बुधवार, अप्रैल 25, 2012

कमजोर सरकार और गैरजिम्मेवार पत्रकारिता


कमजोर सरकार और गैरजिम्मेवार पत्रकारिता

रघु ठाकुर


पिछले कई माह से थल सेना अध्यक्ष बीके सिंह का विवाद समाचार पत्रों और टीवी चैनलों में प्रमुखता से छाया रहा है. थल सेना अध्यक्ष ने पहले अपने जन्म को 1950 के बजाय 1951 से गणना करने का आरोप रक्षा मंत्रालय पर लगाया जबकि उन्होंने स्वतः ही अपनी आयु दर्शाते समय अपना जन्म वर्ष 1950 लिखा था तथा उसी के आधार पर तीन पदोन्नतियॉं भी प्राप्त की थी. ’’सेना कानून ’’ के अनुसार अगर किसी अधिकारी की उम्र के संबंध में कोई त्रुटि हो तो वह अपने सेवाकाल के एक वर्ष के अंदर उसे सुधार हेतु प्रस्तुत कर सकता है. परन्तु हमारे देश के जनरल को 40 वर्ष की सेवा पूरी होने तक अपने आयु वर्ष का ज्ञान नहीं हुआ तथा ना ही उन्होंने आयु वर्ष सुधरवाने हेतु कुछ पहल की.
वी के सिंह

पिछले कई वर्षों से हथियारों की खरीद आवश्यकता की तुलना में कम हुई थी क्योंकि 1988 के बोफोर्स कांड ने स्व. राजीव गांधी के ऊपर राजनैतिक संकट ला दिया था और बाद में एनडीए शासनकाल में जार्ज फर्नाडीस के रक्षा मंत्रित्वकाल में भी हथियारों तथा सैन्य सामग्री की खरीद विवादित रही. इसलिये आम तौर पर पिछले व वर्तमान रक्षामंत्री हथियार खरीद से लगभग बचने का प्रयास करते रहे हैं.

अभी पखवाड़े भर में दो महत्वपूर्ण घटनायें घटीं. एक- इन्हीं जनरल बीके सिंह द्वारा प्रधानमंत्री को लिखा हुआ पत्र, समाचार पत्रों में लीक हुआ था. इस पत्र में यह कहा गया था कि भारतीय सेना के पास जो हथियार व गोला बारूद है, वह पुराना पड़ चुका है तथा सामरिक आवश्यकताओं की तुलना में अपर्याप्त है.

इस समाचार से भी देश में एक चिंता व भय का वातावरण बना है और राष्ट्रीय सुरक्षा के समक्ष गंभीर प्रश्न चिन्ह खड़े हुये हैं. इसी बीच यह भी समाचार आया कि भारत से ज्यादा हथियार चीन खरीदता है. चूंकि आम भारतीय 1962 के बाद से चीन को भारत का शत्रु जैसा मानता है तथा चीन से भारत की सीमाओं को ज्यादा खतरा मानता है और जो है भी. अतः राष्ट्रीय सुरक्षा की चिंता बढ़ना और स्वाभाविक था. 1962 में चीनी हमले के समय भी हथियार व गोला बारूद पुराने थे अतः इन दोनों समाचारों को देश के आम नागरिकों ने लगभग साथ जोड़कर पढ़ा व चिंता, भय में तब्दील होने लगी.

अब इस कड़ी में एक और घटना घटी कि इंडियन एक्सप्रेस जैसे सत्ता प्रतिष्ठानों एवं सत्ता क्षेत्रों में प्रतिष्ठित अखबार ने एक सनसनीखेज कहानी छापी जिसमें कहा गया कि 16-17 जनवरी 2012 को जब सेना अध्यक्ष जनरल बीके सिंह ने अपनी उम्र के विवाद को लेकर सर्वोच्च न्यायालय में याचिका दायर की थी, उसी रात हिसार और आगरा से सेना की दो टुकड़ियां दिल्ली की ओर कूच कर गई थीं.

इसके बाद सेना सचिव श्री शर्मा को विदेश से बुलाया गया और सेना के बड़े अधिकारियों को बुलाया गया तथा विस्तृत पूछताछ व जांच के बाद इस घटना को तथ्यहीन पाया गया. अगले दिन इस समाचार को देश के अन्य समाचार पत्रों ने भी प्रमुखता से छापा और सरकार की ओर से सफाई भी छपी कि यह एक प्रकार की मोकड्रिल यानी कृत्रिम अभ्यास थी, जो सेना के अभ्यासों का एक आम हिस्सा है.

इस सारे घटनाक्रम में कुछ बिन्दु महत्वपूर्ण ढंग से उभरकर आते हैं जिनकी विस्तृत जॉंच होना चाहिये-

1. थल सेना अध्यक्ष अपना कार्यकाल एक वर्ष क्यों बढ़ाना चाहते हैं ? इस वर्ष जो हथियारों की खरीद का निश्चय हुआ है, जिसके लिये वर्ष 2012-13 के आम बजट में रक्षा के लिये 1 लाख 92 हजार करोड़ रुपये की भारी-भरकम राशि रखी गई है, इस खरीदी और उम्र विवाद के बीच कहीं कोई संबंध तो नहीं है ?

2. पिछले दिनों भारत ने लगभग 55 हजार करोड़ का हथियार फ्रांस से खरीदना तय किया है. यह सौदा आखिर तक लगभग 1 लाख करोड़ तक जा सकता है. यह एक सुविदित तथ्य है कि फ्रांस के मुकाबले अमेरीका इन हथियारों की बिक्री के लिये अत्यधिक उत्सुक था और प्रयासरत भी था. यहां तक कि जब यह ठेका भारत ने फ्रांसीसी कम्पनी को दिया तब अमरीकी सरकार के मंत्री ने जाहिर तौर पर घोर निराशा व्यक्त की थी और इसे अपने राजदूत की असफलता माना था. यह भी एक महत्वपूर्ण बिंदु है, जिसकी जांच होनी चाहिये कि भारत सरकार की सामरिक सामग्री की खरीदी के ताजे निर्णयों और उपरोक्त घटनाओं के बीच कहीं कोई संबंध तो नहीं है ?

3. सर्वोच्च न्यायालय ने थल सेना अध्यक्ष की याचिका को न केवल नकारा है बल्कि उनके वकील को लगभग डांटते हुये कहा कि इस याचिका में कोई दम नहीं है. या तो आप वापिस करें अन्यथा हम इसे खारिज करते हैं. यह भी एक प्रकार का सर्वोच्च न्यायालय का उच्च वर्गीय और उच्च पदीय शिष्टाचार ही था कि उन्होंने याचिका को खारिज करने के बजाय वापिस करने का सुझाव दिया परन्तु जनरल ने इसके बावजूद भी अपनी महत्वाकांक्षाओं को सीमित नहीं किया और बयान दिया कि वे ’’ सेना के सम्मान के लिये लड़ रहे है’.’’ जनरल की उम्र कितनी है, कौन सी सही है, कौन सी गलत है, यह सेना अध्यक्ष का निजी मसला हो सकता है, निजी मान सम्मान का हो सकता है पर इसका सेना के सम्मान से क्या संबंध ? वैसे भी सेना का सम्मान तो जनरल ने गिराया है, जिन्होंने अपनी जन्मतिथि बदलवाने को न केवल मुद्दा बनाया बल्कि झूठी लड़ाई लड़ने सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचे. क्या सेनाध्यक्ष की जन्मतिथि नहीं बदलने से सेना झूठी हो गई या फिर सेनाध्यक्ष झूठे साबित हुये?

4. इंडियन एक्सप्रेस ने इस कहानी को छापा परन्तु इस बात को दृष्टि ओझल कर दिया कि वह एक खतरनाक औेर उत्प्रेरक समाचार भी हो सकता है. प्रथमतः तो यह है कि 16 - 17 जनवरी की घटना का रहस्योद्घाटन अचानक 50 दिनों के बाद कैसे हुआ व क्यों हुआ ? ऐसी सूचनायें स्वतः जनरल के अलावा कौन दे सकता है ? व क्यों देगा ? अब यह समाचार आये हैं कि किसी केन्द्रीय मंत्री का हाथ इसे छपवाने में है. इस सूचना की भी जांच कर प्रधानमंत्री को तत्काल कार्यवाही करना चाहिये तथा ऐसा कोई गद्दार मंत्री अगर है तो उसे न केवल बर्खास्त करना चाहिये, बल्कि उसके विरूद्ध राष्ट्रद्रोह का मुकदमा दर्ज होना चाहिये.
इस समाचार को लेकर भी जनरल का बयान चालाकी भरा है. उन्होंने मीडिया का जिक्र करते हुये कहा ’’ एक अखबार में यह खबर है कि यह एक केन्द्रीय मंत्री के इशारे पर किया गया.’’ हो सकता है कि नौकरशाही का एक वर्ग गलत इनपुट दे रहा हो. जनरल का यह बयान चालाकीपूर्ण बर्ताव है. आखिर ऐसे समाचार के बारे में पता कराना क्या जनरल का वैधानिक दायित्व व काम का हिससा नहीं है ? कहीं वे अपने बचाव के लिये तो विषय से नहीं हटना चाह रहे. 

5. भाजपा नेता लालकृष्ण अडवानी इतने अधिक सत्ता उन्मुख हो रहे हैं कि वे हर घटना को केवल चुनावी लाभ हानि की दृष्टि से देखते हैं. उन्होंने इसे सेना व सरकार के बीच के संबंध ‘निकृष्टतम’ के रूप में व्यक्त किया है. जबकि इस प्रकरण में सेना कहीं नहीं है, केवल जनरल एक व्यक्ति हैं. फिर एनडीए शासनकाल में तत्कालीन रक्षा मंत्री जार्ज फर्नांडीस व एडमिरल श्री भागवत के बीच की सार्वजनिक बहस क्या उन्हें याद नहीं है. सेना के उच्च अधिकारियों को क्या ऐसे बयान देना या सरकार की सार्वजनिक आलोचना, लोकतंत्र के भविष्य के लिये चिंताजनक नहीं है ? 

उपरोक्त घटनाक्रम से स्पष्ट होता है कि उम्र और सेवानिवृत्ति की अवधि न बढ़ पाने से जनरल इतने हताश हो चुके हैं कि वे स्वतः राष्ट्रीय सुरक्षा के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं. अपनी सेवा निवृत्ति के मात्र तीन माह पहले उन्हें दिव्य ज्ञान होता है कि हथियार पुराने पड़ गये हैं, जबकि वे उसी सेना के प्रमुख हैं. 

प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने एक उपदेशक बयान देकर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर दी. दरअसल प्रधानमंत्री एक गैर राजनैतिक नौकरशाह हैं, जिन्हें राष्ट्रीय चिंताओं से कोई सरोकार नहीं है. पिछले उ.प्र. के चुनाव अभियान में उन्हें केवल कानपुर में एक सभा को संबोधित करने को आमंत्रित किया गया था और वह भी सिक्ख बाहुल्य इलाके में. हालांकि उस क्षेत्र में भी कांग्रेस हार गई. पंजाब में भी वे प्रभावहीन ही रहे. 

उन्हें वर्ल्ड बैंक की चाकरी की ज्यादा चिंता है, बजाय राष्ट्रीय चिंताओं की. परन्तु ऐसी घटनायें भारतीय लोकतंत्र के लिये ठीक नहीं हैं. भारतीय सेना में विद्रोह एक अकल्पनीय सपना है परन्तु इंडियन एक्सप्रेस जैसे समाचार पत्र ने इस सपने की कल्पना देने की पहल कर दी है. प्रेस की आजादी में हमारा पूरा विश्वास है परन्तु क्या प्रेस की आजादी का मतलब झूठे और अस्पष्ट समाचारों द्वारा अपने ही लोकतंत्र को क्षति पहुंचाना है? क्या प्रेस का कोई राष्ट्रीय दायित्व नहीं है. प्रेस की आजादी की ओट में विदेशी हथियार कंपनियों का खेल रोका जाना चाहिये. यह कुछ ऐसा होगा जैसे कोई बंदर अपने हाथ में उस्तरा लेकर कहे कि अपनी गर्दन काटना हमारी आजादी है. 

हमारे देश में सेनाध्यक्ष को कुछ ज्यादा बोलने की बीमारी है. जनरल करियप्पा, जनरल थिमैया, फील्डमार्शल मानिक शा जैसे सेनाध्यक्ष हुये हैं परन्तु उन्होंने कभी भी सार्वजनिक या नीतिगत बयानबाजी नहीं की. यह सेना के चरित्र के लिये उचित नहीं है. परन्तु हमारे सेनाध्यक्ष तो आजकल भारत के प्रधानमंत्री को भी विदेश नीति पर सलाह देते हैं. 

अपनी नेपाल यात्रा में उन्होंने नेपाल के प्रधानमंत्री से मुलाकात में कहा कि “मैंने प्रधानमंत्री से कहा है कि नेपाल के हित में जो कुछ होगा, वह भारत के भी हित में होगा’’. उनका यह कथन 6 अप्रैल 2012 के अखबारों ने छापा है. उनके बयान से ऐसा लगता है जैसे कोई विदेश मंत्री या प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति बोल रहा हो. 

प्रधानमंत्री को या तो अकर्मण्यता छोड़ना चाहिये या फिर कुर्सी का मोह छोड़ देना चाहिये क्योंकि प्रधानमंत्री के पद पर बैठे हुये व्यक्ति की अकर्मण्यता गलतियों से भी ज्यादा खतरनाक हो सकती है. देश की जनता को अगर प्रधानमंत्री लोकतंत्र और राष्ट्र में से चयन करना हो तो लोकतंत्र और अपने राष्ट्र को ही चयन करना होगा. प्रधानमंत्री तो आते जाते रहते हैं.

19.04.2012, 09.32 (GMT+05:30) पर प्रकाशित  http://raviwar.com/news/694_bk-singh-and-indian-express-raghu-thakur.shtml

नालंदा विश्वविद्यालय को क्यों जलाया गया था..? जानिए सच्चाई ...??



नालंदा विश्वविद्यालय को क्यों जलाया गया था..? जानिए सच्चाई ...??  By  Shripad Kulkarni 



























एक सनकी और चिड़चिड़े स्वभाव वाला तुर्क मियां लूटेरा था ....बख्तियार खिलजी. इसने ११९९ इसे जला कर पूर्णतः नष्ट कर दिया।
उसने उत्तर भारत में बौद्धों द्वारा शासित कुछ क्षेत्रों पर कब्ज़ा कर लिया था.
एक बार वह बहुत बीमार पड़ा उसके हकीमों ने उसको बचाने की पूरी कोशिश कर ली ...
मगर वह ठीक नहीं हो सका.

किसी ने उसको सलाह दी... नालंदा विश्वविद्यालय के आयुर्वेद विभाग के प्रमुख आचार्य राहुल श्रीभद्र जी को बुलाया जाय और उनसे भारतीय विधियों से इलाज कराया जाय
उसे यह सलाह पसंद नहीं थी कि कोई भारतीय वैद्य ...उसके हकीमों से उत्तम ज्ञान रखते हो और वह किसी काफ़िर से .उसका इलाज करवाए फिर भी उसे अपनी जान बचाने के लिए उनको बुलाना पड़ा
उसने वैद्यराज के सामने शर्त रखी... मैं तुम्हारी दी हुई कोई दवा नहीं खाऊंगा...
किसी भी तरह मुझे ठीक करों ...वर्ना ...मरने के लिए तैयार रहो.
बेचारे वैद्यराज को नींद नहीं आई... बहुत उपाय सोचा...
अगले दिन उस सनकी के पास कुरान लेकर चले गए..
कहा...इस कुरान की पृष्ठ संख्या ... इतने से इतने तक पढ़ लीजिये... ठीक हो जायेंगे...!
उसने पढ़ा और ठीक हो गया ..
जी गया...

उसको बड़ी झुंझलाहट हुई...उसको ख़ुशी नहीं हुई
उसको बहुत गुस्सा आया कि ... उसके मुसलमानी हकीमों से इन भारतीय वैद्यों का ज्ञान श्रेष्ठ क्यों है...!

बौद्ध धर्म और आयुर्वेद का एहसान मानने के बदले ...उनको पुरस्कार देना तो दूर ...
उसने नालंदा विश्वविद्यालय में ही आग लगवा दिया ...पुस्तकालयों को ही जला के राख कर दिया...!

वहां इतनी पुस्तकें थीं कि ...आग लगी भी तो तीन माह तक पुस्तकें धू धू करके जलती रहीं
उसने अनेक धर्माचार्य और बौद्ध भिक्षु मार डाले.

आज भी बेशरम सरकारें...उस नालायक बख्तियार खिलजी के नाम पर रेलवे स्टेशन बनाये पड़ी हैं... !
उखाड़ फेंको इन अपमानजनक नामों को...
मैंने यह तो बताया ही नहीं... कुरान पढ़ के वह कैसे ठीक हुआ था.
हम हिन्दू किसी भी धर्म ग्रन्थ को जमीन पर रख के नहीं पढ़ते...
थूक लगा के उसके पृष्ठ नहीं पलटते
मिएँ ठीक उलटा करते हैं..... कुरान के हर पेज को थूक लगा लगा के पलटते हैं...!

बस...
वैद्यराज राहुल श्रीभद्र जी ने कुरान के कुछ पृष्ठों के कोने पर एक दवा का अदृश्य लेप लगा दिया था...
वह थूक के साथ मात्र दस बीस पेज चाट गया...ठीक हो गया और उसने इस एहसान का बदला नालंदा को नेस्तनाबूत करके दिया

आईये अब थोड़ा नालंदा के बारे में भी जान लेते है

यह प्राचीन भारत में उच्च् शिक्षा का सर्वाधिक महत्वपूर्ण और विख्यात केन्द्र था। महायान बौद्ध धर्म के इस शिक्षा-केन्द्र में हीनयान बौद्ध-धर्म के साथ ही अन्य धर्मों के तथा अनेक देशों के छात्र पढ़ते थे। वर्तमान बिहार राज्य में पटना से 88.5 किलोमीटर दक्षिण--पूर्व और राजगीर से 11.5 किलोमीटर उत्तर में एक गाँव के पास अलेक्जेंडर कनिंघम द्वारा खोजे गए इस महान बौद्ध विश्वविद्यालय के भग्नावशेष इसके प्राचीन वैभव का बहुत कुछ अंदाज़ करा देते हैं। अनेक पुराभिलेखों और सातवीं शती में भारत भ्रमण के लिए आये चीनी यात्री ह्वेनसांग तथा इत्सिंग के यात्रा विवरणों से इस विश्वविद्यालय के बारे में विस्तृत जानकारी प्राप्त होती है। प्रसिद्ध चीनी यात्री ह्वेनसांग ने 7वीं शताब्दी में यहाँ जीवन का महत्त्वपूर्ण एक वर्ष एक विद्यार्थी और एक शिक्षक के रूप में व्यतीत किया था। प्रसिद्ध 'बौद्ध सारिपुत्र' का जन्म यहीं पर हुआ था।
स्थापना व संरक्षण

इस विश्वविद्यालय की स्थापना का श्रेय गुप्त शासक कुमारगुप्त प्रथम ४५०-४७० को प्राप्त है। इस विश्वविद्यालय को कुमार गुप्त के उत्तराधिकारियों का पूरा सहयोग मिला। गुप्तवंश के पतन के बाद भी आने वाले सभी शासक वंशों ने इसकी समृद्धि में अपना योगदान जारी रखा। इसे महान सम्राट हर्षवर्द्धन और पाल शासकों का भी संरक्षण मिला। स्थानिए शासकों तथा भारत के विभिन्न क्षेत्रों के साथ ही इसे अनेक विदेशी शासकों से भी अनुदान मिला।
स्वरूप

यह विश्व का प्रथम पूर्णतः आवासीय विश्वविद्यालय था। विकसित स्थिति में इसमें विद्यार्थियों की संख्या करीब १०,००० एवं अध्यापकों की संख्या २००० थी। इस विश्वविद्यालय में भारत के विभिन्न क्षेत्रों से ही नहीं बल्कि कोरिया, जापान, चीन, तिब्बत, इंडोनेशिया, फारस तथा तुर्की से भी विद्यार्थी शिक्षा ग्रहण करने आते थे। नालंदा के विशिष्ट शिक्षाप्राप्त स्नातक बाहर जाकर बौद्ध धर्म का प्रचार करते थे। इस विश्वविद्यालय की नौवीं शती से बारहवीं शती तक अंतरर्राष्ट्रीय ख्याति रही थी।
परिसर

अत्यंत सुनियोजित ढंग से और विस्तृत क्षेत्र में बना हुआ यह विश्वविद्यालय स्थापत्य कला का अद्भुत नमूना था। इसका पूरा परिसर एक विशाल दीवार से घिरा हुआ था जिसमें प्रवेश के लिए एक मुख्य द्वार था। उत्तर से दक्षिण की ओर मठों की कतार थी और उनके सामने अनेक भव्य स्तूप और मंदिर थे। मंदिरों में बुद्ध भगवान की सुन्दर मूर्तियाँ स्थापित थीं। केन्द्रीय विद्यालय में सात बड़े कक्ष थे और इसके अलावा तीन सौ अन्य कमरे थे। इनमें व्याख्यान हुआ करते थे। अभी तक खुदाई में तेरह मठ मिले हैं। वैसे इससे भी अधिक मठों के होने ही संभावना है। मठ एक से अधिक मंजिल के होते थे। कमरे में सोने के लिए पत्थर की चौकी होती थी। दीपक, पुस्तक इत्यादि रखने के लिए आले बने हुए थे। प्रत्येक मठ के आँगन में एक कुआँ बना था। आठ विशाल भवन, दस मंदिर, अनेक प्रार्थना कक्ष तथा अध्ययन कक्ष के अलावा इस परिसर में सुंदर बगीचे तथा झीलें भी थी।
प्रबंधन

समस्त विश्वविद्यालय का प्रबंध कुलपति या प्रमुख आचार्य करते थे जो भिक्षुओं द्वारा निर्वाचित होते थे। कुलपति दो परामर्शदात्री समितियों के परामर्श से सारा प्रबंध करते थे। प्रथम समिति शिक्षा तथा पाठ्यक्रम संबंधी कार्य देखती थी और द्वितीय समिति सारे विश्वविद्यालय की आर्थिक व्यवस्था तथा प्रशासन की देख--भाल करती थी। विश्वविद्यालय को दान में मिले दो सौ गाँवों से प्राप्त उपज और आय की देख--रेख यही समिति करती थी। इसी से सहस्त्रों विद्यार्थियों के भोजन, कपड़े तथा आवास का प्रबंध होता था।
आचार्य

इस विश्वविद्यालय में तीन श्रेणियों के आचार्य थे जो अपनी योग्यतानुसार प्रथम, द्वितीय और तृतीय श्रेणी में आते थे। नालंदा के प्रसिद्ध आचार्यों में शीलभद्र, धर्मपाल, चंद्रपाल, गुणमति और स्थिरमति प्रमुख थे। 7वीं सदी में ह्वेनसांग के समय इस विश्व विद्यालय के प्रमुख शीलभद्र थे जो एक महान आचार्य, शिक्षक और विद्वान थे। एक प्राचीन श्लोक से ज्ञात होता है, प्रसिद्ध भारतीय गणितज्ञ एवं खगोलज्ञ आर्यभट भी इस विश्वविद्यालय के प्रमुख रहे थे। उनके लिखे जिन तीन ग्रंथों की जानकारी भी उपलब्ध है वे हैं: दशगीतिका, आर्यभट्टीय और तंत्र। ज्ञाता बताते हैं, कि उनका एक अन्य ग्रन्थ आर्यभट्ट सिद्धांत भी था, जिसके आज मात्र ३४ श्लोक ही उपलब्ध हैं। इस ग्रंथ का ७वीं शताब्दी में बहुत उपयोग होता था।
प्रवेश के नियम

प्रवेश परीक्षा अत्यंत कठिन होती थी और उसके कारण प्रतिभाशाली विद्यार्थी ही प्रवेश पा सकते थे। उन्हें तीन कठिन परीक्षा स्तरों को उत्तीर्ण करना होता था। यह विश्व का प्रथम ऐसा दृष्टांत है। शुद्ध आचरण और संघ के नियमों का पालन करना अत्यंत आवश्यक था।
अध्ययन-अध्यापन पद्धति

इस विश्वविद्यालय में आचार्य छात्रों को मौखिक व्याख्यान द्वारा शिक्षा देते थे। इसके अतिरिक्त पुस्तकों की व्याख्या भी होती थी। शास्त्रार्थ होता रहता था। दिन के हर पहर में अध्ययन तथा शंका समाधान चलता रहता था।
अध्ययन क्षेत्र

यहाँ महायान के प्रवर्तक नागार्जुन, वसुबन्धु, असंग तथा धर्मकीर्ति की रचनाओं का सविस्तार अध्ययन होता था। वेद, वेदांत और सांख्य भी पढ़ाये जाते थे। व्याकरण, दर्शन, शल्यविद्या, ज्योतिष, योगशास्त्र तथा चिकित्साशास्त्र भी पाठ्यक्रम के अन्तर्गत थे। नालंदा कि खुदाई में मिलि अनेक काँसे की मूर्तियोँ के आधार पर कुछ विद्वानों का मत है कि कदाचित् धातु की मूर्तियाँ बनाने के विज्ञान का भी अध्ययन होता था। यहाँ खगोलशास्त्र अध्ययन के लिए एक विशेष विभाग था।
पुस्तकालय

नालंदा में सहस्रों विद्यार्थियों और आचार्यों के अध्ययन के लिए, नौ तल का एक विराट पुस्तकालय था जिसमें ३ लाख से अधिक पुस्तकों का अनुपम संग्रह था। इस पुस्तकालय में सभी विषयों से संबंधित पुस्तकें थी। यह 'रत्नरंजक' 'रत्नोदधि' 'रत्नसागर' नामक तीन विशाल भवनों में स्थित था। 'रत्नोदधि' पुस्तकालय में अनेक अप्राप्य हस्तलिखित पुस्तकें संग्रहीत थी। इनमें से अनेक पुस्तकों की प्रतिलिपियाँ चीनी यात्री अपने साथ ले गये थे।