बुधवार, अप्रैल 08, 2020

उल्टा पुल्टा तबलीगी मूसलिमि जमात का इतिहास

तब्लीग़ी जमात के बारे में टी.वी. पर धुँआधार बहसें होते, काँय काँय मचते एक सप्ताह हो गया मगर यह मूल विषय कि "सरकार के आदेशों की लॉक डाउन और कर्फ़्यू के बाद भी बड़े समूह ने अवहेलना क्यों की" छोड़ कर सारी दुनिया की बातें हो लीं। दिल्ली के निजामुद्दीन में स्थित मरकज़ में जाने कहाँ कहाँ से हज़ारों इस्लामी इकट्ठे हुए और देश के विभिन्न हिस्सों में क फैल गए। यह भारत में ही नहीं हुआ बल्कि पाकिस्तान, बंग्लादेश, मलेशिया आदि अनेक देशों में हुआ, हो रहा है। आइये इसके कारण की छान फटक करते हैं।
तब्लीग़ी जमात का जन्म आर्य समाज की शुद्धियों को रोकने के लिये हुआ था। आर्य समाज ने हज़ारों ऐसे मुसलमानों को शुद्ध कर वैदिक आर्य बनाया जो किसी काल में भ्रष्ट हो कर इस्लामी हो गए थे। इनमें बहुतेरे ऐसे थे जिनके रीत-व्यवहार हिन्दुओं के से थे। आर्य समाज के प्रताप को देख कर इस्लामी शुद्धता के केंद्र देवबंद के इलाक़े के ही एक मुल्ला मुहम्मद इलियास कांधलवी ने तब्लीग़ी जमात को शुरू किया। तब्लीग़ी जमात से हिसाब से मुसलमान ठीक रस्ते पर नहीं चल रहे और उन्हें अस्ली इस्लाम को अपनाना चाहिए अतः अब जानना ज़रूरी है कि अस्ली इस्लाम क्या है ?
इस्लाम के दो आधार क़ुरआन और हदीस हैं और दोनों का केंद्र मुहम्मद है। इस्लाम के अनुसार क़ुरआन में वही या अल्लाह की भेजी हुई आयतें हैं और हदीस में अल्लाह के पैग़ंबर का कहा हुआ, जिया हुआ जीवन है। हदीस को वही ग़ैर मतलू यानी बिना पढ़ी गयी वही और हदीस को क़ुरआन मुतवातिर कहा जाता है। ग़ैर मुस्लिम हदीसों से बहुत परिचित नहीं हैं मगर मुसलमानों के जीवन व्यवहार हदीस से ही निर्देशित होते हैं। हदीसों में मुसलमानों के खाने-पीने, मल-मूत्र त्यागने, स्नान करने, सैक्स करने, औरतों-गुलामों-लौंडियों के साथ व्यवहार, कपड़े पहनने-उतारने, जिहाद, जिहाद में ग़ैर-मुस्लिमों से लूटे गए माल {औरतों, बच्चों सहित } के बँटवारे, शिकार, श्रृंगार, शायरों, कुत्तों, छिपकलियों, गिरगिटों, चीटियों, क़यामत अर्थात दुनिया जहान के बारे में मुहम्मद के फ़ैसले, घोषणायें हैं। यह सारे फ़ैसले प्रत्येक मुसलमान को अपने जीवन में उतारने अनिवार्य हैं। इसी का नाम इस्लाम है।
प्रत्येक मुसलमान से अपेक्षा होती है कि वो इन घोषणाओं, फैसलों पर कोई सवाल उठाये बिना इन्हें अपने जीवन में उतारे यानी मुहम्मद का शब्दशः अनुसरण करे। इस्लाम में बुद्धि, जिज्ञासा, शंका का कोई स्थान नहीं है या कहें कि वो तीसरे स्थान पर आती है। बुद्धि, जिज्ञासा, शंका सदैव क़ुरआन और हदीस के संदर्भ में ही कार्य कर सकती हैं। मुहम्मद का जीवन प्रत्येक दृष्टि से इतना पाक और अनुकरणीय बताया जाता है कि उस पर सवाल उठाना किसी इस्लामी देश में क्या भारत, फ़्रांस, ब्रिटेन में भी मृत्यु को आमंत्रण देना हो सकता है। स्वयं क़ुरआन में सूरा अल अहज़ाब में 36वीं आयत घोषणा करती है "और न किसी ईमान वाले पुरुष को और न किसी ईमान वाली स्त्री को यह हक़ है कि जब अल्लाह और उसका रसूल किसी बात का फ़ैसला कर दें तो उन्हें अपने मामले में कोई अधिकार रहे और जो कोई अल्लाह और उसके रसूल की अवज्ञा करे तो वह खुला गुमराही में पड़ गया"
इस्लामियों के लिये मुहम्मद का जीवन अल्लाह के वचनों की साक्षात् अभिव्यक्ति है। इस्लाम में दीन और दौला अंतर्गुम्फित हैं। यह राजनैतिक और सामरिक व्यवहार है। शासन तंत्र से इसका गहन संबंध है। हदीसों का संकलन मुहम्मद इस्माईल अल बुख़ारी, मुस्लिम इब्नुल हज्जाज़, अबू ईसा मुहम्मद अत तिरमिज़ी, अबू दाऊद अस-सज़िस्तानी आदि ने किया। इनमें बुख़ारी और मुस्लिम सर्वाधिक प्रतिष्ठित और मान्य हैं। हदीस और क़ुरआन के प्रकाश में ही इस्लामियों के फ़ैसले लिये जाते हैं या लिये जाने चाहिये।
आपको इमराना कांड स्मरण होगा। छह जून 2005 को हुई यह घटना में मुज़फ़्फ़रनगर की इमराना ने आरोप लगाया था कि उसके ससुर ने उस के साथ बलात्कार किया है। न्याय की दृष्टि से अक़्ल को बिल्कुल ताक़ पर रखते हुए मौलवियों ने फ़तवा दिया था कि बलात्कार के बाद इमराना को अपने पति को अपना बेटा मानना होगा क्योंकि उसका निकाह ख़ारिज हो चुका है। सारे हाहाकार के बाद भी यह बात चर्चा में नहीं आयी कि इस फ़तवे का आधार क़ुरआन और हदीस ही थीं। अल्लाह के पैग़ंबर ने स्वयं अपने गोद लिये बेटे ज़ैद की बीबी ज़ैनब से निकाह किया था। इसकी छूट स्वयं अल्लाह ने अपने पैग़ंबर को क़ुरआनी आयत भेज कर दी। इस प्रकार किसी इस्लामी ससुर के लिये अपने बेटे की बीबी यानी अपनी बहू से निकाह जायज़ है।
एयर इंडिया हैदराबाद की घटना भी यही है। इममें एक 60-62 साल का शेख़ एक 9 साल की बच्ची के साथ प्लेन में बैठा था। बच्ची रो रही थी। एयर होस्टेस ने लड़की से बात करनी चाही तो शेख़ ने हस्तक्षेप किया और बताया कि ये मेरी बीबी है। एयर होस्टेस ने पुलिस बुला ली और शेख़ को पकड़वा दिया। 30-35 साल पुरानी इस घटना पर बहुत हंगामा मचा मगर यह बात छुपा ली गयी थी कि कुछ दिन बाद वो शेख़ अपनी बच्ची-बेगम को ले कर अरब चला गया। यह भी इसी लिये सम्भव हुआ कि हदीसों के अनुसार स्वयं अल्लाह के पैग़ंबर ने 51 बरस की आयु में 6 बरस की आयशा से निकाह किया था और 3 वर्ष बाद जब आयशा 9 बरस की हुईं और स्वयं 54 बरस के हुए तो शारीरिक संबंध स्थापित किये।
Narrated Hisham's father:
Khadija died three years before the Prophet departed to Medina. He stayed there for two years or so and then he married 'Aisha when she was a girl of six years of age, and he consummated that marriage when she was nine years old. (Sahih Al-Bukhari, Volume 5, Book 58, Number 236)
Narrated 'Aisha:
that the Prophet married her when she was six years old and he consummated his marriage when she was nine years old, and then she remained with him for nine years (i.e., till his death). (Sahih Al-Bukhari, Volume 7, Book 62, Number 64; see also Numbers 65 and 88)
Aisha said: The Apostle of Allah (may peace be upon him) married me when I was seven years old. The narrator Sulaiman said: Or six years. He had intercourse with me when I was nine years old. (Sunan Abu Dawud, Number 2116)
शंकाओं, प्रश्नों को रोकने के लिये तलवार का भय दिखाया जाता है। आतंक फैलाया जाता है। 1981 में एक तक़रीर में इमाम ख़ुमैनी ने कहा था "मेहराब {मस्जिद} का मतलब है जंग की जगह। मेहराबों से जंग आगे बढ़नी चाहिये। जैसा कि इस्लाम की सभी जंगों की कार्यवाही मेहराबों से शुरू हुई। रसूल के पास दुश्मनों को मरने के लिये तलवार थी.हमारे पवित्र इमाम लड़ाका रहे हैं। वे सब फ़ौजी थे। वो लोगों की हत्याएं करते थे। हमें एक ख़लीफ़ा की ज़रूरत जो हाथों को काट सके, सिर धड़ से उड़ा सके और पत्थर मार मार कर लोगों की हत्या का हुक्म दे सके"
चौदह सौ वर्ष पुराने दीन इस्लाम की कल्पना इस रूप में हुई थी कि संसार को मसलमान बना लिया जायेगा। वो अब तक नहीं बना मगर अरब में तेल की खोज के बाद यह मिशन पुनर्जीवित हो उठा है। भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश, मलेशिया, इंडोनेशिया आदि सभी जगहों के मुसलमानों को कट्टर मुसलमान बनाने, बचे हुए काफ़िरों को मुसलमान बनाने अर्थात ईमान की दावत देने का कार्य ज़ोर शोर से चला रहा है। तब्लीग़ी जमात यही कर रही है।
इस्लाम स्वभाव से ही कठमुल्लावादी बल्कि उद्धत, आक्रामक कठमुल्लावादी प्रकृति का है। अल्लाह के पैग़ंबर मुहम्मद का अंतिम ख़ुत्बा है कि " आज से तुम्हारा दीन मुकम्मल हो गया" यानी मनुष्य के आचार-विचार सदैव के लिये क़ुरआन और हदीस की दृष्टि से तय कर दिए गए। उसमें कोई परिवर्तन अब नहीं हो सकता। तब्लीग़ी जमात, देवबंदी मदरसे ही हैं जो भारत, बांग्लादेश, मलेशिया, इंडोनेशिया, फिलीपींस, फ़्रांस, इंग्लैण्ड, जर्मनी, बेल्जियम आदि विभिन्न देशों में जनसांख्यकीय परिवर्तन कर रहे हैं, जिन्होंने ग़ैर मुस्लिम देशों के नेतृत्व को इस्लामी दबाव में लिया है, जो दारुल हरब को दारुल इस्लाम बनाने के एजेंडे पर रात-दिन लगे हुए हैं।
इस्लाम किसी भी ग़ैरइस्लामी व्यवस्था, विश्वास, सत्ता को काफ़िर मानता है अतः ग़ैरइस्लामी व्यवस्था की आज्ञा का पालन करना, उसकी बात मानना कुफ़्र समझता है। फिर हाथ मिलाना, फूंकना, थूक आँखों पर लगाना, मुँह पर मलना, ज़बान चूसना तो अल्लाह के पैग़ंबर की परम्परा, व्यवहार है। इस्लाम की तब्लीग़ करने वाले अपने लोगों को मानसिक रूप से कुंद करते हैं और इसका सदियों का आज़माया हुआ तरीक़ा लगातार आदेशों का पालन कराना है। मुसलमानों से कुछ सामान्य व्यवहार की बातें देखिये।
फर्श पर बैठना खाना फ़र्श पर बैठ कर खाना, दायें हाथ से ही खाना, खाते समय चुप नहीं रहना, तीन उँगलियों से खाना खाने के बाद उँगलियाँ ज़रूर चाटना, दायें हाथ से पानी पीना, बायें हाथ से शैतान पानी पीता है, बैठ कर पानी पीना, हर घूँट को तीन साँस में पीना फिर बर्तन मुँह से हटाना, दाहिनी करवट सोना, दाहिनी हथेली दायें गाल के नीचे रख कर सोना, सोने से पहले सूरा इख़्लास सूरा फ़लक सूरा नास पढ़ना, इसके बाद तीन बाद बदन झटकना, कपड़ा पहनते समय दायें हिस्से से पहनना और उतारते समय बाएं हिस्से से उतारना, जूता पहनते समय पहले दाएं पैर का फिर बाएं पैर का जूता पहनना, शौचालय में जाते समय सर ढंका रखना, शौचालय में घुसते समय दुआ पढ़ना, शौचालय में पहले बाँया पैर रखना, शौचालय से बाहर आते समय पहले दाँया पैर निकालना, मस्जिद में जाते समय पहले दायाँ पैर निकालना और बाहर आते समय बाँया पैर रखना, नमाज़ से पहले पानी से तीन बार कुल्ला, चेहरे को तीन बार धोना, नाक के दोनों छेदों में तीन बार पानी डाल कर साफ़ करना, दाहिने हाथ की तीन बार कोहनी तक फिर बायें हाथ को तीन बार कोहनी तक साफ़ करना, भीगे हाथ से गले के चारों ओर साफ़ करना, भीगी हुई पहली ऊँगली से कान के भीतर और अंगूठे से बाहरी भाग की सफाई आदि आदि।
यह सूची बहुत लम्बी है। इन सब के पालन करने का दबाव इस्लामियों को हर समय आशंकित, चिंतित बनता है और वो हमेशा इस आशंका से ग्रसित रहते हैं कि कुछ ग़लती न हो जाये। यही कुंठाएं उनको सहज नहीं बनने देतीं। उन्हें हर समय जहन्नुम की आग का भी रहता है और वो इसकी भरपाई इस्लामियों की संख्या बढ़ाने पर जन्नत मिलने के आश्वासन, क़ुरआन कंठस्थ करने से जन्नत जाने का पुरस्कार से करते हैं। ऐसा नहीं है कि मुसलमान मदरसों के बालक प्रेमी वातावरण को नहीं जानते मगर तीन पीढ़ियों के लोगों के जन्नत जाने का मानसिक दबाव उन्हें अपने बच्चों को होम करने पर बाध्य करता है।
मानसिक रूप से इतने दास समूह से तभी कोई बुद्धिगम्य बात मनवाई जा सकती है जब इन कुढ़ब बातों को, कालबाह्य मानसिकता को तार्किक चुनौती दी जाये। यह कार्य आज से सौ वर्ष पहले इसी धरती पर हुआ था और ऋषि दयानंद सरस्वती जी द्वारा सत्यार्थ प्रकाश लिखी गयी थी। इस पुस्तक में ईसाईयत और इस्लाम का प्रखर खंडन है। इसका प्रचार साथ ही इस बात की महती आवश्यकता है कि इस अराष्ट्रीय समाज का नेतृत्व बदला जाये। जब तक यह नहीं होगा यह समूह राष्ट्र के पेट में बिना पचे पत्थर की तरह पड़ा रहेगा और रह रह कर पीड़ा देगा।
यह केवल पुलिस, प्रशासन की समस्या नहीं है बल्कि राष्ट्र को अराष्ट्रीय चिंतन द्वारा चुनौती है। इससे पूरी कठोरता से निबटना ही उपाय है
तुफ़ैल चतुर्वेदी

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें