मुसलमानों की तरक्की में बाधक है
मुस्लिम वोट बैंक
नरेन्द्र सहगल
'देश के लिए हम हमेशा हाजिर हैं। देश पहले है, हम बाद में'
-मौलाना काल्बे सादिक, उपाध्यक्ष, आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड
'चुनाव में मुसलमान मजहब को नहीं, मुल्क की तरक्की पर ध्यान दें'
-मौलाना अब्दुल कासिम नोमानी, मोहतमिम, दारुल उलूम देवबंद
भारतीय मुस्लिम समाज की यही बड़ी त्रासदी अथवा दुर्भाग्य रहा है कि हिन्दुत्व विरोधी मुस्लिम नेता, कट्टरपंथी मुल्ला-मौलवी और वोट के लोभी राजनीतिक दल मुसलमान भाइयों को राष्ट्र की मुख्य-धारा में मिलने ही नहीं देते। जब भी कभी ऐसा मौका आता है ये तत्व सक्रिय हो जाते हैं और एक स्वर से अनेक प्रकार का दुष्प्रचार करके भारतीय मुसलमानों को देश के विशाल हिन्दू समाज से जुड़ने के प्रत्येक प्रयास पर पानी फेर देते हैं। परिणामस्वरूप मजहब के आधार पर हुए देश विभाजन के बावजूद भारतीय मुसलमान एक सतर्क सजग नागरिक बनने की बजाए वोट की वस्तु बनकर रह गया है।
मुसलमानों का राजनीतिक इस्तेमाल
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद गो रक्षा आंदोलन एवं रामजन्मभूमि मुक्ति अभियान जैसे अनेक अवसरों पर भारत के आम मुसलमान ने जब अपने पूर्वजों की संस्कृति के साथ जुड़ने की तैयारी की तो दारुल इस्लाम के झंडाबरदारों ने इन्हें तुरंत इस्लामिक लाठी से हांककर अल्पसंख्यकवाद के तंग कोने में धकेल दिया। हिन्दू पूर्वजों की संतान हमारे इन मतांतरित भाइयों का पहले अंग्रेजों और अब अंग्रेजों के मानसपुत्रों ने अपने सत्ता स्वार्थों के लिए भरपूर इस्तेमाल किया। भारतीय समाज को तोड़ने का यह राष्ट्रघातक सिलसिला आज भी जारी है।
यदा-कदा कुछ मुस्लिम मजहबी नेता अपने समाज को देश के सम्मान और सनातन हिन्दू परंपराओं से समरस करने का यदि प्रयास भी करें तो इनकी आवाज कट्टरपंथियों के शोर के नीचे दब जाती है। यही वजह है कि साधारण मुस्लिम समाज में से राष्ट्रवादी नेतृत्व कभी उभर ही नहीं सका। अन्यथा कट्टरपंथियों की पहुंच के बाहर ऐसे अनेक मुसलमान भाई हैं जो हिन्दुओं के साथ मिलकर रहना पसंद करते हैं और देशभक्ति की भावनाओं से भी ओतप्रोत हैं।
मजहब से पहले देशहित
हाल ही में आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड के उपाध्यक्ष व शिया नेता मौलाना कल्बे सादिक ने कहा है कि 'देश पहले है और हम बाद में-देश के लिए हम हमेशा हाजिर हैं।' मौलाना ने लखनऊ में गत 30 अक्तूबर को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के निवर्तमान सरसंघचालक श्री कुप्.सी.सुदर्शन से हुई अपनी भेंट के समय यह भी कहा कि 'साझा तो अलग-अलग समुदायों में होता है, हम तो एक ही हैं।' मौलाना सादिक के अनुसार देशहित के लिए वर्तमान चुनावी प्रक्रिया में तब्दीली लाना वक्त का तकाजा है। प्राप्त समाचारों के अनुसार इस मुलाकात में दोनों ओर से मजहबी और जातीय दीवारों से ऊपर उठकर राष्ट्रहित में ईमानदारी से काम करने का इरादा प्रकट किया गया।
कल्बे सादिक द्वारा चुनावों में मजहब नहीं ईमानदारी के मापदंड का पक्ष लेने के दूसरे ही दिन दारुल उलूम देवबंद ने भी अपना मंतव्य प्रकट करते हुए कहा कि मुसलमानों को मजहब के आधार पर वोट देने की परंपरा को अब छोड़ देना चाहिए। दारुल उलूम के मोहतमिस मौलाना अब्दुल कासिम नोमानी ने कहा है कि चुनाव के दौरान लोगों को यही देखना चाहिए कि कौन सा उम्मीदवार क्षेत्र में विकास कर सकता है। सर्वविदित है कि दारुल उलूम देवबंद ने पहले भी एक फतवा जारी किया था कि चुनावों में मुसलमान मजहब को नहीं, मुल्क की तरक्की को ध्यान में रखें। इसी तरह मदरसा जामिया नूरिया के मन्नानी मियां ने भी मजहब के स्थान पर उम्मीदवार के चरित्र और योग्यता के आधार पर वोट डालने की वकालत करते हुए कहा है कि इससे मुसलमानों की तरक्की भी होगी?
नुकसानदायक है मुस्लिम वोट बैंक
मुस्लिम समाज के मजहबी नेताओं के मापदंड और दृष्टिकोण में आ रहे इस अति महत्वपूर्ण परिवर्तन का सर्वत्र स्वागत होना चाहिए। यह समाज मुस्लिम वोट बैंक की अवधारणा और दंभ को तोड़ने में सफल हो जाता है तो कोई भी राजनीतिक दल इनका दलगत स्वार्थों के लिए इस्तेमाल नहीं कर सकेगा। इससे मुस्लिम समाज का रुतबा बढ़ेगा और वोट की वस्तु होने का कलंक भी मिटते देर नहीं लगेगी। मुस्लिम प्रत्याशी न केवल अपने बहुमत वाले क्षेत्र अपितु हिन्दू बहुल क्षेत्रों से भी जीत सकेंगे। इसी तरह हिन्दू प्रत्याशी भी मुस्लिम आबादी वाले क्षेत्रों से चुनाव लड़ सकेंगे। सामाजिक सौहार्द का एक नया दौर प्रारंभ होगा।
अगर गहराई में उतरकर मुस्लिम वोट बैंक की समीक्षा की जाए तो स्पष्ट होगा कि इस मापदंड के कारण कांग्रेस, समाजवादी दलों एवं लालू प्रसाद, रामविलास पासवान जैसे नेताओं ने राष्ट्रहित से दूर दलगत राजनीतिक स्वार्थों को महत्व देना उचित समझा। मुस्लिम वोट बैंक को आकर्षित करने के लिए अलागववादियों के आगे घुटने टेकने की देशघातक राजनीति ने जन्म लिया है। अल्पसंख्यकवाद, मजहबी आरक्षण, फिरकापरस्त समझौतेबाजी और जातिगत गठबंधन जैसी समाजघातक बीमारियां इसी वोट बैंक की राजनीति की उपज हैं। यदि वास्तव में मुस्लिम मजहबी नेता चुनावों के समय मजहब से ऊपर उठने का साहस कर सकें तो यह भारत के इतिहास में सामाजिक एकता के एक अनूठे अध्याय का श्रीगणेश होगा। देश में इन दिनों सोची समझी जा रही चुनाव सुधार प्रक्रिया में यह कदम एक मील का पत्थर साबित होगा।
तरक्की में रोड़ा हैं राजनीतिक नेता
उम्मीद के मुताबिक मुस्लिम मजहबी नेताओं की इस थोड़ी सी हलचल अथवा पहल का भी दलगत स्वार्थों में आकंठ डूबे राजनीतिक नेता और कट्टरपंथी मुल्ला-मौलवी विरोध कर रहे हैं। पूर्व की भांति इस बार भी मुस्लिम समाज को राष्ट्रीय समाज का सम्मान मिलने का खतरा इन्हें डराने लगा है। अपने को भारत के करोड़ों मुसलमानों का प्रतिनिधि मानने की गलतफहमी पाले हुए समाजवादी पार्टी के नेता आजम खां ने प्रतिक्रिया जाहिर की है कि मौलाना कल्बे सादिक और संघ के ओहदेदार कुप्.सी.सुदर्शन की मुलाकात से सभी मुसलमान बेहद आहत हैं। आजम ने इस भेंटवार्ता को संघ की साजिश करार दिया है। लगे हाथ उन्होंने बाबरी ढांचे और गुजरात में हिंसा जैसे बेबुनियाद और एकतरफा मुद्दे उठाकर मुसलमानों को एक बार फिर भड़काने का प्रयास किया है।
निकट भविष्य में होने वाले उत्तर प्रदेश विधानसभा के चुनावों में मुसलमानों के वोट बैंक को भुनाने की एवज में आजम खान यह भी भूल गए कि उनके मजहबी नेताओं ने मजहब की बजाए विकास को तरजीह देने की बात कहकर साम्प्रदायिकता के दायरे को तोड़ने की इच्छा जताई है जो स्वयं मुस्लिम समाज, उत्तर प्रदेश और देश के हित में है। भारत माता, वंदेमातरम, सरस्वती वंदना जैसी राष्ट्रीय वैचारिक धरातल से नफरत करने वाले आजम खान से और कोई उम्मीद की भी नहीं जा सकती।
आजम खां द्वारा संघ और मुस्लिम मजहबी नेताओं की निकटता को एक मुस्लिम विरोधी साजिश कहने पर कल्बे सादिक ने समयोचित प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए कहा है कि 'आरएसएस के पूर्व प्रमुख सुदर्शन से मुलाकात पर विरोध जताने वाले आजम खान को कुरान की मालुमात (जानकारी) कम है। हमारे लिए देशहित पहले है। अच्छे लोग संसद और विधान मंडलों में चुनकर जाएं इस पर किसे एतराज होगा? क्या करप्शन का विरोध नहीं होना चाहिए, चुनाव सुधार नहीं होने चाहिए? आजम इनका विरोध कर रहे हैं तो उन्हें कुरान की मालुमात कम है।'
(अमर उजाला, पृष्ठ 13, 1 नवम्बर, 2011)
दारुल उलूम देवबंद के वर्तमान मोहतमिम मौलाना नोमानी ने मजहब के स्थान पर योग्यता, चरित्र और विकास पर ध्यान केन्द्रित करने के मौलाना सादिक के विचारों से सहमति तो प्रकट की है परंतु साथ में जोड़ दिया है कि यह काम संघ के साथ मंच साझा करके नहीं हो सकता। वास्तव में यही संकुचित दृष्टिकोण मुस्लिम समाज के विकास में बाधक है। उल्लेखनीय है कि जब दारुल उलूम देवबंद के पूर्व कुलपति मौलाना वस्तानवी ने विकास के मुद्दे पर गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी की प्रशंसा की थी तो इसी तरह के अंतरद्वंद्व के शिकार मुस्लिम कट्टरपंथियों ने शोर मचाया था। इसी मुद्दे पर वस्तानवी जैसे रचनात्मक सोच वाले मजहबी नेता को अपने पद से हटना पड़ा था।
हिन्दुत्व का हिस्सा है मुस्लिम समाज
देश की एकता, समरसता और विकास की बात करने वाले मुस्लिम नेताओं और मजहबी नेताओं का विरोध ऐसे कट्टरपंथी लोग करेंगे ही जिन्हें राष्ट्र, हिन्दुत्व और इस्लाम की भी कोई जानकारी नहीं। अत: कल्बे सादिक जैसे व्यापक दृष्टिकोण वाले नेताओं को साहस बटोर कर आगे आने की जरूरत है। इसी संदर्भ में यह समझना भी आवश्यक है कि मुसलमानों और ईसाइयों सहित सभी भारतीयों की राष्ट्रीय पहचान हिन्दुत्व ही है। हिन्दुत्व जाति, पंथ, मजहब और क्षेत्र की सीमाओं से बहुत ऊपर भारत की सनातन संस्कृति का आधार है। हिन्दू शब्द भी भारतीय संस्कृति और भूगोल का परिचायक है।
इसीलिए संघ के निवर्तमान सरसंघचालक कुप्.सी.सुदर्शन ने मुस्लिम मजहबी नेता कल्बे सादिक के साथ अपनी मुलाकात के समय पत्रकारों के प्रश्नों के उत्तर में कहा कि हिन्दुस्थान में रहने वाले सभी हिन्दू हैं। अर्थात् हिन्दू राष्ट्रवाचक शब्द है और हिन्दुत्व भारत की राष्ट्रीयता का आधार है। इसीलिए संघ यह प्रारंभ से ही कहता आया है कि भारतीय मुसलमान अल्पसंख्यक नहीं हैं। वे विदेश से नहीं आए। वे हिन्दू पूर्वजों की संतानें हैं। इन्हें अल्पसंख्यक कहकर राष्ट्र की मुख्य जीवनधारा से काटना इनका घोर अपमान है।
भारत माता के पुत्र हैं भारतीय
भारत की सनातन सांस्कृतिक धारा से अपना नाता तोड़कर विदेशी आक्रमणकारियों की भारत विरोधी आक्रामक धारा के साथ बहने वाले कट्टरपंथी मुल्ला/मौलानाओं ने सबसे ज्यादा नुकसान भारतीय मुसलमानों का ही किया है। आज हमारे इन मतांतरित भाइयों की हालत उस बिन पैंदी के लोटे जैसी हो गई है जिसे कोई जब चाहे ठोकर मार दे, जिधर चाहे मोड़ दे और जिधर चाहे हांककर ले जाए। ये राष्ट्रीय धारा से भी कट गए, स्वतंत्र अस्तित्व और निर्णायक क्षमता वाले स्वतंत्र नागरिक भी नहीं रहे और परिणामस्वरूप सच्चे मुसलमान भी नहीं बन सके।
सदियों पूर्व हमसे बिछुड़े हमारे भाई अगर 'मजहब नहीं विकास' का उद्घोष करके इस्लाम एवं राष्ट्र को जोड़ना चाहते हैं और इस ऐतिहासिक कार्य में वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जैसे बड़े राष्ट्रवादी संगठनों का सहयोग चाहते हैं तो इसमें ऐसा क्या है जिससे (आजम खां के अनुसार) इस्लाम को खतरा है? मुस्लिम समाज को अपने भीतर जड़ जमाए बैठे संकीर्ण और कट्टर मजहबी ठेकेदारों से सावधान रहना चाहिए। इसी तरह ऐसे राजनीतिक दलों और नेताओं से भी तौबा करनी होगी जो मुस्लिम वोट बैंक का इस्तेमाल करके मुसलमानों को विकास के रास्ते से भटकाकर फिरकापरस्ती के गटर में धकेल रहे हैं।
मुस्लिम वोट बैंक
नरेन्द्र सहगल
'देश के लिए हम हमेशा हाजिर हैं। देश पहले है, हम बाद में'
-मौलाना काल्बे सादिक, उपाध्यक्ष, आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड
'चुनाव में मुसलमान मजहब को नहीं, मुल्क की तरक्की पर ध्यान दें'
-मौलाना अब्दुल कासिम नोमानी, मोहतमिम, दारुल उलूम देवबंद
भारतीय मुस्लिम समाज की यही बड़ी त्रासदी अथवा दुर्भाग्य रहा है कि हिन्दुत्व विरोधी मुस्लिम नेता, कट्टरपंथी मुल्ला-मौलवी और वोट के लोभी राजनीतिक दल मुसलमान भाइयों को राष्ट्र की मुख्य-धारा में मिलने ही नहीं देते। जब भी कभी ऐसा मौका आता है ये तत्व सक्रिय हो जाते हैं और एक स्वर से अनेक प्रकार का दुष्प्रचार करके भारतीय मुसलमानों को देश के विशाल हिन्दू समाज से जुड़ने के प्रत्येक प्रयास पर पानी फेर देते हैं। परिणामस्वरूप मजहब के आधार पर हुए देश विभाजन के बावजूद भारतीय मुसलमान एक सतर्क सजग नागरिक बनने की बजाए वोट की वस्तु बनकर रह गया है।
मुसलमानों का राजनीतिक इस्तेमाल
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद गो रक्षा आंदोलन एवं रामजन्मभूमि मुक्ति अभियान जैसे अनेक अवसरों पर भारत के आम मुसलमान ने जब अपने पूर्वजों की संस्कृति के साथ जुड़ने की तैयारी की तो दारुल इस्लाम के झंडाबरदारों ने इन्हें तुरंत इस्लामिक लाठी से हांककर अल्पसंख्यकवाद के तंग कोने में धकेल दिया। हिन्दू पूर्वजों की संतान हमारे इन मतांतरित भाइयों का पहले अंग्रेजों और अब अंग्रेजों के मानसपुत्रों ने अपने सत्ता स्वार्थों के लिए भरपूर इस्तेमाल किया। भारतीय समाज को तोड़ने का यह राष्ट्रघातक सिलसिला आज भी जारी है।
यदा-कदा कुछ मुस्लिम मजहबी नेता अपने समाज को देश के सम्मान और सनातन हिन्दू परंपराओं से समरस करने का यदि प्रयास भी करें तो इनकी आवाज कट्टरपंथियों के शोर के नीचे दब जाती है। यही वजह है कि साधारण मुस्लिम समाज में से राष्ट्रवादी नेतृत्व कभी उभर ही नहीं सका। अन्यथा कट्टरपंथियों की पहुंच के बाहर ऐसे अनेक मुसलमान भाई हैं जो हिन्दुओं के साथ मिलकर रहना पसंद करते हैं और देशभक्ति की भावनाओं से भी ओतप्रोत हैं।
मजहब से पहले देशहित
हाल ही में आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड के उपाध्यक्ष व शिया नेता मौलाना कल्बे सादिक ने कहा है कि 'देश पहले है और हम बाद में-देश के लिए हम हमेशा हाजिर हैं।' मौलाना ने लखनऊ में गत 30 अक्तूबर को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के निवर्तमान सरसंघचालक श्री कुप्.सी.सुदर्शन से हुई अपनी भेंट के समय यह भी कहा कि 'साझा तो अलग-अलग समुदायों में होता है, हम तो एक ही हैं।' मौलाना सादिक के अनुसार देशहित के लिए वर्तमान चुनावी प्रक्रिया में तब्दीली लाना वक्त का तकाजा है। प्राप्त समाचारों के अनुसार इस मुलाकात में दोनों ओर से मजहबी और जातीय दीवारों से ऊपर उठकर राष्ट्रहित में ईमानदारी से काम करने का इरादा प्रकट किया गया।
कल्बे सादिक द्वारा चुनावों में मजहब नहीं ईमानदारी के मापदंड का पक्ष लेने के दूसरे ही दिन दारुल उलूम देवबंद ने भी अपना मंतव्य प्रकट करते हुए कहा कि मुसलमानों को मजहब के आधार पर वोट देने की परंपरा को अब छोड़ देना चाहिए। दारुल उलूम के मोहतमिस मौलाना अब्दुल कासिम नोमानी ने कहा है कि चुनाव के दौरान लोगों को यही देखना चाहिए कि कौन सा उम्मीदवार क्षेत्र में विकास कर सकता है। सर्वविदित है कि दारुल उलूम देवबंद ने पहले भी एक फतवा जारी किया था कि चुनावों में मुसलमान मजहब को नहीं, मुल्क की तरक्की को ध्यान में रखें। इसी तरह मदरसा जामिया नूरिया के मन्नानी मियां ने भी मजहब के स्थान पर उम्मीदवार के चरित्र और योग्यता के आधार पर वोट डालने की वकालत करते हुए कहा है कि इससे मुसलमानों की तरक्की भी होगी?
नुकसानदायक है मुस्लिम वोट बैंक
मुस्लिम समाज के मजहबी नेताओं के मापदंड और दृष्टिकोण में आ रहे इस अति महत्वपूर्ण परिवर्तन का सर्वत्र स्वागत होना चाहिए। यह समाज मुस्लिम वोट बैंक की अवधारणा और दंभ को तोड़ने में सफल हो जाता है तो कोई भी राजनीतिक दल इनका दलगत स्वार्थों के लिए इस्तेमाल नहीं कर सकेगा। इससे मुस्लिम समाज का रुतबा बढ़ेगा और वोट की वस्तु होने का कलंक भी मिटते देर नहीं लगेगी। मुस्लिम प्रत्याशी न केवल अपने बहुमत वाले क्षेत्र अपितु हिन्दू बहुल क्षेत्रों से भी जीत सकेंगे। इसी तरह हिन्दू प्रत्याशी भी मुस्लिम आबादी वाले क्षेत्रों से चुनाव लड़ सकेंगे। सामाजिक सौहार्द का एक नया दौर प्रारंभ होगा।
अगर गहराई में उतरकर मुस्लिम वोट बैंक की समीक्षा की जाए तो स्पष्ट होगा कि इस मापदंड के कारण कांग्रेस, समाजवादी दलों एवं लालू प्रसाद, रामविलास पासवान जैसे नेताओं ने राष्ट्रहित से दूर दलगत राजनीतिक स्वार्थों को महत्व देना उचित समझा। मुस्लिम वोट बैंक को आकर्षित करने के लिए अलागववादियों के आगे घुटने टेकने की देशघातक राजनीति ने जन्म लिया है। अल्पसंख्यकवाद, मजहबी आरक्षण, फिरकापरस्त समझौतेबाजी और जातिगत गठबंधन जैसी समाजघातक बीमारियां इसी वोट बैंक की राजनीति की उपज हैं। यदि वास्तव में मुस्लिम मजहबी नेता चुनावों के समय मजहब से ऊपर उठने का साहस कर सकें तो यह भारत के इतिहास में सामाजिक एकता के एक अनूठे अध्याय का श्रीगणेश होगा। देश में इन दिनों सोची समझी जा रही चुनाव सुधार प्रक्रिया में यह कदम एक मील का पत्थर साबित होगा।
तरक्की में रोड़ा हैं राजनीतिक नेता
उम्मीद के मुताबिक मुस्लिम मजहबी नेताओं की इस थोड़ी सी हलचल अथवा पहल का भी दलगत स्वार्थों में आकंठ डूबे राजनीतिक नेता और कट्टरपंथी मुल्ला-मौलवी विरोध कर रहे हैं। पूर्व की भांति इस बार भी मुस्लिम समाज को राष्ट्रीय समाज का सम्मान मिलने का खतरा इन्हें डराने लगा है। अपने को भारत के करोड़ों मुसलमानों का प्रतिनिधि मानने की गलतफहमी पाले हुए समाजवादी पार्टी के नेता आजम खां ने प्रतिक्रिया जाहिर की है कि मौलाना कल्बे सादिक और संघ के ओहदेदार कुप्.सी.सुदर्शन की मुलाकात से सभी मुसलमान बेहद आहत हैं। आजम ने इस भेंटवार्ता को संघ की साजिश करार दिया है। लगे हाथ उन्होंने बाबरी ढांचे और गुजरात में हिंसा जैसे बेबुनियाद और एकतरफा मुद्दे उठाकर मुसलमानों को एक बार फिर भड़काने का प्रयास किया है।
निकट भविष्य में होने वाले उत्तर प्रदेश विधानसभा के चुनावों में मुसलमानों के वोट बैंक को भुनाने की एवज में आजम खान यह भी भूल गए कि उनके मजहबी नेताओं ने मजहब की बजाए विकास को तरजीह देने की बात कहकर साम्प्रदायिकता के दायरे को तोड़ने की इच्छा जताई है जो स्वयं मुस्लिम समाज, उत्तर प्रदेश और देश के हित में है। भारत माता, वंदेमातरम, सरस्वती वंदना जैसी राष्ट्रीय वैचारिक धरातल से नफरत करने वाले आजम खान से और कोई उम्मीद की भी नहीं जा सकती।
आजम खां द्वारा संघ और मुस्लिम मजहबी नेताओं की निकटता को एक मुस्लिम विरोधी साजिश कहने पर कल्बे सादिक ने समयोचित प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए कहा है कि 'आरएसएस के पूर्व प्रमुख सुदर्शन से मुलाकात पर विरोध जताने वाले आजम खान को कुरान की मालुमात (जानकारी) कम है। हमारे लिए देशहित पहले है। अच्छे लोग संसद और विधान मंडलों में चुनकर जाएं इस पर किसे एतराज होगा? क्या करप्शन का विरोध नहीं होना चाहिए, चुनाव सुधार नहीं होने चाहिए? आजम इनका विरोध कर रहे हैं तो उन्हें कुरान की मालुमात कम है।'
(अमर उजाला, पृष्ठ 13, 1 नवम्बर, 2011)
दारुल उलूम देवबंद के वर्तमान मोहतमिम मौलाना नोमानी ने मजहब के स्थान पर योग्यता, चरित्र और विकास पर ध्यान केन्द्रित करने के मौलाना सादिक के विचारों से सहमति तो प्रकट की है परंतु साथ में जोड़ दिया है कि यह काम संघ के साथ मंच साझा करके नहीं हो सकता। वास्तव में यही संकुचित दृष्टिकोण मुस्लिम समाज के विकास में बाधक है। उल्लेखनीय है कि जब दारुल उलूम देवबंद के पूर्व कुलपति मौलाना वस्तानवी ने विकास के मुद्दे पर गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी की प्रशंसा की थी तो इसी तरह के अंतरद्वंद्व के शिकार मुस्लिम कट्टरपंथियों ने शोर मचाया था। इसी मुद्दे पर वस्तानवी जैसे रचनात्मक सोच वाले मजहबी नेता को अपने पद से हटना पड़ा था।
हिन्दुत्व का हिस्सा है मुस्लिम समाज
देश की एकता, समरसता और विकास की बात करने वाले मुस्लिम नेताओं और मजहबी नेताओं का विरोध ऐसे कट्टरपंथी लोग करेंगे ही जिन्हें राष्ट्र, हिन्दुत्व और इस्लाम की भी कोई जानकारी नहीं। अत: कल्बे सादिक जैसे व्यापक दृष्टिकोण वाले नेताओं को साहस बटोर कर आगे आने की जरूरत है। इसी संदर्भ में यह समझना भी आवश्यक है कि मुसलमानों और ईसाइयों सहित सभी भारतीयों की राष्ट्रीय पहचान हिन्दुत्व ही है। हिन्दुत्व जाति, पंथ, मजहब और क्षेत्र की सीमाओं से बहुत ऊपर भारत की सनातन संस्कृति का आधार है। हिन्दू शब्द भी भारतीय संस्कृति और भूगोल का परिचायक है।
इसीलिए संघ के निवर्तमान सरसंघचालक कुप्.सी.सुदर्शन ने मुस्लिम मजहबी नेता कल्बे सादिक के साथ अपनी मुलाकात के समय पत्रकारों के प्रश्नों के उत्तर में कहा कि हिन्दुस्थान में रहने वाले सभी हिन्दू हैं। अर्थात् हिन्दू राष्ट्रवाचक शब्द है और हिन्दुत्व भारत की राष्ट्रीयता का आधार है। इसीलिए संघ यह प्रारंभ से ही कहता आया है कि भारतीय मुसलमान अल्पसंख्यक नहीं हैं। वे विदेश से नहीं आए। वे हिन्दू पूर्वजों की संतानें हैं। इन्हें अल्पसंख्यक कहकर राष्ट्र की मुख्य जीवनधारा से काटना इनका घोर अपमान है।
भारत माता के पुत्र हैं भारतीय
भारत की सनातन सांस्कृतिक धारा से अपना नाता तोड़कर विदेशी आक्रमणकारियों की भारत विरोधी आक्रामक धारा के साथ बहने वाले कट्टरपंथी मुल्ला/मौलानाओं ने सबसे ज्यादा नुकसान भारतीय मुसलमानों का ही किया है। आज हमारे इन मतांतरित भाइयों की हालत उस बिन पैंदी के लोटे जैसी हो गई है जिसे कोई जब चाहे ठोकर मार दे, जिधर चाहे मोड़ दे और जिधर चाहे हांककर ले जाए। ये राष्ट्रीय धारा से भी कट गए, स्वतंत्र अस्तित्व और निर्णायक क्षमता वाले स्वतंत्र नागरिक भी नहीं रहे और परिणामस्वरूप सच्चे मुसलमान भी नहीं बन सके।
सदियों पूर्व हमसे बिछुड़े हमारे भाई अगर 'मजहब नहीं विकास' का उद्घोष करके इस्लाम एवं राष्ट्र को जोड़ना चाहते हैं और इस ऐतिहासिक कार्य में वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जैसे बड़े राष्ट्रवादी संगठनों का सहयोग चाहते हैं तो इसमें ऐसा क्या है जिससे (आजम खां के अनुसार) इस्लाम को खतरा है? मुस्लिम समाज को अपने भीतर जड़ जमाए बैठे संकीर्ण और कट्टर मजहबी ठेकेदारों से सावधान रहना चाहिए। इसी तरह ऐसे राजनीतिक दलों और नेताओं से भी तौबा करनी होगी जो मुस्लिम वोट बैंक का इस्तेमाल करके मुसलमानों को विकास के रास्ते से भटकाकर फिरकापरस्ती के गटर में धकेल रहे हैं।
भारत
में मुस्लिम समाज का अगर कोई सच्चा और वास्तविक हितैषी है तो वह राष्ट्रीय
स्वयंसेवक संघ ही है। संघ ने सदैव मुसलमान भाइयों को देश के विशाल हिन्दू
समाज का ही एक ऐसा अभिन्न भाग माना है जो अनेकविध मजबूरियों के कारण
मतांतरित हो गया। भारत माता की गोद अपने इन पुत्रों को दुलारने के लिए
लालायित है। राष्ट्रहित में इन प्रयासों का स्वागत होना है .
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