डॉ विवेक आर्य
क्या वेदों में बहुदेव्तावाद और मांसाहार हैं ?
आधुनिक युग में महर्षि दयानंद का नाम समाज सुधारको के साथ साथ वेदों के भाष्यकार के रूप में भी जाना जाता हैं. महर्षि दयानंद ने यजुर्वेद का संपूर्ण एवं ऋग्वेद का सप्त मंडल तक भाष्य किया था जिसे वे अकाल मृत्यु के कारण पूर्ण नहीं कर पाए थे. कुछ जिज्ञासुओं का कहना हैं की जब पहले से ही सायण,महीधर आदि के भाष्य उपलब्ध थे तो महर्षि दयानंद को नवीन भाष्य की क्या आवश्यकता पड़ी अथवा यह भी कह सकते हैं की महर्षि दयानंद के वेद भाष्य में ऐसा क्या नवीन था.
महर्षि दयानंद के भाष्य से पहले वेदों के विषय में जनमानस की धारणाओं कुछ इस प्रकार थी-
१. वेदों में अनेक ईश्वरों की उपासना का विधान हैं क्योंकि वेदों में अग्नि, इन्द्र, रूद्र,पितर, अश्विनौ, अदिति , मरुत आदि अनेको देवों का वर्णन हैं.
२. वेदों में मांसाहार एवं हवन में पशु बलि जैसे अश्वमेध में अश्व की, अजमेध में अज की , नरमेध में नर बलि का विधान हैं जिससे वेद मात्र बोझिल कर्मकांड की पुस्तक प्रतीत होती हैं
महर्षि दयानंद के वेद भाष्य का प्रयोजन भी यही था की चारो और आर्यव्रत में फैले अंधकार का मुख्य कारण वेदों के सही अर्थ का प्रकाश नहीं होना हैं इसलिए उन्होंने वेद का नवीन भाष्य करने का निश्चय किया. सायण ,महीधर आदि के भ्रामक भाष्यों को पढ़ कर विदेशी भाष्यकारों जैसे मोक्षमूलर, ग्रिफ्फिथ, विल्सन आदि भी वेदों का सही अर्थ न जान सके और पूरा विश्व वेदों के ज्ञान के प्रकाश से वंचित रह गया. महर्षि दयानंद ने वेदों का नवीन भाष्य कर पूरे विश्व में क्रांति का किस प्रकार प्रचार किया पूरे लेख को पड़ कर हम जान जायेंगे.
१. वेदों में अनेक ईश्वरों की उपासना का विधान हैं क्योंकि वेदों में अग्नि, इन्द्र, रूद्र,पितर, अश्विनौ, अदिति , मरुत आदि अनेको देवों का वर्णन हैं.
वेदों में अग्नि, वायु, इन्द्र, अश्विनो, मित्र, वरुण, अर्यमा, रूद्र, सविता, अदिति, सरस्वती, पृथ्वी आदि देवताओ का वर्णन आता हैं. उवट, सायण, महीधर आदि भाष्यकारों ने इन्हें अलग स्वतन्त्र देव स्वीकार किया हैं जिससे वेदों में बहुदेवतावाद प्रतीत होता हैं . यज्ञों में आवाहन करने पर ये देवता प्रसन्न होकर यजमान को पुत्र, पोत्र, धन आदि प्रदान करते हैं. महर्षि दयानंद ने कहाँ की वेदों के विभिन्न देवता एक ही परमेश्वर के गुण- कर्म बोधक विभिन्न नाम हैं जैसे अग्नि के अग्रणी , विज्ञानस्वरुप, स्वयं प्रकाशमान, प्रकाशक परमेश्वर, विद्वान अध्यापक, उपदेशक, नायक राजा, वीर सेनापति अर्थ हैं, इन्द्र के ऐश्वर्याशाली परमेश्वर, शत्रु विदारक राजा, सेनापति, गुरु, बिजुली आदि अर्थ हैं. रूद्र का शत्रु संहारक सेनापति, ब्रहमचारी, जीवात्मा, वैद्य, वायु , प्राण आदि अर्थ हैं.अदिति के माता, जगदम्बा, राज रानी, पृथ्वी, अविनाशी आत्मा, विद्या, क्रिया, गौ आदि अर्थ हैं. महर्षि दयानंद ने जो अर्थ देव शब्दों के किये हैं वे वेदों से , निरुक्त से और ब्राह्मण आदि ग्रंथो से प्रमाणित हो जाते हैं.
वेदों में एक ईश्वर होने के प्रमाण-
१. जो एक ही सब मनुष्यों का और वसुओ का ईश्वर हैं- ऋग्वेद १.७.९
२. जो एक ही हैं और दानी मनुष्य को धन प्रदान करता हैं- ऋग्वेद १.८४.६
३. जो एक ही हैं और मनुष्यों से पुकारने योग्य हैं- ऋग्वेद ६.२२.१
४. हे परमेश्वर (इन्द्र), तू सब जनों का एक अद्वितीय स्वामी हैं , तू अकेला समस्त जगत का राजा हैं – ऋग्वेद ६.३६.४
५. हे मनुष्य, जो परमेश्वर एक ही हैं उसी की तू स्तुति कर, वह सब मनुष्यों का द्रष्टा हैं – ऋग्वेद ६.४५.१६
६. तो एक ही अपने पराकर्म से सबका इश्वर बना हुआ हैं- ऋग्वेद ८.६.४१
७. विश्व को रचने वाला एक ही देव हैं, जिसने आकाश और भूमि को जन्म दिया हैं- ऋग्वेद १०. ८१.३
८. हे दुस्तो को दंड देने वाले परमेश्वर, तुझ से अधिक उत्कृष्ट और तुझ से बड़ा संसार में कोई नहीं हैं, न ही तेरी बराबरी का अन्य कोई नहीं हैं- ऋग्वेद ४.३०.१
९. वह ईश्वर अचल हैं,एक हैं, मन से भी अधिक वेगवान हैं. यजुर्वेद ४०.४
१०. पृथ्वी आदि लोकों का धारण करने वाला ईश्वर हमें सुख देवे,जो जगत का स्वामी हैं, एक ही हैं, नमस्कार करने योग्य हैं, बहुत सुख देने वाला हैं. अथर्वेद २.२.२.
११. आओ , सब मिलकर स्तुति वचनों से इस परमात्मा की पूजा करो, जो आकाश का स्वामी हैं, एक हैं, व्यापक हैं और हम मनुष्यों का अतिथि हैं. अथर्वेद ६.२१.१
१२. वह परमेश्वर एक हैं, एक हैं , एक ही हैं. उसके मुकाबले में कोई दूसरा , तीसरा, चौथा परमेश्वर नहीं हैं, पांचवां, छठा , सातवाँ नहीं हैं, आठवां, नौवां, दसवां नहीं हैं. वही एक परमेश्वर चेतन- अचेतन सबको देख रहा हैं. अथर्वेद १६.४.१६-२०
इस प्रकार वेदों में दिए गए मंत्रो से यह सिद्ध होता हैं की परमेश्वर एक हैं. अब एक समस्या उत्पन्न होती हैं. एक और तो वेदों में मित्र, वरुण, अग्नि , इन्द्र आदि नाना देवों की सत्ता का वर्णन हैं दूसरी और वेदों में एक ही ईश्वर का वर्णन हैं तो इस परस्पर विरोधी बातो का समन्वय कैसे करे. एक उदाहरण लेते हैं देश के राजा का नाम प्रधानमंत्री होता हैं, प्रान्त के राजा का नाम मुख्यमंत्री होता हैं. जिले के राजा का नाम कमिश्नर होता हैं, पंचायत के राजा का नाम सरपंच होता हैं. अगर कोई यह कहे की भारत का एक राजा हैं तो वह भी ठीक हैं और कोई यह कहे भारत में अनेक राजा हैं तो वह भी ठीक हैं. यहीं बात वेदों के विषय में भी हैं. सबसे बड़ा देवता एक परम ब्रह्मा ईश्वर हैं बाकि सब देवता उसके नीचे काम करने वाले हैं. परमेश्वर और बाकि देवों में किस प्रकार का सम्बन्ध हैं यह इस मंत्र से सिद्ध होता हैं. जैसे वृक्ष के तने के आश्रित सब शाखाएं होती हैं, वैसे ही उस परम देव के आश्रय में अन्य सब देव रहते हैं.(अथर्वेद १०.७.३८)
वेदों में एक ईश्वर के विभिन्न नाम होने की साक्षी भी दी गयी हैं जैसे-
१. परमेश्वर एक ही हैं ज्ञानी लोग उसे विभिन्न नामो से पुकारते हैं , उसे इन्द्र कहते हैं, मित्र कहते हैं, वरुण कहते हैं, अग्नि कहते हैं, और वही दिव्या सुपर्ण और गरुत्मान भी हैं, उसे ही वे यम और मातरिश्वा भी कहते हैं.(ऋग्वेद १.१६४.४६)
२. एक होते हुए भी उस सुपर्ण परमेश्वर को ज्ञानी कविजन बहुत नामो से कल्पित कर लेते हैं (ऋग्वेद १०.११४.५)
३. यहीं भाव ऋग्वेद ३.२६.७,ऋग्वेद २.१.३-७,ऋग्वेद १०.८२.३, यजुर्वेद ३२.१, अथर्वेद १३.४ में भी कहाँ गया हैं.
जिस प्रकार बाईबिल में ईश्वर को god, almighty,lord आदि अनेको नाम से पुकारा गया हैं उसी प्रकार वेदों में ईश्वर को भी विभिन्न नाम से पुकारा गया हैं. इस प्रकार यह सिद्ध होता हैं की वेदों में एक ईश्वर का वर्णन हैं इसलिए जो लोग अंध विश्वास में आकर विभिन्न देवी देवताओ की उपासना में लगे हुए हैं वे वेदों में वर्णित एक ईश्वर के यथार्थ को समझे.
उदहारण के लिए
महीधर अपने भाष्य में यजुर्वेद २३/१९ का अर्थ इस प्रकार करते हैं- सब ऋत्विजों के सामने यजमान की स्त्री घोरे के पास सोवे, और सोती हुई घोरे से कहे की, हे अश्व ! जिससे गर्भ धारण होता हैं, ऐसा जो तेरा वीर्य हैं उसको मैं खैंच के अपनी योनी में डालूं , तथा तू उस वीर्य को मुझमें स्थापन करने वाला हैं.
ऐसे अश्लील एवं व्यर्थ अर्थ को नक्कारते हुए स्वामी दयानंद इस मंत्र का सही अर्थ इस प्रकार करते हैं जो परमात्मा गणनीय पदार्थो का पालन करने हारा हैं उसको हम लोग पूज्य बुद्धि से ग्रहण करते हैं जो की हमारे मित्र और मोक्ष सुख आदि का प्रियपति तथा हमको आनंद में रख कर सदा पालन करने वाला हैं, उसको हम लोग अपना उपास्य देव जन के ग्रहण करते हैं. जो की विद्या और सुख आदि का निधि अर्थात हमारे कोशो का पति हैं, उसी सर्वशक्तिमान परमेश्वर को हम अपना राजा और स्वामी मानते हैं. तथा जो की व्यापक होके सब जगत में और सब जगत उसमें बस रहा हैं, इस कारण से उसको वसु कहते हैं. हे वसु परमेश्वर! जो आप अपने सामर्थ्य से जगत के अनादिकरण में गर्भ धारण करते हैं, अर्थात सब मूर्तिमान द्रव्यों को आप ही रचते हैं.
महीधार अपने भाष्य में यजुर्वेद २३/२० का अर्थ इस प्रकार करते हैं- यजमान की स्त्री घोरे के लिंग को पकड़ कर आप ही अपनी योनी में डाल देवे.
ऐसे अश्लील एवं व्यर्थ अर्थ को नक्कारते हुए स्वामी दयानंद इस मंत्र का सही अर्थ इस प्रकार करते हैं राजा और प्रजा हम दोनों मिल के धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की सिद्धि के प्रचार करने में सदा प्रवित रहे. जिससे हम दोनों परस्पर तथा सब प्राणियो को सब सुख से परिपूर्ण कर देवें. जिस राज्य में मनुष्य लोग अच्छी प्रकार ईश्वर को जानते हैं, वही देश सुख युक्त होता हैं. इससे राजा और प्रजा परस्पर सुख के लिए सद्गुणों के उपदेशक पुरुष की सदा सेवा करे, और विद्या तथा बल को सदा बदावे.
यजुर्वेद के २३ वें अध्याय का इसी प्रकार महीधर ने अत्यंत अश्लील अर्थ किया हैं जिसका सही अर्थ भाष्यकार-शंका-समाधान-आदि-विषय नामक पाठ में स्वामी दयानंद द्वारा रचित ऋगवेदादि भाष्य भूमिका में पड़ा जा सकता हैं.
पाठक स्वामी दयानंद द्वारा किये गए वेदों के क्रन्तिकारी भाष्य के महत्व को समझ गए होंगे.
- डॉ विवेक आर्य Original Post URL http://agniveerfans.wordpress.com/2011/07/11/dayanand-vedas/
क्या वेदों में बहुदेव्तावाद और मांसाहार हैं ?
आधुनिक युग में महर्षि दयानंद का नाम समाज सुधारको के साथ साथ वेदों के भाष्यकार के रूप में भी जाना जाता हैं. महर्षि दयानंद ने यजुर्वेद का संपूर्ण एवं ऋग्वेद का सप्त मंडल तक भाष्य किया था जिसे वे अकाल मृत्यु के कारण पूर्ण नहीं कर पाए थे. कुछ जिज्ञासुओं का कहना हैं की जब पहले से ही सायण,महीधर आदि के भाष्य उपलब्ध थे तो महर्षि दयानंद को नवीन भाष्य की क्या आवश्यकता पड़ी अथवा यह भी कह सकते हैं की महर्षि दयानंद के वेद भाष्य में ऐसा क्या नवीन था.
महर्षि दयानंद के भाष्य से पहले वेदों के विषय में जनमानस की धारणाओं कुछ इस प्रकार थी-
१. वेदों में अनेक ईश्वरों की उपासना का विधान हैं क्योंकि वेदों में अग्नि, इन्द्र, रूद्र,पितर, अश्विनौ, अदिति , मरुत आदि अनेको देवों का वर्णन हैं.
२. वेदों में मांसाहार एवं हवन में पशु बलि जैसे अश्वमेध में अश्व की, अजमेध में अज की , नरमेध में नर बलि का विधान हैं जिससे वेद मात्र बोझिल कर्मकांड की पुस्तक प्रतीत होती हैं
महर्षि दयानंद के वेद भाष्य का प्रयोजन भी यही था की चारो और आर्यव्रत में फैले अंधकार का मुख्य कारण वेदों के सही अर्थ का प्रकाश नहीं होना हैं इसलिए उन्होंने वेद का नवीन भाष्य करने का निश्चय किया. सायण ,महीधर आदि के भ्रामक भाष्यों को पढ़ कर विदेशी भाष्यकारों जैसे मोक्षमूलर, ग्रिफ्फिथ, विल्सन आदि भी वेदों का सही अर्थ न जान सके और पूरा विश्व वेदों के ज्ञान के प्रकाश से वंचित रह गया. महर्षि दयानंद ने वेदों का नवीन भाष्य कर पूरे विश्व में क्रांति का किस प्रकार प्रचार किया पूरे लेख को पड़ कर हम जान जायेंगे.
१. वेदों में अनेक ईश्वरों की उपासना का विधान हैं क्योंकि वेदों में अग्नि, इन्द्र, रूद्र,पितर, अश्विनौ, अदिति , मरुत आदि अनेको देवों का वर्णन हैं.
वेदों में अग्नि, वायु, इन्द्र, अश्विनो, मित्र, वरुण, अर्यमा, रूद्र, सविता, अदिति, सरस्वती, पृथ्वी आदि देवताओ का वर्णन आता हैं. उवट, सायण, महीधर आदि भाष्यकारों ने इन्हें अलग स्वतन्त्र देव स्वीकार किया हैं जिससे वेदों में बहुदेवतावाद प्रतीत होता हैं . यज्ञों में आवाहन करने पर ये देवता प्रसन्न होकर यजमान को पुत्र, पोत्र, धन आदि प्रदान करते हैं. महर्षि दयानंद ने कहाँ की वेदों के विभिन्न देवता एक ही परमेश्वर के गुण- कर्म बोधक विभिन्न नाम हैं जैसे अग्नि के अग्रणी , विज्ञानस्वरुप, स्वयं प्रकाशमान, प्रकाशक परमेश्वर, विद्वान अध्यापक, उपदेशक, नायक राजा, वीर सेनापति अर्थ हैं, इन्द्र के ऐश्वर्याशाली परमेश्वर, शत्रु विदारक राजा, सेनापति, गुरु, बिजुली आदि अर्थ हैं. रूद्र का शत्रु संहारक सेनापति, ब्रहमचारी, जीवात्मा, वैद्य, वायु , प्राण आदि अर्थ हैं.अदिति के माता, जगदम्बा, राज रानी, पृथ्वी, अविनाशी आत्मा, विद्या, क्रिया, गौ आदि अर्थ हैं. महर्षि दयानंद ने जो अर्थ देव शब्दों के किये हैं वे वेदों से , निरुक्त से और ब्राह्मण आदि ग्रंथो से प्रमाणित हो जाते हैं.
वेदों में एक ईश्वर होने के प्रमाण-
१. जो एक ही सब मनुष्यों का और वसुओ का ईश्वर हैं- ऋग्वेद १.७.९
२. जो एक ही हैं और दानी मनुष्य को धन प्रदान करता हैं- ऋग्वेद १.८४.६
३. जो एक ही हैं और मनुष्यों से पुकारने योग्य हैं- ऋग्वेद ६.२२.१
४. हे परमेश्वर (इन्द्र), तू सब जनों का एक अद्वितीय स्वामी हैं , तू अकेला समस्त जगत का राजा हैं – ऋग्वेद ६.३६.४
५. हे मनुष्य, जो परमेश्वर एक ही हैं उसी की तू स्तुति कर, वह सब मनुष्यों का द्रष्टा हैं – ऋग्वेद ६.४५.१६
६. तो एक ही अपने पराकर्म से सबका इश्वर बना हुआ हैं- ऋग्वेद ८.६.४१
७. विश्व को रचने वाला एक ही देव हैं, जिसने आकाश और भूमि को जन्म दिया हैं- ऋग्वेद १०. ८१.३
८. हे दुस्तो को दंड देने वाले परमेश्वर, तुझ से अधिक उत्कृष्ट और तुझ से बड़ा संसार में कोई नहीं हैं, न ही तेरी बराबरी का अन्य कोई नहीं हैं- ऋग्वेद ४.३०.१
९. वह ईश्वर अचल हैं,एक हैं, मन से भी अधिक वेगवान हैं. यजुर्वेद ४०.४
१०. पृथ्वी आदि लोकों का धारण करने वाला ईश्वर हमें सुख देवे,जो जगत का स्वामी हैं, एक ही हैं, नमस्कार करने योग्य हैं, बहुत सुख देने वाला हैं. अथर्वेद २.२.२.
११. आओ , सब मिलकर स्तुति वचनों से इस परमात्मा की पूजा करो, जो आकाश का स्वामी हैं, एक हैं, व्यापक हैं और हम मनुष्यों का अतिथि हैं. अथर्वेद ६.२१.१
१२. वह परमेश्वर एक हैं, एक हैं , एक ही हैं. उसके मुकाबले में कोई दूसरा , तीसरा, चौथा परमेश्वर नहीं हैं, पांचवां, छठा , सातवाँ नहीं हैं, आठवां, नौवां, दसवां नहीं हैं. वही एक परमेश्वर चेतन- अचेतन सबको देख रहा हैं. अथर्वेद १६.४.१६-२०
इस प्रकार वेदों में दिए गए मंत्रो से यह सिद्ध होता हैं की परमेश्वर एक हैं. अब एक समस्या उत्पन्न होती हैं. एक और तो वेदों में मित्र, वरुण, अग्नि , इन्द्र आदि नाना देवों की सत्ता का वर्णन हैं दूसरी और वेदों में एक ही ईश्वर का वर्णन हैं तो इस परस्पर विरोधी बातो का समन्वय कैसे करे. एक उदाहरण लेते हैं देश के राजा का नाम प्रधानमंत्री होता हैं, प्रान्त के राजा का नाम मुख्यमंत्री होता हैं. जिले के राजा का नाम कमिश्नर होता हैं, पंचायत के राजा का नाम सरपंच होता हैं. अगर कोई यह कहे की भारत का एक राजा हैं तो वह भी ठीक हैं और कोई यह कहे भारत में अनेक राजा हैं तो वह भी ठीक हैं. यहीं बात वेदों के विषय में भी हैं. सबसे बड़ा देवता एक परम ब्रह्मा ईश्वर हैं बाकि सब देवता उसके नीचे काम करने वाले हैं. परमेश्वर और बाकि देवों में किस प्रकार का सम्बन्ध हैं यह इस मंत्र से सिद्ध होता हैं. जैसे वृक्ष के तने के आश्रित सब शाखाएं होती हैं, वैसे ही उस परम देव के आश्रय में अन्य सब देव रहते हैं.(अथर्वेद १०.७.३८)
वेदों में एक ईश्वर के विभिन्न नाम होने की साक्षी भी दी गयी हैं जैसे-
१. परमेश्वर एक ही हैं ज्ञानी लोग उसे विभिन्न नामो से पुकारते हैं , उसे इन्द्र कहते हैं, मित्र कहते हैं, वरुण कहते हैं, अग्नि कहते हैं, और वही दिव्या सुपर्ण और गरुत्मान भी हैं, उसे ही वे यम और मातरिश्वा भी कहते हैं.(ऋग्वेद १.१६४.४६)
२. एक होते हुए भी उस सुपर्ण परमेश्वर को ज्ञानी कविजन बहुत नामो से कल्पित कर लेते हैं (ऋग्वेद १०.११४.५)
३. यहीं भाव ऋग्वेद ३.२६.७,ऋग्वेद २.१.३-७,ऋग्वेद १०.८२.३, यजुर्वेद ३२.१, अथर्वेद १३.४ में भी कहाँ गया हैं.
जिस प्रकार बाईबिल में ईश्वर को god, almighty,lord आदि अनेको नाम से पुकारा गया हैं उसी प्रकार वेदों में ईश्वर को भी विभिन्न नाम से पुकारा गया हैं. इस प्रकार यह सिद्ध होता हैं की वेदों में एक ईश्वर का वर्णन हैं इसलिए जो लोग अंध विश्वास में आकर विभिन्न देवी देवताओ की उपासना में लगे हुए हैं वे वेदों में वर्णित एक ईश्वर के यथार्थ को समझे.
वेदों में मांसाहार एवं हवन में पशु बलि जैसे अश्वमेध में अश्व की, अजमेध में अज की , नरमेध में नर बलि का विधान हैं जिससे वेद मात्र बोझिल कर्मकांड की पुस्तक प्रतीत होती हैं
स्वामी दयानंद जी का वेदभाष्य यूँ तो कई पहलुओं में क्रांतिकारी हैं पर इसमें सबसे ज्यादा प्रभावशाली विचार मांस भक्षण ,पशुबलि, कर्मकांड आदि को लेकर जो अन्धविश्वास हमारे देश में फैला था उसका निवारण कर स्वामी जी ने साधारण जनमानस के मन में वेद के प्रति श्रद्दा भाव उत्पन्न कर दिया. सायण, महीधर आदि के वेद भाष्य में मांसाहार, हवन में पशुबलि, गाय, अश्व, बैल आदि का वध करने की अनुमति थी जिसे देख कर मोक्ष मुलर, विल्सन , ग्रिफ्फिथ आदि पाश्चात्य विद्वानों ने वेदों से मांसाहार का भरपूर प्रचार कर न केवल पवित्र वेदों को कलंकित किया अपितु लाखों निर्दोष प्राणियो को क़त्ल करवा कर मनुष्य जाति को पापी बना दिया. मध्य काल में हमारे देश में वाम मार्ग का प्रचार हो गया था जो मांस, मदिरा, मैथुन, मीन आदि से मोक्ष की प्राप्ति मानता था. आचार्य सायण आदि यूँ तो विद्वान थे पर वाम मार्ग से प्रभावित होने के कारण वेदों में मांस भक्षण एवं पशु बलि का विधान दर्शा बैठे. निरीह प्राणियों के इस तरह कत्लेआम एवं भोझिल कर्मकांड को देखकर ही महात्मा बुद्ध एवं महावीर ने वेदों को हिंसा से लिप्त मानकर उन्हें अमान्य घोषित कर दिया जिससे वेदों की बड़ी हानि हुई एवं अवैदिक मतों का प्रचार हुआ जिससे क्षत्रिय धर्म का नाश होने से देश को गुलामी सहनी पड़ी. इस प्रकार वेदों में मांसभक्षण के गलत प्रचार के कारण देश की कितनी हानि हुई इसका अंदाजा नहीं लगाया जा सकता.
सर्वप्रथम तो स्वामी दयानंद ने चार वेद संहिताओ को परम प्रमाण माना. उन्होंने कहाँ की दर्शन,उपनिषद, ब्राह्मण, सूत्र, स्मृति, रामायण, महाभारत, पुराण आदि तभी मान्य हैं जब वे वेदानुकुल हैं. स्वामी दयानंद ने आवाहन किया की चारों वेदों में कहीं भी मांस भक्षण का विधान नहीं हैं, न देवताओं को मांस खिलाने का, न मनुष्यों को खिलाने का विधान हैं.
वेदों में गाय के नाम
यजुर्वेद ८.४३ में गाय को इडा (स्तुति की पात्र) , रनता (रमयित्री), हव्या (उसके दूध की हवन में आहुति दिए जाने से ), काम्या (चाहने योग्य होने से) , चंद्रा (अह्ह्यादायानि होने से ) , ज्योति (मन आदि को ज्योति प्रदान करने से ), अदिति (अखंडनिय होने से) , सरस्वती (दुग्ध्वती होने से ) , मही (महिमा शालिनी होने से), विश्रुती (विविध रूपों में श्रुत होने से) और अघन्या (न मारी जाने योग्य) कहा गया हैं.
इन नामों से यह स्पष्ट सिद्ध होता हैं की वेदों में गाय को सम्मान की दृष्टि से देखा गया हैं क्यूंकि वो कल्याणकारी हैं.
गाय पूज्य हैं
अथर्ववेद १२.४.६-८ में लिखा हैं जो गाय के कान भी खरोंचता हैं, वह देवों की दृष्टी में अपराधी सिद्ध होता हैं. जो दाग कर निशान डालना चाहता हैं, उसका धन क्षीण हो जाता हैं. यदि किसी भोग के लिए इसके बाल काटता हैं, तो उसके किशोर मर जाते हैं.
अथर्ववेद १३.१.५६ में कहाँ हैं जो गाय को पैर से ठोकर मरता हैं उसका मैं मूलोछेद कर देता हूँ.
गाय, बैल आदि सब अवध्य हैं
ऋगवेद ८.१०१.१५ – मैं समझदार मनुष्य को कहे देता हूँ की तू बेचारी बेकसूर गाय की हत्या मत कर, वह अदिति हैं अर्थात काटने- चीरने योग्य नहीं हैं.
ऋगवेद ८.१०१.१६ – मनुष्य अल्पबुद्धि होकर गाय को मारे कांटे नहीं.
अथर्ववेद १०.१.२९ – तू हमारे गाय, घोरे और पुरुष को मत मार.
अथर्ववेद १२.४.३८ -जो (वृद्ध) गाय को घर में पकाता हैं उसके पुत्र मर जाते हैं.
अथर्ववेद ४.११.३- जो बैलो को नहीं खाता वह कस्त में नहीं पड़ता हैं
ऋगवेद ६.२८.४ – गोए वधालय में न जाये
अथर्ववेद ८.३.२४ – जो गोहत्या करके गाय के दूध से लोगो को वंचित करे , तलवार से उसका सर काट दो
यजुर्वेद १३.४३ – गाय का वध मत कर , जो अखंडनिय हैं
अथर्ववेद ७.५.५ – वे लोग मूढ़ हैं जो कुत्ते से या गाय के अंगों से यज्ञ करते हैं
यजुर्वेद ३०.१८- गोहत्यारे को प्राण दंड दो
वेदों से गो रक्षा के प्रमाण दर्शा कर स्वामी दयानन्द जी ने महीधर के यजुर्वेद भाष्य में दर्शाए गए अश्लील, मांसाहार के समर्थक, भोझिल कर्म कांड का खंडन कर उसका सही अर्थ दर्शा कर न केवल वेदों को अपमान से बचा लिया अपितु उनकी रक्षा कर मानव जाती पर भारी उपकार भी किया.
स्वामी दयानंद जी का वेदभाष्य यूँ तो कई पहलुओं में क्रांतिकारी हैं पर इसमें सबसे ज्यादा प्रभावशाली विचार मांस भक्षण ,पशुबलि, कर्मकांड आदि को लेकर जो अन्धविश्वास हमारे देश में फैला था उसका निवारण कर स्वामी जी ने साधारण जनमानस के मन में वेद के प्रति श्रद्दा भाव उत्पन्न कर दिया. सायण, महीधर आदि के वेद भाष्य में मांसाहार, हवन में पशुबलि, गाय, अश्व, बैल आदि का वध करने की अनुमति थी जिसे देख कर मोक्ष मुलर, विल्सन , ग्रिफ्फिथ आदि पाश्चात्य विद्वानों ने वेदों से मांसाहार का भरपूर प्रचार कर न केवल पवित्र वेदों को कलंकित किया अपितु लाखों निर्दोष प्राणियो को क़त्ल करवा कर मनुष्य जाति को पापी बना दिया. मध्य काल में हमारे देश में वाम मार्ग का प्रचार हो गया था जो मांस, मदिरा, मैथुन, मीन आदि से मोक्ष की प्राप्ति मानता था. आचार्य सायण आदि यूँ तो विद्वान थे पर वाम मार्ग से प्रभावित होने के कारण वेदों में मांस भक्षण एवं पशु बलि का विधान दर्शा बैठे. निरीह प्राणियों के इस तरह कत्लेआम एवं भोझिल कर्मकांड को देखकर ही महात्मा बुद्ध एवं महावीर ने वेदों को हिंसा से लिप्त मानकर उन्हें अमान्य घोषित कर दिया जिससे वेदों की बड़ी हानि हुई एवं अवैदिक मतों का प्रचार हुआ जिससे क्षत्रिय धर्म का नाश होने से देश को गुलामी सहनी पड़ी. इस प्रकार वेदों में मांसभक्षण के गलत प्रचार के कारण देश की कितनी हानि हुई इसका अंदाजा नहीं लगाया जा सकता.
सर्वप्रथम तो स्वामी दयानंद ने चार वेद संहिताओ को परम प्रमाण माना. उन्होंने कहाँ की दर्शन,उपनिषद, ब्राह्मण, सूत्र, स्मृति, रामायण, महाभारत, पुराण आदि तभी मान्य हैं जब वे वेदानुकुल हैं. स्वामी दयानंद ने आवाहन किया की चारों वेदों में कहीं भी मांस भक्षण का विधान नहीं हैं, न देवताओं को मांस खिलाने का, न मनुष्यों को खिलाने का विधान हैं.
वेदों में गाय के नाम
यजुर्वेद ८.४३ में गाय को इडा (स्तुति की पात्र) , रनता (रमयित्री), हव्या (उसके दूध की हवन में आहुति दिए जाने से ), काम्या (चाहने योग्य होने से) , चंद्रा (अह्ह्यादायानि होने से ) , ज्योति (मन आदि को ज्योति प्रदान करने से ), अदिति (अखंडनिय होने से) , सरस्वती (दुग्ध्वती होने से ) , मही (महिमा शालिनी होने से), विश्रुती (विविध रूपों में श्रुत होने से) और अघन्या (न मारी जाने योग्य) कहा गया हैं.
इन नामों से यह स्पष्ट सिद्ध होता हैं की वेदों में गाय को सम्मान की दृष्टि से देखा गया हैं क्यूंकि वो कल्याणकारी हैं.
गाय पूज्य हैं
अथर्ववेद १२.४.६-८ में लिखा हैं जो गाय के कान भी खरोंचता हैं, वह देवों की दृष्टी में अपराधी सिद्ध होता हैं. जो दाग कर निशान डालना चाहता हैं, उसका धन क्षीण हो जाता हैं. यदि किसी भोग के लिए इसके बाल काटता हैं, तो उसके किशोर मर जाते हैं.
अथर्ववेद १३.१.५६ में कहाँ हैं जो गाय को पैर से ठोकर मरता हैं उसका मैं मूलोछेद कर देता हूँ.
गाय, बैल आदि सब अवध्य हैं
ऋगवेद ८.१०१.१५ – मैं समझदार मनुष्य को कहे देता हूँ की तू बेचारी बेकसूर गाय की हत्या मत कर, वह अदिति हैं अर्थात काटने- चीरने योग्य नहीं हैं.
ऋगवेद ८.१०१.१६ – मनुष्य अल्पबुद्धि होकर गाय को मारे कांटे नहीं.
अथर्ववेद १०.१.२९ – तू हमारे गाय, घोरे और पुरुष को मत मार.
अथर्ववेद १२.४.३८ -जो (वृद्ध) गाय को घर में पकाता हैं उसके पुत्र मर जाते हैं.
अथर्ववेद ४.११.३- जो बैलो को नहीं खाता वह कस्त में नहीं पड़ता हैं
ऋगवेद ६.२८.४ – गोए वधालय में न जाये
अथर्ववेद ८.३.२४ – जो गोहत्या करके गाय के दूध से लोगो को वंचित करे , तलवार से उसका सर काट दो
यजुर्वेद १३.४३ – गाय का वध मत कर , जो अखंडनिय हैं
अथर्ववेद ७.५.५ – वे लोग मूढ़ हैं जो कुत्ते से या गाय के अंगों से यज्ञ करते हैं
यजुर्वेद ३०.१८- गोहत्यारे को प्राण दंड दो
वेदों से गो रक्षा के प्रमाण दर्शा कर स्वामी दयानन्द जी ने महीधर के यजुर्वेद भाष्य में दर्शाए गए अश्लील, मांसाहार के समर्थक, भोझिल कर्म कांड का खंडन कर उसका सही अर्थ दर्शा कर न केवल वेदों को अपमान से बचा लिया अपितु उनकी रक्षा कर मानव जाती पर भारी उपकार भी किया.
महीधर अपने भाष्य में यजुर्वेद २३/१९ का अर्थ इस प्रकार करते हैं- सब ऋत्विजों के सामने यजमान की स्त्री घोरे के पास सोवे, और सोती हुई घोरे से कहे की, हे अश्व ! जिससे गर्भ धारण होता हैं, ऐसा जो तेरा वीर्य हैं उसको मैं खैंच के अपनी योनी में डालूं , तथा तू उस वीर्य को मुझमें स्थापन करने वाला हैं.
ऐसे अश्लील एवं व्यर्थ अर्थ को नक्कारते हुए स्वामी दयानंद इस मंत्र का सही अर्थ इस प्रकार करते हैं जो परमात्मा गणनीय पदार्थो का पालन करने हारा हैं उसको हम लोग पूज्य बुद्धि से ग्रहण करते हैं जो की हमारे मित्र और मोक्ष सुख आदि का प्रियपति तथा हमको आनंद में रख कर सदा पालन करने वाला हैं, उसको हम लोग अपना उपास्य देव जन के ग्रहण करते हैं. जो की विद्या और सुख आदि का निधि अर्थात हमारे कोशो का पति हैं, उसी सर्वशक्तिमान परमेश्वर को हम अपना राजा और स्वामी मानते हैं. तथा जो की व्यापक होके सब जगत में और सब जगत उसमें बस रहा हैं, इस कारण से उसको वसु कहते हैं. हे वसु परमेश्वर! जो आप अपने सामर्थ्य से जगत के अनादिकरण में गर्भ धारण करते हैं, अर्थात सब मूर्तिमान द्रव्यों को आप ही रचते हैं.
महीधार अपने भाष्य में यजुर्वेद २३/२० का अर्थ इस प्रकार करते हैं- यजमान की स्त्री घोरे के लिंग को पकड़ कर आप ही अपनी योनी में डाल देवे.
ऐसे अश्लील एवं व्यर्थ अर्थ को नक्कारते हुए स्वामी दयानंद इस मंत्र का सही अर्थ इस प्रकार करते हैं राजा और प्रजा हम दोनों मिल के धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की सिद्धि के प्रचार करने में सदा प्रवित रहे. जिससे हम दोनों परस्पर तथा सब प्राणियो को सब सुख से परिपूर्ण कर देवें. जिस राज्य में मनुष्य लोग अच्छी प्रकार ईश्वर को जानते हैं, वही देश सुख युक्त होता हैं. इससे राजा और प्रजा परस्पर सुख के लिए सद्गुणों के उपदेशक पुरुष की सदा सेवा करे, और विद्या तथा बल को सदा बदावे.
यजुर्वेद के २३ वें अध्याय का इसी प्रकार महीधर ने अत्यंत अश्लील अर्थ किया हैं जिसका सही अर्थ भाष्यकार-शंका-समाधान-आदि-विषय नामक पाठ में स्वामी दयानंद द्वारा रचित ऋगवेदादि भाष्य भूमिका में पड़ा जा सकता हैं.
पाठक स्वामी दयानंद द्वारा किये गए वेदों के क्रन्तिकारी भाष्य के महत्व को समझ गए होंगे.
- डॉ विवेक आर्य Original Post URL http://agniveerfans.wordpress.com/2011/07/11/dayanand-vedas/
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