गुरुवार, नवंबर 03, 2011

ईसाई धर्म और नारी मुक्ति

ईसाई धर्म और नारी मुक्ति

क्रिश्चिएनिटी की जिन मान्यताओं के विरोध में यूरोपीय नारी मुक्ति आंदोलन वीरतापूर्वक खड़ा हुआ, वे मान्यताएं हिन्दू धर्म, बौध्द धर्म तथा विश्व के सभी धर्मों में कभी थी ही नहीं। यहां तक कि यहूदी धर्म और इस्लाम में भी ये मान्यताएं कभी भी नहीं थीं। भले ही स्त्रियों पर अनेक प्रतिबंध इस्लाम में हैं परन्तु ऐसी भयंकर मान्यताएं वहां भी नहीं हैं।

भारत में भी नारी मुक्ति का एक आंदोलन चल रहा है। इसके भी अधिकांश स्वर वैसे ही दिखते हैं, जैसे यूरोपीय स्त्री आंदोलन के दिखते हैं। परन्तु यह दिखाई पड़ना केवल ऊपरी है, आकारगत है। तत्व की दृष्टि से दोनों में बड़ा अंतर है। यूरोपीय स्त्री आंदोलन लगभग एक हजार वर्षों के यूरोपीय इतिहास से अभिन्नता से जुड़ा है। भारत यूरोपीय राजनीति से, जो आज एक तरह से वैश्विक राजनीति भी है, घनिष्ठता से जुड़ा है। भारत में राजनीति करने वाले लोगों के मन में यूरोपीय, अमेरिकी राजनैतिक विचारों तथा राजनैतिक संस्थाओं के प्रति श्रध्दा एवं प्रणाम की भावना है और इसी कारण से वहां की एकेडमिक्स के प्रति भी श्रध्दा और प्रणाम भावना है। अत: यहां राजनैतिक दृष्टि से सक्रिय लोगों में नारी मुक्ति के संदर्भ में भी यूरोपीय नारी मुक्ति आंदोलन के प्रत्ययों, नारों, मान्यताओं और भंगिमाओं का अनुसरण करने का भरपूर प्रयास दिखता है, क्योंकि वैसा करना ही ‘पोलिटिकल करेक्टनेस’ है। यह बात समझ में भी आती है।

वैश्विक मीडिया द्वारा ‘पोलिटिकली करेक्ट’ लोगों और बातों को ही तरजीह मिलेगी, प्रधानता मिलेगी, प्रचार मिलेगा, महत्व मिलेगा, विदेश घूमने और वहां पब्लिसिटी पाने का मौका मिलेगा, जिससे सुख-सुविधा और ‘पावर’ मिलेगी। परन्तु ‘पोलिटिकल करेक्टनेस’ और एकेडमिक स्पष्टता- ये दो अलग-अलग बातें हैं। इनके घालमेल से किसी का भी भला नहीं होगा। एकेडमिक स्पष्टता सम्भव होती है- तथ्यों के संकलन, उनके निष्पक्ष विश्लेषण और ब्यौरेवार प्रस्तुतियों से। इन तीनों से ही समस्याओं का यथातथ्य निरूपण सम्भव होता है। और तब उनके सम्भावित समाधान के रास्ते खुलते हैं। अत: बौध्दिक स्पष्टता के लिए आवश्यक है कि सर्वप्रथम हम यूरोपीय नारी मुक्ति आंदोलन के वास्तविक संदर्भों को जानें। ग्यारहवीं शदी ईस्वी के प्रारंभ तक यूरोप का बड़ा हिस्सा बहुदेवपूजक यानी सनातनधर्मी था। क्रिश्चिएनिटी वहां 7वीं शदी ईस्वी से धीरे-धीरे फैलनी शुरू हुई।

इंग्लैंड में क्रिश्चिएनिटी 7वीं से 11वीं शदी तक क्रमश: फैली। 1066 ई. में जब इंग्लैंड पर नार्मन लोगों ने आक्रमण किया तब पोप की मदद पाने के लिए वहां के शासक सैक्सन लोगों ने क्रिश्चिएनिटी को ‘राजकीय रिलिजन’ स्वीकार कर लिया। इसमें वहां तीन सौ वर्षों से लगातार सक्रिय मिशनरी पादरियों की भूमिका रही। उसके पूर्व 8वीं शताब्दी में प्रफांस के बर्बर प्रहारों से टूटे हुए तत्कालीन कतिपय अंग्रेज शासक समूहों ने भी कुछ समय के लिए क्रिश्चिएनिटी स्वीकार की थी। रोम में क्रिश्चिएनिटी चौथी से छठी शताब्दी ईस्वी के बीच धीरे-धीरे फैली थी। प्रफांस में वह छठी शताब्दी में फैली। स्पेन तथा जर्मनी में छठी और सातवीं, जबकि पोलैंड, रूस, सर्बिया, बोहेमिया, हंगरी, बुल्गारिया, डेनमार्क आदि में 10वीं और 11वीं शताब्दी में, स्वीडन और नार्वे में 12वीं शताब्दी में। प्रशा, फिनलैंड, स्टोनिया, लीवोनिया और स्विट्जरलैंड में 13वीं शताब्दी में ही ईसाईयत फैल पायी। 15वीं शताब्दी ईस्वी से उसका प्रचंड विरोध भी यूरोप में शुरू हो गया। क्योंकि उसकी मूल मान्यताएं ही मानवता-विरोधी थीं। ईसाईयत की मूल मान्यताओं का प्रबल प्रभाव 12वीं से 16वीं शदी ईस्वी तक यूरोप में व्यापक हुआ। इन मान्यताओं और आस्थाओं को जाने बिना यूरोपीय स्त्री मुक्ति आंदोलन के संदर्भों को समझा नहीं जा सकता।

स्त्री-पुरुष सम्बन्धी मूल क्रिश्चियन मान्यताएं मूल क्रिश्चियन मान्यताओं में सबसे महत्वपूर्ण मान्यताएं हैं:-

(1) ‘गॉड’ ने पुरुष (मैन) को अपनी ही ‘इमेज’ में बनाया। अत: यह ‘मैन’ ही समस्त सृष्टि का ‘लॉर्ड’ है। ‘मैन’ को चाहिए कि वह धरती को दबाकर आज्ञाकारिणी और वशवर्ती बना कर रखे तथा उससे खूब आनंद प्राप्त करे।

(2) ‘गॉड’ ने प्रथम ‘मैन’ एडम की एक पसली से स्त्री (ईव) बनाई जो ‘मैन’ के मन-बहलाव के लिए बनाई गई। इस प्रकार स्त्री (ईव या वूमैन) बाद की रचना है। वह ‘मैन’ का केवल एक अंश है जो उसके मन-बहलाव के लिए बनी है।

(3) नर-नारी का परस्पर स्वेच्छा और उल्लास से मिलना ही ‘मूल पाप’ (ओरिजिनल सिन) है। इस ‘ओरिजिनल सिन’ के लिए ‘मैन’ को ‘शैतान’ के कहने पर ‘वूमैन’ ने फुसलाया। इसलिए ‘वूमैन’ ‘शैतान की बेटी’ है। वह पुरुष को सम्मोहित कर ‘मूल पाप’ यानी कामभाव यानी ‘शैतानियत’ के चंगुल में फंसाती है। अत: वह सम्मोहक (सेडयूसर) है। ‘मूल पाप’ में पुरुष को खींचने का जो उसने अनुचित आचरण किया है, उस कारण वह ‘एडल्टरेस’ है, ‘एडल्टरी’ की दोषी है। पुरुष को सम्मोहित करने के ही अर्थ में वह जादूगरनी है। पुरुष को सम्मोहित करना बुरा है, इसलिए वह बुरी जादूगरनी है। अत: डायन (विच) है। उसे यातना देना पुण्य कार्य है।

(4) शैतान ‘गॉड’ का प्रतिस्पर्ध्दी है। ‘गॉड’ और शैतान में निरन्तर युध्द चल रहा है। जीसस की ‘मिनिस्ट्री’ यानी पादरी मंडल लगातार शैतान के साम्राज्य के विरुध्द संघर्षरत है, ताकि अंतत: ‘गॉड’ की जीत हो। शैतान ‘गॉड’ का शत्रु है। शैतान के विरुध्द युध्द करना और युध्द में सब प्रकार के उपाय अपनाना हर आस्थावान क्रिश्चियन का कर्तव्य (रेलिजियस डयूटी) है।

(5) स्त्री को, गैर-क्रिश्चियन सभी पुरुषों को तथा इस धरती को अपने अधीन दबा कर रखना, आज्ञाकारी और वशवर्ती बनाकर रखना हर ‘फेथफुल क्रिश्चियन’ पुरुष का कर्तव्य है और यह कर्तव्य उसे बुध्दि और बल के हर संभव तथा अधिकतम उपयोग के द्वारा करना है।

इन्हीं मूलभूत मान्यताओं के कारण क्रिश्चिएनिटी में ‘क्रिश्चियन स्त्री’ को शताब्दियों तक ‘मैन’ की शत्रु और शैतान की बेटी तथा शैतान का उपकरण माना जाता रहा है। नर-नारी मिलन को ‘मूल पाप’ माना जाता रहा है। इस दृष्टि से विवाह भी वहां ‘पाप’ ही माना जाता रहा है परन्तु वह क्रिश्चियन विधि से होने पर तथा चर्च के नियंत्रण में वैवाहिक जीवन जीने पर अपेक्षाकृत ‘न्यूनतम पाप’ माना जाता रहा। तब भी विवाहित स्त्री को मूलत: ‘अपवित्र’ ही माना जाता है। पवित्र स्त्री तो वह है जो किसी क्रिश्चियन मठ में दीक्षित मठवासिनी अर्थात् ‘नन’ है जिसने गरीबी, ‘चेस्टिटी’ तथा क्रिश्चियन पादरियों और चर्च की आज्ञाकारिता की शपथ ली है।

ननों को हठयोगियों जैसा कठोर शारीरिक तप करना पड़ता है। पादरी ‘सेलिबेट’ यानी अविवाहित होते हैं, जिसका अर्थ गैर-जानकार लोगों ने हिन्दी में ‘ब्रह्मचारी’ कर रखा है जो पूर्णत: गलत है। ‘सेलिबेट’ पादरी ‘नन्स’ के साथ उनके सम्मोहन के कारण प्राय: काम सम्बन्ध बनाते रहे हैं और उसके लिए दोषी भी ‘सेडयूसर’ ‘नन’ को ही माना जाता है।

(6) क्रिश्चिएनिटी की उपर्युक्त पांचों मूल मान्यताओं से जुड़ी एक महत्वपूर्ण छठी मान्यता यह है कि स्त्री ने चूंकि पुरुष को बहला-फुसलाकर ‘मूल पाप’ में फंसाया, अत: ‘गॉड’ ने ‘ईव’ को शाप दिया। इस शाप में मासिक धर्म, प्रसव पीड़ा, गर्भ धारण तथा सदा पुरुष की अधीनता में रहने और दंडित किये जाने आदि का शाप है। कुल सात शापों से स्त्री शापित है। किसी भी भूल पर उसे एक स्वस्थ मर्द के अंगूठे की मोटाई वाले कोड़े से दस से पचास तक कोड़े मारना क्रिश्चियन पुरुष का सहज अधिकार और कर्तव्य है। अपराध गंभीर होने पर सौ या उससे ज्यादा कोड़े पड़ सकते हैं।

(7) क्रिश्चिएनिटी में मातृत्व भी एक अभिशाप है। किसी स्त्री का मां बनना ‘गॉड’ द्वारा उसे दंडित किए जाने का परिणाम है। संतान भी ‘मूल पाप’ का परिणाम होने के कारण वस्तुत: धरती पर पाप का प्रसार ही है। केवल चर्च को समर्पित होने पर व्यक्ति इस ‘पाप’ के भार से इसलिए मुक्त हो जाता है, क्योंकि वह ऐसा करके उस जीसस की शरण में जाता है जिसने ‘क्रास’ पर टंग कर (सूली पर चढ़ कर) एडम और ईव तथा उनकी समस्त संतानों के द्वारा किए गए ‘मूल पापों’ का प्रायश्चित पहले ही सबकी ओर से कर लिया है। जीसस ‘गॉड’ का ‘इकलौता बेटा’ है और केवल उसकी शरण में जाने पर ही मनुष्य ‘पाप’ से मुक्त होता है। ‘पाप’ का यहां मूल अर्थ है ‘ओरिजिनल सिन’ यानी रति सम्बन्ध रूपी पाप जिससे व्यक्ति गर्भ में आता और जन्म लेता है। अत: व्यक्ति जन्म से ही पापी है। क्रिश्चिएनिटी की ये सातों धारणाएं अभूतपूर्व हैं, अद्वितीय हैं। और संसार की कोई भी अन्य सभ्यता इनमें से एक भी मान्यता को नहीं मानती। ये केवल क्रिश्चिएनिटी में मान्य आस्थाएं हैं।

इन अद्वितीय मान्यताओं के कारण पांच सौ वर्षों तक करोड़ों सदाचारिणी क्रिश्चियन स्त्रियों को लगातार दबाया गया, मारा गया, जलाया गया, बलपूर्वक डुबोया गया, खौलते कड़ाह में उबाला गया, घोड़े की पूंछ से बांध कर घसीटा गया। ‘क्रिश्चियन स्त्री’ पर ये अत्याचार किन्हीं लुच्चे-लफंगों, लम्पटों अथवा अनपढ़ या पिछड़े लोगों ने नहीं किया था, किन्हीं अशिक्षित, अल्पशिक्षित या असामाजिक तत्वों ने नहीं किया था अपितु सर्वाधिक शिक्षित, संगठित और प्रभुताशाली क्रिश्चियन भद्रलोक ने किया।

क्रिश्चियन स्त्रियों में भी आत्मा होती है, यह 17वीं शताब्दी के आरंभ तक चर्च द्वारा मान्य नहीं था। स्त्री का स्वतंत्र व्यक्त्तिव तो 20वीं सदी में ही मान्य हुआ। 1929 ई. में इग्लैंड की अदालत ने माना कि स्त्री भी ‘परसन’ है। स्त्रियों में आत्मा होती है, यह यूरोप के विभिन्न देशों में 20वीं शताब्दी में ही मान्य हुआ। 20वीं शताब्दी में ही स्त्रियों को वयस्क मताधिकार वहां पहली बार प्राप्त हुआ। 18वीं शताब्दी तक स्त्रियों को बाइबिल पढ़ने का अधिकार तक मान्य नहीं था। स्त्री को डायन कहकर उनको लाखों की संख्या में 14वीं से 18वीं शताब्दी तक जिन्दा जलाया गया और यातना देकर मारा गया। स्पेन, इटली, पुर्तगाल, हालैंड, इंग्लैंड, प्रफांस, जर्मनी, स्विट्जरलैंड आदि सभी देशों में ये कुकृत्य हुए। इन सब भयंकर मान्यताओं के विरोध में यूरोप में नारी मुक्ति आंदोलन चला जिसमें उन्होंने स्वयं को पुरुषों के समतुल्य माना, अपने भीतर वैसी ही आत्मा और बुध्दि मानी और ‘नन’ बनने से ज्यादा महत्व पत्नी, प्रेमिका और मां बनने को तथा स्वाधीन स्त्री बनने को दिया। जहां मां बनना स्वाधीन व्यक्तित्व में बाधा प्रतीत हो, वहां मातृत्व से भी अधिक महत्व स्त्रीत्व को दिया। स्त्री को बाइबिल तक नहीं पढ़ने दिया जाता था तो उसके विरोध में जाग्रत स्त्रियां प्रमुख बौध्दिक और विदुषी बन कर उभरीं तथा विद्या के हर क्षेत्र में अग्रणी बनीं। क्रिश्चियन स्त्री को पुरुषों को लुभाने वाली कहा जाता था, इसीलिए नारी मुक्ति का एक महत्वपूर्ण अंग हो गया- श्रंगारहीनता या सज्जाहीनता। काम को ‘मूल पाप’ माना जाता था इसलिए उसकी प्रतिक्रिया में काम संबंध को स्वतंत्र व्यक्तित्व का लक्षण माना गया। स्त्रियां स्वयं यह सुख न ले सकें इसके लिए एक विशेष अंगच्छेदन का प्रावधान किया गया था। अत: उसके विरोध में जाग्रत स्त्रियों ने समलिंगी सम्बन्धों की स्वतंत्रता की मांग की। इन सब संदर्भों से अनजान भारतीय लोग, फिर वे प्रबुध्द स्त्रियां हों या पुरुष, यूरोपीय स्त्री मुक्ति आंदोलन के कतिपय ऊपरी रूपों की नकल करते हैं। यहां उसी क्रिश्चियनिटी का महिमामंडन किया जाता है जिसने यूरोप की स्त्रियों का उत्पीड़न सैकड़ों सालों तक किया तथा जिसने साथ ही भारत में हिन्दू धर्म और हिन्दू समाज सहित दुनिया के सभी समाजों पर अत्याचार किया।

नृशंस क्रिश्चिएनिटी के अत्याचारों के प्रतिरोध में उपजे साहित्य की नकल जब ‘अपराधी’ और ‘पीड़ित’ के इन रिश्तों की समझ के बिना ही भारत में की जाती है, तब ऐसा करने वाले लोग एक तो उन वीर स्त्रियों की पीड़ा की गहराई का अपमान करते हुए उसे भोडी नकल के योग्य कोई वस्तु बना कर अमानवीय व्यवहार करते हैं, साथ ही इसी छिछोरी मानसिकता से वे अकारण ही उस श्रेष्ठ हिंदू धर्म की निंदा करते हैं जो क्रिश्चियन साम्राज्यवादी अत्याचारों के विरुध्द भारत की स्त्रियों और पुरुषों का त्रता और रक्षक धर्म रहा है। यह हिन्दू धर्म हिन्दू स्त्री की रक्षा का समर्थ कवच रहा है। परन्तु अनपढ़ (इल्लिटरेट) लोग जो आधुनिक अर्थ में शिक्षित कहलाते हैं, इन विषयों में सत्य का विचार किए बिना यूरोपीय स्त्रियों के बाहरी शब्दों की नकल करते हुए हिन्दू स्त्रियों के कष्ट के लिए हिन्दू धर्म को ही गाली देते हैं। केवल इसलिए क्योंकि यूरोपीय नारी मुक्ति आंदोलन अत्याचारी क्रिश्चियन रेलिजन को गाली देता है। क्रिश्चियन रेलिजन का अत्याचारी इतिहास सत्य है। लेकिन उसकी नकल में हिन्दू धर्म को भी वैसा चित्रित करना पाप है, झूठी रचना है।

क्रिश्चिएनिटी की जिन मान्यताओं के विरोध में यूरोपीय नारी मुक्ति आंदोलन वीरतापूर्वक खड़ा हुआ, वे मान्यताएं हिन्दू धर्म, बौध्द धर्म तथा विश्व के सभी धर्मों में कभी थी ही नहीं। यहां तक कि यहूदी धर्म और इस्लाम में भी ये मान्यताएं कभी भी नहीं थीं। भले ही स्त्रियों पर अनेक प्रतिबंध इस्लाम में हैं परन्तु ऐसी भयंकर मान्यताएं वहां भी नहीं हैं। भारत का इतिहास तो क्रिश्चिएनिटी से नितान्त विपरीत है। यहां तो अत्यंत प्राचीन काल से स्त्रियां ब्रह्मवादिनी, रणकुशल सेनानी तथा कलाओं, शिल्पों और व्यवसाय आदि में अग्रणी रही हैं।

हिन्दू धर्म में यशश्वी स्त्रियों की महान परंपरा रही है। यहां प्राचीन काल में महारानी कैकेई से लेकर 19वीं शताब्दी ईस्वी के मधय में हुए भारत के स्वाधीनता संग्राम में सर्वसम्मति से सेनापति की भूमिका निभाने वाली युवा वीरांगना महारानी लक्ष्मीबाई तक हुई हैं। लक्ष्मीबाई 26 वर्षीय विधवा युवती थीं, जिन्हें युध्द सम्बन्धी उनकी दक्षता, कौशल और वीरता के कारण तत्कालीन भारतीय नरेशों ने सहज ही अपना सेनापति स्वीकार किया था। भारत में जीवन के हर क्षेत्र में वैदिक काल से ही स्त्रियां पुरुषों के समान अग्रणी रही हैं। उपनिषद कहते हैं कि एक ही मूल तत्व द्विदल अन्न के दोनों दलों की तरह स्त्री और पुरुष में विभक्त हुआ है, इसीलिए दोनों को परस्पर अर्धांग माना जाता है। भारतीय जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में दक्ष, प्रसिध्द तथा सफल स्त्रियों की अनन्त शृंखला है। यहां इस्लामी अत्याचारों और ब्रिटिश क्रिश्चियन अत्याचारों, दोनों का ही सामना स्त्रियों और पुरुषों ने समान वीरता से और सहभागिता से किया है। भारत की इस अक्षुण्ण परम्परा को अस्वीकार कर यूरोपीय नारी के इतिहास को ही भारतीय स्त्री का भी इतिहास मानने और बताने का अर्थ है स्वयं को उस ‘क्रिश्चियन’ छवि में समाहित करना जिसके अनुसार स्त्रियां सम्मोहक हैं। उनमें सेक्स की शक्ति से मोह लेने की क्षमता है। स्त्री विषयक इन ‘क्रिश्चियन’ मान्यताओं को अंगीकार करने पर उस मूल ‘क्रिश्चियन’ दृष्टि की भी सहज स्वीकृति हो जाएगी जिसके अनुसार स्त्री शैतान की बेटी और उपकरण है, ‘एडल्टरेस’ है तथा पतन का कारण है। इन सब मान्यताओं को भारतीय इतिहास का भी सत्य मानकर इनके विरुध्द विद्रोह करना भारत में नारी मुक्ति आंदोलन का लक्षण मान लिया जाता है। परन्तु क्या ऐसा झूठा, तथ्यविरुध्द और नकली इतिहास रचा जा सकता है? या मान्य हो सकता है? यूरोप की प्रबुध्द स्त्रियां ‘रेनेसां’ के बावजूद क्रिश्चिएनिटी की इन मान्यताओं के प्रभाव में हैं कि यूरोप के बाहर की दुनिया तो असभ्य लोगों और जाहिलों की दुनिया है। वे अब भी मानती हैं कि सम्पूर्ण आधुनिक विश्व के लिए एक ही सार्वभौम सभ्यता है और वह है क्रिश्चियन सभ्यता। वे इसी भाषा को समझती हैं और इसे ही बोलती हैं। यद्यपि क्रिश्चिएनिटी की सर्वश्रेष्ठता में विश्वास वो खो चुकी हैं। तथापि यूरोपीय सभ्यता की सार्वभौमिकता में उनका अभी भी विश्वास है। परन्तु भारत की प्रबुध्द स्त्री भारत के सम्पूर्ण इतिहास को झुठलाकर एक काल्पनिक इतिहास कैसे रच सकती है? और कैसे वह स्वयं को प्रमाणिक ठहरा सकेगी?

भारत में ‘नारी मुक्ति’ के मायने हैं (1)भारतीय इतिहास के विषय में तथ्यों का संकलन (2) क्रिश्चिएनिटी की भयावह मान्यताओं के रेलिजियस और दार्शनिक आधारों की सही समझ (3) उन मान्यताओं के कारण उन्मत्त ‘क्रिश्चियन’ साम्राज्यवाद द्वारा विश्वभर में किए गए बर्बर अत्याचारों और लूट की जानकारी (4) इस लूट और अपमान से हुई क्षति की पूर्ति की मांग ब्रिटेन तथा सम्पूर्ण क्रिश्चियन समाज से करना, (5) भारत से ‘एंग्लो-सेक्सन ला’ की विदाई की मांग करना। जब तक यह ‘एंग्लो-सेक्सन ला’ भारत में राज्य की विधिव्यवस्था का आधार है, तब तक भारत में हिन्दू धर्म को वैसा ही राजकीय संरक्षण दिए जाने का दबाव बनाना जैसा ‘क्रिश्चिएनिटी’ को ‘एंग्लो-सेक्सन ला’ के अंतर्गत सेक्युलर ब्रिटेन में प्राप्त है (6) भारतीय स्त्री की गौरवशाली परम्पराओं की पुनर्प्रतिष्ठा एवं (7) शासन, सेना, प्रशासन सहित विज्ञान प्रौद्योगिकी, कला, व्यवसाय आदि सभी क्षेत्रें में हिन्दू स्त्री की बुध्दि को फलवती होने देने की व्यवस्थाएं बनाने और प्रावधान किए जाने का दबाव बनाना तथा श्रेयस्कर राष्ट्र तथा श्रेयस्कर विश्व के निर्माण में हिन्दू स्त्रियों की भूमिका के लिए पथ प्रशस्त करना। यहां ‘हिन्दू स्त्री’ शब्द का प्रयोग बहुत सोच-विचार कर विवेकपूर्वक किया जा रहा है क्योंकि हिन्दू स्त्रियों का गौरवशाली इतिहास एक तथ्य है और इस सत्य के बल पर ही हिन्दू स्त्री अपनी प्रज्ञा और शील के प्रकाश तथा उत्कर्ष से स्वयं को और शिक्षित भारतीय समाज को भ्रांत धारणाओं से मुक्त रख सकती है। वह भारत की मुस्लिम और क्रिश्चियन स्त्रियों के दुख भी बांट सकती है। करुणा भाव तथा मैत्री भाव से उनकी सहायक भी बन सकती है। कम्युनिस्ट तथा अन्य यूरोख्रीस्त मत के प्रभावों वाली हिन्दू स्त्रियों की भ्रांति और विचलन को भी दूर करने में आत्मगौरव सम्पन्न हिन्दू स्त्री ही समर्थ हो सकती है। ऐसी हिन्दू स्त्री वीरता, कंटकशोधन, भारत के वैभव-विस्तार, सुसंस्कार, समृध्दि, विपुलता के प्रवाह की पोषक और संरक्षक के नाते वैविधयपूर्ण रूपों में पुन: प्रतिष्ठा पाएगी, यही भारत में नारी मुक्ति के सच्चे मायने हैं।

(लेखिका गांधी विद्या संस्थान वाराणसी की निदेशिका हैं)

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