निःसन्देह मैक्समूलर ने वेदों के विभिन्न विषयों पर ब्रिटिा सरकार ओर
ईसाईयत के हितों की पूर्ति के लिए व्यापक साहित्य लिखा। इसमें वेदों का
रचनाकाल, एवं रचनाकार, वेदों में मानव इतिहास, वैदिक देवतावाद,
बहुदेवतावाद, वैदिक कर्मकाण्ड, भाषा का इतिहास, विकासवाद एवं धर्म के
विभिन्न विषयों पर अपनी प्रतिक्रिा व्यक्त की तथा अनेक मनघड़न्त नवीन
अवधारणाओं को जन्म दियाजो कि पर
म्परागत वैदिक मान्यताओं के पूर्णतया विरुद्ध हैं।
इसीलिए हम यहाँ पहले वेदों के मुखय विषयों पर भारतीय दृष्टिकोण प्रस्तुत
करेंगे और फिर इस की समीक्षा करेंगे कि मैक्समूलर ने क्या और किस तरह
वेदों को विकृत किया जिसे कि ब्रिटिश सरकार ने व्यापक रूप से भारत तथा अन्य
देशों में प्रचारित किया।
हिन्दू संस्कृति में वेदों का महत्त्व
वेद का अर्थ है ज्ञान, या वह विद्या जिससे सभी सांसारिक, अधिभौतिक ओर
आध्यात्मिक विद्याओं का ज्ञान होता है। वेद ईश्वरीय ज्ञान है। वेदों का
ज्ञान शाश्वत् सार्वदैशिक सर्वाकालिक एवं मानवमात्र के लिए सामन रूप से
कलयाणकारी है। ईश्वरीय ज्ञान होने के कारण वेद-ज्ञान मूल है। वेद नित्य
हैं। प्रलय हो जाने पर भी वे ईश्वर के ज्ञान में रहते हैं।वेद, वैदिक धर्म
की आत्मा है। ऐसा सभी हिन्दू धर्म शास्त्र मानते हैं। वेद स्वतः प्रमाण हैं
अन्य हिन्दू धर्मशास्त्र जैसे ब्राह्मणग्रंथ, आरण्यक, उपनिषदें,
स्मृतियां, पुराण, आगम-निगम, रामायण-महाभारत वेदानुकूल होने पर ही
प्रामाणिक हैं, अन्यथा नहीं। वेद-निरुक्त हिन्दुओं को मान्य नहीं हैं।
चारों वेदों के चार प्रमुख विषय हैं- ऋग्वेद का मुखय विषय ज्ञान,
यजुर्वेद का कर्म, सामवेद का उपासना, और अथर्व का विषय विज्ञान है। वेदों
में मनुष्य को लगातार अधिकतम सर्वांगीण विकास करने की प्रेरणा दी गई है।
वेद सम्पूर्ण ज्ञान के मूलमंत्र हैं। वेदों में मूलरूप से सभी विद्याऐं
हैं। वेद सत्य विद्याओं का पुस्तक होने के कारण प्रत्येक वैदिक धर्मों को
वेदों का पढ़ना-पढ़ाना अनिर्वा है। इसीलिए हिन्दुओं के सभी संस्कार एवं
कर्मकाण्ड वेकल वेदमंत्रों ख,ारा किए जाते हैं। वेद हिन्दू धर्म का आधार और
आस्था के केन्द्र हैं। इसीलिए कहा गया है ‘वेदोह्णखिलो धर्म मूलम्’ (मनु.
२ः ६) ‘नास्ति वेदात्परं शास्त्रां’ यानी ‘वेद से बढ़कर अन्य कोई शास्त्र
नहीं है’ (म.भा. अनु प. १०५.६५)। वेदों में मानव इतिहास नहीं है। परन्तु
सभी नाम वेदों से लिए गए हैं।
संक्षेप में मेंहिन्दुओं के धर्म, दर्शन, संस्कृति, आचार संहिता एवं
नैतिक मूल्यों का मूल आधार वेद ही हैं। इसीलिए ब्रिटिश शासकों ने भी
हिन्दुओं को ईसाईयत में धर्मान्तरित करने और भारत में अपना स्थायी राज्य
स्थापित करने के उद्देश्य से ऋग्वेद व अन्य हिन्दू धर्मशास्त्रों को विकृत
करने के लिए मैक्समूलर को अनुबंधित किया।
मैक्समूलर ने भी मानाः
“I think I may say that there really is no trace whatever of any foreign
influencein the language, the religion or the ceremonial of the ancient
Vedic literature of India…It presents us with a homegrown poetry and a
home grown religion.”
(India. P. 128)
“In these very books (Vedic literature), in the Laws of Manu, in the
Mahabhaat and in Puranas, the Veda is everywhere proclaimed as the
highest authority in all matters of religion.”
(India, p. 130)
अर्थात् ”मैं मानता हूँ कि वास्तव में भारत के प्राचीन वैदिक साहित्य,
भाषा, धर्म और कर्मकाण्ड पर किसी तरह का कोई बाहरी प्रभाव नहीं है…. यह
काव्य और धर्म पूर्णतया भारतीय है। इसी लिए वैदिक साहित्य मनुस्मृति
महाभारत औरपुराणों में, सभी जगह धर्म के विषय में वेदों को सर्वश्रेष्ठ
प्रामाणिक गं्रथ कहा गया है।”
(वही, पृ. १२८)
मैक्समूलर वेदाध्ययन को अनेक कारणों से महत्वपूर्ण और अनिवार्य मानता है। वह लिखता हैः
“I maintain then that for a study of man, or, if you like, for a
study of Aryan humanity, there is nothing in the world equal in
importance with the Veda. I maintain that to every body who cares for
himself, for his ancestors, for his history, or for his intellectual
development, a study of vedic literature is indispensable; and that, as
an element of liberal education, it is for more important and far more
improving, than the reigns of Babylonian and Persian kings, aye even
the, dates and deeds of many, of the kings of ludah and Israel.
(India, pp. 102-103)
अर्थात् ”आर्य लोगों, यहाँ तक कि मनुष्यमात्र के विकास के अध्ययन के
लिए विश्व में वेदों के समान अन्य कोई महत्वपूर्ण नहीं है। मैं यह भी मानता
हूँ कि कोई व्यक्ति स्वयं अपने, अपने अपूर्वजों, अपने इतिहास अथवा अपने
बौद्धिक विकास के बारे में जानने के जिज्ञासा रखता है,उसके लिए वैदिक
साहित्य का अध्ययन न केवल अपरिहार्य है और बल्कि उदार दृष्टि से अध्ययन के
लिए यह बैबीलोनियाई अथवा परसियन राजाओं, यहाँ तक कि बाइबिल के जुडाह और
इज़राइल के इतिहास और उन राजाओं के कारनामें जानने से भी अधिक महत्वपूर्ण
है।”
(इंडिया, वही पृ. १०२-१०३)
अतः मैक्समूलर आर्य जाति ही नहीं, बल्कि मानव इतिहास को जानने के लिए
वेदों के अध्ययन को परमावश्यक मानता है। इसलिए हिन्दुओं के आचार-विचार,
रीति-रिवाज संस्कार व संस्कृति जानने के लिए वेदों का अध्ययन अत्यन्त
महत्वपूर्ण है। वेद देववाणी है। अतः उसके सत्यार्थ को समझने के लिए प्राचीन
यास्क की नैरुक्तीय वेद भाष्य शैली को अपनाना चाहिए जिसका कि उन्नीसवीं
सदी में महर्षि दयानन्द सरस्वती ने पुररुद्धार किया है।
मैक्समूलर की दृष्टि में वेद का स्थान
एक कट्टर ईसाई होने के कारण मैक्समूलर वेदों को बाइबिल से निचली श्रेणी
का मानता है। कैथोलिक कौमनवेल्थ को दिए गए एक साक्षात्कार में यह पूछे
जाने पर कि विश्व में कौन-सा ग्रंथ सर्वोत्तम है, तो उसने कहाः
“……there is no doubt, however, that ethical teachings is far more
prominent in the Old and New Testament than in any other Sacred Book.”
“He also said “ It may sound prejudiced, but taking all in all, I say
the New Testament. After that, I should place the Quran which in its
moral teachings, is hardly more than a later edition of the New
Testament. Then would follow…..according to my opinion the Old
Testament, the Southern Buddhist Tripitika….the Veda and the Avesta.”
(LLMM. Vol. 11. pp. 322-323).
अर्थात् ”इसमें कोई सन्देह नहीं कि यद्यपि, किसी भी अन्य ‘पवित्र
पुस्तक’ की अपेक्षा (ईसाईयों के धर्म ग्रंथ) ओल्ड अैर न्यू अैस्टामेंट में
नैतिक शिक्षऐं प्रमुखता से विद्यमान हैं। उसने यह भी कहा यह भले ही किसी को
पक्षपातपूर्ण लगे लेकिन सभी दृष्टियों से मैं कहता हूँ कि न्यू टेस्टामेंट
(सर्वोत्तम ) है। इसके बाद, मैं कुरान को कहूँगा जो कि अपनी नैतिक
शिक्षाओं में न्यू टेस्टामेंट के नवीन संस्करण के लगभग समीप है। उसके बाद…
मेरे विचार से ओल्ड टेस्टामेंट (यहूदियों का धर्मग्रंथ), दी सदर्न
बुद्धिस्ट त्रिपिटिका, (बौद्धों का धर्मग्रं्रथ) वेद और अवेस्ता (पारसियों
का ग्रंथ) है”।
(जी. प., ख. 2, पृ. 322-323)
अतः मैक्समूलर ईसाईयों के धर्मग्रंथ बाइबिल को सबसे श्रेष्ठ और वेदको
कुरान से निचले और अवेस्ता से उत्तम श्रेणी का मानता है। इससे अधिक हठधर्मी
व पक्षपात और क्या हो सकता है? सत्ताईस पुस्तकों एवं अनेक लेखकों द्वारा
लिखी गई, हजारों विरोधाभासों से पूर्ण, ५ वोटों की अधिकता से चुनी गई,
और्थिक कौंसिल में ३९७ ईसवी में स्वीकृत- न्यू टेस्टामेंट, भला प्रेरणादायक
व सत्य ज्ञान से ओत-प्रोत वेद से उत्तम कैसे हो सकती है? न्यू अैस्टामेंट
के वर्तमान स्वरूप को तो १५४६ में वैधता प्रदान की गई।
(एल. गार्डनर, ब्लड ऑफ दी होली ग्रेल, पृ. ५०)
क्या मैक्समूलर बाइबिल सम्बन्धी उपरोक्त तथ्यों से अनजातना था या उसने जानबूझकर वेदों को निम्न स्तर का कहा?
वेदों का रचना काल
हिन्दू धर्म की मान्यता है कि ईश्वर ने वेदों की रचना सृष्टि यानी
प्राणी मात्र आदि की रचना के साथ की और वैदिक काल गणना के आधार पर आज (२००९
सदी तक) वेदों की रचना हुए एक अरब छियानवे करोड़ आठ लाख तिरेपन हजार एक सौ
दस (१,९६,०८,५३,११०) वर्ष हो गए हैं। आधुनिक विज्ञान भी मानव रचना को लगभग
इतना ही मानता है। हिन्दुओं के कर्मफल सिद्धान्त की वैधानिकता इसी बात पर
आधारित है कि मनुष्य को उसके कर्मों और उसे फल व दण्ड को मनुष्यके जनम के
साथ ही उसे बता दिया जाए। अतः परमात्मा ने मनुष्य की सृष्टि के साथ ही उसके
लिए वेद के रूप में अपेक्षित ज्ञान का प्रकाश किया। अतः वेद आदि सृष्टि
काल से हैं।
इस सत्य को मानते हुए मैक्समूलर लिखता है किः
“If there is a God who has created heaven and earth, It will be
unjust on His part if He deprives millions of His souls, born before
Moses of His devine that God gives His Divine knowledge from his first
appearance on earth.”
(Science and Religion).
अर्थात् ”यदि धरती और प्रकाश का रचयिता कोई परमेश्वर है तो उसके लिए यह
अन्यायपूर्ण होगा कि वह मोजिज से पूर्व उत्पन्न लाखों पुखें को अपने ज्ञान
से वंचित रखे। तर्क और धर्मों का तुलनात्मक अध्ययन दोनों घोषित करते हैं
कि परमेश्वर सृष्टि के आदि में ही अपना ज्ञान मनुष्यों को देता है।”
(साइंस और रिलीजन)
हिन्दू धर्म के लिए गौरव की बात है कि वेद भी इस बात की पुष्टि करते हैं:
ऋतञ्च सत्यञ्चाभिद्धतपसोह्णध्यजायत् (ऋ. १०.१९०.१) यानी ”परमात्मा ने
अपने ज्ञान बल से, ऋत और सत्य के नाम से, सम्पूर्ण विधि-विधान का निर्माण
किया।” इसी की पुष्टि में महाभारत में वेद व्यासलिखते हैं:-
अनादि निधना नित्या वागुत्सृृष्टा स्वयम्भुवा।
आदौ वेदमयी दिव्या यतः सर्वाः प्रवत्त्यः(शां. प. २३२ः २४)
यानी ”सृष्टि के आदि में स्वयम्भू परमात्मा से ऐसी दिव्य वाणी (वेद) का
प्रादुर्भाव हुआ जो नित्य और जिससे संसार की प्रवृत्तियाँ-, (गतिविधियाँ,
कर्मादि) चले। मनु स्मृति के अनुसार ”सब पदार्थों के नाम, भिन्न-भिन्न कर्म
और व्यवस्थाऐं, सृष्टि के प्रारम्भ में, वेदों के शब्दों से ही बनाई गई
है।”
(१ः२१)
अतः वेदों का रचनाकाल सृष्टि के आदि से हैं। वेदों के रचनाकाल के संबंध
में मैक्समूलर अपनी पुस्तक ‘हिस्ट्री ऑफ एन्शिएन्ट संस्कृत लिटरेचर’ (१८५९)
में लिखता है कि “We may arrive at 1200 to 1000 B.C. as the initial
period of the Vedic poetry” यानी ”वैदिक कविता का प्रारम्भिक काल १२०० से
१००० ई. पू. तक के रूप में माना जा सकता है।” उसी का अनुसरण करते हुए
अधिकांश पाश्चात्य लेखकों ने वेदों का रचनाकाल २००० ई.पू. तक माना हैः
(१) डब्लू डी व्हिटनी- १२०० ई.पू. (ओरियंटल एण्ड लिंग्विस्ट स्टडीज, १८७२)
(२) एल. वोन श्रोडर- २००० ई.पू. (इन्डियन लिटरेचर एण्ड कल्चर)
परन्तु जैकोबी ने ४५०० वर्ष ई.पू. माना (उबेर डास आफ्टर डस ऋग्वेद) तथा
दीनानाथ चुनैट ने वेदों की रचना को तीन लाख वर्ष पुराना माना (वेद काल
निर्णय)।
मैक्समूलर ने जहाँ १८५९ में, वेदों का रचनाकाल १२०० ई.पू. माना वहीं
१८९० में अपनी पुस्तक ‘Physical Religion’ पृष्ठ, १८ पर कहाः “We could not
hope to be able to lay down any terminus a quo. Whether the Vedic hyms
were composed in 1000 or 1500 or 2000 or 3000 BC, no power on earth
could ever fix.” यानी ”हम (वेदों के आर्विभाव) की कोई अन्तिम सीमा
निर्धारित कर सकने की आशा नहीं रख सकते हैं। वैदिक सूक्त १००० ई.पू. या
१५००, २००० या ३००० ई.पू. में, संसार की कोई शक्ति नहीं जो कि इसकी तिथि
निश्चित कर सके।”
इसी का समर्थन करते हुए बिंटरनिट्ज़ ने अपनी पुस्तक ‘The Age of the
veda’ (pp 10-11) में कहा “We must, however, guard against giving any
definite figures where such a possibility is, by the nature of the case
excluded”
अर्थात् ”हमें कोई निश्चित संखया देने से बचना होगा जबकि यह विषय ही ऐसा है जिसमें कोई निश्चित तिथि देने की सम्भावना नहीं है।”
इसी प्रकार ”रिलीजन ऑफ दी वेदाज” का लेखक मौरिस ब्लूमफील्ड लिखताहैः
“Anyhow, we must not be beguiled by that kind of conversation which
merely salves the conscience into thinking that there is better proof
for any later date such as , 1500, 1200 or 1000 B.C. rather than the
earlier date of 2000 B.C. Once more frankly we do not know”.
अर्थात् ”कुछ भी हो हमें इस प्रकार की अनुदारता के धोखे में नहीं आना
चाहिए जे अपनी आत्मा को केवल सन्तुष्ट कर लेती है कि १५००, १२०००, १०००
ई.पू. को मानने के लिए की अपेक्षा २००० ई.पू. के अधिक अच्छे प्रमाण हैं-
”एक बार फिर यदि स्पष्टवादिता से कहना हो तो हम कहेंगे कि हम नहीं जानते।”
( पृ. 19)
अब हम इस विषय की समीक्षा नोबिल पुरस्कार विजेता मैटरलिंक की टिप्पणी के
साथ समाप्त करते हैं। अपनी पुस्तक ”ग्रेट सीक्रेट” में वह लिखता हैः
“As for the sources of the primary source(of Veda), it is almost
impossible to re-discover them. Here we have only the assertions of the
occultist tradition, which seem, here and there, to be confirmed by
historical discoveries. This tradition attributes to the vast reserviour
of the wisdom that somewhere took shape simultaneously with the origin
of man… to more spiritual, entitles, to begins less entangled in
matter.”
(prelog p. 6).
इसका सारांश यह है ”कि (वेद के) आदि स्रोत को फिर से खोज लेना
असंभवप्राय है। यहाँ हमें अध्यात्मवादी परम्परा के वचन मिलते हैं जिनकी
कही-कहीं ऐतिहासिक अनुसान्धानों से भी पुष्टि होती है। इस परम्परा के
अनुसार ज्ञान के विशाल भंडार का आविर्भाव मनुष्य की उत्पत्ति के साथ अधिक
आध्यात्मिक और प्रकृति में अनासक्त व्यक्तियों पर हुआ” (ग्रेट सीक्रेट,
प्रीलोग पृ. ६)। इसी सन्दर्भ में मैटरलिंक ने प्रसिद्ध जम्रन
पुरातत्ववेत्ता हालेड के कथन को उद्धत किया कि ”प्राचीन शास्त्र (वेद) कम
से कम सत्तर लाख (७०,०००,००) वर्ष पुराने है”। इन उदाहरणों से वेदों के
रचनाकाल की अति प्राचीनता सिद्ध होती है।
वेदों के रचनाकार
हिन्दू धर्म की परम्परगत मान्यता है कि मनुष्य के सर्वांगीण विकास के
लिए मूल ज्ञान की आवश्यकता होती है। अदि मूल ज्ञान को मनुष्य नहीं बना सकता
है। उसे केवल संसार का सृष्टिकर्ता सर्वज्ञ परमेश्वर ही दे सकता है।
मनुष्य मूल ज्ञान को विकसित, सुस्पष्ट एवं व्यावहारयोग्य बना सकता है। किसी
भी ज्ञान के ईश्वरीय होने के लिए यह आवश्यकहै ि कवह ज्ञान मानव सृष्टि के
आदि में दिय गया हो। वह मानव इतिहास, राजा-रानियों की कहानियों, राजनैतिक
युद्धों आदि के वर्णनों से मुक्त हो, न कि जैसा हम इतिहास, रामायण,
महाभारत, बाइबिल व कुरान में देखते हैं। वह ज्ञान, सत्य, तर्कसंगत,
विवेकपूर्ण, विकासोन्मुख, मानव कल्याणकारी, सबके लिए एक समान, सर्वहितकारी
एवं पक्षपात रहित हो। वह ज्ञान जातिभेद, लिंगभेद, वर्गभेद, भाषाभेद से
मुक्त हो। वह ज्ञान सार्वदेशिक, सार्वकालिक, सर्व-समान, एवं मत, पंथ और
सम्प्रदायों के पक्षपातों से मुक्त हो। वह वैज्ञानिक, सृष्टि नियमों के
अनुकूल और विरोधाभासों से मुक्त हो। वह ज्ञान पूर्णतया समता, ममता और
मानवतावादी हो।
हिन्दुओं के लिए यह गौरव की बात है कि विश्व धर्मगं्रथों में से केवल
उनके धर्मग्रंथ वेदों में ही ये सभी लक्षण विद्यमान हैं। मनुष्यकृत कोई
धर्म जैसे- ईसाईयत, इस्लाम आदि इन लक्षणों की पूर्ति नहीं कर सकता है।
इसीलिए वेद ईश्वरीय ज्ञान है। ऐसा स्वयं वेदों से भी सुस्पष्ट हैः
(१) ‘अपूर्वेणेषिता वाचस्ता वदन्ति यथायथम्। वदन्तीर्यत्र गच्छन्ति तदाहु ब्राह्मणं महत्’॥
(अथर्व. १०.०८.३३)
”उस कारण रहित परमात्मा ने अपार कृपा करके सृष्टि केआदि में मनुष्य के
लिए ब्राह्म ज्ञान का उपदेश दिया जिससे हमें यथार्थ ज्ञान प्राप्त होता है”
(२) ‘तस्माद्य ज्ञात्सर्ववहुत ऋचः सामानि जज्ञिरे, । छन्दांसि जिज्ञरे तस्माद्य जुस्तस्मादजायत’॥
(यजु. ३.१७)
”हे मनुष्यों! उस पूर्ण अत्यन्त पूजनीय, जिसके लिए सब लोग समस्त पदार्थ
समर्पण करते हैं, उसी परमात्मा से ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद
उत्पनन हुए।”
(३) यास्मादृचो, प्रपातक्षन् यजुर्यस्माद न्याकान्,। सामानि यस्य लोमा न्यथर्वाह्णद्धगरसो मुखम्॥
(अथर्व. १०.७.२०)
”जो सर्वशक्तिमान् परमेश्वर हैं उसी से ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद उत्पन्न हुए। उसी को तुम वेद का कर्त्ता मानो।”
वेदों के इन्हीं लक्षणों के कारण वेदों के प्रकाण्ड विद्वान् महर्षि
दयानन्द ने कहा ”सब सत्यविद्या और जो पदार्थ विद्या से जाने जाते हैं, उनका
आदि मूल परमेश्वर है। वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है।” स्वामी
विवेकानन्द ने भी ज्ञान को शाश्वत माना हैः
“All these vedantists also believe the Vedas to be the revealed word
of God. The Vedas are expression of knowledge of God and as God is
eternal. His knowledge is eternally with Him and so are the Vedas
eternal.”
(Complete Works of Swami Vivekanand Vol. 2, p 239).
अर्थात् ”वेद ईश्वर की वाणी है। ये ईश्वरी ज्ञान की अभिव्यक्ति है क्योंकि ईश्वर शावत् है। इसलिए वेद ज्ञान भी शाश्वत् हैं।
(स्वामी विवेकानन्द ग्रंथमाला, खं. २, पृ. २३९)
अतः चारों वेदों में जो आदि ज्ञान है, उसका रचनाकार परमेश्वर ही है।
मंत्र दृष्टा ऋषि
वेद के वर्तमान संस्करणों में प्रत्येक वेद मंत्र या मंत्र समूहों के
चार विशेष लक्षण दिए गए हैं- ऋषि, देवता, स्वर और छन्द। यहाँ मंत्र के ऋषि
का भाव है- मंत्र के रहस्य को सुस्पष्ट करने वाला, देवता-मंत्र का मुखय
विषय व केन्द्र बिन्दु, स्वर-उच्चारण विधि और छन्द-उसी गद्य-पद्य में रचना
विशेष है। परन्तु मैक्समूलर आदि लेखकों ने वेद मंत्रों के साथ लिखे
विश्वामित्र, अंगिरा, भारद्वाज आदि ऋषि को उस मंत्र विशेष का रचनाकार मानाः
“Rishi or Seer means no more than the subject or the author of a hymn”
(India ibid, p. 134), जो कि वैदिक परम्परा के पूर्णतया विपरीत है। वैदिक
परम्परा के अनुसार मंत्र का ऋषि उस मंख का रचनाकार नहीं बल्कि उस मंत्र के
रहस्य का साक्षात्कार एवं व्याखया करने वाला और उसका प्रथम दृटा है ‘ऋषयो
मंत्र दृष्टारः’ (निरुक्त. २ : ११) अर्थात्यास्काचार्य कहता है ”जिस-जिस
मंत्र का दर्शन जिस-जिस ऋषि ने सर्वप्रथम किया और वह सत्य-मंत्रार्ाि उसने
दूसरों को पढ़ाया। इस इतिहास की सुरक्षा के लिए आज तक मंत्र के साथ इस
मंत्रार्थ दृष्टा ऋषि का नाम स्मरणार्थ् लिखा जाता है।”
(निरुक्त : १ : २०)
इसीलिए तैत्तरीय संहिता, ऐतेरय ब्राह्मण, काण्व संहिता, शतपथ ब्राह्मण
एवं सर्वानुक्रमणी में मंत्रों के दृष्टाओं को ही ऋषि नाम से सम्बोधित किया
गया है तथा अनेक प्रमाण दिए हैं। अतः मंत्रों के साथ लिखे ऋषि का नाम उस
मंत्र का लेखक नहीं, परनतु उसका सत्यार्थ दृष्टा एवं प्रथम प्रचारक है। ऐसी
ही वैदिक परम्परा है। मैक्समूलर आदि पाश्चात्य विद्वानों का मंत्र के ऋषि
को उस मंत्र का रचनाकार कहना एक भ्रम और अवैदिक परम्परा है।
वेदों की मौलिकता
वेदों के आविर्भाव को करोड़ों वर्ष हो गए। परन्तु वे आज भी उसी मैलिक रूप
में हैं। उनमें मंत्र तो क्या शब्द व मात्रा तक का अन्तर नहीं हुआ है।
इनमें पुराणों व स्मृतियों की तरह कोई बाहरी मिलावट नहीं हो सकी है। ऐसा
क्यों नहीं हो सका? वेदों को श्रुति भी कहते हैं। वेदों के आदि ऋषि ने,
ईश्वरीय ज्ञान वेद अपने शिष्यों को शब्द-अर्थ सहित सुनाकर उन्हें यादकराया।
सुनकर हृदय में धारण किए जाने के कारण इनहें श्रुति भी कहते हैं। ऋषियों
ने वेदों की मौलिकता एवं प्रामाणिकता को सुरक्षित रखने के उद्देश्य से
मंत्रों को विभिन्न प्रकार से हृदय में धारण किया। जैसे मंत्रों के शब्दों
को बिना क्रम बदले सीधे-सीधे (प्रकृति पाठ) और विभिन्न प्रकार से उलट-फेर
(विकृति पाठ) करके याद किया और गुरु-शिष्य परम्परा से यह व्यवस्था हजारों
वर्षों तक चलती रही। ये मंत्र पाठ विधियां कम से कम तेरह हैं। पाँच प्रकृति
पाठ जैसे- संहिता, पद, व्युत्क्रम, मण्डुप्लुत और क्रम पाठ, तथा आठ विकृति
पाठ विधियाँ हैं जैसे- जटा, माला, शिखा, रेखा, ध्वज, दण्ड, रथ और घन। अतः
इन तेरह प्रकारों से वेदों के मंत्रों को स्मरण करके इन्हें मौलिक स्वरूप
में रखा गया। (पालीवाल, वेद परिचायिका, पृ. २७-२८) मैक्समूलर ने भी माना कि
”वेदों के पाठ हमारे पास इतनी शुद्धता से पहुँचाए गए हैं कि कठिनाई से कोई
पाठ भेद अथवा स्वर भेद तक सम्पूर्ण ऋग्वेद में मिल सकें”
(ओरिजिन ऑफ रिलीजन, पृ. १३१)
“The texts of the Veda have been handed down to us with such accuracy
that there is hardly a various reading in the proper sense of the word
or even an uncertain accent in the whole of Rigveda.”
(Origin of Religion. P.131).
यही बात प्रो. मैक्डोनल और डॉ. केगी ने कही है। अतः वेदों में कोई किसी
प्रकार की मिलावट नहीं है। इसीलिए वेदों के सन्देश आज भी सत्य, मोलिक और
प्रामाणिक हैं। ऐसा प्रत्येक हिन्दू विश्वास करता है।
वैदिक देवतावाद
वेदों में ‘देव’ और ‘देवता’ दोनों शब्दों का व्यापक प्रयोग हुआ है।
दोनों शब्द एकार्थक हैं। परन्तु अधिकांश पाश्चात्य विद्वान दोनों शब्दों का
अर्थ ‘गॉड’ या परमेश्वर करते है॥ जबकि दोनों शब्दों के अर्थ, विषयानुसार,
ईश्वर के अतिरिक्त और भी होते हैं। सब जगह एक समान परमेश्वर नहीं।
वेदों में प्रत्येक मंत्र, मंत्र समूह अथवा सूत्र के साथ उसका देवता,
लिखा होता है। यहाँ देवता शब्द का अर्थ है- ”मंत्र का प्रतिपाद्य विषय” या
‘मंत्र को केन्द्र बिन्दु’ (तेन वाक्येन यत् प्रतिपाद्यं वसतु या देवता-
वेदार्थ दीपिका) यह देवता या मुखय विषय, परमेश्वर एवं अन्य, कुछ भी हो सकता
है। ऋषियों ने मंत्र के साथ उसका देवता इसीलिए लिखा है ताकि पाठक व
भाष्यकार उस मंत्र का अर्थ मुखय विषय या उसक देवता के अनुसार करें; न कि
किसी शब्दविशेष को केन्द्र बिन्दु बनाकर या उस शब्द के अर्थ की खींचातानी
करके मंत्रार्थ करें। जैसा कि मैक्समूलर जैसे अनेक पाश्चात्य विद्वानों ने
किया है।
वेदों में मंत्र के देवता अग्नि, वायु, इन्द्र, मरूत, विषणु, सूर्य आदि
शब्दों द्वारा व्यक्त किए गए हैं। ऐसे देवता एक से लेकर छः हजार (द्विवेदी,
वैदिक दर्शन, पृ. १२२) तक कहे गए हैं। मगर वेदों के मुखय देवता तेतीस हैं।
ये ८ वसु, ११ रुद्र, १२ आदित्य, इन्द्र और प्रजापति (परमेश्वर) मिलाकर
तेतीस हैं। परन्तु मैक्समूलर ने इनकी पत्नियाँ भी बता दीं (इंडिया, वही पृ.
१३२) जबकि वेदों मं वसु, रुद्र व आदित्यों की पत्नियों का संकेत भी नहीं
है। वेद मंत्रों के हजारों देवता होने का अर्थ यही है कि वेद के विभिन्न
विषय हैं। तथा आधिदैविक, अधिभौतिक और आध्यात्मिक रूप से मंत्रों के अर्थ
करने पर उनके अनेक विषय हो जाते हैं।
देव/देवता का अर्थ
निरुक्त के अनुसार, ”देवो दानाद् वा दीपनाद वा द्योतनाद् वा द्युस्थानो भवतीति वा”। ”यो देवः सा देवता”
(निरुक्त ७.१५)
इसके अनुसार ज्ञान, प्रकाश, शान्ति, आनन्द तथा सुख देनेवाली सब वस्तु को
देव या देवता के नाम से कहा जा सकता है। इसीलिए यजु० (१४.२०) में कहा
हैकिः
अग्निर्देवता वातो देवता सूर्यो देवता चन्द्रमा देवता वसवो देवता रुदा
देवतादित्या देवता मरुतो देवता विश्वे देवा देवता बृहस्पतिर्देवन्द्रोदेवता
वरुणो देवता।
(यजु. १४.२०)
अतः जो परोपकारी, दानदाता स्वयं प्रकाशमान एवं अन्यों को ज्ञान एवं
प्रकाश देने वाला और द्यौलोक में स्थति हो, देव या देवता है। इसीलिए
दिव्यगुणों से युक्त होने के कारण परमात्मा देव है, आधार देने से पृथ्वी,
ऊर्जा, प्रकाश व जीवन देने से सूर्य, शान्ति देने से चन्द्रमा और प्राणवायु
देने के कारण वायु, देवता है।
भारतीय परम्परा के अनुसार वैदिक शब्दों के अर्थ, कम से कम- आधिभौतिक,
आधिदैविक और आध्यात्मिक तीन प्रकार से किए जाते हैं। उदाहरण के लिए महर्षि
दयानन्द द्वारा किए गए ऐसे कुछ देवताओं के अर्थ यहाँ दिए गए हैं। परन्तु
स्वामी जी मानते थे कि परमेश्वर ने मनुष्य को वेद उसके कल्याण और दैनिक
जीवन में व्यवहार में लाने के लिए दिए हैं। इसलिए उन्होंने अपने वेद
भाष्यों में एक चौथा व्यावहारिक अर्थ भी दिया है। स्वामी जी के अनुसार कुछ
वैदिक देवताओं के विभिन्न अर्थ निम्नलिखित हैं:
(रामनाथ, पृ. १०१-१०३)
पारमार्थिक अर्थ व्यवहारिक अर्थ
देवता का नाम अध्यात्म ईश्वर-परक अध्यात्म शरीर-परक अधिदैवत अधिभूत
१. अग्नि परमेश्वर जीवात्मा जठराग्नि पार्थिव अग्नि विद्युत, सूर्य
विद्वान, सभाध्यक्ष, राजा, सेनापति, वैद्य, योगी, न्यायाधीश, अध्यापक,
उपदेशक, नेता
२. सूर्य परमेश्वर प्राण, -जीवात्मा सूर्य, वायु, -विद्युत् राजा, विद्वान, सेनाध्यक्ष, वैद्य
३. आपः परमेश्वर प्राण जल, तन्मात्राएं माताएं, कन्याएं, आप्त प्रजाएं
४. इन्द्र परमेश्वर जीवात्मा, प्राण सूर्य, वायु, विद्युत् सम्राट,
शूरवीर, विद्वान, सेनापति, शिल्पी, गृहपति, धनिक, विवाहित, पति, अध्यापक,
उपदेशक, कृषक, वैद्य
५. जातवेदाः परमेश्वर जीवात्मा सूर्य, अग्नि, विद्वान्, सभाध्यक्ष, राजा
६. बृहस्पति परमेश्वर
सूर्य, वायु, विद्युत्
विद्वान्, राजा, राजपुरुष ब्रह्मचारी, अतिथि, शिल्पी, वैश्य, सेनापति
७. मरुतः प्राण वायु मनुष्य, अध्यापक, शूरवीर, शिल्पी
८. मित्र परमेश्वर प्राण सूर्य, वायु सुहृत, राजा, सेनेश, विद्वान्
९. यम परमेश्वर योगाङ्ग वायु, विद्युत्, सूर्य नियन्तावीर, न्यायकारी राजा, सेनेश
१०. रुद्र परमेश्वर प्राण, जीव अग्नि, वायु, समष्टि प्राण राजा, सेनापति, वीर, विद्वान, वैद्य, स्तोता, ४४ वर्ष का ब्रह्मचारी।
११. वरुण परमेश्वर प्राण, अपान,उदान वायु, जल, चन्द्र, सूर्य, अग्नि, विद्युत्, समुद्र सेनापति, सचिव, राजा, विद्वान
१२. वायु परमेश्वर प्राण, अन्तःकरण, इन्द्रियां पवन, सेनेश, राजा
मनुष्य, योगी, शिष्य, सेनापति, गृह-पति, शिल्पी
१३. विष्णु परमेश्वर प्राण, यज्ञ विद्युत्, सूर्य सेनापति, योगीराज, गृहपति, शिल्पी
१४. विष्णु परमेश्वर प्राण, यज्ञ विद्युत, सूर्य सेनापति, योगीराज, गृहपति, शिल्पी
१५. वैश्वानर परमेश्वर जठराग्नि अग्नि, विद्युत्, सूर्य राजा, परब्रह्मोपासक, उपदेशक
१६. सविता परमेश्वर सूर्य, वायु, विद्युत् राजा, सभाध्यक्ष, विद्वान, गृहपति
ईश्वर एक-नाम अनेक
मैक्समूलर ने वेद मंत्रों के साथ लिखे देवता शब्द-अग्नि, वायु, इन्द्र,
पृथ्वी आदि तथा साथ ही ऋषि का नाम देखकर यह प्रचारित कर दिया कि वेदों के
लेखकर न केवल बहुदेवतावादी हैं, परन्तु वे भौतिकीय जड़ शक्तियों जैसे सूर्य,
चन्द्र, पृथ्वी, आदि के पूजक भी हैं। परन्तु वह इस प्रयास में सफल न हो
सका। क्योंकि पहले तो चारों वेदों में एक ही देव परमेश्वर को
पूजा-अर्चना-प्रार्थना करने का उपदेश दिया गया है। दूसरे उस परमेश्वर अजर,
अमर, अभय, अनुपम, अनन्त, अनादि, पवित्र, कर्मफल प्रदाता, निराकार,
निर्विकार, न्यायकारी, सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापक,सर्वाधार, सर्वेश्वर,
सर्वान्तर्यामी, सृष्टिकर्त्ता आदि विशेषणों द्वारा कहा गया है। तीसरे यह
भी सुस्पष्ट किया गया है कि उसी एक परमेश्वर के अनेक नाम हैं। वही एक
परमेश्वर वरूण है, वही अग्नि, अर्यमा, यम, महादेव आदि नामों से जाना जाता
है। वही परमेश्वर इन्द्र और वही मित्र, रुद्र व सूर्य है और वही मरुत,
तारिश्वा है। उसी एक परमब्रह्म परमेश्वर को विद्वान लोग विभिन्न गुणों के
कारणा अनेक नामों से पुकारते हैं, और विभिन्न रूपों में देखते हैं।
प्रत्येक हिन्दू इसी भावना से उसी एक ही सर्वशक्तिमान परमेश्वर की
विभिन्न नामों एवं विभिन्न रूपों में अर्चना करता है। वेद सुस्पष्ट कहते
हैं-
१. ‘देवो देवामसि’ (ऋ. १.९४.१३)। ‘देवों के देव तुम ही हो।’
२. ‘य एको, अस्ति दंसना महां उग्रो अभिव्रतेः (ऋ. ८.१.२७) ‘जो अपनी तेजस्विता के कारण परमेश्वर है, वह एक ही है।’
३. ‘स एष एक-एक वृदेक एव- (अथर्व. ३.४.२०) ‘वह परमात्मा एक है, एक होकर सर्वव्यापक है। वह एक ही है।’
४. ‘अजह्णएक पात्’ (यजु. ३४.५३) ‘वह परमेश्वर अजन्मा है।’
५. इन्द्रं मित्रं वरुणमग्नि माहुपरथो दिव्यः स सुपर्णो गरुत्मान्। एकं सद् विप्राबहुधा वदन्ति अग्निं यमं मारिश्वान माहुः॥
(ऋ १ः १६४ : ४६)
”वहपरमात्मा एक है, ज्ञानी लोग उसे विभिन्न नामों से पुकारते हैं। उसी
को इन्द्र मित्र, वरुण, अग्नि, सुपर्णा। और गरुत्मान् कहते हैं।”
६. ‘स धाता स विधर्त्ता स वायुर्नभ उचिछ्रतम्। सोह्णर्यमा स वरुणः स रुद्रः स महादेवः। सोह्णग्नि स ३ सूर्यः स ३ एव महायमः
(अथर्व : १३ : ४ : ३-५)
”वही परमेश्वर, धाता, विधर्त्ता, वायु, अर्यमा, वरुण, रुद्र, महादेव,
अग्नि, सूर्य एवं महायम है। यानी ये विभिन्न नाम उसी परमेश्वर के हैं।”
७. ”न द्वितीयों तृतीयश्चतुर्थों नाप्युच्यते। न पञ्चमो न षष्ठः सप्तको
नाप्युच्यते। नाष्टमो न नवमो दशमो नाप्युच्यते।” (अथर्व. १३ः ४ः१६-१८)
”वह (परमेश्वर एक ही है, उसे दूसरा, तीसरा, चौथा, पाँचवां, छठा, सातवां, आठवां, नौवां दशवां नहीं कहा जा सकता।”
८. ”तू ही इन्द्र, विष्णु, ब्रह्म, ब्रणस्पति; वरूण, मित्र अर्यमा, रूद्र, पूषा, द्रविणोदा, सविता, देव और भग है।”
(ऋ. २ः १ः ३, ४, ६, ७)
९. ”वही एक ब्रह्मस्वयप होने से अग्नि, अविनाशी होने से आदित्य, संसार
को गति देने के कारण वायु, आनन्दायक होने से चन्द्रमा, शुद्ध स्वरूप होने
से शुक्र, सबसे बड़ा होने से ब्रह्म, सर्वव्यापक होने से आपः और सारी
प्रजाओं (प्राणियों) का पालक होने सेप्रजापति हैं।”
(यजु. ३२ : १)
प्रो. द्विजदास दत्त के अनुसार ऋग्वेद के प्रारम्भ से लेकर अन्त तक अनेक मंत्रों में एकेश्वरवाद सुस्पष्ट है जैसे-
१-२१-३. ४, ५,६,७,८,९; २- ३- ८; २-१२-५, ८, ९; २-१३-६; २-१६-१, २;
२-१७-५; २-३५-२; २-३८-९; २-४४-१६, १७; ३-१६-२; ३-५१-४; ३-५३-८; ४-१७-५;
४-३२-७; ५-३२-९; ५-४०-५; ५ ८५-६; ६-१८-२; ६-२२-१; ६-३०-१; -३६-४; ६-४५-२;
६-४७-१८; ७-२३-५; ७-९८-६; ८-२-४; ८-१३-९; ८-१५-३ ८-२४-१९; ८-३०-१०; ८-५८-२;
८-७०-५; ८-९०-२, ३, ४; ८-११४-४; १०-५-१; १०-३१-७८; १०-३२-३; १०-१२१-१२, ३,
८. आदि (ऋग्वेद अनवील्ड, पृ. १८४)
हीनोथीज़म
जब मैक्समूलर परमेश्वर के लिए प्रयुक्त विभिन्न नामों में न तो एकत्व ही
देख सका और न बहुदेवतावाद सिद्ध कर सका, तो उसने वैदिक दवेस्तुति पद्धति
के लिए एक नय शब्द कीनोथीज़्म या हीनाथीज्म गढ़ा था वह लिखता हैः
“If therefore there must be a name for the religion of Rig Veda,
polytheism would seem at first sight the most appropriate.’ The vedic
polytheism differs from the Greek and Roman polytheism….” It was
necessary, therefore, for the purpose of accurate reasoning to have a
name, different occupying for a time supreme position, and I proposed
for it the name of Kathenothesim, that is a worship of the one god after
another, or a Henothesim, the worship of single god.”
(India pp. 132-133)
”इसीलिए यदि ऋग्वेद के धर्म के लिए कोई नाम देना चाहें तो प्रथम दृष्टि
में ही उसके लिए बहुदेवतावाद कहना सबसे अधिक उपयुक्त होगा”… साथ ही कहता है
कि ”वैदिक बहुदेवतावाद ग्रीक और रोमन बहुदेवतावाद से भिन्न है…” इसलिए
इसका सबसे तर्कयुक्त व सही नम होने के लिए बहुदेवतावाद से भिन्न नाम देना
आवश्यक था ताकि एक ही समय में सर्वोत्तम देवता की पूजा की भावना व्यक्त की
जा सके। इसके लिए जो नाम मैने प्रस्तावित किया, वह था कीनोथीज्म अथवा
हीनाथीज्म यानी कि एक समय में एक के बाद अकेले दूसरे देवता की पूजा करना।”
(इंडिया, वही. पृ. १३२-१३३)
वैदिक बहुदेवतावाद के लिए इस मन कल्पित अनुपयुक्त शब्द हीनाथीज्म की
श्री अरविनछ एवं अन्य विद्वानों ने कड़ी सटीक आलोचना की। श्री अरविन्द ने
लिखाः
“What is the main positive issue in this matter? An interpretation of
Veda must stand or fall by its central conception of the Vedic religion
and the amount of support given to it by the intrinsic evidence of the
Veda itself.
Here Dayanand’s view is quite clear, its foundation inexpugnable. The
Vedic hymns are chanted to the One Diety under many names, names which
are used and even designed to express His Qualities and Powers. Was this
conception of Dayananda’s arbitrary concept fetched out of his own too
ingenuous imagination?
Not at all; it is the explicit statement of the Veda itself.
One existent ‘sages-not the ignorant, mind you, but the seers, the
men of knowledge-speak of in may ways, as Indra, as Yama, as Maharishwan
, as Agni. ‘The Vedic Rishis ought surely to have known some thing
about their own religion, more, let us hope than Roth or Maxmuller and
this is what they knew.
We are aware how modern scholars twist away from the evidence. This
hymn, they say was a later production. This loftier idea which it
expresses with so clear a force, rose up some how in the later Aryan
mind or was borrowed by those ignorant fire-worshippers,
sun-worshippers, sky-worshippers from their cultured and
philosophic-Dravidian enemies. But throughout the Veda we have
confirmatory hymns and expressions. Agni or Indra or another is
expressly hymned as one with all the other gods. Agni contains all other
divine powers within himself, the aruts are described as all the gods.
One deity is addressed by the names of others as well as his own, or
most commonly, he is given as Lord and king of the universe, attributes
only appropriate to the Supreme Diety. Ah, but that can not mean, ought
not to mean, most not mean the worship of one; let us invent a new word,
call it henotheism, and suppose that the Rishis did not really believe
Indra or Agni to be the Supreme Diety, but treated any god or every god
as such for the once, perhaps that he might feel the more flattered and
lend a more gracious ear for so hyper-bolic a compliment! But Why should
not the foundation of Vedic thought be natural monotheism? Rather than
this new fangled monstrosity of henotheism. Well, because primitive
barbarians could not possibly have risen to such high conceptions and if
you allow them to have so risen you imperil our theory of the
evolutionary stages of the human development and you destroy our whole
idea about the sense of the Vedic hymns and their place in the history
of mankind. Truth must hide herself, common sense disappear from field
so that a theory may flourish ! I ask on this point and it is the
fundamental point, who deals most straight forwardly with the text,
Dayanand or the Western Scholars?
(Dayanand and the Veda by Shri Arvind, P. 17-18)
इस महत्वपूर्ण उद्धरण का तात्पर्य यह है कि ‘इस विषय में सबसे मुखय
विचारणी चीज कौन सी है? वेदों की किसी भी व्याखया की सफलता व असफलता इस बात
पर आश्रित है कि उसमें वेद-प्रतिपादित धर्म की केन्द्रीय भावना क्या है व
वेदों द्वारा प्रतिपादित प्रकरण उस भावना की कहाँ तक पुष्टि करते हैं। यहाँ
पर दयानन्द के विचार अखण्डनीय हैं। उनका आधार दृढ़ एवं स्थिर है। वेदों की
ऋचाओं में एक ही परम देव के अनेक नामों द्वारागीत गाए गए हैं- जो उस परमदेव
के अनेक गुणों व शक्तियों के प्रदर्शन के अभिप्राय से प्रयुक्त किये गये
हैं। क्या दयानन्द ने अपनी पाण्डित्यपूर्ण स्वछन्द कल्पना से इनका प्रयोग
किया? कदापि नहीं, यह तो स्वयं वेदों का स्पष्ट वचन हैः
‘एवं सद् विप्रा बहुधा वदन्त्यग्निं यमं मातरिश्वानमाहुः।’
(ऋ. १ : १६४ः ४६)
अर्थात् ”उस एक ही परमेश्वर के तत्वदर्शी ऋषि- इन्द्र, अग्नि, यम,
मातरिश्वा आदि अनेक नामों से पुकारते हैं। अतः हमें इतनी आशा तो अवश्य करनी
चाहिए कि ऋषि, अपने धर्म के विषय में रॉथ या मैक्समूलर आदि से अधिक जानते
थे और यह है सत्य जिसे वे जानते थे।”
”हमें यह पता है कि आधुनिक (पाश्चात्य) विद्वान् इस प्रमाण से तोड़-मरोड़
कर कैसे बचते हैं। उनका कहना है कि इतने उन्नत विचारों वाले मंत्र उस समय
के आर्यों के विचारों में कभी नहीं आ सकते थे, जिनमें इतनी दृढ़ता के साथ
एकेश्वरवाद का भाव प्रगट किया गया है। यह बाद की रचना है। यह भी सम्भव है
कि यह विचार उन अज्ञानी, अग्निपूजक, सूर्यपूजक, आकाशपूजक आर्यों के मन में
ही पैदा न हुआ हो अपितु इस विचार को उन्होंने अपने सुसभ्य तथा दार्शनिक
शत्रु द्रविड़ों के दर्शन से अपना लिया हो। परन्तुइस विचार के पोषक प्रमाण
वेदों के समस्त स्थलों में प्राप्त होते हैं। ऋचाओं में इस प्रकार के अनेक
वर्णन प्रापत हेते हैं कि अग्नि अथवा इन्द्र या अन्य देव एक ही महादेव के
प्रती हैं। अग्नि अपने अन्दर अन्य सब देवों की शक्ति रखता है- मरूत् का
सर्वदेवमय वर्णन अनेक स्थानों में उपलब्ध होता है। एक देव जहाँ अपने नाम
द्वारा सम्बोधित होता है- वहाँ अन्य अनेक नामों द्वारा भी उस का आह्वान
होता है। प्रायः ऐसा देखा गया है कि एक-एक देव को विश्व का पति या राजा
मानकर उसकी स्तुति आदि की गई ळै। उसके लिए उन सब विशेषणों का प्रयोग किया
गया है जो परमदेव के लिए ही होते हैं। ओह! परन्तु ऐसा नहीं हो सकताः ऐसा
अर्थ नहीं होना चाहिए। इसका अर्थ यह बिल्कुल नहीं होना चाहिए कि एक ही
ईश्वर की पूजा की जाए। आओ, हम इसके लिए एक नया शब्द घड़ लें और यह कल्पना
करें कि वैदिक ऋषि वास्तव में अग्नि, इन्द्र आदि को परम देव नहीं मानते थे।
किन्तु वे प्रत्येक देव को उस समय के लिए ही (जब उसकी स्तुति की जा रही
हो) परम देव मान लेते थे ताकि सम्भवतः वह अपनी खुशामद को पाकर इन
अतिशयोक्तिपूर्ण स्तुतियों को ध्यान से सुने। परन्तु वैदिक विचार
कोस्वाभाविक एकेश्वरवाद क्यों न माना जाए? इस नवकल्पित हीनोथीज्म के भूत की
क्या आवश्यकता है? हाँ, क्योंकि आदिकाल के लोग असभ्य थे और उनमें इस
प्रकार के विचारों का पैदा होना असम्भव था। यदि हम उन असभ्य लोगों को इतना
विकसित मान लें तो तो विकासवाद का सिद्धान्त नष्ट-भ्रष्ट हो जाता है जिस पर
पाश्चात्य विद्वानों ने संसार का अपना क्रमिक विकास घोषित किया है। सत्य
को चाहिए ि कवह अपने को छिपा ले, सामान्य बुद्धि भी उनके मार्ग से अलग हो
जाए जिससे उनके सिद्धान्त संसार में सफल हो सकें। यहाँ पर मेरा मूल प्रश्न
यह है कि मूल वेद के साथ, बिना किसी उलझन के सीधी और साफ तौर पर कौन चल रहा
है- दयानन्द वा पाश्चात्य विद्वान।”
(दयानन्द और वेद- श्री अरबिन्द, पृ. १७-१८)
सुप्रसिद्ध विचारक और योगी श्री अरबिन्द की हीनोथीज्म की यह युक्तियुक्त
आलोचना बहुत ही प्रभावोत्पादिनी है। इसतें सन्देह नहीं हो सकता इसी प्रकार
द्विज दास दत्त ने हीनोथीज्म की आलोचना में लिखाः
“As a Maxmuller’s charge of Henotheism or worship of many ‘signle
gods’ a number of independent deities, it represents the Rishis as
flattering sycophants or cowardly liars, who could call each single god
as the one Supreme Being, only to avert the wrath of the god, knowing at
the same time, that he was not telling the truth. We ask the reader
himself to judge whether when the rishi addresses India ‘नहित्वदन्यो’
गिरर्वरणोगिरः सघत्’ (Rig 1057-8) “Thou who are the sole object of my
praise, none but Thee shall receive my praise ! or whether when the
rishi addresses Indra ‘नत्यावॉ अन्यो दिव्यो न पार्थिवों न जातो न
जानिष्यते’ (Rig 7. 32; 22) i.e. neither in heaven nor in the earth, has
appeared or shall appear any one like Thee; the Rishi is a honotheist, a
base lying, a base lying flatterer of Indra, or a true monotheist
declaring like Muhammad ‘La elaha III Allah, or sharikalahu”.
(Rigveda Unveiled, p. 140-141).
अर्थात् ”प्रो. मैक्समूलर के हीनोथीज्म विषयक आरोप के विषय में जिसका
तात्पर्य कई स्वतन्त्र देवों का अथवा पृथक-पृथक ब्रह्म समान देवों का है,
हमारा कथन यह है कि इससे ऋषियों को खुशामदी टट्टू दास अथवा भीरु असत्यवादी
के रूप में मानना पड़ता है जो प्रत्येक अलग-अलग देव को एक
सर्वोत्कृष्टपरमेश्वर कह सकते थे इसलिए कि उस देव के क्रोध से वे बच सकें
जबकि वे यह जानते थे कि वे सत्य नहीं कर रहे। हम स्वयं पाठकों से पूछना
चाहते हैं ि कवे इसका निर्णय करें कि जब ऋषि इन्द्र को सम्बोधित करते हुए
कहता है ”नहि त्वदन्यो गिर्वणो गिरः सघत् (ऋ. १.५७.८)” अर्थात् ‘तेरे
अतिरिक्त मेरी स्तुति का पात्र और कोई नहीं’ अथवा जब ऋषि कहता है ”न
त्वावां अन्योदिव्यो न पार्थिवी न जातो न जनिष्यते।” (ऋ. ७.३२.२२) अर्थात्
‘न आकाश में और न पृथ्वी में कोई है या होगा जो तेरे समान हो।’ ऋषि,
हीनोथीज्म को मानने वाला अथवा सीधे शब्दों में, इन्द्र का एक, नीच, झूठा
खुशामदी है अथवा सच्चा एकेश्वरवादी है जो मुहम्मद के समान ही यह घोषणा करता
है कि ‘परमेश्वर एक और अनुपम है।’ ”
(ऋग्वेद अनवील्ड, पृ. १४०-१४१)
जब मैक्समूलर के हीनोथीज्म की कड़ी आलोचना हुई तो वह ‘देव’ शब्द के अर्थ
के प्रकाशमान पदार्थ से विकासवाद द्वारा दिव्य, दयालु व शक्तिमान आदि अर्थ
मानने लगा। वह लिखता हैः
“Deva meant originally bright and nothing else, meaning bright, it
was constantly used of sky, the states, the sun, the dawn, the day, the
spring, the rivers, the earth. And when a poet wished to speak to all
these by one and the same word-by what we should call a general term-he
called them the Devas. When that had been done, Deva did no logner mean
the Bright ones, but the name comprehended of all the qualities which
the sky and the sun and the dawn shared in common excluding only those
that were peculiar to each. Here you see how, by the simplest process,
the Devas the bright ones, might become and did become the Devas, the
heavenly, the kind, the powerful, the invisible, the immortal”
(India p. 196)
अर्थात् ”देव का प्रारम्भिक अर्थ प्रकाशमान था और कुछ नहीं। इसी अर्थ
को लेकर इसका प्रयोग आकाश, तारे, सूर्य, ऊषा, दिन, बसन्त ऋतु, नदी, भूमि
इत्यादि के लिए किया जाता था। जब किसी कवि ने इन सबके लिए कोई बात सामान्य
रूप से कहनी होती थी तो वह देव शब्द का प्रयोग करता था। अब देव का केवल
प्रकाशमान इतना ही अर्थ नहीं रह गया। इन सबके अन्दर जो सामान्य गुण थे
(विशेष गुणों को छोड़कर) उनका ग्रहण, देव शब्द से हो जाता था। इस प्रकार
क्रमशः देवोंको दिव्य, दयालु, शक्तिशाली, अदृश्य और अमर माना जाने लगा,
इत्यादि।”
(इंडिया, वही. पृ. १९६)
मैक्समूलर का विकासवाद द्वारा यह निष्कर्ष निकालना अनुचित एवं मिथ्या है
कयोंकि देव व देवता आदि का अन्य अर्थ, जीव, सभ्य, रक्षक, कमनीय, संगमनीय,
आदि भी है (धर्मदेव, वही. पृ. २०५)। देव और देवों के अर्थ में विकासवाद
ढूंढना मैक्समूलर की एक मनघड़न्त धारणा है।
इस प्रकार १८५९ में उसने हिबर्ट लेक्चर देते समय वैदिक ‘एकेश्वरवाद’ और
‘बहुदेवतावाद’ के बीच का एक नया नाम हीनोथीज्म सुझाया। इसकी भारते में कड़ी
आलोचना हुई तो परिणामस्वरूप पन्द्रह साल बाद ४ फरवरी १८७५ को डयूक ऑफ
आर्ग्यालय को लिखे पत्र में स्वीकारा कि आर्यों का धर्म शुद्ध एकेश्वरवाद
है। वह लिखता हैः
“The earliest known religious form of the Aryan race is, as nearly as
possible, a pure monotheism-yes, that is perfectly true. But it was an
undoubting monotheism, in one sense perhaps the happiest monotheism –
yet not safe against doubts and negation. Doubt and negation followed,
it may be by necessity, and the unconscious defenceless monotheism gave
way to polytheism”.
(Bharti, MMLM p. 140)
उसने लिखा ”आर्य जाति का सबसे अधिक ज्ञात धर्म का स्परूप सम्भवतः शुद्ध
एकेश्वरवाद के सबसे करीब है- हाँ, यह पूरी तरह से सत्य है। लेकिन यह एक
निभ्रान्त एकेश्वर था, एक दृष्टि से शायद सबसे प्रसन्नतादायक एकेश्वरवाद-
फिर भी सन्देहों और अस्वीकारता के सामने सुरक्षित न था। संदेह और
अस्वीकारता बढ़ती गई। शायद आवश्यकता और अनजानी सुरक्षा के कारण एकेश्वरवाद,
बहुदेवतावाद में बदल गया।”
(भारती, वही पृ. १४०)
अतः मैक्समूलर ने माना कि प्रारम्भ में वैदिक धर्म एकेश्वरवादी था। इतना
ही नहीं, मैक्समूलर ने अपनी अन्तिम (१८९९) पुस्तक ‘दी सिक्स सिस्टमस ऑफ
फिलॉस्फी’ में लिखाः
“Whatever may bl’ the age when the collection of (llir Rigveda
Sanhita was finished, it was before that age, that tlw l’I !llCl’ption
had been formed that there is but One Being neitlwr II1,Ill’ nor female,
a being raised high above all the conditions and limit,lIions of
personality and of human nature and nevertheless 11ll’ Iking that was
really meant by all such names as Indra, Angi, Milt rishW,IIl and by the
name of Prajapati-Lord of creatures.” They thus .HriVl’d at the
conviction that above the great multitude of gods, then’ mllst be one
supreme personality and after a time they declarl’d that there was
behind all the gods that one (Tad E Kam) of which thl’ gods were but
various names.”
अर्थात् ”ऋग्वेद संहिता के संकलन का समय कभी भी पूरा हुआ हो लेकिन उस
काल से पहले यह अवधारणा पक्की बन चुकी थी कि सभी परिस्थितियों और सीमाओं के
होते हुए भी एक सर्वश्रेष्ठ सत्ता है, वह न स्त्री है और न पुरुष। उसी
सत्ता को इन्द्र, अग्नि, मातरिश्वन् प्रजापति आदि नामों से सम्बोधित किया
गया है।”
इससे एक बात तो साफ सिद्ध होती है कि जब तक मैक्समूलर ऑक्सफोर्ड
विश्वविद्यालय में सेवारत (१८७६) रहा और ऋग्वेद का सायणाचार्य आधारित भाष्य
का अंग्रेजी अनुवाद करता रहा, वह हिन्दुओं को बहुदेवतावादी कहता रहा और जब
देशी-विदेशी वैदिक विद्वानों ने उसके हीनोथीज्म की आलोचना की तो जीवन के
अन्तिम वर्षों में वेदों में उसने शुद्ध एकेश्वरवाद को स्वीकारा परन्तु फिर
भी अपने वेद सम्बन्धी विचारों को पहले प्रकाशित ग्रंथों में शुद्ध करने का
न कोई प्रयास हीकिया, और न कोई ऐसा आदेश दिया और न अपने विचारों का खंडन
किया बल्कि मरते दम तक हिन्दुओं को ईसाई बनाने का प्रयास करता रहा।
वेदों में मानव इतिहास एवं विकासवाद
हिन्दुओं का अटूट विश्वास है कि वेदों का आविर्भाव मानव सृष्टि से पहले
हुआ। इसलिए वेदों में मानव इतिहास नहीं है। इसमें रामायण व महाभारत की तरह
किन्हीं राजा-रानियों, मनुष्यों तथा ऋषियों के नाम देख कर लोगों को वेदों
में इतिहास का भ्रम हो जाता है। परन्तु वासतव में वेदों के शब्द यौगिक हैं
और संसार के मनुष्यों व नदियों आदि के नाम वेदों से ही लिए गए हैं (मनु
स्मृति १.२१)। पं. शिवशंकर ने अपने गं्रथ ‘वैदिक इतिहासार्थ निर्णय’ (पृ.
१२२-१२३) में वेदों में इतिहास होने का विस्तार से खंडन किया है। आदि
शंकराचार्य ब्रह्मसूत्र में मानते हैं किः
नाम रुपे च भूतानां कर्मणाञ्च प्रवर्त्त्नाम्।
वेद शब्देम्य एवादौ निर्म्भ में स महेश्वरः (१ः३ः२८)
ऋषीणां नामघेयानि याश्च वेदेषु दृष्टयः।
शर्वक्षर्यते प्रसूतानां तान्येवैभ्योददात्यजः (१ः३ः३०)
अतः ”सृष्टि के पहले भी ईश्वर में शब्द विद्यमान थे। वे ही शब्द इस जगत
में भी ऋषियों द्वारा प्राप्त हुए हैं। अतः वैदिकशब्द नित्य हैं। अनित्य
व्यक्ति का वर्णन या इतिहास इसमें (वेद) नहीं आ सकता है।”
इसी प्रकार वेदों में विकासवाद नहीं है। वेदों में शाश्वत् एवं सत्य
विद्याओं के मूल सूत्र विद्यमान हैं। इन्हीं के आधार पर वैदिक संस्कृति एवं
वैदिक विज्ञान की उन्नति हुई है। साथ ही वेदों में इस नैमेत्तिक ज्ञान के
आधार पर सब प्रकार के सांसारिक सुख देने वाले यंत्रों, तकनीकों एवं दर्शनों
के विकास की प्रेरणा दी गई है ताकि मानव ही नहीं सभी प्राणियों का कल्याण
हो सके।
परन्तु मैक्समूलर ने वेदों में बार-बार इतिहास एवं विकासवाद ही देखा है।
वेदों की प्राचीनता, विकास एवं इतिहास के विषय में मैक्समूलर लिखता हैः
“The Veda may be called primitive, becilw,( Ihe’I’l’ is no other
literary document more primitive than it : bul the language, the
mythology, the religion and philosophy that meet us in the Veda open
vistas of the past which no one would measure in years. Nay, they
contain, by the side of simple. natural, childish thoughts, many ideas
which to us sound modern or secondary and tertiary as I called them but
which neverthehless are older than any other literary document and give
us trustworthy informations of a period in the history of human thought
of which we knew absolutely nothing before the discovery of the Vedas.”
(India, ibid p. 109)
He further writes; “But if we mean by primitve the people who have
been the first of the Aryan race to leave behind literary relics of
their existence on earth, then I say the Vedic poets are primitive, the
Vedic language is primitive, the Vedic religion is primitive, and taken
as a whole, more primitive than anything else that we are ever like to
recover in the whole history of our race, ” (India, ibid p. 114)
तात्पर्य है कि : (१) मैक्समूलर वेदों को सबसे प्राचीन साहित्य मानता है
तथा इनकी भाषा, गाथावाद, धर्म और दर्शन नए आयामों को खोलते हैं।
(२) वैदिक धर्म पर किसी विदेशी धर्म या संस्कृति का प्रभाव नहीं है क्योंकि यह मानव जाति की आदि कालीन संस्कृति है।
(३) वैदिक कवि आदि कालीन है; वैदिक भाषा आदि कालीन है; वैदिक धर्म आदि
कालीन है। मानवजाति के किसी भी विषय में वैदिक धर्म सबसे आदि कालीनहै आदि
आदि।
(इंडिया, वही. पृ. ११४)
मैक्समूलर वेदों को मानव मस्तिष्क का बचपन या प्रारम्भिक युग मानता हैः
“Childish age of the Human mind.”; (ibid p. 99) वह आगे लिखता हैः
“Now it is exactly this period in the growth of ancient religion, which
was always presupposed or postulated, but was absent anywhere else, that
is clearly put before us in the hymns of Rig Veda. It is this ancient
chapter to the history of human mind which has been preserved to us in
Indian literature, while we look for it in vain in Greece or Rome or
elsewhere”
(ibid p. 99-100)
Further he says, “I simply say that in the Veda we have a nearer
approach to a beginning, and an intelligible beginning, than in the wild
invocations of Hottentots or Bushmen.”
(ibid, p. 101)
अतः मैक्समूलर वेद ज्ञान को मानव जाति का प्रारम्भिक इतिहास मानता है जो
कि अन्यत्र किसी ग्रंथ या संस्कृति में नहीं है। वह वेद को समझ नहीं पाता
है या उनकी निन्दा करना चाहता है, इसीलिए कहता हैः
Large number of Vedic hyms are Childish in the extreme, tedious, low and common place.”
(Chips from a German Workshop, p. 27)
अर्थात् ”वेदों की अधिकांश ऋचायें अत्यन्त बचपनी, कठिन और निम्नस्तर की
हैं” और ज बवह ऋग्वेद के अन्तिम मंडल को देखता है जिनमें दर्शन, विश्व
कल्याण की भावना, सार्वभौमिक समता, एकता एवं समानता के सूत्र सुस्पष्ट पाता
है तो मन मानकर लिखता है कि ‘कुछ ऋचायें दार्शनिक हैं”:
“Now what do we find in the Veda? No doubt here and there a few
philosophical hymns which have been quoted so often that people have
begun to imagine that the Veda is a kind of collection of Orphic hymns.
We also find some purely mythological hymns in which the Devas or gods
have assumed nearly as much dramatic personality as in the Homeric
hymns.”
(India, pp. 98-99)
मैक्समूलर की जीवनी लेखक निराद चौधरी उसकी मानसिकता एवं वेदाध्यन के उद्देश्य को इस प्रकार व्यक्त करता है-
(i) “The primary object of Muller’s Sanskrit studies was thus neither
philology nor literature as such, but the evolution of religious and
philosophical thought. Indeed, to his history of ancient Sanskrit
literature he added the qualification ‘so far as it illustrates the
primitive religion of the Brahmans’. Therefore he was bound to
specialize in Vedic literature. Mentioning the fact that all later
Sanskrit books on religion, law and philosophy refer back to one early
and unique authority called by the comprehensive name of the Veda”.
Muller writes:
“It is with the Veda, therefore, the Indian philosophy ought to begin
if it is to follow a natural and historical course. So great an
influence has the Vedic age (the historical period to which we are
justified in referring the formation of the sacred texts) exercised upon
and succeeding periods of Indian history, so closely in every branch of
literature connected with Vedic tradition, so deeply haw the religious
and moral ideas of that primitve era taken root in thl’ mind of the
Indian nation, so minutely has almost every privah’ and public act of
Indian life been regulated by old traditionary precepts, that it is
impossible to find the right point of view for judging of Indian
religion, morals, and literature without a knowledge of the literary
remains of the Vedic age.
(Chaudhuri, p. 135)
(ii) “It is different, he declared, with the ancient literature of
India, the literature dominated by the Vedic and the Buddhist I
religions. That literature opens to us a chapter in what has been I
called the ‘Education of the Human Race,’ to which we can find no I
parallel anywhere else.” He further said, that anybody who cared for the
origins of language, thought, religion, philosophy, or law and many
other human creations, ‘must in future pay the same attention to the
literature of Vedic period as to the literature of Greece and Rome and
Germany.”
(ibid. p. 290)
(iii) “But he derived from the English Orientalists his conviction of
the practical importance of Sanskrit for British administrators as well
as for contemporary Hindus.”
(India, ibid p. 134)
(iv) In “A History of Ancient Sanskrit Literature’ Max Muller writes,
“If then, it is the aim of Sanskrit Philology to supply one of the
earliest and most important links in the history of mankind, we must go
to work historically; that is we must begin, as far as we can, with the
beginning, and then trace gradually the growth of the Indian mind in its
various manifestations as far as the remaining monuments allow us to
follow the course,”
(Chaudhuri, ibid, p. 135)
(v) “He imposed his ideas of India and of Hindu Religion in its most
ancient form on the religious life of the Hindus of his time. His
picture, which he put before the Indians and Europeans alike was built
up with the help of selective principle applied to the entire body of
Sanskrit literature, and the principle led him to formulate his peculiar
view of the historical development of this literature.”
(ibid pp. 288- 289)
अतः मैक्समूलर के संस्कृत अध्ययन का उद्देश्य था : (१) भारतीयों के
दार्शनिक एवं धार्मिक विचारों में विकासवाद सिद्ध करना; (२) वैदिक
परम्पराऐं अति प्राचीन हैं जो कि सभी भारतीय साहित्य में बिखरी हुई हैुं;
(३) भारतीय साहित्य वैदिक और बुद्ध मत के विचारोंसे भरा पड़ा है जो कि
मानवजाति की शिक्षा की ओर संकेत करता है; (४) वैदिक साहित्य को ग्रीस, रोम
और जर्मनी के साहित्य के समान ऐतिहासिक दृष्टि से देखा; (५) संस्कृत भाषा
के अध्ययन द्वारा जितना हम जा सकें उतने गहरे तक विकासवाद की दृष्टि से
देखें; (६) मैक्समूलर ने समस्त वैदिक एवं भारतीय संस्कृत साहित्य को अपनी
चुनींदा विधि के सिद्धान्त की सहायता से देखा और उन्हीं चुनी हुई बातों को
भारतीयों एवं यूरोपीयनों को बतलाया। इसी विशेष चुनींदा नीति के आधार पर
उसने वेदों में इतिहासवाद की नींव रखी।
जब निराद चौधरी जैसा विद्वान मैक्समूलर को हिन्दू धर्म सम्बन्धी
सिद्धान्तों के बारे में अपनी ‘चुनी हुई नीति’ के आधार पर खड़ा देखता है तो
कोई अन्य उससे और अधिक क्या स्पष्ट कह सकता है? अतः मैक्समूलर ने जो कुछ भी
लिखा वह उसकी निजी ‘चुनींदा नीति’ पर आधारित था; निष्पक्ष विवेचन पर नहीं।
मैक्समूलर एवं अनेक पाश्चात्य लेखकों ने वेदों को अपनी धार्मिक आस्था और
ब्रिटेन के राजनैतिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए जान बूझकर विकृत किया
जिसका महर्षि दयानन्द सरस्वती, श्री अरविन्द, पं. धर्मानन्द, पं.
भगवद्दत्त, स्वामी विद्यानन्द सरस्वती जैसेअनेक भारतीय विद्वानों ने इसकी
सप्रमाण आलोचना की एवं भारतीय परम्परा को पुनर्स्थापित किया। सार रूप में
समझने की बात यह है कि यदि वैदिक ऋचाऐं बचपनी और निम्नस्तर की हैं तो संसार
भर के राजनीतिज्ञों ने मिलकर एक स्वर से संयुक्त राष्ट्र संगठन एवं मानव
अधिकार संगठन ने वेदों का ‘जियो और जीने दो’ का सिद्धान्त कैसे माना?
सार्वभौमिक एक राष्ट्र की वैदिक परिकल्पना, मानवता, समानता, समतावादी
व्यवहार आदि को क्यों स्वीकारा? विश्व शान्ति के वैदिक सन्देश को क्यों
अपनाया? वेदों का सन्देश हैः
(१) ”मनुष्य मात्र में कोई छोटा बड़ा नहीं है, सब बराबर के भाई हैं।”
(ऋ. ५.६०.५)
(२) ”हम समाज के किसी भाई बहिन के साथ द्वेष, घृणा, ऊँच नीच व भेदभाव न करें।”
(ऋ. ३.३०.१)
(३) ”समाज के सभी लोग एक साथ मिलकर खाएं-पिएं व उपासना करें एवं मैत्री भाव से रहें।”
(ऋ. ३.३०.६)
(४) ”हे मनुष्यों! तुम सब परस्पर एक विचार से मिलकर रहो, प्रेम से
वार्तालाप करो। तुम लोगों का मन समान होकर ज्ञान प्राप्त करें एवं प्रेम से
परस्पर व्यवहार करो।”
(ऋ. १०. १९१. २)
(५) ”हे मनुष्यों! मैं तुम सबको एक-सा ज्ञान देता हूँ। तुम सभी सामाजिक व
राष्ट्रीयसमस्याओं पर हितकारी निर्णय से एक मत होकर अपनी सर्वांगीण उन्नति
करो।”
(ऋ. १०. १९१. ३)
(६) ”हे मनुष्यों! तुम सबका संकल्प एक जैसा हो। तुम्हारा हृदय व मन समान हो।”
(ऋ. १०. १९१. ४)
”सं गच्छध्वं संवदध्वं सं वो मनांसि जानताम्।”
”समानो मंत्रः समितिः समानी समानं मनः सहचित्तमेषाम्।”
”समानी व आकूतीः समाना हृदयानि वः” (ऋ. १०ः १९१ः २-३)
अतः वेदों की समतावादी और मानवतावादी आदर्श व्यवस्था इतनी श्रेष्ठ है
जिस पर आज भी निष्पक्ष चिन्तकों को असीम श्रद्धा है। इसके विपरीत आज का
तथाकथित सभ्य समाज भी उस वेदनिर्दिष्ट आदर्श व समतावादी स्थिति को नहीं
पहुँचा पाया है। हम विकास की ओर नहीं बल्कि अधोगति की ओर जा रहे हैं। यदि,
हम वेद की समता, ममता, स्वतंत्रता, स्वविवेक एवं विश्वबंधुत्व की अवधारणाओं
को समाज में ला पाते तो अनेकों युद्ध, लाखों प्राणियों की हत्या और धर्म
के नाम पर घृणा, युद्ध और आतंकवाद नहीं फैलता। यदि वैदिक शिक्षाऐं
राष्ट्रों की सीमाओं को लांघकर मानव कल्याण के लिए अपनाई जातीं तो आज
रंग-भेद, वर्णभेद, नस्ल भेद, जाति भेद, राष्ट्र भेद के नाम पर हिंसा और
अशांति की ज्वाला में लाखों मनुष्य नमारे जाते। अतः वेदों में इतिहास एवं
विकासवाद नहीं है। बल्कि एक आदर्श व्यवस्था बतलाई गई है जिस पर मनुष्य अभी
तक नहीं पहुँच पाया है। उस मानव कल्याणकारी स्थिति तक वेदों द्वारा ही
पहुँचा जा सकता है न कि इस्लामी आतंकवाद या ईसाई क्रूसेडों द्वारा।
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