गुरुवार, सितंबर 08, 2011

तुम किसकी माँ हो मेरी मातृभूमि : आशुतोष पार्थेश्वर

तुम किसकी माँ हो मेरी मातृभूमि

Lovy Bhardwaj द्वारा
Courtesy : आशुतोष पार्थेश्वर


भगत सिंह

भगत सिंह  भारतीय ह्रदय की सबसे जीवंत स्मृतियों में से हैं. आज उनका बलिदान दिवस है. उनकी शहादत के बाद भारत की लगभग सभी भाषाओँ में उन पर लिखा गया, वह जन-ज्वार का प्रकटीकरण था. यहाँ 'माधुरी' के पन्नों से भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव  की तस्वीर दी जा रही है. ये तस्वीरें माधुरी के अप्रैल अंक में प्रकाशित हुई थीं. २५ मार्च को गणेश शंकर विद्यार्थी ने भी अपने प्राणों की आहुति दे दी थी, उस पृष्ठ पर उनकी भी तस्वीर थी. विद्यार्थी जी की तस्वीर के साथ यह शीर्षक था 'भारत के एक अमूल्य रत्न'. भगत सिंह और उनके साथियों के साथ शीर्षक था 'स्वतंत्रता  के तीन दीवाने'. तस्वीरों के नीचे यह नोट भी जुड़ा था " यदि ये तीनों त्यागी वीर अहिंसा के पुजारी होते तो भारत को बहुत लाभ पहुंचा सकते. क्योंकि अहिंसा और शांति ही हमारा उद्धार कर सकती है. " पत्रिका के संपादक रामसेवक त्रिपाठी थे. पवित्र जन रुचि उनके शब्दों से पूरी तरह शायद ही सहमत थी.
 भगत सिंह के पत्रों में गहरी, कोमल और हरी संवेदना मिलती है. यहाँ उनके दो पत्र प्रस्तुत हैं, पढ़िए और उस चिर युवा की संजीदगी से जुड़िये.

कुलतार सिंह के नाम अंतिम पत्र.                                                                                                                                                

सेंट्रल जेल, लाहौर.                                                                                                                                    
३ मार्च १९३१

अजीज कुलतार,      
आज तुम्हारी आँखों में आंसू देखकर बहुत दुःख हुआ. आह तुम्हारी बातों में बहुत दर्द था, तुम्हारे आंसू मुझसे सहन नहीं होते.     
बरखुरदार, हिम्मत से शिक्षा प्राप्त करना और सेहत का ख्याल रखना. हौसला रखना और क्या कहूँ !                                

उसे यह फिक्र है हरदम नया तर्ज़े-ज़फा क्या है,                                          
हमें यह शौक़ है देखें सितम की इन्तहा क्या है.                                          
दहर से क्यों खफा रहें, चर्ख का क्यों गिला करें,                                          
सारा जहाँ अदू सही, आओ  मुकाबला  करें.                                         
कोई दम का मेहमान हूँ ऐ अहले-महफ़िल                                         
चरागे-सहर हूँ   बुझा       चाहता हूँ.                                         
हवा में रहेगी मेरे ख्याल की बिजली,                                          
ये मुश्ते-खाक है फानी,  रहे रहे न रहे.

अच्छा रुखसत. खुश रहो अहले-वतन, हम तो सफ़र करते हैं.
हिम्मत से रहना. नमस्ते.                                                                                                                   

तुम्हारा भाई भगत सिंह 


कुलबीर के नाम पत्र.

लाहौर सेंट्रल जेल,                                                                                                                
३ मार्च १९३१ 

प्रिय कुलबीर सिंह,तुमने मेरे लिए बहुत कुछ किया. मुलाक़ात के वक़्त ख़त के जवाब में कुछ लिख देने के लिए कहा.कुछ अल्फाज़ लिख दूँ, बस-देखो, मैंने किसी के लिए कुछ न किया, तुम्हारे लिए भी कुछ नहीं. आजकल बिलकुल मुसीबत में छोड़कर जा रहा हूँ. तुम्हारी जिन्दगी का क्या होगा ? गुज़ारा कैसे करोगे ? यही  सब सोचकर कांप जाता हूँ, मगर भाई हौसला रखना, मुसीबत में भी कभी मत घबराना. इसके सिवा और क्या कह सकता हूँ. अमेरिका जा सकते तो बहुत अच्छा होता, मगर अब तो यह भी नामुमकिन मालूम होता है. आहिस्ता-आहिस्ता मेहनत से पढ़ते जाना. अगर कोई सिख सको तो बेहतर होगा, मगर सब कुछ पिताजी की सलाह से करना. जहाँ तक हो सके, मुहब्बत से सब लोग गुज़ारा करना. इसके सिवाए क्या कहूँ ?        

जानता हूँ कि आज तुम्हारे दिल के अन्दर गम का सुमद्र ठाठें मार रहा है. भाई तुम्हारी बात सोचकर मेरी आँखों में आंसू आ रहे हैं, मगर क्या किया जाये, हौसला करना, मेरे अजीज, मेरे बहुत-बहुत प्यारे भाई, जिन्दगी बड़ी सख्त है और दुनिया बड़ी बे-मुरव्वत. सब लोग बड़े बेरहम हैं. सिर्फ मुहब्बत और हौसले से ही गुज़ारा हो सकेगा. कुलतार की तालीम की फिक्र भी तुम ही करना. बड़ी शर्म आती है और अफ़सोस के सिवाए मैं कर ही क्या सकता हूँ. साथ वाला ख़त हिंदी में लिखा हुआ है. ख़त 'के' की बहन को  दे देना.
अच्छा नमस्कार,
अजीज भाई अलविदा....रुखसत.                                                                                                          

तुम्हारा खैर-अंदेश
 भगत सिंह



INQUILAB ZINDABAD

जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) में सेंटर ऑफ इंडियन लैंग्वेजेज के चेयरपर्सन प्रफेसर चमनलाल ने शहीद-ए-आजम भगत सिंह के जीवन और
विचारों को प्रस्तुत करने में अहम भूमिका निभाई है। वह भारत की आजादी में क्रांतिकारी आंदोलन की भूमिका को बेहद महत्वपूर्ण मानते हैं और उसे व्यापक सामाजिक-आर्थिक बदलाव से जोड़कर देखते हैं।

जब भी स्वाधीनता आंदोलन की बात होती है, इसके नेताओं के रूप में गांधी, नेहरू और पटेल को ज्यादा याद किया जाता है। भगत सिंह और उनके साथियों के प्रति श्रद्धा के बावजूद उन्हें पूरा श्रेय नहीं दिया जाता। ऐसा क्यों? 

गांधी, नेहरू आदि नेताओं का जो भी योगदान रहा हो, लेकिन भगत सिंह के आंदोलन और बाद में उनके शहीद होने से ही आजादी को लेकर लोगों में जागृति फैली। इसका फायदा कांग्रेस और मुस्लिम लीग जैसी पार्टियों ने उठा लिया। कुछ दक्षिणपंथी संगठन भी अपने आप को आजादी के आंदोलन में शामिल बताने लगे हैं। वे खुद को पटेल से जोड़ने की कोशिश में लगे हैं।


लेकिन कुछ इतिहासकार भगत सिंह के संघर्ष को असफल करार देते हैं। वे कहते हैं कि भारत के सामाजिक- आर्थिक हालात उनके पक्ष में नहीं थे...

यह सच है कि भगत सिंह ने जब आंदोलन छेड़ा था, उस वक्त भारत के राजनीतिक हालात उनके पक्ष में नहीं थे। लेकिन आजादी की लड़ाई में वह सबसे कामयाब शख्सियतों में से एक हैं। उन्होंने जो कुछ भी किया, उसके पीछे तर्क था, सोच थी। भगत सिंह का लक्ष्य सत्ता प्राप्ति नहीं था, व्यवस्था परिवर्तन था। दूसरी तरफ नेहरू, जिन्ना जैसी शख्सियतों का मकसद सत्ता प्राप्ति ही था, जो बाद में साबित भी हुआ।

भारतीय क्रांतिकारी आंदोलन की धारा गदर आंदोलन से निकली है। आप उसे किस रूप में देखते हैं?

1913 में अमेरिका में गदर पार्टी बनी, जिसने कई भाषाओं में गदर नाम से अपना अखबार भी निकाला। फिर 1915 में इस पाटीर् ने ही भारत में सशस्त्र आंदोलन चलाया। इस आंदोलन में शामिल युवकों को अंग्रेजों ने फांसी दे दी। इन्हीं में थे- युवा शहीद करतार सिंह सराभा, जिनसे भगत सिंह बहुत प्रभावित थे। सराभा ही भगत सिंह के आदर्श थे। इस आंदोलन में दक्षिण भारत तक के लोग शामिल थे। सच कहा जाए तो 1857 और 20 वीं शताब्दी में छेड़े गए क्रांतिकारी आंदोलन दरअसल परिवर्तन के आंदोलन थे और परिवर्तन के आंदोलन कभी खत्म नहीं होने वाले हैं। ये आज भी भारत में किसी न किसी रूप में जारी हैं। परिवर्तन के आंदोलन की कई धाराएं रही हैं, किसी पर वामपंथी प्रभाव रहा, किसी पर दक्षिणपंथी प्रभाव तो किसी पर धार्मिक प्रभाव। लेकिन धार्मिक आधार पर छेड़े गए आंदोलनों का क्रांतिकारी आंदोलन से दूर-दूर का रिश्ता भी नहीं था।

यानी गदर आंदोलन के प्रभाव में ही भगत सिंह के भीतर एक विश्वदृष्टि विकसित हुई और उन्होंने अपने संघर्ष को एक बड़े और दीर्घकालीन मकसद से जोड़ा... 

भगत सिंह के साथ जुड़ी घटनाओं की गहराई में जाएं तो इस बारे में काफी कुछ पता चलता है। सबसे पहले लाला लाजपत राय की हत्या का बदला लेने के लिए सांडर्स को मारने का प्लान बना। असेंबली में बम फेंकने का प्लान भी जनसामान्य के जनतांत्रिक अधिकारों की तरफ लोगों का ध्यान आकर्षित करने के लिए बनाया गया। भगत सिंह ने अपने मुद्दे को पूरी दुनिया के सामने इसके जरिए रखा। वह जानते थे कि उनके किसी भी एक्शन की सजा मौत है। उन्होंने लिखा भी है कि उनकी शहादत के बाद भारत में आजादी के लिए लोग और भी उतावले हो उठेंगे। वह अपने मकसद में कामयाब रहे। अदालत में दिए गए उनके बयान भारत के लिए उनकी दूरदृष्टि का नायाब नमूना हैं। वह सिर्फ भारत की आजादी नहीं चाहते थे बल्कि देश का संचालन सामाजिक आधार पर करना चाहते थे। उन्होंने रूसी क्रांति को सामने रखकर भारत के बारे में सोचा था।


आम जनता महसूस कर रही है कि उसे अब भी वास्तविक आजादी नहीं मिल सकी है। रोज-रोज सिस्टम की नई विसंगतियां सामने आ रही हैं। कहीं स्वाधीनता की लड़ाई में ही कोई बुनियादी गड़बड़ी तो नहीं थी? 

हां, बुनियादी गड़बड़ी कांग्रेस की सोच में थी। उसने अंग्रेजों के जाने के बाद देश के निर्माण की जो परिकल्पना की, वह गलत थी। जिस पार्टी में गांधी, नेहरू, मौलाना आजाद, जैसी महत्वपूर्ण शख्सियतें थीं, उसे उस वक्त देश के चंद धनी वर्ग कंट्रोल कर रहे थे। नेहरू की सोच समाजवादी थी लेकिन वह एक बार भी इस बात का विरोध नहीं कर सके कि गांधी जी क्यों उस समय देश के एक सबसे बड़े औद्योगिक घराने के मेहमान बनते थे। इस धनिक वर्ग की सोच यह थी कि अंग्रेजों के जाते ही सत्ता पर उसका अप्रत्यक्ष कब्जा होगा और देश के आर्थिक व राजनीतिक हालात का फायदा दरअसल वही उठाएगा। ऐसा हुआ भी और नतीजा हमारे सामने है।

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