Tabish Siddiqui
पढ़ाई के दिनों में दोस्तों के साथ बाहर घूमने गया था वहीं क्लियोपेट्रा की एक मूर्ति मुझे पसंद आई तो तो उसे ख़रीद कर घर ले आया.. उस मूर्ति को मैंने बाहरी कमरे में सजाया.. कुछ दिनों बाद मस्जिद के इमाम की हमारे घर दावत हुई.. इमाम साहब आये और खाना खाते वक़्त उनका सारा ध्यान उस मूर्ति पर था.. मुझे वो जानते थे कि मैं कितने खुले विचारों वाला हूँ.. मूर्ति को देखकर वो कहना तो बहुत कुछ चाहते थे मगर ज़्यादा कुछ कह न पाए.. अंत मे सिर्फ़ मुझ से इतना कहा कि "घर मे मूर्ति नहीं रखनी चाहिए ताबिश साहब.. ये बहुत बड़ा गुनाह है"
मैंने उनकी बात को सुन कर अनसुना कर दिया.. मगर इमाम साहब ने बाहर जा कर अपना काम कर दिया.. मोहल्ले के कुछ "कट्टर" मज़हबी लड़कों से मेरे घर मे उस मूर्ति का ज़िक्र कर दिया.. एक लड़का जो मेरा दोस्त था किसी बहाने से मेरे घर आया.. बाहरी कमरे में बैठा.. और फिर क्लियोपेट्रा की मूर्ति देखकर मुस्कुराया.. मुझे दीन समझाने लगा..गर्मा गरम बहस हुई.. अंत मे मुझे धमकी दी उसने कि "बाहर मिलो तुंम्हारी गर्दन रेत दूंगा मैं".. मगर बात चूंकि मोहल्ले की थी इसलिए मैं भी उस से नहीं डरा.. मैं रोज़ उसके सामने से निकलता और कहता "आओ रेतो मेरी गर्दन".. धीरे धीरे मामला रफ़ा दफ़ा हो गया.. लोग अब कहते तो कुछ न थे मगर हमारा मूर्ति रखना किसी को फूटी आंख नहीं भा रहा था
कुछ दिनों बाद खानदान में बातें होने लगी.. कुछ औरतें जो "मसाला मार" के इधर की बात उधर करती थीं, उन्होंने ख़ानदान में ये कहा कि "ताबिश के घर वाले तो मूर्ति पूजा करने लगे हैं और ये लोग छिप कर मूर्ति को दूध पिलाते हैं".. ये मामला उस समय उड़ाया गया जब "गणेश जी के दूध" पीने वाला प्रकरण हुवा था.. खानदान के लोग बहाने बहाने से हमारे बाहरी कमरे में जाने लगे और बाहर जाकर लोगों को कन्फर्म करने लगे कि हां "मूर्ति रखी है, इसलिए पूजा होती है"
ये इतना बवाल खानदान भर में और मुहल्ले भर में सिर्फ़ इसलिए हो रहा था क्यूंकि मेरे बाहरी कमरे में क्लियोपेट्रा की बड़ी सी मूर्ति सजी थी.. मामला बढ़ता ही जा रहा था और अंत मे मेरी दादी की बहन आईं और उन्होंने ख़ूब उल्टा सीधा कहा.. कहा कि तुम लोग एक मूर्ति के लिए सब से पंगा ले रहे हो.. जाने लोग क्या क्या बात बना रहे हैं.. और अंत मे तंग आ कर पापा ने उस मूर्ति को तोड़ दिया.. फिर सारे मोमिन ख़ुश हो गए और मुहल्ले और खानदान में फिर से हम लोग "मुसलमान" माने जाने लगे
बहुत लोगों को शायद ये कुछ बड़ी घटना न लगे.. इस बात का गवाह मेरा पूरा घर है.. एक प्लास्टर ओफ़ पेरिस की बनी क्लियोपेट्रा की मूर्ति और मोमिनो का इस्लाम.. मेरे घर मे एक मूर्ति से सबका ईमान ख़तरे में आ गया था और आख़िर मिल जुल के सबने उसे तुड़वा दिया
सोचिये.. बंगाल में जो दंगा हुवा है पैग़म्बर के अपमान को लेकर वो तो कुछ भी नहीं है.. जब एक घर में रखी सिर्फ एक मूर्ति को लोगों ने अपना 'इस्लाम" बना लिया और पीछे पड़ गए थे हम लोगों के.. ये आलिम, मौलाना जो भी चाहे करवा लें भीड़ से.. इसीलिए ये लोग गुट और अपना अपना मोहल्ला बना कर रहते हैं और उस गुट और मोहल्ले पर पूरा कब्ज़ा "धार्मिक लीडर" का होता है.. खासकर मुस्लिम मोहल्ले.. और उसे भेदना सब के बस की बात नहीं है.. इनका "साम्राज्य" इनके मोहल्लों और भीड़ में बहुत मजबूती से फैला होता है.. इसलिए इस पर क्या विरोध करूँ मैं? क्या कहूँ? ये तो रोज़ की बात है.. इसलिए मैं अब मूल सुधारने की अपील करता हूँ सबसे
ये बिमारी इतनी ज़्यादा गहरी है कि बहुत कम लोगों को इसका अंदाज़ा है.. ये क्यूँ मूर्ति देखकर भड़क जाते हैं? ये "पैगम्बर" के कार्टून पर बवाल करना उसी मानसिकता का हिस्सा है.. कार्टून छोडिये, एक इंग्लिश मूवी में एक एक्टर ने "मुहम्मद" का अभिनय कर दिया था तो उसका गला काटने का फतवा जाने कितने आलिमों ने जारी कर दिया था.. वहां कोई कार्टून नहीं था.. उसे भी ये मारने पर उतर आये.. कोई भी मूवी ऐसी नहीं बन सकती है जिसमे "मुहम्मद" को दिखाया जा सके.. पूरी दुनिया में किसी की हिम्मत नहीं है जो ऐसा कर सके.. सोचिये.. और ऐसा क्यूँ है इसको बहुत कम लोग जानते हैं.. और जो जानते भी हैं वो कभी आगे नहीं आते हैं इसे सुधारने के लिए
इरान में शिया मुहम्मद साहब, अली इत्यादि की तस्वीरें रखते हैं.. यहाँ भी रखते हैं.. इमामबाड़ों में भी ये तस्वीरें देखने को मिल जाती हैं.. और ये भी एक बड़ी वजह है जिसलिए "सऊदी वाले" मुसलमान शियों को मुसलमान नहीं मानते हैं और उनके मारे जाने को "सही" ठहराते हैं.. शियों से दुश्मनी की एक सबसे बड़ी वजह ये भी है
ये बिमारी बहुत बहुत गहरी है.. और ये बिमारी बढ़ी ही इसलिए क्यूंकि सारी दुनिया ने इसे "स्वीकार" कर लिया.. ये "आक्रामक" बने रहे और लोग इसे स्वीकार करते रहे.. इन्होने कहा कि हमारे देश में आओ तो सर से चादर लपेट के आओ और लोगों ने मान लिया.. इन्होने कहा कि अपने प्रोडक्ट बनाओ तो उसमे "हलाल" लिखो.. कंपनी ने पैसे के लालच में लिखना शुरू कर दिया.. जबकि कंपनियों न ये नहीं सोचा कि एक प्रोडक्ट को "हलाल" बना देने पर दूसरा अपने प्रोडक्ट आप "हराम" साबित हो जाता है.. ये अंदर अंदर खुश होते रहे ये देख कर की तुम तो "हराम" खाते हो.. और इसे "नफ़रत" से देखते रहे.. देश और बड़ी बड़ी कंपनियां पैसो के लिए, सेक्युलर बनने के लिए, फ़ालतू का भाईचारा दिखाने के लिए इनकी बातें मानती गयीं.. और इनकी डिमांड बढती ही गयी.. पचास से अधिक देश इन्होने "इस्लामिक" बना लिए और हम इन्हें ख़ुशी ख़ुशी सब करते देते गए.. और एक छोटा सा "इस्राईल" भी इनसे लड़ता है तो उसे हम क्रूर कहते रहे
अगर आप मुसलमान हैं और आपको मेरी बात बुरी लग रही है जो जान लीजिये कि आप पूरी तरह से अरबी "दादागिरी" की गिरफ़्त में हैं.. ये सब धर्म नहीं है.. ये राजनीति है और शुद्ध राजनीति.. अरबों का "इस्लाम", धर्म नहीं है.. मस्जिदों में "इस्राईल" को बद्दुवा देना "धर्म" नहीं है.. ग्यारह साल के बच्चे को "एक कार्टून" के लिए दोष देना और उस वजह से पचासों लोगों की दुकाने जला देना "धर्म" नहीं है.. ये "राजनैतिक दादागिरी" है.. और आपके धर्म का ढांचा कुछ नहीं अब सिर्फ "राजनीति" है.. बस गड़बड़ ये हुवा कि आपकी इस "दादागिरी" को लोगों ने अब तक सहा है.. तो आपको ये अपने धर्म का हिस्सा लगने लगा है
इसे मज़हब कहते हैं आप? शर्म नहीं आती है आपको ख़ुद को मुसलमान कहते हुवे? बाग्लादेश में आपने कितने "ब्लोगेर" बच्चों को मार दिया, पाकिस्तान में "ब्लासफेमी" के नाम पर कितनो को मार दिया.. और यहाँ चूँकि आपका बस नहीं चल रहा है तो आप दुकाने जला के काम चला ले रहे हैं
ये "धर्म" है कि सारी दुनिया आपसे डरे? ये धर्म है कि वहां लोग चैन से जी न पायें जहाँ आप बहुसंख्यक हो जाएँ? इस ख़ूंखार मानसिकता को "मज़हब" कहते हुवे आपकी ज़बान नहीं जलती है? दादागिरी और मज़हब में फर्क समझिये.. जल्दी समझिये क्यूंकि दुनिया का भरोसा और सब्र अब टूट रहा है.. कार्टून क्या लोग पुतले बना के जलाएंगे "मुहम्मद" का अगर आप लोगों को समझ न आई तो
~ताबिश
शुक्रवार, जुलाई 07, 2017
एक मूर्ति से इस्लाम खतरे में
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