काश ! पटेल की बात सुनी होती
।। गौरी शंकर राजहंस ।।
उन दिनों सोवियत रूस और चीन दूध-पानी की तरह मिले हुए थे. पंडित नेहरू को सोवियत संघ का समर्थन पाने के लिए चीन की हरकतों को नजरअंदाज करना पड़ा. यहां पर भारत से एक भयानक भूल हुई. भारत चीन की धूर्तता को समझ नहीं पाया. सरदार पटेल के उपर्युक्त पत्र में जो आशंकाएं व्यक्त की गयी थीं, सब सच निकलीं. परंतु जब 1962 में चीन ने भारत पर आक्रमण कर दिया, तब पंडित नेहरू इस सदमे को बरदाश्त नहीं कर सके.
वर्ष 1962 में चीन ने धोखे से भारत पर चढ़ाई कर दी और भारत की हजारों किलोमीटर जमीन को हड़प लिया जिसे उसने कभी वापस नहीं किया. आगामी वर्ष इस घटना को 50 साल हो जायेंगे. इन पचास वर्षो में चीन ने बार-बार इस बात को दोहराया कि वह भारत के साथ सीमा विवाद सुलझा लेगा. इसके लिए दोनों तरफ़ से विशेषज्ञ बहाल हुए. परंतु कई बैठकों के बाद भी कोई नतीजा नहीं निकला और समस्या जस की तस है. सच यह है कि पीछे मुड़कर यदि चीन के इतिहास को देखा जाए तो यह स्पष्ट हो जाता है कि चीन सदा से एक विस्तारवादी देश रहा है.
उसकी मंशा हमेशा से यही रही है कि पड़ोसी देशों की जितनी भी संभव हो जमीन हड़प ली जाये. यह काम चीन में तब भी होता था जब वहां राजशाही थी या जब केएमटी का शासन था. जब माओ-त्से-तुंग के नेतृत्व में चीन में कम्युनिस्ट पार्टी का शासन स्थापित हो गया तो उसने तो मनमाने तरीके से अन्य देशों के अलावा भारत का बहुत बड़ा भूभाग हड़प लिया जिसे उसने कभी वापस नहीं किया.
इस संदर्भ में भारत के तत्कालीन उप-प्रधानमंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल का एक महत्वपूर्ण पत्र प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू को 7 नवंबर, 1950 को लिखा गया था जिसमें सरदार पटेल ने स्पष्ट शब्दों में कहा था कि हमें वस्तुस्थिति को समझना चाहिये और यह मानकर चलना चाहिये कि चीन हमारा सच्चा मित्र नहीं हो सकता है. वह हमें अपना ‘शत्रु’ समझता है और आने वाले दिनों में वह हमें हर तरह से परेशान करेगा. तिब्बत को जिस तरह चीन ने धोखे से हड़प लिया वह हमारे लिये अत्यंत ही चिंता की बात है. सरदार पटेल का तो कुछ महीनों बाद स्वर्गवास हो गया, लेकिन उन्होंने अपने पत्र में तिब्बत के बारे में जो भविष्यवाणी की थी वह शत-प्रतिशत सही निकली. कुछ वर्षो के बाद दलाई लामा को तिब्बत से भागकर भारत में शरण लेनी पड़ी.
जब चीन ने 1962 में भारत पर आक्रमण कर दिया तो उसके बाद भारत सरकार ने सारी घटना पर एक ‘श्वेत-पत्र’ निकाला जिसमें विस्तार से इस बात का वर्णन है कि पंडित नेहरू ने बार-बार तत्कालीन चीनी प्रधानमंत्री चाउ-एन-लाई को लिखा था कि तिब्बत हमेशा से एक स्वतंत्र देश रहा है. अत चीन का उस पर कब्जा करना उचित नहीं है. इसके जवाब में चाउ-एन-लाई ने लिखा कि चीन तिब्बत की ‘स्वायत्तता’ को अक्षुण्ण रखेगा. उसकी संस्कृति में कोई हस्तक्षेप नहीं करेगा. केवल पश्चिम के उपनिवेशवादी देशों से तिब्बत की रक्षा करने के लिए चीन ने तिब्बत में यह कदम उठाया है. पंडित नेहरू चाउ-एन-लाई की मीठी-मीठी बातों में आ गये. पंडित नेहरू को ऐसा लगता था कि चीन और भारत दोनों पश्चिमी उपनिवेशवादी देशों के सताये हुए हैं. अत आजादी मिलने पर दोनों स्वाभाविक रूप से मित्र हो जायेंगे. परंतु दुर्भाग्यवश पंडित नेहरू ने चीन के इतिहास को व्यापक परिपेक्ष में पढ़ा नहीं था. इसी कारण यह भयानक भूल हो गयी.
अपने उपर्युक्त पत्र में सरदार पटेल ने जो जो चेतावनी दी वह सब सही निकली. उन्होंने लिखा था कि चीन ने तो तिब्बत को हड़प ही लिया. भारत की उत्तरी सीमा पर भी वह विद्रोहियों को भड़काने से बाज नहीं आयेगा. उसकी नीयत साफ़ नहीं है. ऐसे में भारत का यह प्रयास कि साम्यवादी चीन को संयुक्त राष्ट्र की सदस्यता मिल जाए, चांग काई शेक की सरकार के स्थान पर, यह एक भयानक गलती होगी. एक बार यदि चीन संयुक्त राष्र्ट् का सदस्य बन जाता है और सुरक्षा परिषद में उसे जगह मिल जाती है तो वह सबसे पहले भारत को तंग करेगा. सरदार पटेल की यह बात भी सच साबित हुई.
सरदार पटेल ने यह भी लिखा है कि 1914 में जब तिब्बत के मामले में भारत, तिब्बत और चीन के बीच एक समझौता हुआ तो उस समय की चीन की सरकार ने भी उसको मानने से इनकार कर दिया था. उसने तो मैकमोहन लाइन को भी मानने से साफ़ इनकार कर दिया था. इसी से यह पता चलता है कि चीन का इरादा कभी नेक नहीं था.
ऐसे में हमें किसी भी हालत में साम्यवादी चीन को संयुक्त राष्ट्र का सदस्य नहीं बनने देना चाहिये. हमें इस बात से सबक लेना चाहिये कि जिस तरह उसने तिब्बत को हड़प लिया उसी तरह से वह हमारी ओर भी टेढ़ी नजर से देख सकता है. एक बार यदि वह संयुक्त राष्ट्र का सदस्य बन जाता है तो वह इतना ताकतवर हो जाएगा कि हमारी सीमा पर तेजी से अतिक्रमण करता रहेगा.
पीछे मुड़कर देखने से ऐसा लगता है कि चीन के बारे में तो पंडित नेहरू भावना में बह गये और उसके विस्तारवादी इतिहास को ठीक से पढ़ नहीं पाये. परंतु पंडित नेहरू की भी लाचारी थी. माउंटबेटन के बहकावे में आकर वे कश्मीर समस्या को सुरक्षा परिषद में ले गये थे. माउंटबेटन ने भरोसा दिलाया था कि सुरक्षा परिषद में ब्रिटेन और उसका अनन्य मित्र अमेरिका भारत को पाकिस्तान के खिलाफ़ पूरी मदद करेगा. वे किसी भी हालत में इस पर राजी नहीं होंगे कि कश्मीर में जनमत संग्रह (प्लेबीसाइट) कराया जाए.
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