गुरुवार, नवंबर 03, 2011

वोट-बैंक राजनीति के पहले शिकार

वोट-बैंक राजनीति के पहले शिकार


अच्छा होता कि मोहनदास करमचंद गाँधी की विरासत का सम्यक मूल्यांकन करके उन के विचार व कर्म से दूध और पानी अलग कर के लाभ उठाया जाता। तब उन के महान कार्यों के साथ-साथ भयंकर गलतियों से भी सीख ले कर हम आगे बढ़ सकते थे। किंतु भारी अज्ञान, कांग्रेसी-वामपंथी दुष्प्रचार और राजनीतिक छल-छद्म जैसे कारणों से ऐसा न हो पाया। स्वतंत्र भारत में गाँधीजी की अंध-जयकार, चाहे वह भी खोखली ही क्यों न हो, से आगे शायद ही कुछ किया गया। जब उन के सकारात्मक कार्यों को ही किसी सत्ता या संगठन ने नीतिगत रूप देने की कोशिश नहीं की, तब उन की भूलों के प्रति कोई चेतना जगाने का काम क्या होता!

पर यह समझना आवश्यक है कि राजनीतिक समस्याओं पर ‘गाँधीगिरी’ जैसे विचार केवल हिन्दू आबादी के बीच सुरक्षित जीते हुए ही पनपते हैं। (क्या आपने कभी नोट किया है कि कश्मीर, पंजाब और बंगाल में गाँधी को चाहने वाले दीपक लेकर खोजने से भी शायद ही मिलें! क्यों?) गाँधी का जयकारा वहीं होता है जहाँ जयकारे करने वाला बुद्धिजीवी, नेता या प्रवचनकर्ता मजे से शांति, सुरक्षा के वातावरण में रह रहा हो। जिसे आस-पास की बेचारी भोली हिन्दू जनता द्वारा आदर-सम्मान पहले से प्राप्त हो – ऐसे समाज के बीच रहते हुए ही सेक्यूलर, सर्व-धर्म सम-भाव जैसे भ्रामक विचार पनपते हैं। हिन्दुओं के लिए भ्रामक! मुसलमान तो कभी इस भ्रम में पड़ नहीं सकते। उदार, सज्जन मुसलमान भी। क्योंकि उन का मजहब यह सब मानने की इजाजत ही नहीं देता। बल्कि इसे ‘कुफ्र’ कह कर उन मुस्लिमों को भी कठोरतम दंड देता है, जो इस की बात भी करते हैं। रुशदी से लेकर तसलीमा तक किसी का हश्र देख लीजिए। निरी उपेक्षा के रूप में अपने निवर्तमान राष्ट्रपति कलाम का भी हाल देखें। उन्हें कौन मुसलमान पूछता है!

इसीलिए भारत में सेक्यूलरिज्म की राजनीति अंततः हिन्दू-विरोध की राजनीति का ही दूसरा नाम बन गई। उस में इस्लामी कठमुल्लेपन, हिंसा, असंवैधानिक और अनैतिक माँगों तक का विरोध करने का साहस नहीं है। अतः सेक्यूलरिज्म ले-देकर केवल हिंदू भावना को लांछित करने तथा हिंदूवादियों को दंडित करने के काम आता है। अब इसे अनेक पत्रकार भी समझने लगे हैं, चाहे चाहे खुलकर स्वीकार करें या नहीं। सेक्यूलरिज्म की राजनीति अथवा गाँधीगिरी केवल हिन्दू जनता के बीच की जाती है। मुस्लिम जनता के बीच हरेक दल इस्लाम-परस्ती की ही प्रतियोगिता करता है, ताकि वोट मिलें। यही वोट-बैंक की राजनीति या सेक्यूलर राजनीति है। इस प्रतियोगिता में जो हारता है वह जानता है कि किस कारण हारे!

विगत लोकसभा चुनाव में लालू प्रसाद, रामविलास पासवान और सीपीएम की हार का असली कारण उनसे मुस्लिमों का नजर फेर लेना ही था। वह नजर कांग्रेस को इनायत की गई, इस का संकेत स्वयं ‘राष्ट्रीय’ अल्पसंख्यक आयोग ने मुस्लिम बहुल चुनाव क्षेत्रों के नतीजों का आकलन करके किया है। यानी असली बात सब जानते हैं। इस गंभीर सत्य को नोट कर लेना चाहिए कि कटिबद्ध, एकमुश्त वोट करने की प्रवृत्ति के साथ आबादी में बढ़ते प्रतिशत से मुस्लिम वोट-बैंक अब निर्णायक हो गया है। इसीलिए जिन दलों को मुस्लिम वोट नहीं मिले, वे भी मौन हैं। निरुपाय हैं। क्योंकि आगे भी उसी की आस करनी हैं।

आगामी चुनावों में भी पुनः सभी दल मुस्लिमों की कृपा-दृष्टि के लिए ही प्रतिद्वंदिता करेंगे। उसके लिए बढ़-चढ़ कर मुस्लिमों के दुःख, कष्ट और भावनाओं की माँग उठाएंगे। रंगनाथ मिश्रा, जे. बी. मुखर्जी या राजेन्द्र सच्चर जैसे मुखौटे खड़े करेंगे ताकि देश-घाती कदम उठाने की आड़ मिले। इस विचित्र वोट-बैंक राजनीति का आरंभ कब, कैसे हुआ था? वह वोट-बैंक, जो न केवल गैर-मुस्लिम राजनीतिकों के लिए सदैव छलना रहा है, बल्कि उसका भारत के हितों से एकदम विपरीत रिश्ता है। वह वोट-बैंक किसी राष्ट्रीय लक्ष्य की चिंता ही नहीं करता, क्योंकि उस का एक विशिष्ट, अंतर्राष्ट्रीय और विस्तारवादी उद्देश्य है।

भारत में वोट-बैंक राजनीति की लालसा के पहले शिकार मोहनदास करमचंद गाँधी थे। तुर्की के खलीफा की सत्ता बचाने के लिए हुए ‘खिलाफत जिहाद’ (एनी बेसेंट के शब्द) में भारतीय मुस्लिमों ने जबर्दस्त भागीदारी की। यह सन् 1916-20 की बात है। गाँधी उस संगठित, विशाल संख्या से मोहित हो गए। सोचा कि यदि ये अपने साथ हो जाएं तो अंग्रेजों से लड़ने में कितना बल मिलेगा! यह लोभ ही था, यह संपूर्ण परिस्थिति से स्पष्ट है। प्रथम, गाँधी को तुर्क-ऑटोमन साम्राज्य के खलीफा से कोई लगाव था, यह मानने का कोई कारण नहीं। दूसरे, उसी समय अंग्रेजों ने भारत में मौंटेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधार लाया था। जिसका कांग्रेस ने भी स्वागत कर सरकार से सहयोग का निर्णय किया था। इसीलिए, 1921 में अंग्रेजों के विरुद्ध आकस्मिक, अप्रत्याशित रूप से कोई असहयोग आंदोलन छेड़ने का कोई कारण न था। गाँधी के दबाव में कांग्रस ने वह आंदोलन मात्र खलीफत को समर्थन देने के लिए आरंभ किया था।

पर तुर्की में खलीफा रहे या जाए, इस से भारतीय हितों का दूर से भी संबंध न था। अतः खिलाफत नेताओं को भी कांग्रेस समर्थन की अपेक्षा न थी। दोनों की दो दिशा थी। एक तुर्की के लिए विश्व-इस्लामी आंदोलन था। जबकि कांग्रेस विदेशी शासकों से कुछ सुधारों की माँग कर रही थी। इसीलिए जब गाँधी ने खिलाफत से कांग्रेस को जोड़ना चाहा तो मोतीलाल नेहरू को छोड़कर कोई उन के साथ न था। क. मा. मुंशी के अनुसार सभी मानते थे कि गाँधी एक गलत उद्देश्य के लिए अनैतिक काम कर रहे हैं “जिससे बड़े पैमाने पर हिंसा होगी और सुशिक्षित हिन्दू-मुस्लिमों की राजनीतिक भागीदारी घटेगी”। स्वयं जिन्ना ने भी गाँधी को चेतावनी दी कि मतांध मौलवियों को प्रोत्साहन न दें। फिर, हिंदू डरते थे कि खलीफत को मदद देने से संगठित मुस्लिम शक्ति बढ़ेगी, जिससे वे अफगानिस्तान को आक्रमण का न्योता दे भारत पर कब्जा कर सकते हैं। यह संदेह खुली चर्चा में था, जिस पर एनी बेसेंट, लाला लाजपत राय, रवीन्द्रनाथ टैगोर, श्रीअरविन्द आदि अनेक मनीषियों ने भी सार्वजनिक चिंता प्रकट की थी। अतः अनेक कारणों से खलीफत आंदोलन के समर्थन का विरोध था।

पर गाँधी के दबाव में कांग्रेस उस में लग गई। असहयोग आंदोलन वस्तुतः खलीफत के लिए हुआ था। वह किसी स्वतंत्रता या स्वशासन का आंदोलन न था। तब, खलीफत खत्म होने पर पहले तो यहाँ मुसलमानों ने कई स्थानों पर अपना क्रोध हिन्दुओं पर उतारा। एक बार ‘जिहाद और काफिरों को मारने’ का आवाहन कर देने पर अधीर जिहादियों के लिए ईसाई और हिन्दू, दोनों ही एक जैसे दुश्मन थे। मौलाना आजाद सुभानी जैसे कई मुस्लिम नेता अंग्रेजों से भी बड़ा दुश्मन ‘बाईस करोड़ हिन्दुओं’ को मानते थे। वे भारत में फिर मुस्लिम शासन के ख्वाहिशमंद थे, जिस में उन्हें हिन्दू बाधक लगते थे।

फिर वही हुआ जिसका डर था। मुसलमानों ने अफगानों को भारत पर हमला करने का निमंत्रण दे दिया। अंग्रेजों का विरोध करने के नाम पर गाँधी इसमें भी ‘सहायता’ देने को राजी हो गए (यंग इंडिया, 4 मई 1921)। जिस तुर्की खलीफा को स्वयं उसके अपने देशवासियों ने सत्ताच्युत किया, उसके रंज में केरल में मोपला मुसलमानों ने हिन्दुओं का कत्लेआम, जबरन धर्मांतरण, मंदिरों का ध्वंस और वीभत्स अत्याचार किए। यह जिहाद भावना से किया गया था। इसीलिए, गाँधीजी ने उसकी भर्त्सना के बजाए कहा कि “मुस्लिम भाइयों ने वह किया जो उन का धर्म उन्हें कहता है”, यानी इस्लामी नजरिए से गलत नहीं किया! इसीलिए, खिलाफत प्रकरण के बाद देश भर में गाँधीजी का मान बहुत घट गया था।

यह सब मात्र उस लालसा के कारण हुआ जिसने गाँधी जी को जी-जान से पकड़ लिया था। कि उन्हें मुस्लिम समर्थन हर कीमत पर लेना ही है। कि मुस्लिम उन्हें अपना नेता मान लें। यही तो वोट-बैंक राजनीति है! गाँधी के प्रियतम जवाहरलाल नेहरू ने भी अपनी आत्मकथा में लिखा है कि गाँधीजी, “वह सब मानने के लिए तैयार रहते थे जो मुसलमान माँगें। वह उन्हें जीतना चाहते थे।” किंतु गाँधी यह सरल सी बात भुला बैठे कि मुसलमानों को कांग्रेस से अलग रखने, और विरुद्ध प्रयोग करने के लिए अंग्रेज पहले से ही उन्हें अधिकाधिक विशिष्ट अधिकार देते रहे थे। यह 1906 से ही चल रहा था। उस में गाँधी कैसे पार पाते? पर लोभ-लालसा की तो विशेषता ही यही है कि वह मति हर लेती है।

अतएव खलीफत जिहाद का समर्थन केवल मुस्लिम समुदाय को लुभाने की चाह में किया गया था। उस में बुरी तरह पिटने के बाद भी गाँधी वही करते रहे। उसी चाह में कि मुसलमान उन्हें अपना नेता मान लें। लंदन में गोल-मेज कांफ्रेंस (1931) में यह खुल कर आया जब गाँधी ने कांग्रेस को हिन्दुओं और मुसलमानों दोनों की प्रतिनिधि बताने की कोशिश की। उपस्थित मुस्लिम प्रतिनिधियों ने इसे सिरे से खारिज कर दिया। तब गाँधी जी ने मुसलमानों को ‘ब्लैंक चेक’ देने की बात की, ताकि कांफ्रेंस में उपस्थित मुस्लिम प्रतिनिधि गाँधी का नेतृत्व मान लें। उस प्रस्ताव को भी मुस्लिम नेताओं ने हिकारत से ठुकरा दिया।

फिर इतिहास साक्षी है, गाँधी अपनी लालसा छोड़ न सके। हर मोड़ पर मुस्लिम नेताओं की सभी ऊल-जुलूल सिर-आँखों उठाते रहे। हत्यारे, गुंडे मुस्लिमों से भी प्रेम दर्शाते रहे। स्वामी श्रद्धानंद जैसे महान सपूत की हत्या करने वाले को अपना ‘भाई’ कहा, जैसे बाद में कलकत्ता में पाँच हजार हिन्दुओं का कत्लेआम कराने वाले सुहरावर्दी को भी। लाहौर के वीर, निष्ठावान सपूत महात्मा राजपाल को लांछित किया जिन्होंने हिन्दू धर्म को अपमानित करने वाले एक मुस्लिम प्रकाशन का समुचित, संयमित, तथ्यपूर्ण उत्तर देते हुए इस्लाम को आइना दिखाया था। जिन राजपाल को पूरे लाहौर में सम्मान से देखा जाता था, उनके लिए गाँधी जी ने गंदे विशेषणों का प्रयोग करते हुए ‘प्रतिकार’ की माँग करते हुए मुसलमानों को स्पष्ट भड़काने तक का कार्य किया। अंततः एक जुनूनी जिहादी ने राजपाल की हत्या कर दी (1929)।

ऐसे अनेकानेक प्रसंग हैं जिस में गाँधी जी की दोहरी और सिद्धांतहीन नीति सबको एकदम साफ दिखती थी। यदि अपराधी मुस्लिम हो तो गाँधी सदैव उसी के पक्ष में खड़े दिखते थे, और एक से एक ऊल-जुलूल दलील देते थे। डॉ. अंबेदकर के अनुसार गाँधीजी ने हिन्दुओं के विरुद्ध मुस्लिमों द्वारा किए गए किसी अत्याचार, हिंसा और हत्याओं पर कभी एक शब्द न कहा।

यह कोई महात्मापन नहीं था। क्योंकि वही मोहनदास गाँधी कभी चंद्रशेखर आजाद, चंद्रसिंह गढ़वाली, भगत सिंह, मदनलाला ढींगरा और ऊधम सिंह जैसे महान सूपतों को भी भाई नहीं कहते थे। न उन के विश्वासों का आदर करते हुए कभी उदारता दिखाई। यहाँ तक कि गुरू गोविन्द सिंह और शिवाजी जैसे ऐतिहासिक महापुरुषों को भी गाँधी ने ‘दिगभ्रमित देशभक्त’ कहने तक की धृष्टता की। क्योंकि इन महापुरुषों ने अस्त्र-शस्त्र उठाकर समाज की सेवा की थी। इसलिए गाँधी उन्हें येन-केन-प्रकारेन खारिज करते थे। जबकि वही गाँधी मोपला के जिहादी हत्यारों और स्वामी श्रद्धानंद के हत्यारे अब्दुल रशीद जैसे जुनूनी, धोखेबाज कातिलों को भी अपना ‘भाई’ बताते थे। तब अहिंसा का सिद्धांत एकदम पीछे चला जाता था और इस्लामी कृत्य वीभत्स, हिंसक होकर भी आदरणीय हो जाता था। यह सिद्धांतहीनता वही लालसा थी जो आज सिमी, इंडियन मुजाहिदीन, हुर्रियत आदि के पक्ष में खड़े होने वाले हिन्दू सेक्यूलरपंथी नेताओं में है।

इस विचित्र लालसा को मुस्लिम भी समझते थे। इसलिए वे गाँधी पर कभी विश्वास नहीं करते थे। उन्हें लगता था कि यदि कोई हिन्दू नेता हिन्दुओं का हित और अपने ‘अहिंसा’ सिद्धांत को भी छोड़कर सदैव मुसलमानों का पक्ष लेता है तो जरूर कोई असहज बात है! अतः वह भरोसे के काबिल नहीं। यह संयोग नहीं कि जिन्ना समेत अनेक मुस्लिम नेताओं का गाँधी से अधिक सहज संबंध पंडित मालवीय या स्वामी श्रद्धानंद जैसे नेताओं से रहा, जो कृत्रिम और विचित्र बातें न कहकर स्वभाविक हिन्दू विचार रखते थे।

यह ऐतिहासिक तथ्य है कि गाँधी को मुस्लिम समर्थन कभी नहीं मिला। हिन्दू जनता को बारं-बार बलिवेदी पर चढ़ा देने के बाद भी नहीं मिला। पर उस चाह ने गाँधी का पीछा न छोड़ा। खिलाफत से लेकर देश विभाजन, और उसके बाद तक गाँधी उसी भावना से चलते रहे। उन्हें कभी अनुकूल परिणाम न मिला। क्योंकि डॉ. अंबेदकर के शब्दों में, “मुसलमानों की राजनीतिक माँगें हनुमानजी की पूँछ की तरह बढ़ती जाती हैं।” उन्हें पूरा करते जाने के चक्कर में गाँधी ने देश का विभाजन तक करा लिया। उस के बाद भी पश्चिमी पंजाब, सिंध और पूर्वी बंगाल के सिखों-हिन्दुओं को राम भरोसे छोड़ दिया। पूछने पर कहा कि ‘खुशी-खुशी जान दे दें और हमला करने वाले मुसलमानों का प्रतिकार न करें’।

निश्चय ही, वोट-बैंक राजनीति के पहले शिकार गाँधी थे। देश की हानि के सिवा इस राजनीति ने कभी कुछ नहीं दिया है। यह मानना कुछ लोगों को कठिन लगेगा, क्योंकि इतिहास का पूर्ण मिथ्याकरण कर दिया गया है। किंतु 1919 से 1947 तक की घटनाओं के सविस्तार अध्ययन से यही निष्कर्ष मिलेगा। उस दौरान अनेकानेक नेताओं, मनीषियों ने गाँधी को चेतावनी दी थी। पर वह उस मोह से उबर नहीं सके। जब गाँधी जैसे व्यक्ति उस से पिट गए तब लालू, मुलायम, चंद्र बाबू और वाजपेयी आदि को उस से क्या मिलना था!

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