ग्रीस डूबने को तैयार है.. इसे यूं भी लिखा जा सकता है कि यूरोप के तमाम बैंक डूबने को तैयार हैं। किसी देश का दीवालिया होना उसे खत्म नहीं कर देता है, मगर ग्रीस के कर्ज चुकाने में चूकते ही कई बैंकों के दुनिया के नक्शे से मिटने की नौबत आ जाएगी। दुनिया ग्रीस को बचाने के लिए बेचैन है ही नहीं, जद्दोजहद तो पूरी दुनिया के बैंकों, खासतौर पर यूरोप के बैंकों को महासंकट से बचाने की है। लीमन और अमेरिका के कई बैंकों के डूबने के तीन साल के भीतर दुनिया में दूसरी बैंकिंग त्रासदी का मंच तैयार है। यूरोप में बैंकों के बलिदान का मौसम शुरू हो चुका है। डरे हुए वित्ताीय नियामक बैंकों को आग के दरिया से गुजारने की योजना तैयार कर रहे हैं, ताकि जो बच सके बचा लिया जाए। बैंकों पर सख्ती की ताजा लहर भारत तक आ पहुंची है। यूरोप के संकट से बैंकों की दुनिया और दुनिया के बैंकों की सूरत व सीरत बदलना तय है।
बैंकों की बदहाली
370 बिलियन डॉलर के कर्ज से दबे ग्रीस के दीवालिया होते ही यूरोप के बैंकों में बर्बादी का बड़ा दौर शुरू होने वाला है। यह कर्ज तो बैंकों ने ही दिया है। बैंकों को यदि ग्रीस पर बकाया कर्ज का 40 फीसदी हिस्सा भी माफ करना पड़ा तो उनकी बहुत बड़ी पूंजी डूब जाएगी। अपनी सरकार के कर्ज में सबसे बडे़ हिस्सेदार ग्रीस के बैंक तो उड़ ही जाएंगे। यूरोप के बैंक व सरकारें मिलकर ग्रीस के कर्ज में 60 फीसदी की हिस्सेदार हैं। इनमें भी फ्रांस, जर्मनी, इटली के बैंकों का हिस्सा काफी बड़ा है। इसलिए फ्रांस के दो प्रमुख बैंक- बीएनपी पारिबा और क्रेडिट एग्रीकोल अपनी रेटिंग खो चुके हैं। पुर्तगाल, आयरलैंड व इटली भी कर्ज संकट में हैं। इन्हें कर्ज देने वाले बैंक ब्रिटेन, जर्मनी व स्पेन के हैं। यानी पूरे यूरोप के बैंक खतरे में हैं। यही वजह है कि यूरोप अपने बैंकों को नए जोखिम परीक्षण की कसौटी पर कसने के लिए तैयार हो रहा है। यूरोप के 90 बैंकों का इसी जुलाई में जोखिम क्षमता परीक्षण हुआ था, जिसमें उनकी कमजोरी सामने आ चुकी है। यूरोप के वित्ताीय नियामक मान चुके हैं कि ग्रीस डूबेगा और इसके साथ ही बैंकिंग संकट तय है। इसलिए बैंकों को सख्ती से सुधारने की मुहिम शुरू हो चुकी है।
सुधारों का चाबुक
बैंक जमा व कर्ज के लिए बने हैं, मगर काम कुछ दूसरा करते हैं। ब्रिटेन के बैंकों की संपत्तिायां व देनदारियां 6,000 अरब पौंड हैं, जिनमें उनके वास्तविक कर्ज 200 अरब पौंड यानी केवल तीन फीसदी हैं। शेष रकम वित्ताीय बाजार में कारोबार से संबंधित है। पिछले दो दशकों में बैंकों की निवेश गतिविधियां उनका मुख्य धंधा बन गई। 2008 में जब 615 ट्रिलियन डॉलर के डेरिवेटिव दलदल में अमेरिका के सैकड़ों बैंक डूबे, तब बैंकों के इस जोखिम भरे शौक (वित्ताीय कारोबार) पर रोक लगाने की कोशिश शुरू हुई। अमेरिका में लागू हुआ डॉड फ्रैंक बिल, ब्रिटेन का इंडिपेंडेंट कमीशन ऑफ बैंकिंग (विकर्स रिपोर्ट) और बेसल कमेटी ऑन बैकिंग सुपरविजन का एजेंडा यही है। बेसिल कमेटी बैंकों के लिए सुरक्षित पूंजी की ऊंची सीमा तय करने जा रही है, ताकि जोखिम से हिफाजत हो सके। बेसिल कमेटी दुनिया के बड़े बैंकों पर विशेष सरचार्ज लगाने जा रही है। यह शर्ते बैंकिंग उद्योग को सिरे से बदल देंगी। इधर विकर्स रिपोर्ट के मुताबिक ब्रिटेन के बैंकों के जोखिम भरे संचालनों (जिन्हें मजाक में हाई स्ट्रीट व कैसिनो ऑपरेशन कहते हैं) को मुख्य कारोबार से अलग करना होगा और इस तरह के संचालनों के लिए 10 फीसदी पूंजी अलग से संरक्षित करनी होगी। ब्रितानी बैंकों के लिए एक फाइनेंशियल कंडक्ट अथॉरिटी बनेगी। नियमों का नया ढांचा बैंकों से ज्यादा पूंजी, जोखिम पर सरचार्ज, तरह-तरह के नियम लेकर आ रहा है और ऊंची कमाई वाले वित्ताीय कारोबार की संभावनाओं को सीमित कर रहा है।
पूंजी की दरकार
संकट और सुधारों का सीधा असर दुनिया में बैंकिंग की लागत पर पड़ना है। बैंकों को जोखिम से बचने और नए नियमों को लागू करने के लिए भारी पूंजी चाहिए। अमेरिका ने लीमन संकट के बाद बैंकों को पुनर्वित्ता उपलब्ध कराया था। ठीक इसी तरह की कवायद यूरोप में शुरू होने वाली है। आइएमएफ का आकलन है कि ताजा कर्ज संकट की चोट के इलाज के लिए यूरोपीय बैंकों को करीब 405 अरब डॉलर की पूंजी चाहिए, क्योंकि यूरो जोन में करीब 6.5 ट्रिलियन डॉलर का सरकारी कर्ज का बड़ा हिस्सा बैंकों के नाम है, जिसे लेकर जोखिम बढ़ रहा है। ब्रिटिश बैंकों पर विकर्स नियम लागू होने के बाद बैंकों के लिए लागत 6 अरब पौंड सालाना की गति से बढे़गी। इंस्टीट्यूट ऑफ इंटरनेशनल फाइनेंस का मानना है कि जोखिम घटाने के नए बैंकों को 2015 तक करीब 1.3 ट्रिलियन डॉलर की अतिरिक्त पूंजी चाहिए। विशेषज्ञों का आकलन है कि नए बैंकिंग नियमों के लागू होने के बाद अगले पांच साल में दुनिया के जीडीपी में 0.7 फीसदी की कमी आएगी, करीब 75 लाख रोजगार घटेंगे और कर्ज की लागत 3.5 फीसदी तक बढ़ सकती है। रेटिंग एजेंसियों का कहना है कि भारत के बैंकों को भी अपनी सूरत बदलनी होगी और जोखिम घटाने के लिए ज्यादा सुरक्षित पूंजी चाहिए, यानी की सरकार को अपना खजाना खोलना पड़ेगा, क्योंकि ज्यादातर बैंकों में सरकार सबसे बड़ी हिस्सेदार हैं।
1878 के विक्टोरियन बैंकिंग संकट (लंदन के बैंकों का डूबना), अर्जेटीना में 2002 में सभी बैंकों की तबाही और लीमन संकट (2008) के बाद डूबे 300 से अधिक अमेरिकी बैंकों तक दुनिया के हर वित्ताीय संकट की कथा बैंकों के नेतृत्व में लिखी गई है। तभी तो 1970 से लेकर 2007 तक दुनिया में 124 बैंकिंग संकट आए हैं और 1929 की महामंदी 9000 अमेरिकी बैंकों को निगल कर शांत हुई थी। बीसीसीआइ से लेकर बेअरिंग्स बियर स्टर्न, लीमन तक किसी दूसरी वित्ताीय संस्था का अतीत भी बैंकों जितना दागदार नहीं है। हर बड़ा मुल्क और प्रत्येक अंतरराष्ट्रीय वित्ताीय संस्था अब बैंकों को बांधने के लिए कंटीले नियम लेकर निकल पड़ी है। ताजा वित्ताीय त्रासदी को लेकर दुनिया में चाहे जो मतभेद हों, मगर बैंकों को रास्ते पर लाने को लेकर गजब की अंतरराष्ट्रीय एक राय बन रही है। दुनिया इन बिगड़ैल खिलाड़ियों को सुधारने के लिए कुछ करने को तैयार है। बैंकों को माफी मिलने की उम्मीद अब न के बराबर है।
[अर्थार्थ : अंशुमान तिवारी]
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें