ऐसे बनी जामा मस्जिद
Lovy Bhardwaj द्वारा
" बा अदब बा मुलाहजा होशियार ! दिल्ली-सुल्तान, सुल्तानुल हालिम अलाद्दुन्याबाउद्दीन खिलजी तशरीफ़ फरमा रहे हैं......!"
सूचना पाते ही समस्त दरबारी-गण सुल्तान के सम्मान में सिर झुकाकर खड़े हो गए. सुल्तान ने अपने अंगरक्षकों के साथ दरबार में प्रवेश किया और तख़्त पर बैठते हुए अन्य सभी को बैठने का संकेत दिया. कुछ देर बाद सिपहसालार उलुघ खां अपने स्थान उठा, और सुल्तान के आगे सम्मान-पूर्ण मुद्रा में झुककर सुल्तान को आदाब बजाया. सुल्तान के क्रूर और कठोर चहरे पर एक प्रश्न-सूचक रेखा उभर आयी. उसने एक भौं ऊपर चढ़ाते हुए सिपहसालार उलुघ खां को घूरा. सुल्तान का आशय समझते हुए उलुघ खां बोला,
" हुजूर, बन्दा कुछ अर्ज करना चाहता है.."
" इजाजत है. कहो, क्या कहना चाहते हो? "
" सुल्तान, हम्मीर देव ने हमारी किसी भी बात को मानने से साफ़ इंकार कर दिया है. इतना ही नहीं, उसने हिन्दू राजाओं को जगह-जगह पर इकट्ठा करके उन्हें हुजूर के खिलाफ़ भड़काना भी शुरू कर दिया है. "
'हूँउ'....! लगता है उसकी जिन्दगी के दिन पूरे हो चुके हैं... मरेगा, जल्दी ही मरेगा....उलुघ खां...! "
" हुक्म सुलतान.."
" हमें कल की मुनादी का हाल बताओ "
" उसमें हमें एक बड़ी कामयाबी हासिल हुई है सुलतान, अबतक करीबन पैंतीस हजार लोग हमारे जिहादी-झंडे के नीचे आ खड़े हुए हैं हुजूर...."
" बहुत खूब ! इनमें हिन्दुओं की तादाद बता सकते हो? "
" इनमें आठ-दस हजार के करीब हिन्दू हैं सुल्तान...."
सुल्तान मारे ख़ुशी के झूम उठा, " माशाअल्लाह ! ....."
वह आगे कुछ बोलता इससे पूर्व ही एक दरबान ने सुलतान को आदाब बजाते हुए किसी सिपाही द्वारा एक ख़ास खबर लाये जाने की बात कही. सुलतान ने उसे अपने आगे पेश किये जाने का आदेश दिया. सिपाही पेश किया गया जिसके चेहरे से नाक गायव थी और कटी नाक के स्थान से खून की बूँदें टपक-टपक कर उसके कपड़ों पर गिर रहीं थीं. सुल्तान ने कारण जानने के आशय से नकटे को घूरा इसपर वह हलाल होती हुई बकरी की भांति मिमियाया, " मैं शिव-मंदिर पर पहरे का सिपाही हूँ हुजूर...हिन्दुओं ने मंदिर पर कब्ज़ा कर लिया है... पहरे के बहुत से मुसलमान सिपाही जान से मार डाले गए सरकार.."
सुलतान कुछ गंम्भीर हो गया. उसने सिपाही से पूछा, " तेरी नाक को क्या हुआ ? "
" यह भी उन्हीं बागी हिन्दुओं का काम है सरकार, जब उन्हें मालूम हुआ कि मैं हिन्दू से मुसलमान हो गया हूँ तो उन्होंने मुझे बहुत मारा और मेरी नाक काट ली. मैं किसी तरह अपनी जान बचाकर यहाँ तक पहुंचा हूँ सरकार..."
"और तू नाक कटवा कर यहाँ चला आया ! "सुलतान जोरों से गरजा. उसकी गरज़ना से दरबार की दीवारें तक काँप उठीं. आँखों के क्रोध को भी मुंह की फुंकार से उगलता हुआ किसी जंगली बिलाव की भांति फनफनाया, "उलुघखां !"
"हुक्म सुलतान..."
" काफिरों के इस मंदिर को अभी और इसी वक्त मस्जिद का जामा पहना दो ! उसे जामा मस्जिद बना दो ! कल हम अपने सवा लाख जिहादी-सिपाहियों के साथ जुमे की नमाज़ वहीँ पढ़ेंगे. "
सुलतान का हुक्म पाते ही उलुघ खां का हाथ तलवार की मूंठ पर जा पहुंचा. वह अपने स्थान पर सुलतान के अगले आदेश की प्रतीक्षा और भी अकड़ कर खड़ा हो गया.
" ख़याल रहे ! " यह सुलतान का कठोर आदेश था. " कल सुबह तक हमारी हुकूमत में एक भी बुतखाना न रहने पाए ! सारे बुतों को तोड़ कर खाक में मिला दो....जाओ.ओ.ओ.ओ." उलुघ खां अभी मुड़ा ही था कि सुलतान ने रहा-सहा हुक्म भी सुना दिया, " ...और बागी हिन्दुओं के सरों को काट कर उस रास्ते पर दूरों तक बिछा दिया जाए जिस रास्ते से हमारी फौजें कल जिहाद के लिए रवाना होंगीं ! "
सुलतान के इस अंतिम आदेश को सुनकर कितने ही फौजी सिपाही ख़ुशी से उछल पड़े, मानो उन्हें मुंह मांगी मुराद मिल गयी हो.
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