शुक्रवार, जून 22, 2012

पानी को बोतल में बंद करने की साजिश.............

पानी को बोतल में बंद करने की साजिश............. :(
उदारीकरण ने भले ही मोबाइल-बाइक को घर-घर तक पहुंचाया, लेकिन महज दो दशकों में ही इसने लाखों कुओं और बावडि़यों को इतिहास के पन्नों में दफन कर दिया। इसी का नतीजा है कि कभी विलासिता की सामग्री समझी जाने वाली पानी की बोतल अब गुमटी से लेकर झुग्गी-झोपड़ी तक में अपनी पहुंच बना चुकी है। यह बोतलबंद पानी भारत के बारे में प्रचलित कहावत कोस-कोस पर बदले पानी, चार-कोस पर बदले बानी को झुठला रहा है। कभी हर जगह मुफ्त में मिलने वाला पानी आज कारोबार का रूप ले चुका है तो इसके लिए बढ़ती बीमारियों, जल प्रदूषण, शहरीकरण के साथ-साथ रेलवे स्टेशनों, बस अड्डों, पर्यटन केंद्रों आदि पर दुर्लभ होता पानी भी जिम्मेदार है। सबसे बड़ी समस्या है पानी की गुणवत्ता में आ रही तेज गिरावट। एक अध्ययन के मुताबिक, भारत पानी की गुणवत्ता के मामले में 122 देशों में से 120वें स्थान पर है।
निजी कंपनियां बेइमानी का खेल खेलते हुए मुफ्त में मिलने वाले पानी को बेचकर अकूत मुनाफा कमा रही हैं। इसके लिए देश की नीतियां भी जिम्मेदार हैं, जिसके तहत जमीन पर अधिकार रखने वाले को भूजल दोहन का अधिकार स्वत: मिल जाता है। इसका मतलब है कि यदि कोई व्यक्ति एक वर्ग मीटर जमीन खरीदता है तो वह उसके नीचे मिलने वाले समस्त पानी का दोहन कर सकता है। इसी कानून का लाभ कंपनियां उठा रही हैं। उदाहरण के लिए जयपुर के समीप काला डेरा स्थित कोका कोला प्लांट को जमीन खरीदते ही मुफ्त में पानी मिल गया। बस, उसे प्रदूषित पानी बहाने के लिए राजस्थान प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड को कुछ पैसे देने थे। यह दर भी नाम मात्र की थी यानी 14 पैसे प्रति हजार लीटर।कोका कोला के वाराणसी के निकट मेहदीगंज स्थित प्लांट का ग्रामीण विरोध कर रहे हैं, क्योंकि इससे आसपास का भूजल नीचे गिरता जा रहा है। देखा जाए तो बोतलबंद पानी की सफलता नल के पानी को बदनाम करने की साजिश में निहित है। जैसे-जैसे यह साजिश परवान चढ़ रही है, बोतलबंद पानी की खपत बढ़ती जा रही है।
शुद्धता और स्वच्छता के नाम पर बोतलों में भरकर बेचा जा रहा पानी भी सेहत के लिए किसी भी दृष्टि से खरा नहीं उतरता है। यह बात कई अध्ययनों में उभरकर सामने आई है। अमेरिका की एक संस्था नेचुरल रिसोर्सेज डिफेंस काउंसिल ने अपने अध्ययन के आधार पर यह नतीजा निकाला है कि बोतलबंद पानी और नल के पानी में कोई खास फर्क नहीं है। मिनरल वाटर के नाम पर बेचे जाने वाले बोतलबंद पानी की बोतलों को बनाने के दौरान एक खास रसायन पैथलेट्स का इस्तेमाल किया जाता है, जिसकी वजह से प्रजनन क्षमता पर नकारात्मक असर पड़ता है। यह रसायन उस वक्त बोतल के पानी में घुलने लगता है, जब बोतल सामान्य से थोड़ा अधिक तापमान पर रखा जाता है। ऐसी स्थिति में बोतल में से खतरनाक रसायन पानी मिलते हैं और उसे जहरीला बनाने का काम करते हैं। इसी प्रकार बोतल बनाने में एंटीमनी नामक रसायन का भी इस्तेमाल किया जाता है। विशेषज्ञों के मुताबिक, बोतलबंद पानी जितना पुराना होता जाता है, उसमें एंटीमनी की मात्रा उतनी ही बढ़ती जाती है। यदि यह रसायन किसी व्यक्ति के शरीर में जाता है तो उसे जी मिचलाने, उल्टी और डायरिया जैसी समस्याओं का सामना करना पड़ सकता है। सेहत का बंटाधार करने के साथ-साथ बोतलबंद पानी पर्यावरण का भी दुश्मन है। पानी की बोतल बनाने के लिए सामान्यत: पॉलिथिलीन टेरेफ्थलेट (पीईटी) का इस्तेमाल किया जाता है, जो कच्चे तेल से मिलता है। अकेले अमेरिका में पानी की बोतल बनाने के लिए 17 करोड़ बैरल तेल की खपत होती है। यह तेल 10 लाख कारों को साल भर चलाने के लिए पर्याप्त है। तेल खपत के अलावा हर साल अरबों बोतल जमींदोज होकर पर्यावरण को नुकसान पहुंचाती हैं, क्योंकि 20 फीसदी बोतलें ही रिसाइकिल हो पाती हैं। बाकी 80 फीसद समुद्र, नदी, कचराघर आदि में ठिकाना पाती हैं।
बोतलबंद पानी के बढ़ते आधिपत्य को देखते हुए यही लगता है कि यदि इस पर लगाम न लगाई गई तो आज जो दशा तेल की है, वही भविष्य में पानी की होगी। आज कच्चे तेल के उत्खनन-परिष्करण से लेकर उसकी बिक्री तक पर बड़ी-बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियां आधिपत्य जमा चुकी हैं। ये कंपनियां अकूत मुनाफा कमा रही हैं और संबंधित देशों के हिस्से उसका अल्पांश ही आ रहा है। स्पष्ट है, अगर हम अब भी नहीं चेते तो बहुत देर हो जाएगी।



 

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