अरबी इतिहासकार याकूबी लिखता है, जब मोहम्मद बिन कासिम के भारत आक्रमण के बाद दूसरे सारे आक्रमण विफल होने लगे तब खलीफा को उनके अमीरों ने समझाया- "भारत के लोग इतने जुझारू हैं कि उन्हें केवल तलवार से नहीं हराया जा सकता। वे धर्मभीरु हैं, यदि उन्हें प्रेम से अपने वश में किया जाय तो उस देश को आसानी से फतह किया जा सकता है।"
और यही कारण है कि उसके बाद जब जब कोई आतंकी भारत में घुसा तो उसके साथ कोई न कोई सूफी अवश्य था। मोहम्मद गजनवी के साथ आया अलबरूनी, मोहम्मद गोरी के साथ आये मोइनुद्दीन चिश्ती...
खैर! यह हमारा विषय नहीं, हम बात कर रहे हैं कासिम के आक्रमण के बाद की तीन सदियों की।
मोहम्मद बिन कासिम के आक्रमण में जिस बर्बर तरीके से मंदिरों, चैत्यों, बौद्ध मठों को तोड़ा गया था, और निर्दोष बच्चों बूढ़ों को क्रूरतापूर्वक मारा गया था, उसने भारत को एकाएक चैतन्य कर दिया था। और उसके बाद पश्चिमोत्तर भारत में कई राजवंश ऐसे उभरे जिन्होंने दो शताब्दियों तक अपनी साहसी तलवार के बल पर बर्बर तुर्कों को सिंधु के उस पार ही रोक कर रखा। इन्ही में एक था शाही राजवंश...
उत्तर में पेशावर से दक्षिण में मुल्तान तक लगभग छह सौ किलोमीटर की सीमा इन्होंने घेर रखी थी, जिसे पार करना तुर्कों के लिए लगभग असंभव था। ये मूलतः कश्मीरी पंडित थे।
वैसे हमारा विषय यह भी नहीं! हमारा विषय यह है कि सिन्धु नदी की गोद में, हिमालय की मनोरम छटा के बीच इन्ही शाहियों ने कुछ मन्दिर बनवाये थे। विशाल, भव्य, अद्वितीय सुन्दर... जैसे वही धरा का स्वर्ग हो।
प्रकृति का सौंदर्य ऐसा कि वहाँ पहुँचते ही कोई भी सभ्य मनुष्य अपने समस्त अवगुण भूल कर ईश्वर और प्रकृति के आगे नतमस्तक हो जाय। सभ्य व्यक्ति सौंदर्य को पूजता है और असभ्य उसे तहस नहस कर देता है। जिन बर्बरों के संस्कार में केवल तोड़ना और काटना ही था, उन्हें तो मनुष्य मानना ही असभ्यता है।
ये मन्दिर पूरी तरह प्रकृति को समर्पित थे। उन सात नदियों को समर्पित मन्दिर, जिनके नाम पर युगों पूर्व इस विशाल भूभाग को सप्तसैंधव प्रदेश कहा गया था। सिन्धु, सरस्वति, वितस्ता, अस्किनी, पुरुषणि, शतद्रु, विपाशा... आज की सिंधु, लुप्त सरस्वति, झेलम, चनाव, रावी, शतलज, व्यास...
मन्दिर अद्भुत पत्थरों से बने थे। कुछ पत्थर शहद के रङ्ग के, तो कुछ श्वेत पारदर्शी...कुछ नीलम जैसे, तो कुछ रक्त की तरह लाल! लगता जैसे स्वयं विश्वकर्मा ने बहुमूल्य रत्नों से बनाया हो इस तीर्थ को... ऐसे पत्थर उस क्षेत्र में नहीं होते। किवदंतियों में है कि हिमालय की ऊंचाई से सिंधु नदी के रास्ते ये पत्थर लाये गए थे।
मन्दिर के रक्षण हेतु हर ओर कुछ विशाल अट्टालिकाएं बनीं थीं, जहाँ छोटी सी सेना निवास करती थी।
दशवीं सदी में जब गजनवी ने भारत में प्रवेश किया और शाही राजवंश पराजित हुआ तो इन मंदिरों की प्रतिष्ठा भी चली गयी। तबसे अब तक सैकड़ों बार इन मंदिरों के सुंदर पत्थरों पर बर्बरों की तलवारें चली हैं। पर समय की मार झेलते ये खंडहर अब भी ऐसे हैं कि पूरे पाकिस्तान में इनसे सुन्दर और कुछ नहीं।
सात में से दो मन्दिर तो गिर गए, पाँच के ध्वंसावशेष बचे हैं। सम्भव है कल वे भी गिर जांय! समय सबकुछ समाप्त कर देता है।सभ्यता भी एक दिन मरती है और बर्बरता भी! बचती है कहानियां, जो बताती हैं कि कौन बनाने आये थे और कौन तोड़ने...
सर्वेश तिवारी श्रीमुख
गोपालगंज, बिहार।