसके अंदर गणेशजी की प्रतिमा विराजमान होती है।

11 मार्च 1783 को सिखों ने लाल किले में प्रवेश कर दीवान-ए-आम पर कब्जा कर लिया था। नगर को मुगल वजीरों ने अपने सिख साथियों को समर्पित कर दिया। उसके बाद इस पर अंग्रेजों ने कब्जा कर लिया।

#आगराकाकिला : उत्तरप्रदेश के आगरा में स्थित आगरा का किला यूनेस्को की विश्व धरोहर स्थलों की सूची में दर्ज है। इस किले में मुगल बादशाह बाबर, हुंमायूं, अकबर, जहांगीर, शाहजहां व औरंगजेब रहते थे। यहीं से उन्होंने आधे भारत पर शासन किया। ये सभी विदेशी थे जिन्हें भारत में तुर्क कहा जाता था।

आगरा का किला मूलतः एक ईंटों का किला था, जो चौहान वंश के राजपूतों के पास था। इस किले का प्रथम विवरण 1080 ईस्वी में आता है, जब महमूद गजनवी की सेना ने इस पर कब्जा कर लिया था। पुरुशोत्तम नागेश ओक की किताब 'आगरे का लाल किला हिन्दू भवन है।' में भी इसका जिक्र है।

सिकंदर लोधी (1487-1517) ने भी इस किले में कुछ दिन गुजारे थे। लोधी दिल्ली सल्तनत का प्रथम सुल्तान था। उसकी मृत्यु भी इसी किले में 1517 में हुई थी। इसके बाद उसके पुत्र इब्राहीम लोधी ने गद्दी संभाली।

पानीपत के युद्ध के बाद यह किला मुगलों के हाथ में आ गया। यहां उन्हें अपार संपत्ति मिली। फिर इस किले में इब्राहीम के स्थान पर बाबर आया और उसने यहीं से अपने क्रूर शासन का संचालन किया।

इतिहासकार अबुल फजल ने लिखा है कि यह किला एक ईंटों का किला था जिसका नाम बादलगढ़ था। यह तब खस्ता हालत में था। अकबर ने इसका जीर्णोद्धार करवाया। हिन्दू शैली में बने किले के स्तंभों में बाद में तुर्क शैली में नक्काशी की गई। बाद में अकबर के पौत्र शाहजहां ने इसे अपने तरीके से रंग-रूप दिया। उसने किले के निर्माण के समय राजपुताना समय की कई पुरानी इमारतों व भवनों को तुड़वा भी दिया था।

#ढाई_दिन_का_झोपड़ा : माना जाता है कि ख्‍वाजा साहब (1161 ईस्वी) की दरगाह से एक फर्लांग आगे त्रिपोली दरवाजे के पार पृथ्वीराज चौहान के एक पूर्वज द्वारा बनवाए गए 3 मंदिरों के परिसर में एक संस्कृत पाठशाला थी जिसकी स्थापना पृथ्वीराज चौहान के पूर्वज विग्रहराज तृतीय ने लगभग 1158 ईस्वी में की थी। वह साहित्य प्रेमी था और स्वयं नाटक लिखता था। उनमें से एक हरकेली नाटक काले पत्थरों पर उत्कीर्ण किया गया, जो अजमेर स्थित अकबर किला के राजपुताना संग्रहालय में आज भी संग्रहित है।

इसी संग्रहालय में उक्त परिसर में लाई गई लगभग 100 सुंदर मूर्तियां एक पंक्ति में रखी हुई हैं। ऐसा ही एक नाटक और मिला, जो राजकवि सोमदेव द्वारा रचित था। बलुआ पत्थर की मूर्तियां लगभग 900 वर्षों से सुरक्षित हैं लेकिन सभी मूर्तियों के चेहरे व्यवस्थित रूप से तोड़ दिए गए हैं। मंदिर परिसर के अहाते में भी विशाल भंडारगृह है जिसमें और भी अनेक सुंदर मूर्तियां हैं। अपेक्षाकृत कम महत्व के अवशेष अहाते में इस प्रकार पड़े हैं कि जो चाहे उन्हें ले जाए। पिछले 800 वर्षों से यह परिसर अढ़ाई दिन का झोपड़ा नाम से विख्यात है। यह नाम इसलिए रखा गया है, क्योंकि पहले परिसर के 3 मंदिरों को ढाई दिन के भीतर मस्जिद के रूप में बदल दिया गया था।

यह मस्जिद वर्तमान में राजस्थान के अजमेर में स्थित है। पहले यह संस्‍कृत पाठशाला थी। इसे मोहम्‍मद गौरी ने मस्जिद में तब्‍दील कर दिया। इसे मस्जिद का लुक देने के लिए अबु बकर ने डिजाइन तैयार किया था। अब लोग इसे ढाई दिन का झोपड़ा कहते हैं। क्यों? इसलिए कि कट्टरपंथियों ने यह प्रचार किया कि इस मस्जिद का निर्माण ढाई दिन में किया गया है। मस्जिद का अंदरुनी हिस्‍सा किसी मस्जिद की तुलना में मंदिर की तरह दिखता है।

तराईन के दूसरे युद्ध (1192) के बाद मोहम्मद गौरी ने पृथ्वीराज चौहान को हरा दिया था, तब वह विजेता के रूप में अजमेर से गुजरा था। वह यहां मंदिर से इतना भयभीत हुआ कि उसने उसे तुरंत नष्ट करके उसके स्थान पर मस्जिद बनाने की इच्छा प्रकट की। उसने अपने गुलाम सेनापति को सारा काम 60 घंटे में पूरा करने का आदेश दिया ताकि लौटते समय वह नई मस्जिद में नमाज अदा कर सके। ढाई दिन के झोपड़े को बाद में पूरा किया गया और उसमें सुंदर नक्काशीदार दरवाजा लगाया गया।

#काशी_विश्वनाथ : द्वादश ज्योतिर्लिंगों में प्रमुख काशी विश्वनाथ मंदिर अनादिकाल से काशी में है। यह स्थान शिव और पार्वती का आदि स्थान है इसीलिए आदिलिंग के रूप में अविमुक्तेश्वर को ही प्रथम लिंग माना गया है। इसका उल्लेख महाभारत और उपनिषद में भी किया गया है। ईसा पूर्व 11वीं सदी में राजा हरीशचन्द्र ने जिस विश्वनाथ मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया था उसका सम्राट विक्रमादित्य ने जीर्णोद्धार करवाया था। उसे ही 1194 में मुहम्मद गौरी ने लूटने के बाद तुड़वा दिया था।

इतिहासकारों के अनुसार इस भव्य मंदिर को सन् 1194 में मुहम्मद गौरी द्वारा तोड़ा गया था। इसे फिर से बनाया गया, लेकिन एक बार फिर इसे सन् 1447 में जौनपुर के सुल्तान महमूद शाह द्वारा तोड़ दिया गया। पुन: सन् 1585 ई. में राजा टोडरमल की सहायता से पं. नारायण भट्ट द्वारा इस स्थान पर फिर से एक भव्य मंदिर का निर्माण किया गया। इस भव्य मंदिर को सन् 1632 में शाहजहां ने आदेश पारित कर इसे तोड़ने के लिए सेना भेज दी। सेना हिन्दुओं के प्रबल प्रतिरोध के कारण विश्वनाथ मंदिर के केंद्रीय मंदिर को तो तोड़ नहीं सकी, लेकिन काशी के 63 अन्य मंदिर तोड़ दिए गए।

डॉ. एएस भट्ट ने अपनी किताब 'दान हारावली' में इसका जिक्र किया है कि टोडरमल ने मंदिर का पुनर्निर्माण 1585 में करवाया था। 18 अप्रैल 1669 को औरंगजेब ने एक फरमान जारी कर काशी विश्वनाथ मंदिर ध्वस्त करने का आदेश दिया। यह फरमान एशियाटिक लाइब्रेरी, कोलकाता में आज भी सुरक्षित है। उस समय के लेखक साकी मुस्तइद खां द्वारा लिखित 'मासीदे आलमगिरी' में इस ध्वंस का वर्णन है। औरंगजेब के आदेश पर यहां का मंदिर तोड़कर एक ज्ञानवापी मस्जिद बनाई गई। 2 सितंबर 1669 को औरंगजेब को मंदिर तोड़ने का कार्य पूरा होने की सूचना दी गई थी। औरंगजेब ने प्रतिदिन हजारों ब्राह्मणों को मुसलमान बनाने का आदेश भी पारित किया था। आज उत्तर प्रदेश के 90 प्रतिशत मुसलमानों के पूर्वज ब्राह्मण है।

सन् 1752 से लेकर सन् 1780 के बीच मराठा सरदार दत्ताजी सिंधिया व मल्हारराव होलकर ने मंदिर मुक्ति के प्रयास किए। 7 अगस्त 1770 ई. में महादजी सिंधिया ने दिल्ली के बादशाह शाह आलम से मंदिर तोड़ने की क्षतिपूर्ति वसूल करने का आदेश जारी करा लिया, परंतु तब तक काशी पर ईस्ट इंडिया कंपनी का राज हो गया था इसलिए मंदिर का नवीनीकरण रुक गया। 1777-80 में इंदौर की महारानी अहिल्याबाई द्वारा इस मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया गया था।

अहिल्याबाई होलकर ने इसी परिसर में विश्वनाथ मंदिर बनवाया जिस पर पंजाब के महाराजा रणजीत सिंह ने सोने का छत्र बनवाया। ग्वालियर की महारानी बैजाबाई ने ज्ञानवापी का मंडप बनवाया और महाराजा नेपाल ने वहां विशाल नंदी प्रतिमा स्थापित करवाई।

सन् 1809 में काशी के हिन्दुओं ने जबरन बनाई गई मस्जिद पर कब्जा कर लिया था, क्योंकि यह संपूर्ण क्षेत्र ज्ञानवापी मं‍डप का क्षेत्र है जिसे आजकल ज्ञानवापी मस्जिद कहा जाता है। 30 दिसंबर 1810 को बनारस के तत्कालीन जिला दंडाधिकारी मि. वाटसन ने 'वाइस प्रेसीडेंट इन काउंसिल' को एक पत्र लिखकर ज्ञानवापी परिसर हिन्दुओं को हमेशा के लिए सौंपने को कहा था, लेकिन यह कभी संभव नहीं हो पाया।

इतिहास की किताबों में 11 से 15वीं सदी के कालखंड में मंदिरों का जिक्र और उसके विध्वंस की बातें भी सामने आती हैं। मोहम्मद तुगलक (1325) के समकालीन लेखक जिनप्रभ सूरी ने किताब 'विविध कल्प तीर्थ' में लिखा है कि बाबा विश्वनाथ को देव क्षेत्र कहा जाता था। लेखक फ्यूरर ने भी लिखा है कि फिरोजशाह तुगलक के समय कुछ मंदिर मस्जिद में तब्दील हुए थे। 1460 में वाचस्पति ने अपनी पुस्तक 'तीर्थ चिंतामणि' में वर्णन किया है कि अविमुक्तेश्वर और विशेश्वर एक ही लिंग है।

#कृष्णजन्मभूमि : मथुरा में भगवान कृष्ण की जन्मभूमि है और उसी जन्मभूमि के आधे हिस्से पर बनी है ईदगाह। औरंगजेब ने 1660 में मथुरा में कृष्ण मंदिर को तुड़वाकर ईदगाह बनवाई थी।

जन्मभूमि का इतिहास : जहां भगवान कृष्ण का जन्म हुआ, वहां पहले वह कारागार हुआ करता था। यहां पहला मंदिर 80-57 ईसा पूर्व बनाया गया था। इस संबंध में महाक्षत्रप सौदास के समय के एक शिलालेख से ज्ञात होता है कि किसी 'वसु' नामक व्यक्ति ने यह मंदिर बनाया था। इसके बहुत काल के बाद दूसरा मंदिर विक्रमादित्य के काल में बनवाया गया था।

इस भव्य मंदिर को सन् 1017-18 ई. में महमूद गजनवी ने तोड़ दिया था। बाद में इसे महाराजा विजयपाल देव के शासन में सन् 1150 ई. में जज्ज नामक किसी व्यक्ति ने बनवाया। यह मंदिर पहले की अपेक्षा और भी विशाल था जिसे 16वीं शताब्दी के आरंभ में सिकंदर लोदी ने नष्ट करवा डाला।

क्रमशः......