पं. नेहरू की मृत्यु के 14 दिन बाद 9 जून, 1964 को लाल बहादुर शास्त्री को प्रधानमंत्री पद मिल तो गया पर वे अच्छी तरह जानते थे कि व्पंडित जी की दिली ख्वाहिश तो अपनी बेटी को अपना उत्तराधिकारी बनाने की है पर यह बात वे अपने मुंह से कहना नहीं चाहते।व् (इंदर मल्होत्रा, इंदिरा गांधी, 2006, पृष्ठ 53)। एक अमरीकी पत्रकार वैलेसे हेंगेन ने नवम्बर, 1962 में व्आफ्टर नेहरू हू? (नेहरू के बाद कौन?) शीर्षक से अपनी पुस्तक में इंदिरा को नेहरू के उत्तराधिकारी के रूप में प्रस्तुत कर दिया था। इस पर नेहरू जी ने तीखी टिप्पणी थी कि व्हमारे जैसे संसदीय लोकतंत्र में वांशिक उत्तराधिकार की कल्पना भी नहीं की जा सकती और व्यक्तिगत तौर पर मुझे तो इससे बेहद चिढ़ है।व् पर यह दिखावा मात्र था। इंदिरा का रास्ता साफ करने के लिए नेहरू जी बड़ी सावधानी से पत्ते खेल रहे थे। जून, 1963 में उन्होंने कामराज योजना की आड़ में इंदिरा के संभावित प्रतिद्वंद्वियों-विशेषकर मोरार जी देसाई को मंत्रिमंडल से बाहर कर दिया। अपनी निष्पक्षता दिखाने के लिए लाल बहादुर शास्त्री को भी हटाया, पर छह महीने बाद ही जनवरी, 1964 में उन्हें मंत्रिमंडल में वापस ले लिया। वैलेस हेंगेन ने लिखा है कि जब मैंने नेहरू के उत्तराधिकार के लिए संभावित आठ नामों की सूची भारत के कुछ शीर्ष राजनेताओं और संपादकों को दिखायी तो प्रत्येक का कहना था कि बाकी नाम तो ठीक हैं पर इस सूची में इंदिरा का नाम तुमने क्यों जोड़ा। वह तो नेहरू के बाद कहीं की न रहेगी। हेंगेन कहता है, व्मैं इस मत से सहमत नहीं हूं। इंदिरा को 17 वर्ष तक प्रधानमंत्री निवास में रहने के कारण नीति और प्रशासन विषयक निर्णयों को लेने की प्रक्रिया को भीतर से देखने का मौका मिला है। नेहरू जी के साथ देश-विदेश का भ्रमण करने के कारण उसने भारत और विश्व के पूरे नेतृत्व वर्ग को निकट से जाना-समझा है।…व् इतिहास साक्षी है कि भारत के राजनेता और सम्पादक गलत निकले और कुछ दिनों के लिए भारत आया वह अमरीकी पत्रकार सही सिद्ध हुआ। जिन नेहरू जी को स्वतंत्र भारत में लोकतांत्रिक संस्थाओं और परम्पराओं का जन्मदाता कहा जाता है, उन्होंने ही भारतीय लोकतंत्र की जमीन पर वंशवाद के बीज बोये, इसे कौन अस्वीकार कर सकता है?
पार्टी नहीं व्यक्तिनिष्ठा
शास्त्री जी ने, चाहे जिन कारणों से हो, इंदिरा को अपने मंत्रिमंडल में लिया और सूचना प्रसारण मंत्रालय सौंपा। पर धीरे-धीरे वे इंदिरा के इरादों के प्रति आशंकित रहने लगे, उनसे भय खाने लगे। वरिष्ठ पत्रकार इंदर मल्होत्रा के कथनानुसार ताशकंद रवाना होने के पूर्व उन्होंने इंदिरा के विश्वस्त टी.टी.कृष्णमाचारी को मंत्रिमंडल से हटा दिया था और वहां से लौटकर वे इंदिरा को भी हटाने वाले थे। पर वे वहां से वापस नहीं लौट पाये। इस बीच इंदिरा के भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी और सोवियत संघ से अच्छे रिश्ते बन गये थे। नियति अपना खेल इसी तरह खेलती है। वैलेसे हेंगेन लिखता है कि मैंने इंदिरा की चाल में शाही अंदाज और उनकी आंखों में कठोरता देखी। इंदिरा जी ने कभी कहा था कि मेरे पिता राजनीति में संत थे, पर मैं संत नहीं हूं। और उन्होंने 1966 से 1984 तक की अपनी 18 साल लम्बी शेष जीवन यात्रा में यह सिद्ध कर दिखाया।
नेहरू जी के साथ रहकर वे सत्ता की ताकत और आकर्षण को पूरी तरह समझ चुकी थीं। सत्ता पर अपनी व्यक्तिगत पकड़ मजबूत करने के लिए कांग्रेस संगठन का चरित्र परिवर्तन करना आवश्यक था। उन्होंने विचारधारा और देश के प्रति निष्ठा की बजाय व्यक्तिगत वफादारी को कांग्रेसजन का सबसे बड़ा गुण माना। उनकी इस प्रवृत्ति पर कटाक्ष करते हुए तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष एस.निजलिंगप्पा ने 28 अक्तूबर, 1969 को इंदिरा के नाम एक पत्र में लिखा, व्प्रतीत होता है कि आप देश और कांग्रेस के प्रति वफादारी की बजाए अपने प्रति व्यक्तिगत निष्ठा को ही एकमात्र कसौटी मान बैठी हैं।व् कांग्रेस अध्यक्ष की इस स्पष्टोक्ति से विचलित होने की बजाय वे तेजी से व्यक्ति निष्ठा का ताना-बाना बुनने की दिशा में दौड़ रहीं थीं।
इंदिरा जी ने दो बार कांग्रेस पार्टी को विभाजन के रास्ते पर धकेला। एक बार 1969 में और दूसरी बार 1 जनवरी, 1978 को। प्रत्येक विभाजन में स्वतंत्रता आंदोलन में तपकर निकले कांग्रेसजन बाहर गये और सत्ता की गोद से चिपकने वाले चापलूस अंदर आते गये। व्कांग्रेसव् नाम का लेबिल तो बना रहा पर उसके अंदर का माल पूरी तरह बदल गया। बदली हुई मानसिकता का सर्वोत्तम उदाहरण इंदिरा कांग्रेस के अध्यक्ष देवकांत बरुआ का वह प्रसिद्ध कथन है जो बीसवीं शताब्दी के चापलूस पुराण का शिरोवाक्य बन गया है। कांग्रेस अध्यक्ष ने कहा, व्इंदिरा ही इंडिया है, इंडिया ही इंदिरा है।व् इंदिरा गांधी ने इस बेहूदा कथन की निंदा की हो, इसका कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं है।
वस्तुत: चापलूस व्यक्ति की मानसिकता सामान्य जन से बहुत अलग होती है। इस मानसिकता को समझने के लिए अकबर-बीरबल के एक मध्यकालीन चुटकुले को दोहराना यहां प्रासंगिक लगता है। कहते हैं- एक बार बादशाह अकबर ने कहा कि कल रात बैंगन की सब्जी खायी। बहुत बेस्वाद तो थी ही, रात भर पेट खराब रहा। बादशाह के इस कथन को सुनकर बीरबल तुरंत बोल उठा व्जहांपनाह इसीलिए तो उसे व्बेगुनव् नाम मिला है।व् कुछ महीनों बाद अकबर ने कहा कि कल रात बैंगन की सब्जी बहुत स्वादिष्ट बनी थी, बड़ा मजा आया। बैंगन सचमुच सब्जियों का राजा है। बीरबल फिर तपाक से बोला, व्हुजूर, इसीलिए तो अल्लाह ताला ने बैंगन के सिर पर ताज पहनाया है।व् अकबर ने नाराजगी के अंदाज में कहा बीरबल पिछली बार तो तुम बैंगन की बुराई कर रहे थे और अब तारीफ कर रहे हो, ऐसा क्यों? बीरबल का जवाब था, व्जहांपनाह मैं आपका गुलाम हूं, बैंगन का नहीं। आपकी हां में हां मिलाना मेरा फर्ज है।व् इंदिरा जी ने इसी प्रकार का कांग्रेस संगठन खड़ा किया।
तानाशाह प्रवृत्ति
इंदिरा जी में व्यक्तिगत सत्ता की असीम भूख थी। अपनी इस भूख के कारण उन्होंने सब लोकतांत्रिक संस्थाओं को कमजोर किया और सत्ता के सब सूत्र अपने हाथों में केन्द्रित करने का प्रयास किया। उन्होंने गृह मंत्रालय को अपने पास रखा और वित्त मंत्रालय यशवंत राव चव्हाण को दे दिया। उन्होंने गुप्तचर विभाग का विभाजन कर व्रॉव् नामक अलग गुप्तचर तंत्र खड़ा किया। गृह मंत्री के नाते आई.बी. और प्रधानमंत्री के नाते व्रॉव् को तथा राजस्व गुप्तचरी को भी प्रधानमंत्री के पास रखा। अपनी ही पार्टी के बलिराम भगत और वसंत राव नाईक जैसे मंत्रियों द्वारा संचित निधि को छापा मारकर निकलवा लिया, उन्होंने न्याय पालिका का अवमूल्यन किया। फखरुद्दीन अली अहमद और ज्ञानी जैल सिंह जैसे राष्ट्रपतियों को आंख मूंदकर अंगूठा लगाने वाला बना दिया। राष्ट्रपति जैल सिंह ने तो सार्वजनिक तौर पर कहा कि मैं इंदिरा जी के कहने पर झाड़ू लगाने को भी तैयार हूं। उन्होंने राज्यपालों का निर्वाचित राज्य सरकारों को बर्खास्त करने के लिए अंधाधुंध इस्तेमाल किया। उनकी इसी प्रवृत्ति ने देश को आपातकाल के अंधेरे युग में ला पटका था। इंदिरा गांधी के आपातकालीन मंत्रिमण्डल के एक सदस्य बंशीलाल ने बी.के.नेहरू (जो इंदिरा के चाचा लगते थे) एवं पी.एन.धर को कहा कि इंदिरा जी की एकमात्र इच्छा यह है कि उन्हें भारत का आजीवन राष्ट्रपति घोषित कर दिया जाए। अपनी इस आकांक्षा को पूरा करने के लिए उन्होंने वसंत साठे के माध्यम से भारत में राष्ट्रपति प्रणाली के पक्ष में बहस आरंभ करायी।
व्यक्तिगत सत्ता की इस चाह में उन्होंने अपने छोटे पुत्र संजय को भावी सत्ता केन्द्र के रूप में विकसित किया। 1978 के गुवाहाटी अधिवेशन में उन्हें यूथ कांग्रेस का सर्वेसर्वा बनाकर युवराज घोषित कर दिया गया। संजय ने अपने पास तस्करों और बाहुबलियों का खासा हुजूम इकट्ठा कर लिया था। 23 जून, 1980 को एक गैरकानूनी उड़ान में उनकी मृत्यु ने इंदिरा जी के सामने उत्तराधिकारी के प्रश्न को फिर खड़ा कर दिया। वे बड़े पुत्र राजीव को राजनीति के लिए अयोग्य मानती थीं, इसलिए उन्होंने उसे विमान चालन के लिए स्वतंत्र छोड़ दिया था। पर संजय की असामयिक मृत्यु के बाद उनके सामने कोई चारा नहीं बचा तो राजीव की इच्छा के विरुद्ध उन्होंने उन्हें राजनीति में घसीटा। संजय की पत्नी मेनका के पास राजनीतिक क्षमता और आकांक्षा दोनों थीं। किन्तु उनके साथ इंदिरा जी की स्वभावगत पटरी नहीं बैठती थी। इसीलिए उन्होंने उन्हें अपने नवजात शिशु वरुण के साथ अपमानित कर घर से निकाल दिया।
लोकप्रियता का अस्त्र
यहां प्रश्न खड़ा होता है कि कांग्रेस के विशाल संगठन के विरुद्ध इंदिरा गांधी अकेले टक्कर कैसे ले सकीं और विजयी हो सकीं? नेहरू जी के साथ भी ऐसा ही हुआ था। उनका संगठन पर कोई नियंत्रण नहीं था पर वे अकेले ही संगठन पर हावी रहते थे। इसका कारण था उनकी व्यापक लोकप्रियता। नेहरू जी संगठन से अधिक लोकप्रियता को महत्व देते थे और इसके लिए मंचीय नाटकीयता का पूरा उपयोग करते थे। इंदिरा जी ने भी कांग्रेसी दिग्गजों के विरुद्ध जन लोकप्रियता के इसी हथियार का इस्तेमाल किया। इसके लिए उन्होंने संगठन के विरुद्ध अपनी लड़ाई को जनहित की विचारधारा का आवरण पहनाया। अपने को पुरोगामी और अपने विरोधियों को जनविरोधी प्रतिक्रियावादी चित्रित कर दिया। पहले उन्होंने बैंको के राष्ट्रीयकरण का नारा लगाया, फिर राजा-महाराजाओं के प्रिवी पर्स और विशेषाधिकारों को छीनने का शोशा उछाला। कांग्रेस संस्था का इन मुद्दों से कोई विरोध नहीं था, बल्कि वह पहले से उन्हें उठाती आ रही थी किंतु इंदिरा जी ने ऐसी स्थिति पैदा की कि जनता को लगा कि यह उनका अपना निर्णय है, संगठन के विरोध के बावजूद। 14 बैंकों के राष्ट्रीयकरण का अध्यादेश उन्होंने शनिवार को निकाला जबकि दो दिन बाद सोमवार को संसद का सत्र शुरू होना था, किंतु उन्होंने अध्यादेश निकालकर इसका पूरा श्रेय स्वयं ले लिया।
उनकी इस व्यक्तिवादी प्रवृत्ति के कारण 1971 के मध्यावधि लोकसभा चुनाव में विपक्षी गठबंधन ने व्इंदिरा हटाओव् का नारा लगाया तो इंदिरा ने उसके जवाब में व्गरीबी हटाओव् का नारा उछाल दिया। वे अपनी पार्टी की अकेली प्रचारक थीं। उन्होंने देश भर का तूफानी दौरा किया और सब जगह एक ही बात दोहरायी व्मैं कहती हूं गरीबी हटाओ तो ये लोग कहते हैं इंदिरा हटाओ।व् इंदिरा जी की इसी कार्यशैली का अनुसरण इस समय सोनिया और राहुल कर रहे हैं। सोनिया पार्टी के ये मां-बेटा ही एकमात्र प्रचारक हैं, पार्टी में एक भी पत्ता सोनिया के इशारे के बिना नहीं खड़कता।
लोकतंत्र या अधिनायकवाद
इंदिरा जी में असीम व्यक्तिगत सत्ताकांक्षा होते हुए भी उनका मानस पूरी तरह भारतीय था। वे स्वाधीनता आंदोलन से तपकर निकली थीं। भारत भक्ति उनमें कूट-कूटकर भरी थी। वे एक शक्तिशाली, स्वाभिमानी भारत के निर्माण का माध्यम बनना चाहती थीं। सस्ती लोकप्रियता कमाने के लिए उन्होंने जो नारे उछाले उनके द्वारा स्वयं को देश की गरीब-पिछड़ी जनता के साथ जोड़ा। राष्ट्रीय सम्मान की रक्षा के लिए उन्होंने अमरीका जैसी महाशक्ति की नाराजगी मोल लेना भी स्वीकार किया। सिक्किम का भारत में पूर्ण विलय, बंगलादेश का मुक्ति संग्राम, सोवियत संघ के साथ मैत्री संधि, पाकिस्तान की सैनिक पराजय आदि उनकी ऐसी उपलब्धियां हैं जिन्हें भारत की जनता ने खूब सराहा और विश्व में भारत का सम्मान बढ़ा। अमरीकी विरोध की उपेक्षा करके भी उन्होंने 1974 में परमाणु विस्फोट का साहस दिखाया। 1984 में अमृतसर में आपरेशन ब्लू स्टार उनके जीवन का सबसे कठिन और साहसी निर्णय था। 1982 में मीनाक्षीपुरम् में दलित परिवारों के सामूहिक मतान्तरण की घटना ने उनके राष्ट्रीय स्वाभिमान को आहत किया। उन्होंने परोक्ष रूप से हिन्दू जागरण की पृष्ठभूमि तैयार करवायी। पर शायद ऐसी विरुदावली हिटलर के बारे में भी रची जा सकती है। उसने जो कुछ किया वह प्रथम विश्वयुद्ध में जर्मनी की पराजय का बदला लेने के लिए किया। वह जर्मनी को विश्व की सबसे बड़ी शक्ति के रूप में प्रस्थापित करना चाहता था। यह सदुद्देश्य लेकर भी हिटलर ही जर्मनी की बर्बादी का कारण बन गया। क्या किसी राष्ट्र को स्वावलम्बी और स्वाभिमानपूर्ण जीवन जीने के लिए अधिनायकवादी व्यवस्था को अपनाना आवश्यक है? आज चीन ने भी हमारे सामने यही प्रश्न खड़ा कर दिया है। चीन की इस त्वरित प्रगति और शक्तिवृध्दि का श्रेय उसकी अधिनायकवादी व्यवस्था को दिया जा रहा है, जो बहुत मात्रा में सही भी है। तो क्या भारत को भी जिंदा रहने के लिए चीन के रास्ते पर ही जाना चाहिए? पर क्या हम अपने मूल संस्कारों और सहस्राब्दियों पुरानी लोकतांत्रिक चेतना को छोड़कर आत्मतृप्ति का सुख पा सकते हैं? http://www.pravakta.com/archives/27386
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