[जम्मू-कश्मीर से अफस्पा हटाने के उमर अब्दुल्ला के सुझाव से असहमति जता रहे है
अरुण जेटली]
जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने हाल ही में सुझाव दिया है कि सशस्त्र बल विशेषाधिकार अधिनियम 1958 यानी अफस्पा के प्रावधान को राज्य के कुछ क्षेत्रों से हटा दिया जाए। इस सुझाव से विवाद खड़ा हो गया है, क्योंकि सुरक्षा बल और रक्षा मंत्रालय का मानना है कि जम्मू-कश्मीर में इस अधिनियम को लागू करना बेहद जरूरी है। इसलिए इस कानून के प्रावधानों की पड़ताल और इन्हे राज्य में लागू करने की आवश्यकता का जायजा लेना जरूरी हो जाता है। दो दशक से अधिक समय से जम्मू-कश्मीर अशांत क्षेत्र बना हुआ है। यह सीमा पार आतंकवाद का शिकार रहा है। कुछ घरेलू समूहों ने भी जम्मू-कश्मीर के भारत के अभिन्न अंग के दर्जे पर विवाद खड़ा किया है। यह पूरे देश और राज्य प्रशासन का प्रयास होना चाहिए कि राज्य में शांति और स्थिरता कायम हो और प्रदेश की जनता को किसी भी प्रकार की हिंसा व उत्पीड़न से मुक्ति मिले। आतंकवाद और अलगाववादी हिंसा के खिलाफ राजनीतिक स्तर पर और सुरक्षा ढांचे की ओर से माकूल प्रतिक्रिया अपेक्षित है। सुरक्षा बलों की ओर से व्यक्त की जाने वाली प्रतिक्रिया रोजमर्रा के नागरिक जीवन को प्रभावित कर सकती है, किंतु यह सख्ती जरूरी है। अगर सुरक्षा बलों के स्तर पर किसी भी तरह की ढिलाई बरती जाती है तो इसका अनिवार्य परिणाम यह होगा कि हिंसक और अलगाववादी गतिविधियों पर अंकुश नहीं लग पाएगा।
राज्य पुलिस के अलावा संघ के सशस्त्र बल भी प्रशासन को सहायता प्रदान करते है। सशस्त्र बलों का मतलब केवल सेना से ही नहीं है, बल्कि इनमें सीमा सुरक्षा बल, सीआरपीएफ, असम राइफल्स और आइटीबीपी जैसे संघ के कुछ अन्य सशस्त्र बल भी शामिल है। जैसे ही किसी राज्य का समस्त भाग या फिर इसका कुछ हिस्सा अशांत घोषित किया जाता है, राज्य में शांति और व्यवस्था बनाए रखने को नागरिक प्रशासन और पुलिस की सहायता के लिए सशस्त्र बलों को बुला लिया जाता है।
सशस्त्र बल अपराध की जांच नहीं करते। उनके जवान सार्वजनिक व्यवस्था बनाए रखने के लिए जरूरी कदम उठाने और इसमें बाधा पहुंचाने वालों को चेतावनी देने के बाद ही बल प्रयोग के लिए अधिकृत है। वे किसी भी परिसर में जाकर तलाशी ले सकते है। वे किसी भी ऐसे भवन को ध्वस्त कर सकते है जहां से सशस्त्र हमले किया जा रहे हों। उन्हे किसी भी व्यक्ति को बिना वारंट गिरफ्तार करने का अधिकार है और ये गिरफ्तार किए गए व्यक्ति को नजदीकी पुलिस स्टेशन भी ले जा सकते है। इस प्रकार, किसी क्षेत्र को अशांत घोषित करने से आशय है कि सरकार यह मानती है कि नागरिक प्रशासन और स्थानीय पुलिस राज्य में कानून एवं व्यवस्था को कायम रख पाने में असमर्थ हैं। अगर केवल स्थानीय पुलिस ही राज्य में कानून एवं व्यवस्था कायम रखने में सक्षम नजर आती तो उस क्षेत्र को अशांत क्षेत्र घोषित करने की आवश्यकता ही नहीं पड़ती। इसलिए किसी राज्य अथवा उसके किसी विशेष भाग का अशांत दर्जा जारी रखने या न रखने का फैसला सुरक्षा पहलुओं पर गौर करके लिया जाता है, न कि राजनीतिक आग्रहों के कारण। उन जिलों में भी जहां से सेना वापस बुला ली गई है, सीआरपीएफ और अन्य सशस्त्र बल तैनात है। यह एक सच्चाई है कि इन जिलों में स्थानीय पुलिस कानून एवं व्यवस्था की स्थिति को संभालने तथा अलगाववादी तत्वों के मंसूबे ध्वस्त करने में पूरी तरह सक्षम नहीं है। इस संदर्भ में हम इसकी भी अनदेखी नहीं कर सकते कि केंद्र के सशस्त्र बलों को जो शक्तियां दी गई है वे स्थानीय पुलिस को मिली शक्तियों से अधिक भिन्न नहीं है। स्थानीय पुलिस को भी कानून एवं व्यवस्था बनाए रखने के लिए गिरफ्तारी और तलाशी का अधिकार है। शांति और सौहार्द्र बनाए रखने के लिए पुलिस भी उपयुक्त शक्तियों का इस्तेमाल कर सकती है। वह भी किसी ऐसे भवन को ध्वस्त कर सकती है, जिसका इस्तेमाल हिंसक समूह द्वारा सशस्त्र हमला करने में किया जा रहा हो।
केंद्रीय सशस्त्र बलों को इस कानून के जरिए?एकमात्र सुरक्षा यह प्रदान की गई है कि इसके तहत कार्य करने वाले किसी भी सुरक्षाकर्मी के खिलाफ केंद्रीय सरकार की अनुमति के बगैर कोई भी कानूनी या प्रशासनिक कार्रवाई नहीं की जा सकती। पिछले साल जब सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल के साथ मैं जम्मू-कश्मीर के दौरे पर पहुंचा था तो मुझे बताया गया था कि केंद्र सरकार के पास सशस्त्र बलों के खिलाफ ढाई हजार से अधिक शिकायतें लंबित पड़ी है। इस प्रकार यह कहने में संकोच नहीं कि यह अधिनियम सुरक्षा बलों के जवानों को यह कवच प्रदान करता है कि केंद्रीय सरकार की अनुमति के बगैर उनके खिलाफ कार्रवाई नहीं की जा सकती, लेकिन केवल इस आधार पर यह नहीं माना जा सकता कि इसका दुरुपयोग हो रहा है। अगर यह सुरक्षा हटा ली जाती है तो राजनीतिक निहित स्वार्थो के कारण अर्द्धसैनिक बलों और सशस्त्र बलों के जवानों के खिलाफ अनेक मामले दर्ज कर लिए जाएंगे। जाहिर है, इससे इन सुरक्षा बलों के जवानों का अलगाववादी समूहों के खिलाफ कार्रवाई करने का मनोबल टूट जाएगा। जब सुरक्षा बल इस कानून के प्रावधानों को जम्मू कश्मीर से हटाने के पक्ष में नहीं है तो राजनीतिक निहित स्वार्थो के कारण इस दलील को स्वीकारने के खतरनाक नतीजे निकलेंगे कि इस कानून को केवल कुछ भागों तक ही सीमित कर देना चाहिए।
हमें उम्मीद करनी चाहिए कि भविष्य में प्रदेश में ऐसे हालात बनें कि इस अफस्पा को लागू करने की जरूरत ही न पड़े या फिर यह भी हो सकता है कि इसे कुछ भागों में ही लागू किया जाए। जहां तक मौजूदा समय की बात है तो अभी ऐसे हालात नहीं है। इस कानून को हटाने के बाद कानून एवं व्यवस्था कायम रखने की जिम्मेदारी केवल केवल स्थानीय पुलिस के कंधों पर आ जाएगी जिससे इन क्षेत्रों में अलगाववादी और हिंसक समूह अपनी गतिविधियां तेज कर देंगे। इस प्रकार, जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री के लिए राजनीतिक रूप से यह अधिक विवेकपूर्ण होगा कि ऐसे समय सशस्त्र बल विशेषाधिकार अधिनियम पर बहस न छेड़े जब हालात इस कानून को लागू रखना जरूरी बता रहे है।
[लेखक: राज्यसभा में नेता प्रतिपक्ष है]
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