सोमवार, अक्तूबर 31, 2011

सात अरब का परिवार और हम

सात अरब का परिवार और हम


बधाई! कल आप सात अरब के विश्व परिवार के सदस्य बनने का गौरव हासिल करने जा रहे हैं। हालांकि, किसी भी सच के जनमने से पहले विवादों को जनने वाली मौजूदा दुनिया में इस मुद्दे पर भी बहस छिड़ गई है। संयुक्त राष्ट्र संघ का मानना है कि ऐसा 31 अक्तूबर को होना है, जबकि अमेरिकी जनगणना ब्यूरो के अनुसार अभी मार्च, 2012 तक का समय शेष है।

यह बहस-मुबाहिसा यहीं खत्म नहीं होता। उत्तर प्रदेश में बागपत जिले के गांव सुन्हेड़ा में सचिन पंवार और उनकी पत्नी पिंकी को लगता है कि दुनिया को सात अरब के आंकड़े पर पहुंचाने वाला वह भाग्यशाली बच्चा उनके घर आने वाला है। भगवान करे ऐसा ही हो। ईश्वर से यह भी कामना है कि वह बच्चा उन लोगों की कतार में शामिल न हो, जो सिर्फ दुनिया की गिनती बढ़ाते हैं, बल्कि विश्व इतिहास में उसका नाम उन हस्तियों के साथ दर्ज किया जाए, जो दुनिया को बनाते और बचाते आए हैं। संयुक्त राष्ट्र इस मुद्दे पर चुप है कि सात अरबवां बच्चा कहां होगा? जहां भी हो, उसे मेरा यह आशीर्वाद जरूर फलीभूत हो कि वह गणना का एक पड़ाव भर न बनकर रह जाए।

आंकड़ों के इस मायाजाल की भी अपनी एक कहानी है। जीवन की लय और गति की तरह जनसंख्या में बढ़ोतरी की रफ्तार भी कभी मद्धिम, तो कभी तेज होती रही है। उदाहरण के तौर पर, वर्ष 1804 में दुनिया की आबादी एक अरब थी। इसे दो गुना होने में 123 वर्ष लग गए। इसके विपरीत 1927 से 1959 यानी 32 वर्षों में ही इस विश्व की गिनती में एक अरब का इजाफा हो गया। आप सोच रहे होंगे कि दुनिया की आबादी बढ़े या घटे, हिंदी हृदय स्थल के हम लोगों पर भला क्या असर पड़ेगा?

इस सवाल का जवाब जानने के लिए जरा इतिहास के अंधेरे बंद कमरों में झांककर देखते हैं। 1350 में धरा की आबादी करीब 37 करोड़ थी। समूचा यूरोप उस समय प्लेग की मार से कराह रहा था। दो साल पहले नाचीज माने जाने वाले चूहों की मेहरबानी से यह रोग उस महाद्वीप के कुछ हिस्सों में दबे पांव दाखिल हुआ था और देखते ही देखते उसने दो-तिहाई शहरों को मौत का अड्डा बना डाला था। माना जाता है कि 1348 में यदि प्लेग का प्रसार इतनी तेजी से नहीं हुआ होता, तो उस महाद्वीप की दशा-दिशा कुछ और होती। पर इंसानियत की सबसे अनूठी बात है कि वह हर हमले के बाद खुद को पहले से कहीं अधिक सजग, सचेष्ट और सक्षम बना लेती है। इसी 1350 में हाहाकार करते यूरोप में कुछ कलाकारों, साहित्यकारों और उद्यमियों ने पुनर्जागरण का ख्वाब देखा। कहने की जरूरत नहीं कि अगली पांच शताब्दियां यूरोप की होने वाली थीं।

पता नहीं प्लेग का उस महाद्वीप के महान सामुद्रिक अभियानों से कोई रिश्ता था या नहीं, पर यह सच है कि लगभग सौ साल बाद जन्मे क्रिस्टोफर कोलंबस और वास्कोडिगामा ने जिन दो महादेशों के तटों पर लंगर डाला, उनका मौजूदा संसार में बेहद अहम योगदान है। कोलंबस का अमेरिका संसार का सबसे ताकतवर और वास्कोडिगामा का भारत सबसे बड़ा लोकतंत्र है। जनसंख्या के आईने में देखें तो बहुत दिन नहीं बचे हैं, जब हमारा हिन्दुस्तान इस मामले में चीन को पीछे छोड़ देगा।

अक्सर कहा जाता है कि विशाल मानव समूह की वजह से हमारे देश में इतनी दिक्कतें हैं। यह सही है कि बहुत अधिक आबादी को कारगर शासन प्रणाली देना मुश्किल होता है, पर अब यह अभिशाप नहीं रह बची है। भारत और चीन को मिला दें, तो दुनिया की आबादी का कुल जमा 36.4 प्रतिशत हिस्सा इन दो देशों में रहता है। आज चाहे वार्षिक विकास दर हो, युवाओं में आगे बढ़ने की ललक हो, सफलताएं अजिर्त करने के प्रतिमान हों या फिर दूर जगमगाता भविष्य, सब के सब इन दो मुल्कों के पक्ष में जाते हैं। चीन पहले ही महाशक्ति बन चुका है। हमारा रास्ता भी हर रोज हमवार होता जा रहा है। कुछ अर्थशास्त्रियों का मानना है कि 2050 में जब आबादी नौ अरब के पार होगी, तब भारत विश्व में सर्वाधिक जनसंख्या और संभावना वाला देश होगा।

पर 2011 को मानवता के इतिहास में कुछ चुनौतियां उपजाने वाला साल भी माना जाएगा। मसलन, लोगों की औसत उम्र बढ़ रही है और अपने ही कूचे में विस्थापन भी। मैंने जापान में देखा है। बड़ी संख्या में बूढ़े लोग बिना किसी काम-धाम के सड़कों के किनारे बैठकर निरुद्देश्य शून्य की तरफ ताकते रहते हैं। सरकारों के सामने इस तरह के बुजुर्गों का लालन-पालन काफी मुश्किल पेश कर रहा है। हम अपने बचपन में सुनते थे कि बड़े लोग एक बच्चे को गोद लेते हैं। यूरोप और अमेरिका में अब बुजुर्गों को गोद लेने का चलन बढ़ता जा रहा है। एक तरफ जहां उम्र के ढलान पर खड़े लोग दिक्कतों के शिकार हो रहे हैं, वहीं युवाओं को सही रास्ता दिखाना भी एक बड़ी समस्या बन गया है। इस समय दुनिया की आबादी का कुल 43 प्रतिशत हिस्सा नौजवान है। जब दो-तिहाई से ज्यादा देशों में गरीबी और बदहाली बिखरी पड़ी हो, तब करोड़ों लोगों को शिक्षा और सही कैरियर देना अपने आप में एक दुष्कर काम है। आतंक और अलगाव के कुटिल सौदागरों की नजर हमेशा इन पर रहती है। इन्हें सही रहगुजर प्रदान करना इस सदी की सबसे बड़ी चुनौती है।

कुदरत पर भी आबादी का बोझ भारी पड़ता जा रहा है। एक साल में इतने सारे लोग जिन प्राकृतिक संसाधनों का प्रयोग करते हैं, उनको दोबारा उपजाने में प्रकृति को 18 महीने लग जाते हैं। यह हाहाकारी समीकरण कहर बरपा सकता है।
एक वाकया याद आता है। तीन दशक होने को आए जब भारतीय दल ने उत्तरी ध्रुव पर फतह पाई थी। एक विकासशील देश के लिए यह बड़ी बात थी। उस अभियान के अगुवा एस जेड कासिम थे। इलाहाबाद का होने के कारण वहां पर उनके लिए एक सम्मान-समारोह आयोजित किया गया था। इस मौके पर उन्होंने विस्तार से समझाया था कि जब दुनिया में आबादी बहुत बढ़ जाएगी और पानी का संकट बेलगाम हो जाएगा, तब हमें इन ध्रुवों की ओर देखना पड़ेगा। हमारी ऊल-जुलूल हरकतों से हिमालय के आदि ग्लेश्यिर पिघलने लगे हैं। जब लोगों की फौज इन ध्रुवों की ओर बढ़ेगी, तो उनका और हमारे इस भूमंडल का क्या हाल होगा?

यही नहीं, आबादी में बढ़ोतरी के साथ हमें दूसरे ग्रहों पर भी बस्तियां बसानी पड़ सकती हैं। चंद्रमा और मंगल पर इस दिशा में काम भी चल रहा है। पर ये दूर की कौड़ियां हैं। सबसे बड़ी आशंका तो यह है कि तमाम सभ्यताएं और संस्कृतियां गड्ड-मड्ड हो सकती हैं। सुकून और संसाधन की तलाश में बड़ी संख्या में लोग दूसरे देशों और महाद्वीपों की ओर रुख करेंगे। इससे पुराने समाजों के विलीनीकरण का खतरा पैदा हो गया है, पर भय खाने की जरूरत नहीं है। विज्ञान ने जिस प्रकार दूरियों को मिटाया है, उससे इस स्थिति में बदलाव जरूरी भी हो गया है। हमें इसके लिए खुद को तैयार कर लेना चाहिए। चलते-चलते एक बात और। कल इंदिरा गांधी का शहादत दिवस भी है। अपने ही आवास में आतंक का शिकार बनने वाली वह दुर्भाग्य से पहली और सौभाग्य से अब तक की अकेली प्रधानमंत्री हैं। दु:खद मौत के 27 बरस बाद भी देश के लोग उन्हें तमाम कारणों से याद रखते हैं। हर क्षण चेहरे बदलने को तत्पर वक्त के इस दौर में यह दुर्लभ है।

दो दशकों से छठ करती आ रही हैं इदन खातून

दो दशकों से छठ करती आ रही हैं इदन खातून

छपरा : लोक आस्था का महापर्व छठ हिंदू धर्मावलंबियों में काफी पवित्रता के साथ मनाया जाता है. परंतु, सारण जिले के मशरक प्रखंड अंतर्गत पिलखी गांव में एक मुसलिम परिवार विगत चार दशकों से इस पर्व को उसी आस्था और श्रद्धा से मनाता आ रहा है.

इसके पीछे इस परिवार में विगत दो दशक से छठ व्रत करने वाली अजीज मियां की पत्नी इदन खातून का कहना है कि वे अपने पुत्र के सुखद जीवन के लिए ही इस व्रत को करती आ रही हैं. उन्होंने पूर्व में अपनी सास मेहबूबन खातून (पति जोखन मियां) के द्वारा इस व्रत को करते देख कर ही अपने बेटे के सुखद भविष्य के लिए छठ व्रत को शु किया.

वे कहती हैं कि चार दिवसीय अनुष्ठान के तहत वे प्रति वर्ष पूरे पवित्रता से छठ पूजा के लिए चूल्हा बनाने के साथ नहाय-खाय के दिन से नियमानुसार अनुष्ठान शुरू करती हैं. वहीं छठ पूजा के लिए षष्ठी तिथि को प्रसाद बना कर गांव के सभी लोगों के साथ तालाब पर जाकर वहां बने सूर्य की प्रतिमा के समक्ष सुबह-शाम पूजा करती हैं.

वे कहती हैं कि पूर्व में हमारे मुहल्ले की सोलाजी मियां की पत्नी, कुरबान मियां की पत्नी, हमीदा मियां की पत्नी भी छठ व्रत मनोयोग से करती थीं. इन सब के छठ करने के पीछे मन्नतें होती थीं.

उन्होंने भी गांव के हिंदू समुदाय के लोगों की आस्था एवं उसके अच्छे फल से प्रेरित होकर ही इस व्रत करने की शुरुआत की थी. इस व्रत को करने में हमें किसी भी प्रकार की कोई बाधा समाज से नहीं होती. वहीं दूसरी ओर एक मुसलिम समुदाय की महिला को छठ करते देख हिंदू समुदाय के लोगों में श्रद्धा का भाव उत्पन्न होता है. उनकी आस्था छठ के प्रति और बढ़ जाती है. ऐसी ही कुछ बातों से एक अनुपम माहौल तैयार होता है और हमें एक सुखद अनुभूति होती है.
- राजीव रंजन -

काश ! पटेल की बात सुनी होती ।। गौरी शंकर राजहंस ।।

काश ! पटेल की बात सुनी होती

।। गौरी शंकर राजहंस ।।

उन दिनों सोवियत रूस और चीन दूध-पानी की तरह मिले हुए थे. पंडित नेहरू को सोवियत संघ का समर्थन पाने के लिए चीन की हरकतों को नजरअंदाज करना पड़ा. यहां पर भारत से एक भयानक भूल हुई. भारत चीन की धूर्तता को समझ नहीं पाया. सरदार पटेल के उपर्युक्त पत्र में जो आशंकाएं व्यक्त की गयी थीं, सब सच निकलीं. परंतु जब 1962 में चीन ने भारत पर आक्रमण कर दिया, तब पंडित नेहरू इस सदमे को बरदाश्त नहीं कर सके.

वर्ष 1962 में चीन ने धोखे से भारत पर चढ़ाई कर दी और भारत की हजारों किलोमीटर जमीन को हड़प लिया जिसे उसने कभी वापस नहीं किया. आगामी वर्ष इस घटना को 50 साल हो जायेंगे. इन पचास वर्षो में चीन ने बार-बार इस बात को दोहराया कि वह भारत के साथ सीमा विवाद सुलझा लेगा. इसके लिए दोनों तरफ़ से विशेषज्ञ बहाल हुए. परंतु कई बैठकों के बाद भी कोई नतीजा नहीं निकला और समस्या जस की तस है. सच यह है कि पीछे मुड़कर यदि चीन के इतिहास को देखा जाए तो यह स्पष्ट हो जाता है कि चीन सदा से एक विस्तारवादी देश रहा है.

उसकी मंशा हमेशा से यही रही है कि पड़ोसी देशों की जितनी भी संभव हो जमीन हड़प ली जाये. यह काम चीन में तब भी होता था जब वहां राजशाही थी या जब केएमटी का शासन था. जब माओ-त्से-तुंग के नेतृत्व में चीन में कम्युनिस्ट पार्टी का शासन स्थापित हो गया तो उसने तो मनमाने तरीके से अन्य देशों के अलावा भारत का बहुत बड़ा भूभाग हड़प लिया जिसे उसने कभी वापस नहीं किया.

इस संदर्भ में भारत के तत्कालीन उप-प्रधानमंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल का एक महत्वपूर्ण पत्र प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू को 7 नवंबर, 1950 को लिखा गया था जिसमें सरदार पटेल ने स्पष्ट शब्दों में कहा था कि हमें वस्तुस्थिति को समझना चाहिये और यह मानकर चलना चाहिये कि चीन हमारा सच्चा मित्र नहीं हो सकता है. वह हमें अपना ‘शत्रु’ समझता है और आने वाले दिनों में वह हमें हर तरह से परेशान करेगा. तिब्बत को जिस तरह चीन ने धोखे से हड़प लिया वह हमारे लिये अत्यंत ही चिंता की बात है. सरदार पटेल का तो कुछ महीनों बाद स्वर्गवास हो गया, लेकिन उन्होंने अपने पत्र में तिब्बत के बारे में जो भविष्यवाणी की थी वह शत-प्रतिशत सही निकली. कुछ वर्षो के बाद दलाई लामा को तिब्बत से भागकर भारत में शरण लेनी पड़ी.

जब चीन ने 1962 में भारत पर आक्रमण कर दिया तो उसके बाद भारत सरकार ने सारी घटना पर एक ‘श्वेत-पत्र’ निकाला जिसमें विस्तार से इस बात का वर्णन है कि पंडित नेहरू ने बार-बार तत्कालीन चीनी प्रधानमंत्री चाउ-एन-लाई को लिखा था कि तिब्बत हमेशा से एक स्वतंत्र देश रहा है. अत चीन का उस पर कब्जा करना उचित नहीं है. इसके जवाब में चाउ-एन-लाई ने लिखा कि चीन तिब्बत की ‘स्वायत्तता’ को अक्षुण्ण रखेगा. उसकी संस्कृति में कोई हस्तक्षेप नहीं करेगा. केवल पश्चिम के उपनिवेशवादी देशों से तिब्बत की रक्षा करने के लिए चीन ने तिब्बत में यह कदम उठाया है. पंडित नेहरू चाउ-एन-लाई की मीठी-मीठी बातों में आ गये. पंडित नेहरू को ऐसा लगता था कि चीन और भारत दोनों पश्चिमी उपनिवेशवादी देशों के सताये हुए हैं. अत आजादी मिलने पर दोनों स्वाभाविक रूप से मित्र हो जायेंगे. परंतु दुर्भाग्यवश पंडित नेहरू ने चीन के इतिहास को व्यापक परिपेक्ष में पढ़ा नहीं था. इसी कारण यह भयानक भूल हो गयी.

अपने उपर्युक्त पत्र में सरदार पटेल ने जो जो चेतावनी दी वह सब सही निकली. उन्होंने लिखा था कि चीन ने तो तिब्बत को हड़प ही लिया. भारत की उत्तरी सीमा पर भी वह विद्रोहियों को भड़काने से बाज नहीं आयेगा. उसकी नीयत साफ़ नहीं है. ऐसे में भारत का यह प्रयास कि साम्यवादी चीन को संयुक्त राष्ट्र की सदस्यता मिल जाए, चांग काई शेक की सरकार के स्थान पर, यह एक भयानक गलती होगी. एक बार यदि चीन संयुक्त राष्र्ट् का सदस्य बन जाता है और सुरक्षा परिषद में उसे जगह मिल जाती है तो वह सबसे पहले भारत को तंग करेगा. सरदार पटेल की यह बात भी सच साबित हुई.

सरदार पटेल ने यह भी लिखा है कि 1914 में जब तिब्बत के मामले में भारत, तिब्बत और चीन के बीच एक समझौता हुआ तो उस समय की चीन की सरकार ने भी उसको मानने से इनकार कर दिया था. उसने तो मैकमोहन लाइन को भी मानने से साफ़ इनकार कर दिया था. इसी से यह पता चलता है कि चीन का इरादा कभी नेक नहीं था.

ऐसे में हमें किसी भी हालत में साम्यवादी चीन को संयुक्त राष्ट्र का सदस्य नहीं बनने देना चाहिये. हमें इस बात से सबक लेना चाहिये कि जिस तरह उसने तिब्बत को हड़प लिया उसी तरह से वह हमारी ओर भी टेढ़ी नजर से देख सकता है. एक बार यदि वह संयुक्त राष्ट्र का सदस्य बन जाता है तो वह इतना ताकतवर हो जाएगा कि हमारी सीमा पर तेजी से अतिक्रमण करता रहेगा.

पीछे मुड़कर देखने से ऐसा लगता है कि चीन के बारे में तो पंडित नेहरू भावना में बह गये और उसके विस्तारवादी इतिहास को ठीक से पढ़ नहीं पाये. परंतु पंडित नेहरू की भी लाचारी थी. माउंटबेटन के बहकावे में आकर वे कश्मीर समस्या को सुरक्षा परिषद में ले गये थे. माउंटबेटन ने भरोसा दिलाया था कि सुरक्षा परिषद में ब्रिटेन और उसका अनन्य मित्र अमेरिका भारत को पाकिस्तान के खिलाफ़ पूरी मदद करेगा. वे किसी भी हालत में इस पर राजी नहीं होंगे कि कश्मीर में जनमत संग्रह (प्लेबीसाइट) कराया जाए.

बैंकों के बलिदान का मौसम

ग्रीस डूबने को तैयार है.. इसे यूं भी लिखा जा सकता है कि यूरोप के तमाम बैंक डूबने को तैयार हैं। किसी देश का दीवालिया होना उसे खत्म नहीं कर देता है, मगर ग्रीस के कर्ज चुकाने में चूकते ही कई बैंकों के दुनिया के नक्शे से मिटने की नौबत आ जाएगी। दुनिया ग्रीस को बचाने के लिए बेचैन है ही नहीं, जद्दोजहद तो पूरी दुनिया के बैंकों, खासतौर पर यूरोप के बैंकों को महासंकट से बचाने की है। लीमन और अमेरिका के कई बैंकों के डूबने के तीन साल के भीतर दुनिया में दूसरी बैंकिंग त्रासदी का मंच तैयार है। यूरोप में बैंकों के बलिदान का मौसम शुरू हो चुका है। डरे हुए वित्ताीय नियामक बैंकों को आग के दरिया से गुजारने की योजना तैयार कर रहे हैं, ताकि जो बच सके बचा लिया जाए। बैंकों पर सख्ती की ताजा लहर भारत तक आ पहुंची है। यूरोप के संकट से बैंकों की दुनिया और दुनिया के बैंकों की सूरत व सीरत बदलना तय है।

बैंकों की बदहाली

370 बिलियन डॉलर के कर्ज से दबे ग्रीस के दीवालिया होते ही यूरोप के बैंकों में बर्बादी का बड़ा दौर शुरू होने वाला है। यह कर्ज तो बैंकों ने ही दिया है। बैंकों को यदि ग्रीस पर बकाया कर्ज का 40 फीसदी हिस्सा भी माफ करना पड़ा तो उनकी बहुत बड़ी पूंजी डूब जाएगी। अपनी सरकार के कर्ज में सबसे बडे़ हिस्सेदार ग्रीस के बैंक तो उड़ ही जाएंगे। यूरोप के बैंक व सरकारें मिलकर ग्रीस के कर्ज में 60 फीसदी की हिस्सेदार हैं। इनमें भी फ्रांस, जर्मनी, इटली के बैंकों का हिस्सा काफी बड़ा है। इसलिए फ्रांस के दो प्रमुख बैंक- बीएनपी पारिबा और क्रेडिट एग्रीकोल अपनी रेटिंग खो चुके हैं। पुर्तगाल, आयरलैंड व इटली भी कर्ज संकट में हैं। इन्हें कर्ज देने वाले बैंक ब्रिटेन, जर्मनी व स्पेन के हैं। यानी पूरे यूरोप के बैंक खतरे में हैं। यही वजह है कि यूरोप अपने बैंकों को नए जोखिम परीक्षण की कसौटी पर कसने के लिए तैयार हो रहा है। यूरोप के 90 बैंकों का इसी जुलाई में जोखिम क्षमता परीक्षण हुआ था, जिसमें उनकी कमजोरी सामने आ चुकी है। यूरोप के वित्ताीय नियामक मान चुके हैं कि ग्रीस डूबेगा और इसके साथ ही बैंकिंग संकट तय है। इसलिए बैंकों को सख्ती से सुधारने की मुहिम शुरू हो चुकी है।

सुधारों का चाबुक

बैंक जमा व कर्ज के लिए बने हैं, मगर काम कुछ दूसरा करते हैं। ब्रिटेन के बैंकों की संपत्तिायां व देनदारियां 6,000 अरब पौंड हैं, जिनमें उनके वास्तविक कर्ज 200 अरब पौंड यानी केवल तीन फीसदी हैं। शेष रकम वित्ताीय बाजार में कारोबार से संबंधित है। पिछले दो दशकों में बैंकों की निवेश गतिविधियां उनका मुख्य धंधा बन गई। 2008 में जब 615 ट्रिलियन डॉलर के डेरिवेटिव दलदल में अमेरिका के सैकड़ों बैंक डूबे, तब बैंकों के इस जोखिम भरे शौक (वित्ताीय कारोबार) पर रोक लगाने की कोशिश शुरू हुई। अमेरिका में लागू हुआ डॉड फ्रैंक बिल, ब्रिटेन का इंडिपेंडेंट कमीशन ऑफ बैंकिंग (विकर्स रिपोर्ट) और बेसल कमेटी ऑन बैकिंग सुपरविजन का एजेंडा यही है। बेसिल कमेटी बैंकों के लिए सुरक्षित पूंजी की ऊंची सीमा तय करने जा रही है, ताकि जोखिम से हिफाजत हो सके। बेसिल कमेटी दुनिया के बड़े बैंकों पर विशेष सरचार्ज लगाने जा रही है। यह शर्ते बैंकिंग उद्योग को सिरे से बदल देंगी। इधर विकर्स रिपोर्ट के मुताबिक ब्रिटेन के बैंकों के जोखिम भरे संचालनों (जिन्हें मजाक में हाई स्ट्रीट व कैसिनो ऑपरेशन कहते हैं) को मुख्य कारोबार से अलग करना होगा और इस तरह के संचालनों के लिए 10 फीसदी पूंजी अलग से संरक्षित करनी होगी। ब्रितानी बैंकों के लिए एक फाइनेंशियल कंडक्ट अथॉरिटी बनेगी। नियमों का नया ढांचा बैंकों से ज्यादा पूंजी, जोखिम पर सरचार्ज, तरह-तरह के नियम लेकर आ रहा है और ऊंची कमाई वाले वित्ताीय कारोबार की संभावनाओं को सीमित कर रहा है।

पूंजी की दरकार

संकट और सुधारों का सीधा असर दुनिया में बैंकिंग की लागत पर पड़ना है। बैंकों को जोखिम से बचने और नए नियमों को लागू करने के लिए भारी पूंजी चाहिए। अमेरिका ने लीमन संकट के बाद बैंकों को पुनर्वित्ता उपलब्ध कराया था। ठीक इसी तरह की कवायद यूरोप में शुरू होने वाली है। आइएमएफ का आकलन है कि ताजा कर्ज संकट की चोट के इलाज के लिए यूरोपीय बैंकों को करीब 405 अरब डॉलर की पूंजी चाहिए, क्योंकि यूरो जोन में करीब 6.5 ट्रिलियन डॉलर का सरकारी कर्ज का बड़ा हिस्सा बैंकों के नाम है, जिसे लेकर जोखिम बढ़ रहा है। ब्रिटिश बैंकों पर विकर्स नियम लागू होने के बाद बैंकों के लिए लागत 6 अरब पौंड सालाना की गति से बढे़गी। इंस्टीट्यूट ऑफ इंटरनेशनल फाइनेंस का मानना है कि जोखिम घटाने के नए बैंकों को 2015 तक करीब 1.3 ट्रिलियन डॉलर की अतिरिक्त पूंजी चाहिए। विशेषज्ञों का आकलन है कि नए बैंकिंग नियमों के लागू होने के बाद अगले पांच साल में दुनिया के जीडीपी में 0.7 फीसदी की कमी आएगी, करीब 75 लाख रोजगार घटेंगे और कर्ज की लागत 3.5 फीसदी तक बढ़ सकती है। रेटिंग एजेंसियों का कहना है कि भारत के बैंकों को भी अपनी सूरत बदलनी होगी और जोखिम घटाने के लिए ज्यादा सुरक्षित पूंजी चाहिए, यानी की सरकार को अपना खजाना खोलना पड़ेगा, क्योंकि ज्यादातर बैंकों में सरकार सबसे बड़ी हिस्सेदार हैं।

1878 के विक्टोरियन बैंकिंग संकट (लंदन के बैंकों का डूबना), अर्जेटीना में 2002 में सभी बैंकों की तबाही और लीमन संकट (2008) के बाद डूबे 300 से अधिक अमेरिकी बैंकों तक दुनिया के हर वित्ताीय संकट की कथा बैंकों के नेतृत्व में लिखी गई है। तभी तो 1970 से लेकर 2007 तक दुनिया में 124 बैंकिंग संकट आए हैं और 1929 की महामंदी 9000 अमेरिकी बैंकों को निगल कर शांत हुई थी। बीसीसीआइ से लेकर बेअरिंग्स बियर स्टर्न, लीमन तक किसी दूसरी वित्ताीय संस्था का अतीत भी बैंकों जितना दागदार नहीं है। हर बड़ा मुल्क और प्रत्येक अंतरराष्ट्रीय वित्ताीय संस्था अब बैंकों को बांधने के लिए कंटीले नियम लेकर निकल पड़ी है। ताजा वित्ताीय त्रासदी को लेकर दुनिया में चाहे जो मतभेद हों, मगर बैंकों को रास्ते पर लाने को लेकर गजब की अंतरराष्ट्रीय एक राय बन रही है। दुनिया इन बिगड़ैल खिलाड़ियों को सुधारने के लिए कुछ करने को तैयार है। बैंकों को माफी मिलने की उम्मीद अब न के बराबर है।

[अर्थार्थ : अंशुमान तिवारी]

ये जो अमेरिका है!

याद कीजिए इस अमेरिका को आपने पहले कब देखा था। दुनिया को पूंजी, तकनीक, निवेश, सलाहें, बहुराष्ट्रीय कंपनियां और सपने बांटने वाला अमेरिका नहीं, बल्कि बेरोजगार, गरीब, मंदी पीड़ित, सब्सिडीखोर, कर्ज में डूबा, बुढ़ाता और हांफता हुआ अमेरिका। न्यूयॉर्क, सिएटल, लॉस एंजिलिस सहित 70 शहरों की सड़कों पर फैले आंदोलन में एक दूसरा ही अमेरिका उभर रहा है। चीखते, कोसते और गुस्साते अमेरिकी लोग अमेरिकी बाजारवाद और पूंजीवाद पर हमलावर है। राष्ट्रपति ओबामा डरे हुए हैं। उनकी निगाह में शेयर बाजार व बैंक गुनहगार हैं। न्यूयॉर्क के मेयर माइकल ब्लूमबर्ग को अमेरिका की सड़कों पर काइरो व लंदन जैसे आंदोलन उभरते दिख रहे हैं। इन आशंकाओं में दम है। अमेरिका से लेकर कनाडा व यूरोप तक 140 शहरों में जनता सड़क पर आने की तैयारी में है। आर्थिक आंकड़ों से लेकर सामाजिक बदलावों तक और संसद से लेकर वित्तीय बाजार तक अमेरिका में उम्मीद की रोशनियां अचानक बुझने लगी हैं। लगता है मानो दुनिया के सबसे ताकतवर मुल्क में कोई तिलिस्म टूट गया है या किसी ने पर्दा खींचकर सब कुछ उघाड़ दिया है। महाशक्ति की यह तस्वीर महादयनीय है।

बेरोजगार अमेरिका

अमेरिकी बहुराष्ट्रीय कंपनियां करीब दो ट्रिलियन डॉलर (2,00,000 करोड़ डॉलर) की नकदी पर बैठी हैं!! लेकिन रोजगार नहीं हैं। सस्ते बाजारों में उत्पादन से मुनाफा कमाने के मॉडल ने अमेरिका को तोड़ दिया है। अमेरिका के पास शानदार कंपनियां तो हैं, मगर रोजगार चीन, भारत थाइलैंड को मिल रहे हैं। देश में बेकारी की बढोतरी दर पिछले दो साल से 9 फीसदी पर बनी हुई है। इस समय अमेरिका में करीब 140 लाख लोग बेकार हैं। अगर आंशिक बेकारी को शामिल कर लिया जाए तो इस अमीर मुल्क में बेकारी की दर 16.5 फीसदी हो जाती है। लोगों को औसतन 41 हफ्तों तक कोई काम नहीं मिल रहा है। 1948 के बाद बेकारी का यह सबसे भयानक चेहरा है। बेरोजगारी भत्ते के लिए सरकार के पास आवेदनों की तादाद कम नहीं हो रही है। बैंक ऑफ अमेरिका ने 30,000 नौकरियां घटाईं हैं, जबकि अमेरिकी सेना ने पांच वर्षीय भर्ती कटौती अभियान शुरू कर दिया है। आलम यह है कि कर्मचरियों को बाहर का रास्ता दिखाने की रफ्तार 212 फीसदी पर है। पिछले माह अमेरिका में करीब सवा लाख लोगों की नौकिरयां गई हैं। इस बीच नौकरियां बढ़ाने के लिए ओबामा का 447 अरब डॉलर का प्रस्ताव प्रतिस्पर्धी राजनीति में फंसकर संसद में (इसी शुक्रवार को) गिर गया है। इसके बाद बची-खुची उम्मीदें भी टूट गईं हैं। अमेरिका अब गरीब (अमेरिकी पैमानों पर) मुल्क में तब्दील होने लगा है।

गरीब अमेरिका

अमेरिकी यूं ही नहीं गुस्साए हैं। दुनिया के सबसे अमीर मुल्क में 460 लाख लोग बाकायदा गरीब (अमेरिकी पैमाने पर) हैं। अमेरिका में गरीबी के हिसाब किताब की 52 साल पुरानी व्यवस्था में निर्धनों की इतनी बड़ी तादाद पहली बार दिखी है। अमेरिकी सेंसस ब्यूरो व श्रम आंकड़े बताते हैं कि देश में गरीबी बढ़ने की दर 2007 में 2.1 फीसदी थी, जो अब 15 फीसदी पर पहुंच गई है। मध्यमवर्गीय परिवारों की औसत आय 6.4 फीसदी घटी है। 25 से 34 साल के करीब 9 फीसदी लोग (पूरे परिवार की आय के आधार पर) गरीबी की रेखा से नीचे हैं। यदि व्यक्तिगत आय को आधार बनाया जाए तो आंकड़ा बहुत बड़ा होगा। लोगों की गरीबी कर्ज में डूबी सरकार को और गरीब कर रही है। अमेरिका के करीब 48.5 फीसदी लोग किसी न किसी तरह सरकारी सहायता पर निर्भर हैं। अमेरिका का टैक्स पॉलिसी सेंटर कहता है कि देश के 46.5 फीसदी परिवार केंद्र सरकार कोई कर नहीं देते यानी कि देश की आधी उत्पादक व कार्यशील आबादी शेष आधी जनसंख्या से मिलने वाले टैक्स पर निर्भर है। यह एक खतरनाक स्थिति है। अमेरिका को इस समय उत्पादन, रोजगार और ज्यादा राजस्व चाहिए, जबकि सरकार उलटे टैक्स बढ़ाने व खर्च घटाने जा रही है।

बेबस अमेरिका

इस मुल्क की कंपनियां व शेयर बाजार देश में उपभोक्ता खर्च का आंकड़ा देखकर नाच उठते थे। अमेरिका के जीडीपी में उपभोक्ता खर्च 60 फीसदी का हिस्सेदार है। बेकारी बढ़ने व आय घटने से यह खर्च कम हुआ है और अमेरिका मंदी की तरफ खिसक गया। अमेरिकी बचत के मुरीद कभी नहीं रहे, इसलिए उपभोक्ता खर्च ही ग्रोथ का इंजन था। अब मंदी व वित्तीय संकटों से डरे लोग बचत करने लगे हैं। अमेरिका में बंद होते रेस्टोरेंट और खाली पड़े शॉपिंग मॉल बता रहे हैं कि लोगों ने हाथ सिकोड़ लिए हैं। किसी भी देश के लिए बचत बढ़ना अच्छी बात है, मगर अमेरिका के लिए बचत दोहरी आफत है। कंपनियां इस बात से डर रही हैं कि अगर अमेरिकी सादा जीवन जीने लगे और बचत दर 5 से 7 फीसदी हो गई तो मंदी बहुत टिकाऊ हो जाएगी। दिक्कत इसलिए पेचीदा है, क्योंकि अमेरिका में 1946 से 1964 के बीच पैदा हुए लोग (बेबी बूम पीढ़ी) अब बुढ़ा रहे हैं। इनकी कमाई व खर्च ने ही अमेरिका को उपभोक्ता संस्कृति का स्वर्ग बनाया था। यह पीढ़ी अब रिटायरमेंट की तरफ है यानी की कमाई व खर्च सीमित और चिकित्सा पेंशन आदि के लिए सरकार पर निर्भरता। टैक्स देकर अमेरिकी सरकार को चलाने यह पीढ़ी अब सरकार की देखरेख में अपना बुढ़ापा काटेगी। मगर इसी मौके पर सरकार कर्ज में डूबकर दोहरी हो गई है।

अमेरिका आंदोलनबाज देश नहीं है। 1992 में लॉस एंजिलिस में दंगों (अश्वेत रोडनी किंग की पुलिस पिटाई में मौत) के बाद पहली बार देश इस तरह आंदोलित दिख रहा है। अमेरिकी शहरों को मथ रहे आंदोलनों का मकसद और नेतृत्व भले ही अस्पष्ट हो, मगर पृष्ठभूमि पूरी दुनिया को दिख रही है। मशहूर अमेरिकन ड्रीम मुश्किल में है। बेहतर, समृद्ध और संपूर्ण जिंदगी व बराबरी के अवसरों (एपिक ऑप अमेरिका- जेम्स ट्रुसलो एडम्स) का बुनियादी अमेरिकी सपना टूट रहा है। इस भयानक संकट के बाद दुनिया को जो अमेरिका मिलेगा, वह पहले जैसा बिल्कुल नहीं होगा। अपनी जनता की आंखों में अमेरिकन ड्रीम को दोबारा बसाने के लिए अमेरिका को बहुत कुछ बदलना पड़ेगा। चर्चिल ने ठीक ही कहा था कि अमेरिका पर इस बात के लिए भरोसा किया जा सकता है कि वह सही काम करेगा, लेकिन कई गलतियों के बाद। ..अमेरिका का प्रायश्चित शरू हो गया है।

[अर्थार्थ : अंशुमान तिवारी]

काले धन पर बेफिक्री

एक विस्फोटक खुलासे में स्विस बैंकिंग घोटालों को उजागर करने वाले रुडोल्फ एल्मर ने कहा कि बहुत सी भारतीय कंपनियां और धनी भारतीय, जिनमें अनेक फिल्म स्टार और क्रिकेटर भी शामिल हैं, केमैन द्वीप जैसे टैक्स हैवेन इलाकों में अपने काले धन को जमा कर रहे थे। एल्मर ने कहा कि 2008 में उन्होंने जो सूची जारी की थी उसमें कर चोरी करने वाले अनेक भारतीयों के नाम भी दर्ज थे। उन्होंने भारत सरकार पर आरोप लगाया कि वह काले धन को वापस लाने की दिशा में गंभीर और सार्थक प्रयास नहीं कर रही है। रुडोल्फ एल्मर को हल्के में नहीं लिया जा सकता। वह स्विस बैंक जूलियस बेयर के पूर्व अधिकारी हैं। उन्होंने 20 साल तक इस बैंक में काम किया है। वह केमैन द्वीप में बैंक के मुख्य परिचालन अधिकारी थे। अपने कार्यकाल के दौरान एल्मर को साक्ष्य मिले कि उनका बैंक ग्राहकों को कर चोरी में मदद पहुंचा रहा है। इन्हीं साक्ष्यों को एल्मर ने सीडी में कॉपी करके विकिलीक्स के संपादक जूलियन असांजे को सौंप दिया था। दावा किया गया है कि सीडी में दो हजार खातेदारों के नाम हैं, जिनमें कई भारतीय हैं। इसमें 1997 से 2002 के बीच के बैंक खातों का विवरण है, जिसे अब तक सार्वजनिक नहीं किया गया है।

इस संबंध में अमेरिका जैसे कुछ देशों ने गंभीर प्रयास किए और स्विट्जरलैंड पर दबाव बनाकर अपना धन वापस लाने में सफलता हासिल की। बराक ओबामा को अपना धन वापस लाने की चिंता है, जर्मन चांसलर एंजेला मार्केल इसे लेकर क्रोधित हैं और फ्रांस में निकोलस सरकोजी बैंकिंग व्यवस्था के नियमन पर जोर दे रहे हैं, किंतु विदेशों में जमा काले धन से सर्वाधिक प्रभावित भारत इस संबंध में जरा भी परेशान नहीं है, बल्कि वह कर चोरों को फायदा पहुंचाने के लिए स्वैच्छिक घोषणा योजना का मसौदा तैयार कर रहा है। रुडोल्फ एल्मर ने कहा कि सब कुछ रवैये पर निर्भर करता है। भारत सरकार ने काले धन को वापस लाने के गंभीर प्रयास नहीं किए। सरकार को कार्रवाई के लिए मजबूर करने के लिए समाज को दबाव डालना होगा। भारत एक बड़ा देश है और दिन पर दिन और शक्तिशाली होता जा रहा है। यह विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र के लिए अफसोस की बात है कि निर्वाचित सरकार तथा अधिकारियों के बजाय एक विदेशी हमारे देश के काले धन को लेकर चिंतित है।

दिलचस्प बात यह है कि इसी जूलियस बेयर बैंक में काला धन जमा करने वालों की एक अन्य सूची भी सामने आई है। इसमें सौ से अधिक भारतीयों के नाम शामिल हैं। कर चोरी के सुरक्षित ठिकानों में 40 करोड़ रुपये जमा कराने वाले 18 भारतीयों के नाम का इस साल के शुरू में खुलासा हुआ था। लीचेंस्टाइन सूची को एक जर्मनवासी ने हासिल किया तथा इसे भारतीयों के साथ साझा किया। नागरिक समूह 'इंडिया रिजुवेनेशन इनीसिएटिव' द्वारा दर्ज की गई जनहित याचिका पर सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक फैसले के बाद भी सरकार ने इन खातेदारों के नाम सार्वजनिक नहीं किए। सरकार इस आधार पर नाम सार्वजनिक करने से इंकार कर रही है कि वह जर्मनी के साथ दोहरे कराधान संधि से बंधी हुई है। इन आंकड़ों को हासिल करने से भारत-जर्मनी के बीच संधि का उल्लंघन नहीं होता, किंतु कुछ रहस्यमयी कारणों से सरकार इस मामले में दुराग्रहपूर्ण रवैया अपना रही है। भारत के करदाताओं के साथ सूचना साझा न करने का एक और उदाहरण कुछ माह पूर्व का है। स्विट्जरलैंड में एचएसबीसी बैंक में काला धन जमा करने वाले एक हजार भारतीयों के नामों की सूची सरकार को मिली। ये आंकड़े फ्रांस सरकार को मिले, जिसने भारत सरकार को हस्तांतरित कर दिए, किंतु सरकार ने अभी तक यह सूची सार्वजनिक नहीं की। जब भी विदेशी बैंकों में काला धन जमा करने वालों के नाम सार्वजनिक करने का प्रश्न उठता है, सरकार और अधिकारी एक ही राग अलापने लगते हैं कि दोहरे कराधान संधि ने उनके हाथ बांध रखे हैं। भारत में अनेक स्विस कंपनियां और बैंक कारोबार कर रहे हैं। ऐसे में राष्ट्रीय हितों की रक्षा के लिए सरकार इन कंपनियों और स्विट्जरलैंड सरकार पर दबाव बनाकर काले धन की जानकारी आसानी से हासिल कर सकती है, किंतु काले धन पर सरकार षडयंत्रकारी चुप्पी साधे है। भारत के कानून मंत्री द्वारा हाल ही में दिए गए बयान से पता चलता है कि भारत के लूटे गए धन को वापस लाने की उनकी कोई इच्छाशक्ति नहीं है, बल्कि वह इस प्रकार के मामलों में न्यायिक दखलंदाजी पर लगभग अवमाननापूर्ण बयान जारी से गुरेज नहीं करते।

भारत में खुफिया एजेंसियों पर अरबों रुपये खर्च किए जाते हैं। क्या रॉ, इंटेलीजेंस ब्यूरो जैसी इकाइयां कर चोरों और आर्थिक अपराधियों के विदेशी खातों के बारे में जानकारी नहीं जुटा सकतीं? इस पर अविश्वास नहीं किया जा सकता कि इन एजेंसियों में काबिल अधिकारी और संसाधन हैं, जो काले धन के स्रोत तक पहुंच सकते हैं। तब सवाल उठता है कि इन्हें नागरिकों के वृहद हितों के पक्ष में काम करने से कौन रोकता है? अगर जर्मनी की खुफिया एजेंसी एक अघोषित भेदिये को 60 लाख डॉलर देकर एलटीजी ग्रुप के ग्राहकों का गोपनीय विवरण हासिल कर सकती है तो भारत की खुफिया एजेंसियां इस प्रकार के उपाय क्यों नहीं अपना सकतीं? भारतीय राजनीतिक नेतृत्व काले धन को वापस लाने पर कदम पीछे खींचता रहा है। भारत से जुड़े स्विस व्यापारिक और वित्तीय हितों पर दबाव बढ़ाने के बजाय सरकार ने इनके प्रति नरमी बरती है। यही नहीं, भारत में यूबीएस जैसे स्विस बैंकों की शाखाएं खुलवाकर सरकार ने काले धन के विदेशों में इलेक्ट्रॉनिक हस्तातंरण का रास्ता और आसान बना दिया है।

कानून मंत्री के हालिया बयान से निष्कर्ष निकलता है कि उन्हें सामान्य करदाताओं के हितों से अधिक चिंता व्यापारियों और कर चोरों के निवेश को सुरक्षित रखने की है। उन्होंने उच्चतम न्यायालय द्वारा काले धन के संबंध में विशेष जांच दल के गठन के फैसले को भी अनुचित बताया। इससे भी अधिक झटका इस बात से लगता है कि हाल ही में सरकार ने स्विट्जरलैंड के साथ कर संधि पर हस्ताक्षर किए हैं। इसके अनुसार अतीत में भारत से लूटी गई संपदा स्विस बैंकों में जमा करने वालों को दोषमुक्त कर दिया जाएगा और इन अपराधियों को दंड नहीं दिया जा सकेगा। यह संधि एक अप्रैल, 2012 से लागू होगी। सरकार ने एक बार फिर काले धन के संबंध में भविष्य में होने वाले खुलासों का सुरक्षा कवच तैयार कर लिया है। सरकार को तगड़ा बहाना मिल गया है-स्विट्जरलैंड के साथ संधि होने के कारण हमारे हाथ बंधे हैं। हम किसी अपराधी को सजा नहीं दे सकते।

[जसवीर सिंह: लेखक आइपीएस अधिकारी हैं और लेख में उनके निजी विचार हैं]

पश्चिमी पूंजीवाद की पराजय

अमेरिका और यूरोप के आर्थिक संकट के बुनियादी कारणों की तह में जा रहे हैं लॉर्ड मेघनाद देसाई

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अमेरिका और यूरोप समेत कई पश्चिमी देशों में आर्थिक संकट सुलझने के बजाय लगातार गहरा रहा है। ऐसे में अपनी खराब होती आर्थिक हालत और बैंकों से लिए गए कर्ज को न चुका पाने के कारण नागरिकों में सरकार के प्रति रोष बढ़ रहा है, जो स्वाभाविक है। यही कारण है कि पश्चिम के कई देशों में अफ्रीका और अरब देशों में हुई क्रांति की तरह ही लोग सड़कों पर उतर रहे हैं। इस संदर्भ में अमेरिका में वॉल स्ट्रीट पर कब्जा करने के नारे के साथ कई नागरिक समूहों द्वारा सामूहिक रूप से आवाज उठाना एक महत्वपूर्ण घटनाक्रम है। आज तक कभी ऐसा नहीं देखा गया जब पूरी दुनिया को नियंत्रित करने वाले इस सबसे बड़े पूंजीवादी संस्थान के खिलाफ वही लोग खड़े हो गए जो अभी तक इस पर गर्व करते आए हैं। इन घटनाक्रमों की व्याख्या कई रूपों में अलग-अलग तरह से की जा सकती है और की भी जा रही है, लेकिन सवाल यह है कि ऐसा हुआ क्यों और क्या इस स्थिति से बाहर निकला जा सकता है या नहीं?

इसके अलावा प्रश्न यह भी है कि इससे भारत जैसे विकासशील देशों को क्या सबक सीखना चाहिए? दरअसल अभी तक अमेरिकी बैंकों की नीति अपने नागरिकों को अधिकाधिक कर्ज बांटने की रही है। ऐसा करने के पीछे तर्क यह था कि जब लोगों के पास पैसा आएगा तो वह अधिकाधिक उपभोग के लिए प्रेरित होंगे और बाजार में मांग बनेगी और जब मांग बढ़ेगी तो फैक्ट्रियों में उत्पादन बढ़ेगा, जिससे रोजगार सृजित होगा और देश में खुशहाली बढ़ेगी। निश्चित ही यह एक अच्छा विचार था, लेकिन बैंकों से गलती यह हुई उन्होंने यह जानना जरूरी नहीं समझा कि लोग जो कर्ज ले रहे हैं उसका कर क्या रहे हैं और उसे कहां लगा रहे हैं? 2007-08 में सबप्राइम संकट की मूल वजह यही थी कि लोगों ने कर्ज का पैसा प्रापर्टी बाजार में मोटी कमाई के उद्देश्य से लगाया। लोगों ने कर्ज के पैसे से घर खरीदा और बैंक की किस्त चुकाने के लिए इन घरों को किराए पर उठा दिया, लेकिन समस्या तब शुरू हुई जब ब्याज दरें बढ़ने से कर्ज की किस्त देना मुश्किल हो गया। इसके लिए लोगों ने फिर से उन्हीं घरों पर दोबारा कर्ज ले लिया जिनकी किस्त अभी तक भरी जा रही थी। इसका परिणाम यह हुआ कि प्रॉपर्टी की मांग तेजी से बढ़ी और मकानो के किराये भी काफी ऊपर हो गए। इसके परिणामस्वरूप प्रॉपर्टी के दाम तेजी से बढ़े और बाजार से खरीददार गायब होने लगे। साथ ही महंगे किराये की वजह से लोगों ने इन घरों को भी खाली करना शुरू कर दिया। ऐसी स्थिति में प्रापर्टी बाजार जो तेजी से ऊपर जा रहा था, औंधे मुंह नीचे गिर गया। इन हालात में बैंकों से लिए गए कर्ज का मूलधन तो दूर रहा, उसकी किस्त भी चुका पाना लोगों के लिए मुश्किल हो गया। आज हालत यह है कि बैंक यदि इस प्रापर्टी को अधिग्रहीत भी कर लें तो भी उनका धन वापस नहीं मिल सकता। यही कारण था कि अमेरिका समेत यूरोप के कई देशों में बैंक दिवालिया होना शुरू हो गए।

इस स्थिति से बाहर निकलने और बैंकों को दिवालिया होने से बचाने के लिए बेलआउट पैकेज दिए गए, लेकिन यह भी आज कारगर होते नहीं दिख रहे हैं। इसकी बड़ी वजह यही है कि जो भी पैसा इस तरह के पैकेज द्वारा बाजार में आता है उसका एक बड़ा हिस्सा कंपनियों द्वारा कमोडिटी बाजार में लाभ कमाने के लिए झोंक दिया जाता है, जबकि बेलआउट पैकेज के तहत पैसा देने का उद्देश्य ही यह होता है कि इनका उपयोग उद्योगों में निवेश के लिए किया जाएगा ताकि उत्पादन बढ़ने से वस्तुओं की कीमतें नीचे आएं और लोगों में इनकी मांग बढ़े। यदि ऐसा होता है तो ही बाजार फिर से पटरी पर लौट पाएगा और रोजगार सृजन भी तेज होगा, लेकिन यह सारा उद्देश्य वहीं विफल हो जाता है जब इन पैसों का उपयोग उद्योगों में निवेश के बजाय शेयर बाजार और कमोडिटी बाजार में होने लगता है। यह दुष्चक्र 2007-08 के सबप्राइम संकट जैसा ही है, जिसका हल खोजना फिलहाल मुश्किल हो रहा है, क्योंकि मंदी और महंगाई आज साथ-साथ हैं और यह एक वैश्विक समस्या बनती जा रही है। पता नहीं अमेरिकी संकट कब हल होगा, लेकिन इतना अवश्य है कि यूरो जोन के संकट का हल हुए बिना अमेरिकी संकट भी फिलहाल खत्म नहीं होने वाला। मुझे नहीं लगता कि यह संकट तीन-चार साल से पहले खत्म हो पाएगा।

इस संदर्भ में जो सबसे महत्वपूर्ण बात उभर कर आई है वह है बचत का महत्व को समझना और इसे अपनी आदत में ढालकर पैसों का सही उपयोग सुनिश्चित करना। आज पूंजीवाद का केंद्र अमेरिका और यूरोप से खिसककर चीन, भारत और ब्राजील की तरफ स्थापित हो रहा है, लेकिन पश्चिम के ताजा संकट से इन देशों को भी सतर्क रहने की जरूरत है। यह बात खासकर भारत पर लागू होती है, क्योंकि आज यहां जिस तरह पैसों का प्रबंधन गलत तरीके से किया जा रहा है और इनका खर्च गैर-उत्पादक और गैर-योजनागत व्यय के लिए अधिक किया जा रहा है वह आने वाले समय में चिंता का कारण बन सकता है। यह सही है कि भारत अपनी जनसांख्यिकीय स्थिति के कारण आज लाभ की स्थिति में है। एक बड़ा मध्यम वर्ग, बड़ा बाजार और उदार अर्थव्यवस्था भारत के पक्ष में जाता है, लेकिन आर्थिक नीतियों में तमाम खामियों और योजनाओं के सही क्रियान्वयन के अभाव के कारण इस स्थिति का लाभ उठा पाना मुश्किल दिख रहा है। भारत को घरेलू स्तर पर तमाम सुधार के साथ ही वैश्विक निवेशकों को यह भरोसा भी दिलाना होगा कि उनका निवेश न केवल सुरक्षित होगा, बल्कि उनके लिए लाभकारी भी होगा।

निश्चित रूप से बढ़ती महंगाई और जनअसंतोष भी एक बड़ा खतरा है। इस कारण भारत के लिए पश्चिम के घटनाक्रमों का सबक यही है कि उसे सिर्फ आर्थिक विकास से संतुष्ट होकर नहीं बैठ जाना चाहिए, बल्कि समतापूर्ण विकास के लक्ष्य पर हमें अधिक केंद्रित होना चाहिए। यही वास्तविक विकास है और हमारी नीतियां इसी लक्ष्य की प्राप्ति के लिए बनाई जानी चाहिए। इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए न केवल दृढ़ राजनीतिक इच्छाशक्ति की आवश्यकता है, बल्कि दीर्घकालिक नीतियों को ध्यान में रखते हुए अपेक्षित आर्थिक सुधारों को जल्द से जल्द स्वीकृति देने और उन पर ईमानदारी से अमल करने की आवश्यकता है।

[लेखक: ब्रिटिश अर्थशास्त्री हैं]

आहार का महत्व

Oct 31,


भोजन को सात्विक, राजसिक और तमोगुणी, इन तीन भागों में विभाजित किया गया है। सात्विक भोजन को फलाहार की संज्ञा दी गई है। गाय के दूध से निर्मित पकवान- दूध, दही, मट्ठा, खोया आदि को भी फलाहार माना गया है। ऋषियों का ऐसा निर्देश है कि अन्न से निर्मित भोजन कम से कम ग्रहण करना चाहिए और लवण का उपयोग इसमें भी कम से कम। भोजन की सात्विकता स्वास्थ्य और दीर्घ जीवन प्रदान करती है और स्वभाव को सरल, संयमित और उद्वेग रहित रखती है। जो लोग जीवन को सौद्देश्यपूर्ण जीना चाहते हैं उनको सात्विक सादा स्वल्प भोजन लेना चाहिए। भोजन करते समय मौन रहना चाहिए। चित्ता को प्रसन्न रखें। खूब चबा-चबाकर खाने से भोजन लार में जल्दी मिल जाता है। सामूहिक भोज में यह सब नहीं हो पाता। राजसिक भोजन बिना व्यायाम पचा सकने के उद्देश्य से तैयार किया जाता है। इसे सुस्वादु बनाने के लिए षट् रसों का सहारा लिया जाता है। मसाले या अचार प्राय: पाचन क्रिया को बिगाड़ देते है।

राजसिक भोजन में घी, तेल, वसा की अधिकता शरीर को स्थूलता, क्लीवता की ओर ले जाती है। मोटापा, शर्करा, अपच, हृदयरोग, कैंसर आदि व्याधियां भोजन के कारण राजसिक कही गई है। इस तरह के भोजन पचाने और रोगों से स्वयं को बचाने की आवश्यकता में परहेज और उपवास का उपचार करना चाहिए। भक्ति के लिए राजसिक भोजन त्याज्य बताया गया है। तामसिक भोजन अभक्ष्य और अतिभक्षण है। मदिरा अथवा किसी नशे की लत के कारण आवश्यकता से अधिक भोजन तामसिक है। गलत तरीकों से अर्जित भोजन निषिद्ध है। सात्विक भोजन एकांत में करना चाहिए। गरिष्ठ भोजन पचाने के लिए व्यायाम, भ्रमण करना चाहिए। भोजन में विटामिन षट्रस के पर्याय है और हमें इनसे वांछित कैलोरी शरीर रक्षण और पोषण के लिए मिल जाती है। राजसिक भोजन सबके लिए नहीं है और तामसिक भोजन प्रमाद, निद्रा और तंद्रावर्धक है। आलस्य और रोगकारक होने से त्याज्य कहे जाते है।

[डॉ. राष्ट्रबंधु]

सुरक्षा पर खतरनाक सुझाव

[जम्मू-कश्मीर से अफस्पा हटाने के उमर अब्दुल्ला के सुझाव से असहमति जता रहे है

अरुण जेटली]

जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने हाल ही में सुझाव दिया है कि सशस्त्र बल विशेषाधिकार अधिनियम 1958 यानी अफस्पा के प्रावधान को राज्य के कुछ क्षेत्रों से हटा दिया जाए। इस सुझाव से विवाद खड़ा हो गया है, क्योंकि सुरक्षा बल और रक्षा मंत्रालय का मानना है कि जम्मू-कश्मीर में इस अधिनियम को लागू करना बेहद जरूरी है। इसलिए इस कानून के प्रावधानों की पड़ताल और इन्हे राज्य में लागू करने की आवश्यकता का जायजा लेना जरूरी हो जाता है। दो दशक से अधिक समय से जम्मू-कश्मीर अशांत क्षेत्र बना हुआ है। यह सीमा पार आतंकवाद का शिकार रहा है। कुछ घरेलू समूहों ने भी जम्मू-कश्मीर के भारत के अभिन्न अंग के दर्जे पर विवाद खड़ा किया है। यह पूरे देश और राज्य प्रशासन का प्रयास होना चाहिए कि राज्य में शांति और स्थिरता कायम हो और प्रदेश की जनता को किसी भी प्रकार की हिंसा व उत्पीड़न से मुक्ति मिले। आतंकवाद और अलगाववादी हिंसा के खिलाफ राजनीतिक स्तर पर और सुरक्षा ढांचे की ओर से माकूल प्रतिक्रिया अपेक्षित है। सुरक्षा बलों की ओर से व्यक्त की जाने वाली प्रतिक्रिया रोजमर्रा के नागरिक जीवन को प्रभावित कर सकती है, किंतु यह सख्ती जरूरी है। अगर सुरक्षा बलों के स्तर पर किसी भी तरह की ढिलाई बरती जाती है तो इसका अनिवार्य परिणाम यह होगा कि हिंसक और अलगाववादी गतिविधियों पर अंकुश नहीं लग पाएगा।

राज्य पुलिस के अलावा संघ के सशस्त्र बल भी प्रशासन को सहायता प्रदान करते है। सशस्त्र बलों का मतलब केवल सेना से ही नहीं है, बल्कि इनमें सीमा सुरक्षा बल, सीआरपीएफ, असम राइफल्स और आइटीबीपी जैसे संघ के कुछ अन्य सशस्त्र बल भी शामिल है। जैसे ही किसी राज्य का समस्त भाग या फिर इसका कुछ हिस्सा अशांत घोषित किया जाता है, राज्य में शांति और व्यवस्था बनाए रखने को नागरिक प्रशासन और पुलिस की सहायता के लिए सशस्त्र बलों को बुला लिया जाता है।

सशस्त्र बल अपराध की जांच नहीं करते। उनके जवान सार्वजनिक व्यवस्था बनाए रखने के लिए जरूरी कदम उठाने और इसमें बाधा पहुंचाने वालों को चेतावनी देने के बाद ही बल प्रयोग के लिए अधिकृत है। वे किसी भी परिसर में जाकर तलाशी ले सकते है। वे किसी भी ऐसे भवन को ध्वस्त कर सकते है जहां से सशस्त्र हमले किया जा रहे हों। उन्हे किसी भी व्यक्ति को बिना वारंट गिरफ्तार करने का अधिकार है और ये गिरफ्तार किए गए व्यक्ति को नजदीकी पुलिस स्टेशन भी ले जा सकते है। इस प्रकार, किसी क्षेत्र को अशांत घोषित करने से आशय है कि सरकार यह मानती है कि नागरिक प्रशासन और स्थानीय पुलिस राज्य में कानून एवं व्यवस्था को कायम रख पाने में असमर्थ हैं। अगर केवल स्थानीय पुलिस ही राज्य में कानून एवं व्यवस्था कायम रखने में सक्षम नजर आती तो उस क्षेत्र को अशांत क्षेत्र घोषित करने की आवश्यकता ही नहीं पड़ती। इसलिए किसी राज्य अथवा उसके किसी विशेष भाग का अशांत दर्जा जारी रखने या न रखने का फैसला सुरक्षा पहलुओं पर गौर करके लिया जाता है, न कि राजनीतिक आग्रहों के कारण। उन जिलों में भी जहां से सेना वापस बुला ली गई है, सीआरपीएफ और अन्य सशस्त्र बल तैनात है। यह एक सच्चाई है कि इन जिलों में स्थानीय पुलिस कानून एवं व्यवस्था की स्थिति को संभालने तथा अलगाववादी तत्वों के मंसूबे ध्वस्त करने में पूरी तरह सक्षम नहीं है। इस संदर्भ में हम इसकी भी अनदेखी नहीं कर सकते कि केंद्र के सशस्त्र बलों को जो शक्तियां दी गई है वे स्थानीय पुलिस को मिली शक्तियों से अधिक भिन्न नहीं है। स्थानीय पुलिस को भी कानून एवं व्यवस्था बनाए रखने के लिए गिरफ्तारी और तलाशी का अधिकार है। शांति और सौहा‌र्द्र बनाए रखने के लिए पुलिस भी उपयुक्त शक्तियों का इस्तेमाल कर सकती है। वह भी किसी ऐसे भवन को ध्वस्त कर सकती है, जिसका इस्तेमाल हिंसक समूह द्वारा सशस्त्र हमला करने में किया जा रहा हो।

केंद्रीय सशस्त्र बलों को इस कानून के जरिए?एकमात्र सुरक्षा यह प्रदान की गई है कि इसके तहत कार्य करने वाले किसी भी सुरक्षाकर्मी के खिलाफ केंद्रीय सरकार की अनुमति के बगैर कोई भी कानूनी या प्रशासनिक कार्रवाई नहीं की जा सकती। पिछले साल जब सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल के साथ मैं जम्मू-कश्मीर के दौरे पर पहुंचा था तो मुझे बताया गया था कि केंद्र सरकार के पास सशस्त्र बलों के खिलाफ ढाई हजार से अधिक शिकायतें लंबित पड़ी है। इस प्रकार यह कहने में संकोच नहीं कि यह अधिनियम सुरक्षा बलों के जवानों को यह कवच प्रदान करता है कि केंद्रीय सरकार की अनुमति के बगैर उनके खिलाफ कार्रवाई नहीं की जा सकती, लेकिन केवल इस आधार पर यह नहीं माना जा सकता कि इसका दुरुपयोग हो रहा है। अगर यह सुरक्षा हटा ली जाती है तो राजनीतिक निहित स्वार्थो के कारण अ‌र्द्धसैनिक बलों और सशस्त्र बलों के जवानों के खिलाफ अनेक मामले दर्ज कर लिए जाएंगे। जाहिर है, इससे इन सुरक्षा बलों के जवानों का अलगाववादी समूहों के खिलाफ कार्रवाई करने का मनोबल टूट जाएगा। जब सुरक्षा बल इस कानून के प्रावधानों को जम्मू कश्मीर से हटाने के पक्ष में नहीं है तो राजनीतिक निहित स्वार्थो के कारण इस दलील को स्वीकारने के खतरनाक नतीजे निकलेंगे कि इस कानून को केवल कुछ भागों तक ही सीमित कर देना चाहिए।

हमें उम्मीद करनी चाहिए कि भविष्य में प्रदेश में ऐसे हालात बनें कि इस अफस्पा को लागू करने की जरूरत ही न पड़े या फिर यह भी हो सकता है कि इसे कुछ भागों में ही लागू किया जाए। जहां तक मौजूदा समय की बात है तो अभी ऐसे हालात नहीं है। इस कानून को हटाने के बाद कानून एवं व्यवस्था कायम रखने की जिम्मेदारी केवल केवल स्थानीय पुलिस के कंधों पर आ जाएगी जिससे इन क्षेत्रों में अलगाववादी और हिंसक समूह अपनी गतिविधियां तेज कर देंगे। इस प्रकार, जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री के लिए राजनीतिक रूप से यह अधिक विवेकपूर्ण होगा कि ऐसे समय सशस्त्र बल विशेषाधिकार अधिनियम पर बहस न छेड़े जब हालात इस कानून को लागू रखना जरूरी बता रहे है।

[लेखक: राज्यसभा में नेता प्रतिपक्ष है]

Think about it!

Think about it!

If you cross the The North Korean border illegally, you get .....
12 years hard labour in an isolated prison .....

If you cross the Iranian
border illegally, you get .....
detained indefinitely .....

If you cross the Afghan border illegally, you get ..... shot ......

If you cross the Saudi Arabian border illegally, you get ...... jailed ......

If you cross the Chinese border illegally, you get ..... kidnapped and
may be never heard of - again ....

If you cross the Venezuelan border illegally, you get ..... branded as a spy and your fate sealed .....
.
If you cross the Cuban border illegally, you get ..... thrown into a political prison to rot .....

If you cross the British border illegally, you get ..... arrested, prosecuted, sent to prison and be deported after serving your sentence .....

if you were to cross the Indian border illegally, you get .....

1. A ration card
2. A passport ( even more than one - if you please ! )
3. A driver's license
4. A voter identity card
5. Credit cards
6. A Haj subsidy
7. Job reservation
8. Special privileges for minorities
9. Government housing on subsidized rent
10. Loan to buy a house
11. Free education
12. Free health care
13. A lobbyist in New Delhi , with a bunch of media morons and a bigger bunch of human rights activists promoting your cause
14. The right to talk about secularism, which you have not heard about in your own country !
15. And of-course ..... voting rights to elect corrupt politicians who will promote your community for their selfish interest in securing your votes
16. and right to fight election for MLA or MP Hats off ..... to the ......

*Corrupt and communal Indian politicians

*The inefficient and corrupt Indian police force

*The silly pseudo-secularists in India , who promote traitors staying here.

*The amazingly lenient Indian courts and legal system. That's why people like Afzal Guru are still alive, same will happen with Kasab.

*WE self centered Indian citizens, who are not bothered about the dangers to our own country.

*The illogically brainless human-rights activists, who think that terrorists deserve to be dealt with by archaic laws meant for an era, when human beings were human beings.

THE MINIMUM U CAN DO IS FORWARD THIS TO ALL --

शनिवार, अक्तूबर 29, 2011

सोनिया के सिब्बल यानि ठाकुर का भैंसा

सोनिया के सिब्बल यानि ठाकुर का भैंसा


विजेंदर त्यागीएक पत्रकार सम्मेलन में मैंने जब तत्कालीन पट्रोलियम मंत्री सतीश शर्मा से पूछा, मंत्री जी आजकल पेट्रोल पम्प और गैस की एजेन्सी पर कितना प्रीमियम चल रहा है? क्योंकि अंग्रेजी भाषा में छपने वाले बिजनेस संबंधित समाचार पत्रों में प्रीमियम शब्द का वर्णन होता है। मैंने आग्रह किया कि आप निःसंकोच होकर बताइये, यहां तो सभी अपने लोग हैं।

यह बात सुनकर मंत्री महोदय इतने आग बबूला हो गये कि उन्होंने खड़े होकर मेज पर मुक्का मारा और कहा कि आप मुझ पर गैस की एजेंसी और पेट्रोल पम्पों के आबंटन में पैसा ले रहा हूं, आरोप लगा रहे हैं। मैं आपको जवाब नहीं दूंगा। मंत्री महोदय का चेहरा लाल हो गया था। शायद उनको हाई ब्लड प्रेशर की बीमारी थी। इस बात पर पत्रकारों ने ठहाका लगाकर कहा आज मजा आयेगा, आज यहां पर त्यागी जी हैं। ऐसे सवाल वही कर सकते हैं। पत्रकार सम्मेलन के पश्चात खाने के समय मंत्रालय के अतिरिक्त सचिव देवी दयाल जी ने आकर मुझसे कहा, आपने मंत्री जी को इतना परेशान कर दिया। अगर ब्लड प्रेशर के कारण वह जमीन पर गिर जाते तो आज गड़बड़ हो जाती। मैंने देवी दयाल जी से कहा, साहब आप नहीं जानते इनकी मोटी चमड़ी है। कहीं गिरने वाले नहीं थे। यह बात दूसरी है कि बाद में पेट्रोल पम्पों और गैस की एजेन्सियों के आबंटन में उन पर कोर्ट ने 50 लाख के करीब जुर्माना किया था।

इसी प्रकार का प्रकरण पत्र सूचना कार्यालय के सभागार में दिखा जब किसी पत्रकार नें सांइस टेक्नोलॉजी मंत्री कपिल सिब्बल से जब सवाल किया तो वह इतना आग बबूला हो गये कि उन्होंने उस पत्रकार को धमकी दी और उसे पत्रकार सम्मेलन से चले जाने का आदेश दे दिया। मंत्री महोदय का चेहरा उक्त पूर्व मंत्री की भांति लाल हो गया था। वह भी आपा खो बैठे थे। क्योकि इनके तार भी सोनिया गांधी से जुड़े हुए थे। मैंने आपात काल यानी इमरजेंसी में एक कविता पढ़ी थी। ''झूमत झूमत चलत है ठकुरा का भैंसा''। कविता भोजपुरी भाषा में थी। कविता का सारांश था कि ठाकुर का भैंसा ठुमक-ठुमक कर चलता है। वह चले भी क्यों नहीं क्योंकि वह तो ठाकुर साहब का भैंसा है। अगर किसी ने ठाकुर साहब के भैंसे को रोका तो ठाकुर साहब के लोग या उनके लठैत उस व्यक्ति को पीट-पीट कर अधमरा बना देंगे। यही दशा आज कल सोनिया गांधी के करीबी कपिल सिब्बल की है।

कपिल सिब्बल पत्रकार सम्मेलन के पश्चात जब जाने लगे तो हिन्दू समाचार पत्र के पत्रकार राजन पद्मानाभन ने मंत्री महोदय से रोक कर पूछा कि मंत्री जी आप यह बताइये कि आप पत्रकारों को इस प्रकार धमकी देकर बात करते हैं, आप समझते हैं कि पत्रकार आपके घरेलू नौकर हैं क्या? आपको पत्रकारों के साथ ऐसा व्यवहार करने का अधिकार किसने दे दिया? आप अपने ऊपर काबू क्यों नहीं रखते। सुन्दर राजन पद्मानाभन का यह कहना था कि फिर तो पत्रकारों से मंत्री महोदय को अपना पीछा छुड़ाना मुश्किल हो गया था। मंत्री महोदय ने सभी पत्रकारों से माफी मांगी और पत्रकार से अपनी टिप्पणी पर नाटकीय खेद व्यक्त किया। मंत्री महोदय फिर अपना मुंह लटकाए पत्रकार सम्मेलन के पश्चात वहां से चले गये थे। पत्रकार तो ऐसे मंत्रियों को वर्षों से देखते आये हैं। मंत्री तो आते-जाते रहते हैं क्योंकि यह तो टेम्परेरी होते हैं।

नेहरू या कथित गांधी परिवार से जो लोग जुड़ते हैं, उन सभी को अपने ऊपर ओवर कांफिडेंस हो जाता है। कपिल सिब्बल साहब के पिता जी पंजाब सरकार के 17 वर्षों तक सोलिसीटर जनरल रहे हैं यानी सरकारी वकील। उन्हें नर्सिंग दास सिब्बल के नाम से जाना जाता था। वह जहां रहते थे वहीं पर एक नर्सिंग होस्टल था। लोग तो जाने क्या-क्या बातें करते हैं कि वह किस प्रकार जजों की सेवा सश्रुषा करते थे। इसलिए सरकार और जजों के इतने दिनों तक चेहेते रहे। यह तो एक शोध का विषय है। क्योंकि वह तो अब दुनिया में नहीं है अगर कोई कुछ उनके कुछ राज जानता है तो करीबी ही बता सकता है।

दरअसल कपिल सिब्बल ने वकालत के सारे गुर अपने पिता से पढ़ते-पढ़ते और उनके आचरण से सीख लिए थे। कपिल सिब्बल वकालत के पेशे में राष्ट्रीय जनता दल के अध्यक्ष लालू यादव के चारा घोटाला केस में उसके वकील बन कर उभरे। लालू यादव ने उन्हें राजनीति में एक अवसर दिया। उन्होंने कपिल सिब्बल को राज्य सभा का सदस्य पहली बार बनाया। राज्य सभा का सदस्य बनने के पश्चात अब कपिल सिब्बल ने राजनीति के गलियारों में अपनी पैठ बनानी शुरू कर दी थी। थोड़े दिनों के पश्चात कांग्रेस और लालू यादव का गठबंध्न हो गया था।

उधर कांग्रेस पार्टी के जो कानूनी सलाहकार थे, चाहे वह आर.के. आनंद हों, हंसराज भारद्वाज रहे हों उनकी पकड़ इतनी मजबूत नहीं थी जितनी कपिल सिब्बल की। उदाहरण के तौर पर अदालत में एक केस पीएन लेखी बनाम राजीव गांधी फाउंडेशन था, यह केस चलते-चलते लगभग 11 वर्ष हो गये थे, परन्तु 11 वर्षों में किसी भी जज ने राजीव गांधी पफाउंडेशन को एक बार भी कोई नोटिस अदालत की ओर से नहीं भेजा कि वह अदालत में आकर सूट जारी करने पर जवाब दे। केस दायर करने वालों में पी.एन. लेखी और रविन्द्र कुमार थे। पी.एन. लेखी की मृत्यु हो गई। अब मुख्य वकील की मृत्यु के पश्चात केस शुरू करने के लिए उन्हें अपने साथ दूसरे वकील या रविन्द्र कुमार को लें या चुप चाप बैठ जाएं। पिछले 11वर्षो में अभी तक कोई नोटिस सर्व नहीं हुआ तो दोबारा अब केस शुरू किया तो सफलता मिलेगी या नहीं। इसलिए दोबारा केस नहीं किया। अदालत ने केस को खत्म कर दिया।

इस केस में राजीव गांधी फाउंडेशन की ओर से कपिल सिब्बल पैरोकारी करते थे। इसी केस के बाद सोनिया गांधी और कपिल सिब्बल की नजदीकियां बढ़ीं क्योंकि आर.के. आंनद और सरकारी वकील खान को बीएमडब्लू केस में बातचीत के अंश जब टेलीविजन पर दिखाए गये थे तो आर.के. आनंद को मुंह की खानी पड़ी थी। इसी प्रकार दूसरे वकील हंसराज भारद्वाज भी एक्सपोज हो गये थे। उन्होंने भी एक केस में गलत एफीडेविड जमा करवा दिया था। इस कारण से कांग्रेस पार्टी और सोनिया गांधी की किरकिरी हुई थी। हंसराज भारद्वाज को न्याय एवं कानून मंत्री पद से हटाकर कर्नाटक का राज्यपाल बना दिया गया था। हंसराज भारद्वाज ने एक बार एक टेप हुई वार्ता में कहा था, हम सोनिया गांधी को बत्ती लगा देंगे।

अटल विहारी वाजपेयी की एनडीए सरकार की चुनावी हार के पश्चात जब कांग्रेसी सरकार बनाने के लिए संसद के केन्द्रीय कक्ष में सोनिया गांधी को नेता चुन लिया गया था। परन्तु राष्ट्रपति अब्दुल कलाम ने उन्हें प्रधानमंत्री पद की शपथ दिलाने और अपना मंत्रिमंडल गठन करने की इजाजत नहीं दी थी। क्योंकि सोनिया गांधी उस दिन पहले 11 बजे राष्ट्रपति से मिली थी। कारण चाहे जो रहे हों राष्ट्रपति ने उन्हें प्रधनमंत्री पद की शपथ दिलाने से मना कर दिया था। तत्पश्चात सोनिया की जगह मनमोहन सिंह को नेता चुना गया। उसी क्रम में दूसरे दिन फिर कांग्रेसी संसदीय दल की बैठक हुई। इस बैठक से प्रेस और प्रेस फोटोग्राफरों को बाहर रखा गया था। कांग्रेस पार्टी के नीति निर्धारकों ने रातों रात साजिश के तहत जो ब्यूह रचना रची कि सोनिया गांधी की छवि को पर्दे पर कैसे उभारा जाए?

कांग्रेस के नेता पद के लिए जो दूसरे दिन बैठक हुई उस बैठक में 100 पत्रकारों पर भले ही पाबन्दी हो परन्तु उस बैठक की कवरेज अभी टीवी चैनल सहारा टाइम्स पर मैंने देखी है। जिसमें नेता पद की कुर्सी के लिए सोनिया गांधी यह कहती दिखाई दी हैं कि आप लोग अपना कोई दूसरा नेता चुनो इस पर कपिल सिब्बल खड़े होकर टीवी के दृश्य में कह रहे हैं। मैडम हम आपके सिवा किसी को भी नेता नहीं मानते हैं और न ही हम किसी और को नेता बनने देंगे। पता नहीं सोनिया गांधी के विदूषक के रूप में न जाने वहां क्या-क्या कहा? कांग्रेस में जो पहले से नेता चले आ रहे थे उनमें से किसी पर भी सोनिया गांधी का विश्वास नहीं था। इसलिए अमेरिका परस्त घरेलू बिना जनाधर वाले दरबारी मनमोहन सिंह को उन्होंने प्रधनमंत्री पद के लिए चुनवा दिया। तदोपरांत सोनिया गांधी के नाम के नगाड़े बजाए गये कि वह महान त्यागी हैं, उन्होंने प्रधनमंत्री पद का त्याग कर दिया। त्यागी, त्यागी होता है महात्यागी कोई नहीं होता। पौराणिक कथाओं के अनुसार एक महात्यागी दानी दधिचि हुए हैं जिन्होंने जीवित अवस्था में ही स्वयं की हड्डियों से इन्द्र के लिए वज्र (अस्त्र) राक्षसों को मारने के लिए बनवाया था। सोनिया गांधी के नेता पद से इनकार करने पर चमचागीरी में कपिल सिब्बल अग्रणी थे फिर उन्होंने मनमोहन सिंह को कैसे नेता स्वीकार कर लिया क्योंकि वह सोनिया गांधी की नजरों में उसी दिन से चढ़ गये थे।

कपिल सिब्बल का शातिर दिमाग, चेहरे पर आकर्षण, कानून की बारीकियों को पहचानने की क्षमता, सुप्रीमकोर्ट और हाईकोर्ट में जजों के साथ रिश्‍तों के कारण कैसे उन्हें सम्बोधित करते हैं और उन्हें सभी प्रकार से खुश करने की कला पैतृक गुणों से मिली है। जिसके कारण उन्हें सोनिया गांधी के सबसे करीबी स्थान पर लाकर खड़ा कर दिया। राजीव गांधी फाउंडेशन पर दायर वाद में 11 साल तक किसी भी जज द्वारा आज तक कोई भी नोटिस सर्व नहीं करने दिया गया। यह क्षमता देश के किसी भी एडवोकेट में नहीं थी जो कपिल सिब्बल ने सोनिया गांधी की नजरों में चढ़ने के लिए कर दिखाया। पूरा देश, प्रशासन, वित्त विभाग, इन्फोर्समेन्ट डाइरेक्ट्रेट कह रहा है कि 2जी स्पेक्ट्रम में अनियमिताएं हुई हैं। परन्तु कपिल सिब्बल कह रहे हैं कि कोई घपला नहीं हुआ क्योंकि मनमोहन सिंह नाम के लिए भले ही प्रधानमंत्री हों परन्तु रिमोट तो सोनिया गांधी के पास है। उन्हें तो हर कीमत पर सरकार चलानी है। देश चाहे रहे, चाहे जाए।

अब कपिल सिब्बल चाहे अपनी गाजियाबाद की फैक्टरी से विदेशी बाजारों के लिए भले ही मीट (जानवरों का गोश्त) सप्लाई करें, चाहे शिक्षा में सुधार के नाम पर अथवा प्राइवेट यूनीवर्सिटी बनवाने के नाम पर शिक्षा व्यवस्था को बर्बाद करके चाहे जो कुछ भी करें। ए.राजा नाम के मंत्री से संचार मंत्रालय छीन जाने पर कपिल सिब्बल को ही इस विभाग का अतिरिक्त चार्ज सोनिया गांधी की ही मेहरबानियों का नतीजा है। कपिल सिब्बल की वजह से ही नीरा राडिया सीबीआई को अन्य अभियुक्तों को बचाने के लिए बयान दे रही हैं जबकि ईडी को पता है कि राडिया के सम्बन्ध पाक समर्थक हिजबुल मुजाहिद्दीन नामक संगठन के आतंकी सलाऊद्दीन से हैं। इस सलाऊद्दीन का नाम आते ही साऊथ ब्लॉक में नेताओं की सीटियां बजने लगती हैं।

लेखक विजेंदर त्यागी देश के जाने-माने फोटोजर्नलिस्ट हैं. पिछले चालीस साल से बतौर फोटोजर्नलिस्ट विभिन्न मीडिया संगठनों के लिए कार्यरत रहे. कई वर्षों तक फ्रीलांस फोटोजर्नलिस्ट के रूप में काम किया और आजकल ये अपनी कंपनी ब्लैक स्टार के बैनर तले फोटोजर्नलिस्ट के रूप में सक्रिय हैं. ''The legend and the legacy : Jawaharlal Nehru to Rahul Gandhi'' नामक किताब के लेखक भी हैं विजेंदर त्यागी. यूपी के सहारनपुर जिले में पैदा हुए विजेंदर मेरठ विवि से बीए करने के बाद फोटोजर्नलिस्ट के रूप में सक्रिय हुए. वर्ष 1980 में हुए मुरादाबाद दंगे की एक ऐसी तस्वीर उन्होंने खींची जिसके असली भारत में छपने के बाद पूरे देश में बवाल मच गया. तस्वीर में कुछ सूअर एक मृत मनुष्य के शरीर के हिस्से को खा रहे थे. असली भारत के प्रकाशक व संपादक गिरफ्तार कर लिए गए और खुद विजेंदर त्यागी को कई सप्ताह तक अंडरग्राउंड रहना पड़ा. विजेंदर त्यागी को यह गौरव हासिल है कि उन्होंने जवाहरलाल नेहरू से लेकर अभी के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की तस्वीरें खींची हैं. वे एशिया वीक, इंडिया एब्राड, ट्रिब्यून, पायनियर, डेक्कन हेराल्ड, संडे ब्लिट्ज, करेंट वीकली, अमर उजाला, हिंदू जैसे अखबारों पत्र पत्रिकाओं के लिए काम कर चुके हैं. विजेंदर त्यागी से संपर्क 09810866574 के जरिए किया जा सकता है। भड़ास4मीडिया

शुक्रवार, अक्तूबर 28, 2011

नेहरू की भयंकर भूलें

Uma Kant Misra
नेहरू की भयंकर भूलें
जब षड्यंत्रों से बात नहीं बनी तो पाकिस्तान ने बल प्रयोग द्वारा कश्मीर को हथियाने की कोशिश की तथा २२ अक्तूबर, १९४७ को सेना के साथ कबाइलियों ने मुजफ्फराबाद की ओर कूच किया। लेकिन कश्मीर के नए प्रधानमंत्री मेहरचन्द्र महाजन के बार-बार सहायता के अनुरोध पर भी भारत सरकार उदासीन रही। भारत सरकार के गुप्तचर विभाग ने भी इस सन्दर्भ में कोई पूर्व जानकारी नहीं दी। कश्मीर के ब्रिगेडियर राजेन्द्र सिंह ने बिना वर्दी के २५० जवानों के साथ पाकिस्तान की सेना को रोकने की कोशिश की तथा वे सभी वीरगति को प्राप्त हुए। आखिर २४ अक्तूबर को माउन्टबेटन ने "सुरक्षा कमेटी" की बैठक की। परन्तु बैठक में महाराजा को किसी भी प्रकार की सहायता देने का निर्णय नहीं किया गया। २६ अक्तूबर को पुन: कमेटी की बैठक हुई। अध्यक्ष माउन्टबेटन अब भी महाराजा के हस्ताक्षर सहित विलय प्राप्त न होने तक किसी सहायता के पक्ष में नहीं थे। आखिरकार २६ अक्तूबर को सरदार पटेल ने अपने सचिव वी.पी. मेनन को महाराजा के हस्ताक्षर युक्त विलय दस्तावेज लाने को कहा। सरदार पटेल स्वयं वापसी में वी.पी. मेनन से मिलने हवाई अड्डे पहुंचे। विलय पत्र मिलने के बाद २७ अक्तूबर को हवाई जहाज द्वारा श्रीनगर में भारतीय सेना भेजी गई।

'दूसरे, जब भारत की विजय-वाहिनी सेनाएं कबाइलियों को खदेड़ रही थीं। सात नवम्बर को बारहमूला कबाइलियों से खाली करा लिया गया था परन्तु पं. नेहरू ने शेख अब्दुल्ला की सलाह पर तुरन्त युद्ध विराम कर दिया। परिणामस्वरूप कश्मीर का एक तिहाई भाग जिसमें मुजफ्फराबाद, पुंछ, मीरपुर, गिलागित आदि क्षेत्र आते हैं, पाकिस्तान के पास रह गए, जो आज भी "आजाद कश्मीर" के नाम से पुकारे जाते हैं।

तीसरे, माउन्टबेटन की सलाह पर पं. नेहरू एक जनवरी, १९४८ को कश्मीर का मामला संयुक्त राष्ट्र संघ की सुरक्षा परिषद् में ले गए। सम्भवत: इसके द्वारा वे विश्व के सामने अपनी ईमानदारी छवि का प्रदर्शन करना चाहते थे तथा विश्वव्यापी प्रतिष्ठा प्राप्त करना चाहते थे। पर यह प्रश्न विश्व पंचायत में युद्ध का मुद्दा बन गया।

चौथी भयंकर भूल पं. नेहरू ने तब की जबकि देश के अनेक नेताआें के विरोध के बाद भी, शेख अब्दुल्ला की सलाह पर भारतीय संविधान में धारा ३७० जुड़ गई। न्यायाधीश डी.डी. बसु ने इस धारा को असंवैधानिक तथा राजनीति से प्रेरित बतलाया। डा. भीमराव अम्बेडकर ने इसका विरोध किया तथा स्वयं इस धारा को जोड़ने से मना कर दिया। इस पर प्रधानमंत्री पं. नेहरू ने रियासत राज्यमंत्री गोपाल स्वामी आयंगर द्वारा १७ अक्तूबर, १९४९ को यह प्रस्ताव रखवाया। इसमें कश्मीर के लिए अलग संविधान को स्वीकृति दी गई जिसमें भारत का कोई भी कानून यहां की विधानसभा द्वारा पारित होने तक लागू नहीं होगा। दूसरे शब्दों में दो संविधान, दो प्रधान तथा दो निशान को मान्यता दी गई। कश्मीर जाने के लिए परमिट की अनिवार्यता की गई। शेख अब्दुल्ला कश्मीर के प्रधानमंत्री बने। वस्तुत: इस धारा के जोड़ने से बढ़कर दूसरी कोई भयंकर गलती हो नहीं सकती थी।

पांचवीं भयंकर भूल शेख अब्दुल्ला को कश्मीर का "प्रधानमंत्री" बनाकर की। उसी काल में देश के महान राजनेता डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने दो विधान,, दो प्रधान, दो निशान के विरुद्ध देशव्यापी आन्दोलन किया। वे परमिट व्यवस्था को तोड़कर श्रीनगर गए जहां जेल में उनकी हत्या कर दी गई। पं. नेहरू को अपनी गलती का अहसास हुआ, पर बहुत देर से। शेख अब्दुल्ला को कारागार में डाल दिया गया लेकिन पं. नेहरू ने अपनी मृत्यु से पूर्व अप्रैल, १९६४ में उन्हें पुन: रिहा कर दिया।

गुरुवार, अक्तूबर 27, 2011

क्या कभी किसी ने सोचा है की इतिहास के नाम पर हम झूठ क्यों पढ़ रहे है??

Rahul Arya
क्या कभी किसी ने सोचा है की इतिहास के नाम पर हम झूठ क्यों पढ़ रहे है?? सारे प्रमाण होते हुए भी झूठ को सच क्यों बनाया जा रहा है?? हम हिंदुओं की बुधि की आज ऐसी दशा हो गयी है की अगर एक आदमी की पीठ मे खंजर मार कर हत्या कर दी गयी हो और उसको आत्महत्या घोषित कर दिया जाए तो कोई भी ये भी सोचने का प्रयास नही करेगा की कोई आदमी खुद की पीठ मे खंजर कैसे मार सकता है....यही हाल है हम सब का की सच देख कर भी झूठ को सच माना फ़ितरत बना ली है हमने.....

***दिल्ली का लाल किला शाहजहाँ से भी कई शताब्दी पहले प्रथवीराज चौहान द्वारा बनवाया हुवा लाल कोट है*** जिसको शाहजहाँ ने पूरी तरह से नष्ट करने की असफल कोशिश करी थी ताकि वो उसके द्वारा बनाया साबित हो सके..लेकिन सच सामने आ ही जाता है.

*इसके पूरे साक्ष्या प्रथवीराज रासो से मिलते है

*शाहजहाँ से २५० वर्ष पहले १३९८ मे तैमूर लंग ने पुरानी दिल्ली का उल्लेख करा है (जो की शाहजहाँ द्वारा बसाई बताई जाती है)

*सुवार (वराह) के मूह वेल चार नल अभी भी लाल किले के एक खास महल मे लगे है. क्या ये शाहजहाँ के इस्लाम का प्रतीक चिन्ह है या हमारे हिंदुटवा के प्रमाण??

*किले के एक द्वार पर बाहर हाथी की मूर्ति अंकित है राजपूत राजा लोग गजो( हाथियों ) के प्रति अपने प्रेम के लिए विख्यात थे ( इस्लाम मूर्ति का विरोध करता है)

* दीवाने खास मे केसर कुंड नाम से कुंड बना है जिसके फर्श पर हिंदुओं मे पूज्य कमल पुष्प अंकित है, केसर कुंड हिंदू शब्दावली है जो की हमारे राजाओ द्वारा केसर जल से भरे स्नान कुंड के लिए प्रयुक्त होती रही है

* मुस्लिमों के प्रिय गुंबद या मीनार का कोई भी अस्तित्वा नही है दीवानेकहास और दीवाने आम मे.

*दीवानेकहा स के ही निकट राज की न्याय तुला अंकित है , अपनी प्रजा मे से ९९% भाग को नीच समझने वाला मुगल कभी भी न्याय तुला की कल्पना भी नही कर सकता, ब्राह्मानो द्वारा उपदेषित राजपूत राजाओ की न्याय तुला चित्र से प्रेरणा लेकर न्याय करना हमारे इतिहास मे प्रसीध है

*दीवाने ख़ास और दीवाने आम की मंडप शैली पूरी तरह से 984 के अंबर के भीतरी महल (आमेर--पुर ाना जयपुर) से मिलती है जो की राजपूताना शैली मे बना हुवा है

*लाल किले से कुछ ही गज की दूरी पर बने देवालेय जिनमे से एक लाल जैन मंदिर और दूसरा गौरीशंकार मंदिर दोनो ही गैर मुस्लिम है जो की शाहजहाँ से कई शताब्दी पहले राजपूत राजाओं ने बनवाए हुए है.

*लाल किले का मुख्या बाजार चाँदनी चौक केवल हिंदुओं से घिरा हुवा है, समस्त पुरानी दिल्ली मे अधिकतर आबादी हिंदुओं की ही है, सनलिष्ट और घूमाओदार शैली के मकान भी हिंदू शैली के ही है ..क्या शाजहाँ जैसा धर्मांध व्यक्ति अपने किले के आसपास अरबी, फ़ारसी, तुर्क, अफ़गानी के बजे हम हिंदुओं के लिए मकान बनवा कर हमको अपने पास बसाता ???

*एक भी इस्लामी शिलालेख मे लाल किले का वर्णन नही है

*""गर फ़िरदौस बरुरुए ज़मीं अस्त, हमीं अस्ता, हमीं अस्ता, हमीं अस्ता""--अ र्थात इस धरती पे अगर कहीं स्वर्ग है तो यही है, यही है, यही है....इस अनाम शिलालेख को कभी भी किसी भवन का निर्मांकर् ता नही लिखवा सकता ..और ना ही ये किसी के निर्मांकर् ता होने का सबूत देता है

इसके अलावा अनेकों ऐसे प्रमाण है जो की इसके लाल कोट होने का प्रमाण देते है, और ऐसे ही हिंदू राजाओ के सारे प्रमाण नष्ट करके हिंदुओं का नाम ही इतिहास से हटा दिया गया है, अगर हिंदू नाम आता है तो केवल नष्ट होने वाले शिकार के रूप मे......ता कि हम हमेशा ही अहिंसा और शांति का पाठ पढ़ कर इस झूठे इतिहास से प्रेरणा ले सके...सही है ना???..लेक िन कब तक अपने धर्म को ख़तम करने वालो की पूजा करते रहोगे और खुद के सम्मान को बचाने वाले महान हिंदू शासकों के नाम भुलाते रहोगे..ऐसे ही....???? ???

शनिवार, अक्तूबर 22, 2011

सेकुलर की लडकिया क्या हरम की शौकीन है???

हिन्दू मुस्लिम प्रेम विवाह एक चाल है

मेरी पिछली पोस्ट “क्या लव जेहादी अधिक सक्रिय हो गये हैं…” के जवाब में मुझे कई टिप्पणियाँ प्राप्त हुईं और उससे भी अधिक ई-मेल प्राप्त हुए। जहाँ एक ओर बेनामियों (फ़र्जी नामधारियों) ने मुझे मानसिक चिकित्सक से मिलने की सलाह दे डाली, वहीं दूसरी ओर मेरी कुछ महिला पाठकों ने ई-मेल पर कहा कि मुस्लिम लड़के और हिन्दू लड़की के बारे में मेरी इस तरह की सोच “Radical” (कट्टर) और Communal (साम्प्रदायिक) है। ज़ाहिर है कि इस प्रकार की टिप्पणियाँ और ई-मेल प्राप्त होना एक सामान्य बात है। फ़िर भी मैंने “लव-जेहाद की अवधारणा” तथा “प्रेमी जोड़ों” द्वारा धर्म से ऊपर उठने, अमन-शान्ति की बातें करने आदि की तथाकथित हवाई और किताबी बातों का विश्लेषण करने और इतिहास में झाँकने की कोशिश की, तो ऐसे कई उदाहरण मिले जिसमें मेरी इस सोच को और बल मिला कि भले ही “लव जेहाद” नामक कोई अवधारणा स्पष्ट रूप से परिभाषित न हो, लेकिन हिन्दू-मुस्लिम के बीच प्यार-मुहब्बत के इस “खेल” में अक्सर मामला या तो इस्लाम की तरफ़ “वन-वे-ट्रैफ़िक” जैसा होता है, अथवा कोई “लम्पट” हिन्दू व्यक्ति अपनी यौन-पिपासा शान्त करने अथवा किसी लड़की को कैसे भी हो, पाने के लिये इस्लाम का सहारा लेते हैं। वन-वे ट्रैफ़िक का मतलब, यदि लड़का मुस्लिम है और लड़की हिन्दू है तो लड़की इस्लाम स्वीकार करेगी (चाहे नवाब पटौदी और शर्मिला टैगोर उर्फ़ आयेशा सुल्ताना हों अथवा फ़िरोज़ घांदी और इन्दिरा उर्फ़ मैमूना बेगम हों), लेकिन यदि लड़की मुस्लिम है और लड़का हिन्दू है, तो लड़के को ही इस्लाम स्वीकार करना पड़ेगा (चाहे वह कम्युनिस्ट इन्द्रजीत गुप्त हों या गायक सुमन चट्टोपाध्याय)… ऊपर मैंने कुछ प्रसिद्ध लोगों के नाम लिये हैं जिनका समाज में उच्च स्थान “माना जाता है”, और ऐसे सेलेब्रिटी लोगों से ही युवा प्रेरणा लेते हैं, आईये देखें “लव जेहाद” के कुछ अन्य पुराने प्रकरण (आपके दुर्भाग्य से यह मेरी कल्पना पर आधारित नहीं हैं…सच्ची घटनाएं हैं)- (1) जेमिमा मार्सेल गोल्डस्मिथ और इमरान खान – ब्रिटेन के अरबपति सर जेम्स गोल्डस्मिथ की पुत्री (21), पाकिस्तानी क्रिकेटर इमरान खान (42) के प्रेमजाल में फ़ँसी, उससे 1995 में शादी की, इस्लाम अपनाया (नाम हाइका खान), उर्दू सीखी, पाकिस्तान गई, वहाँ की तहज़ीब के अनुसार ढलने की कोशिश की, दो बच्चे (सुलेमान और कासिम) पैदा किये… नतीजा क्या रहा… तलाक-तलाक-तलाक। अब अपने दो बच्चों के साथ वापस ब्रिटेन। फ़िर वही सवाल – क्या इमरान खान कम पढ़े-लिखे थे? या आधुनिक(?) नहीं थे? जब जेमिमा ने इतना “एडजस्ट” करने की कोशिश की तो क्या इमरान खान थोड़ा “एडजस्ट” नहीं कर सकते थे? (लेकिन “एडजस्ट” करने के लिये संस्कारों की भी आवश्यकता होती है)… (2) 24 परगना (पश्चिम बंगाल) के निवासी नागेश्वर दास की पुत्री सरस्वती (21) ने 1997 में अपने से उम्र में काफ़ी बड़े मोहम्मद मेराजुद्दीन से निकाह किया, इस्लाम अपनाया (नाम साबरा बेगम)। सिर्फ़ 6 साल का वैवाहिक जीवन और चार बच्चों के बाद मेराजुद्दीन ने उसे मौखिक तलाक दे दिया और अगले ही दिन कोलकाता हाइकोर्ट के तलाकनामे (No. 786/475/2003 दिनांक 2.12.03) को तलाक भी हो गया। अब पाठक खुद ही अन्दाज़ा लगा सकते हैं कि चार बच्चों के साथ घर से निकाली गई सरस्वती उर्फ़ साबरा बेगम का क्या हुआ होगा, न तो वह अपने पिता के घर जा सकती थी, न ही आत्महत्या कर सकती थी…अक्सर हिन्दुओं और बाकी विश्व को मूर्ख बनाने के लिये मुस्लिम और सेकुलर विद्वान(?) यह प्रचार करते हैं कि कम पढ़े-लिखे तबके में ही इस प्रकार की तलाक की घटनाएं होती हैं, जबकि हकीकत कुछ और ही है। क्या इमरान खान या नवाब पटौदी कम पढ़े-लिखे हैं? तो फ़िर नवाब पटौदी, रविन्द्रनाथ टैगोर के परिवार से रिश्ता रखने वाली शर्मिला से शादी करने के लिये इस्लाम छोड़कर, बंगाली क्यों नहीं बन गये? यदि उनके “सुपुत्र”(?) सैफ़ अली खान को अमृता सिंह से इतना ही प्यार था तो सैफ़, पंजाबी क्यों नहीं बन गया? अब इस उम्र में अमृता सिंह को बच्चों सहित बेसहारा छोड़कर करीना कपूर से इश्क की पींगें बढ़ा रहा है, और उसे भी इस्लाम अपनाने पर मजबूर करेगा, लेकिन खुद पंजाबी नहीं बनेगा (यही है असली मानसिकता…)। शेख अब्दुल्ला और उनके बेटे फ़ारुख अब्दुल्ला दोनों ने अंग्रेज लड़कियों से शादी की, ज़ाहिर है कि उन्हें इस्लाम में परिवर्तित करने के बाद, यदि वाकई ये लोग सेकुलर होते तो खुद ईसाई धर्म अपना लेते और अंग्रेज बन जाते…? और तो और आधुनिक जमाने में पैदा हुए इनके पोते यानी कि जम्मू-कश्मीर के वर्तमान मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने भी एक हिन्दू लड़की “पायल” से शादी की, लेकिन खुद हिन्दू नहीं बने, उसे मुसलमान बनाया, तात्पर्य यह कि “सेकुलरिज़्म” और “इस्लाम” का दूर-दूर तक आपस में कोई सम्बन्ध नहीं है और जो हमें दिखाया जाता है वह सिर्फ़ ढोंग-ढकोसला है। जैसे कि गाँधीजी की पुत्री का विवाह एक मुस्लिम से हुआ, सुब्रह्मण्यम स्वामी की पुत्री का निकाह विदेश सचिव सलमान हैदर के पुत्र से हुआ है, प्रख्यात बंगाली कवि नज़रुल इस्लाम, हुमायूं कबीर (पूर्व केन्द्रीय मंत्री) ने भी हिन्दू लड़कियों से शादी की, क्या इनमें से कोई भी हिन्दू बना? अज़हरुद्दीन भी अपनी मुस्लिम बीबी नौरीन को चार बच्चे पैदा करके छोड़ चुके और अब संगीता बिजलानी से निकाह कर लिया, उन्हें कोई अफ़सोस नहीं, कोई शिकन नहीं। ऊपर दिये गये उदाहरणों में अपनी बीवियों और बच्चों को छोड़कर दूसरी शादियाँ करने वालों में से कितने लोग अनपढ़ या कम पढ़े-लिखे हैं? तब इसमें शिक्षा-दीक्षा का कोई रोल कहाँ रहा? यह तो विशुद्ध लव-जेहाद है। इसीलिये कई बार मुझे लगता है कि सानिया मिर्ज़ा के शोएब के साथ पाकिस्तान जाने पर हायतौबा करने की जरूरत नहीं है, मुझे विश्वास है कि 2-4 बच्चे पैदा करने के बाद “रंगीला रसिया” शोएब मलिक उसे “छोड़” देगा और दुरदुराई हुई सानिया मिर्ज़ा अन्ततः वापस भारत में ही पनाह लेगी, और उस वक्त भी उससे सहानुभूति जताने में नारीवादी और सेकुलर संगठन ही सबसे आगे होंगे। वहीदा रहमान ने कमलजीत से शादी की, वह मुस्लिम बने, अरुण गोविल के भाई ने तबस्सुम से शादी की, मुस्लिम बने, डॉ ज़ाकिर हुसैन (पूर्व राष्ट्रपति) की लड़की ने एक हिन्दू से शादी की, वह भी मुस्लिम बना, एक अल्पख्यात अभिनेत्री किरण वैराले ने दिलीपकुमार के एक रिश्तेदार से शादी की और गायब हो गई। प्रख्यात (या कुख्यात) गाँधी-नेहरु परिवार के मुस्लिम इतिहास के बारे में तो सभी जानते हैं। ओपी मथाई की पुस्तक के अनुसार राजीव के जन्म के तुरन्त बाद इन्दिरा और फ़िरोज़ की अनबन हो गई थी और वह दोनों अलग-अलग रहने लगे थे। पुस्तक में इस बात का ज़िक्र है कि संजय (असली नाम संजीव) गाँधी, फ़िरोज़ की सन्तान नहीं थे। मथाई ने इशारों-इशारों में लिखा है कि मेनका-संजय की शादी तत्कालीन सांसद और वरिष्ठ कांग्रेस नेता मोहम्मद यूनुस के घर सम्पन्न हुई, तथा संजय गाँधी की मौत के बाद सबसे अधिक फ़ूट-फ़ूटकर रोने वाले मोहम्मद यूनुस ही थे। यहाँ तक कि मोहम्मद यूनुस ने खुद अपनी पुस्तक “Persons, Passions & Politics” में इस बात का जिक्र किया है कि संजय गाँधी का इस्लामिक रिवाजों के मुताबिक खतना किया गया था। इस कड़ी में सबसे आश्चर्यजनक नाम है भाकपा के वरिष्ठ नेता इन्द्रजीत गुप्त का। मेदिनीपुर से 37 वर्षों तक सांसद रहने वाले कम्युनिस्ट (जो धर्म को अफ़ीम मानते हैं), जिनकी शिक्षा-दीक्षा सेंट स्टीफ़ेंस कॉलेज दिल्ली तथा किंग्स कॉलेज केम्ब्रिज में हुई, 62 वर्ष की आयु में एक मुस्लिम महिला सुरैया से शादी करने के लिये मुसलमान (इफ़्तियार गनी) बन गये। सुरैया से इन्द्रजीत गुप्त काफ़ी लम्बे समय से प्रेम करते थे, और उन्होंने उसके पति अहमद अली (सामाजिक कार्यकर्ता नफ़ीसा अली के पिता) से उसके तलाक होने तक उसका इन्तज़ार किया। लेकिन इस समर्पणयुक्त प्यार का नतीजा वही रहा जो हमेशा होता है, जी हाँ, “वन-वे-ट्रेफ़िक”। सुरैया तो हिन्दू नहीं बनीं, उलटे धर्म को सतत कोसने वाले एक कम्युनिस्ट इन्द्रजीत गुप्त “इफ़्तियार गनी” जरूर बन गये। इसी प्रकार अच्छे खासे पढ़े-लिखे अहमद खान (एडवोकेट) ने अपने निकाह के 50 साल बाद अपनी पत्नी “शाहबानो” को 62 वर्ष की उम्र में तलाक दिया, जो 5 बच्चों की माँ थी… यहाँ भी वजह थी उनसे आयु में काफ़ी छोटी 20 वर्षीय लड़की (शायद कम आयु की लड़कियाँ भी एक कमजोरी हैं?)। इस केस ने समूचे भारत में मुस्लिम पर्सनल लॉ पर अच्छी-खासी बहस छेड़ी थी। शाहबानो को गुज़ारा भत्ता देने के लिये सुप्रीम कोर्ट की शरण लेनी पड़ी, सुप्रीम कोर्ट के निर्णय को राजीव गाँधी ने अपने असाधारण बहुमत के जरिये “वोटबैंक राजनीति” के चलते पलट दिया, मुल्लाओं को वरीयता तथा आरिफ़ मोहम्मद खान जैसे उदारवादी मुस्लिम को दरकिनार किया गया… तात्पर्य यही कि शिक्षा-दीक्षा या अधिक पढ़े-लिखे होने से भी कोई फ़र्क नहीं पड़ता, शरीयत और कुर-आन इनके लिये सर्वोपरि है, देश-समाज आदि सब बाद में…। (यदि इतना ही प्यार है तो “हिन्दू” क्यों नहीं बन गये? मैं यह बात इसलिये दोहरा रहा हूं, कि आखिर मुस्लिम बनाने की जिद क्यों? इसके जवाब में तर्क दिया जा सकता है कि हिन्दू कई समाजों-जातियों-उपजातियों में बँटा हुआ है, यदि कोई मुस्लिम हिन्दू बनता है तो उसे किस वर्ण में रखेंगे? हालांकि यह एक बहाना है क्योंकि इस्लाम के कथित विद्वान ज़ाकिर नाइक खुद फ़रमा चुके हैं कि इस्लाम “वन-वे ट्रेफ़िक” है, कोई इसमें आ तो सकता है, लेकिन इसमें से जा नहीं सकता…(यहाँ देखेंhttp://blog.sureshchiplunkar.com/2010/02/zakir-naik-islamic-propagandist-indian.html)। लेकिन चलो बहस के लिये मान भी लें, कि जाति-वर्ण के आधार पर आप हिन्दू नहीं बन सकते, लेकिन फ़िर सामने वाली लड़की या लड़के को मुस्लिम बनाने की जिद क्योंकर? क्या दोनो एक ही घर में अपने-अपने धर्म का पालन नहीं कर सकते? मुस्लिम बनना क्यों जरूरी है? और यही बात उनकी नीयत पर शक पैदा करती है) एक बात और है कि धर्म परिवर्तन के लिये आसान निशाना हमेशा होते हैं “हिन्दू”, जबकि ईसाईयों के मामले में ऐसा नहीं होता, एक उदाहरण और देखिये – पश्चिम बंगाल के एक गवर्नर थे ए एल डायस (अगस्त 1971 से नवम्बर 1979), उनकी लड़की लैला डायस, एक लव जेहादी ज़ाहिद अली के प्रेमपाश में फ़ँस गई, लैला डायस ने जाहिद से शादी करने की इच्छा जताई। गवर्नर साहब डायस ने लव जेहादी को राजभवन बुलाकर 16 मई 1974 को उसे इस्लाम छोड़कर ईसाई बनने को राजी कर लिया। यह सारी कार्रवाई तत्कालीन कांग्रेसी मुख्यमंत्री सिद्धार्थ शंकर राय की देखरेख में हुई। ईसाई बनने के तीन सप्ताह बाद लैला डायस की शादी कोलकाता के मिडलटन स्थित सेंट थॉमस चर्च में ईसाई बन चुके जाहिद अली के साथ सम्पन्न हुई। इस उदाहरण का तात्पर्य यह है कि पश्चिमी माहौल में पढ़े-लिखे और उच्च वर्ग से सम्बन्ध रखने वाले डायस साहब भी, एक मुस्लिम लव जेहादी की “नीयत” समझकर उसे ईसाई बनाने पर तुल गये। लेकिन हिन्दू माँ-बाप अब भी “सहिष्णुता” और “सेकुलरिज़्म” का राग अलापते रहते हैं, और यदि कोई इस “नीयत” की पोल खोलना चाहता है तो उसे “साम्प्रदायिक” कहते हैं। यहाँ तक कि कई लड़कियाँ भी अपनी धोखा खाई हुई सहेलियों से सीखने को तैयार नहीं, हिन्दू लड़के की सौ कमियाँ निकाल लेंगी, लेकिन दो कौड़ी की औकात रखने वाले मुस्लिम जेहादी के बारे में पूछताछ करना उन्हें “साम्प्रदायिकता” लगती है… इस मामले में एक “एंगल” और है, वह है “लम्पट” और बहुविवाह की लालसा रखने वाले हिन्दुओं का… धर्मेन्द्र-हेमामालिनी का उदाहरण तो हमारे सामने है ही कि किस तरह से हेमा से शादी करने के लिये धर्मेन्द्र झूठा शपथ-पत्र दायर करके मुसलमान बने…। दूसरा केस चन्द्रमोहन (चाँद) और अनुराधा (फ़िज़ा) का है, दोनों प्रेम में इतने अंधे और बहरे हो गये थे कि एक-दूसरे को पाने के लिये इस्लाम स्वीकार कर लिया। ऐसा ही एक और मामला है बंगाल के गायक सुमन चट्टोपाध्याय का… सुमन एक गीतकार-संगीतकार और गायक भी हैं। ये साहब जादवपुर सीट से लोकसभा के लिये भी चुने गये हैं। एक इंटरव्यू में वह खुद स्वीकार कर चुके हैं कि वह कभी एक औरत से संतुष्ट नहीं हो सकते, और उन्हें ढेर सारी औरतें चाहिये। अब एक बांग्लादेशी गायिका सबीना यास्मीन से शादी(?) करने के लिये इन्होंने इस्लाम स्वीकार कर लिया है, यह इनकी पाँचवीं शादी है, और अब इनका नाम है सुमन कबीर। आश्चर्य तो इस बात का है कि इस प्रकार के लम्पट किस्म के और इस्लामी शरीयत कानूनों का अपने फ़ायदे के लिये इस्तेमाल करने वाले लोगों को, मुस्लिम भाई बर्दाश्त कैसे कर लेते हैं? मुझे यकीन है कि, मेरे इस लेख के जवाब में मुझे सुनील दत्त-नरगिस से लेकर रितिक रोशन-सुजैन खान तक के (गिनेचुने) उदाहरण सुनने को मिलेंगे, लेकिन फ़िर भी मेरा सवाल वही रहेगा कि क्या सुनील दत्त या रितिक रोशन ने अपनी पत्नियों को हिन्दू धर्म ग्रहण करवाया? या शाहरुख खान ने गौरी के प्रेम में हिन्दू धर्म अपनाया? नहीं ना? जी हाँ, वही वन-वे-ट्रैफ़िक!!!! सवाल उठना स्वाभाविक है कि ये कैसा प्रेम है? यदि वाकई “प्रेम” ही है तो यह वन-वे ट्रैफ़िक क्यों है? इसीलिये सभी सेकुलरों, प्यार-मुहब्बत-भाईचारे, धर्म की दीवारों से ऊपर उठने आदि की हवाई-किताबी बातें करने वालों से मेरा सिर्फ़ एक ही सवाल है, “कितनी मुस्लिम लड़कियों (अथवा लड़कों) ने “प्रेम”(?) की खातिर हिन्दू धर्म स्वीकार किया है?” मैं इसका जवाब जानने को बेचैन हूं। मुझे “कट्टर” और Radical साबित करने और मुझे अपनी गलती स्वीकार करने के लिये कृपया आँकड़े और प्रसिद्ध व्यक्तियों के आचरण द्वारा सिद्ध करें, कि “भाईचारे”(?) की खातिर कितने मुस्लिम लड़के अपनी हिन्दू प्रेमिका की खातिर हिन्दू धर्म में आये? यदि आँकड़े और तथ्य आपके पक्ष में हुए तो मैं खुशी-खुशी आपसे माफ़ी माँग लूंगा… मैं इन्तज़ार कर रहा हूं… यदि नहीं, तो हकीकत को पहचानिये और मान लीजिये कि कुछ न कुछ गड़बड़ अवश्य है। अपनी लड़कियों को अच्छे संस्कार दीजिये और अच्छे-बुरे की पहचान करना सिखाईये। सबसे महत्वपूर्ण बात कि यदि लड़की के सच्चे प्रेम में कोई मुसलमान युवक, हिन्दू धर्म अपनाने को तैयार होता है तो उसका स्वागत खुले दिल से कीजिये… (इस लेख में उल्लेखित घटनाएं असली जिन्दगी से सरोकार रखती हैं तथा बंगाली लेखक रबिन्द्रनाथ दत्ता की पुस्तक “The Silent Terror” से ली गई हैं)

डर्टी स्त्री का सिगरेट के सुट्टे से निकलता पुरुषवादी गुणधर्म . by Ml Gurja

डर्टी स्त्री का सिगरेट के सुट्टे से निकलता पुरुषवादी गुणधर्म .

by Ml Gurja


आदरणीय हरि शंकर जी परसाई का मुझे एक उद्धरण याद आता है ..उन्होंने कहा था ..कि..'''पुरुष स्त्री कि आँखों पर पट्टी बांध कर उसे

अपने कन्धों पर उठा कर एक नामालूम जगह ले जाता है ..फिर उसे नीचे उतार कर पट्टी खोलता है ..और कहता है ..देखो तुम कितनी आगे बढ़ गई हो .'''

उक्त उद्धरण आज के समय में ज्यादा प्रासंगिक हो गया है ..क्योंकि स्त्री आगे बढ़ चुकी है ..अभी मेने विद्या बालन की आने वाली फिल्म डर्टी के बड़े ही डर्टी फोटो देखे .इन फोटो में वो किसी में तो मर्दों की तरह सिगरेट का सुट्टा लगा कर अपनी नासिका से धुंए की दुनाली छोडती हुई दिखाई दे रही है .तो किसी फोटो में उसने इतने लो कट गले का ब्लाउज पहन रखा है .कि..वो एन सीमावर्ती इलाके यानी डेंजर जोन पर ही जा कर खत्म हो रहा है ..इस देश के युवा के बचे हुए चरित्र का बेंड बजाने के लिए ..ये काफी है .

आजकल इस कथित महिला शशक्तिकरण जो पुरुषों द्वारा प्रयोजित है ,,क्योंकि डर्टी फिल्म का निर्माता भी एक पुरुष है ..और देर रात को एक चेनल पर चलने वाला बिग बोस धारावाहिक भी पुरुष द्वारा ही बनाया गया है ..

डर्टी होना आजकल लड़कियां पसंद कर रही है ..डर्टी दिखना कथित अगडापन है .आजकल इसी कारण धारावाहिकों में और फिल्मो में ''वुमन डोमिनेशन'' को ज्यादा चित्रित किया जाता है .क्योंकि ये अंदाज़ धन की आमद के रास्ते खोलता है ..अधिक धन अगडेपन की धारणा को पुष्ट करता है ..बिग बोस में एक दो पुरुष है ,,बाकी सभी महिलायें है .महिलायें पुरे समय षड्यंत्रों में लिप्त रहती है ..और पुरुषों की दशा ये हो गई है ..की वे तय नहीं कर पा रहे हैं की किसके साथ एंगेज हों .आजकल कहतें विदेशों में तो महिला क्लब खुल गए हैं जहां पुरुष नृत्य करते हैं और धनी और सफल महिलायें अपने एकाकीपन को दूर करने और अपने धन का जलवा बिखेरने वहां आती है ..उनके गुण धर्म पुरुषों की तरह हो गए हैं ,,वे भी सिगरेट के सुट्टे लगाती है और नाक से मर्दों की तरही ही धुएं की दुनाली छोडती है ..वे शराब भी पीती है और डांस करते हुए मर्दों के शरीर का जायजा ठीक उसी तरह लेती है जेसे मर्द नृत्य करती हुई किसी स्त्री का करते हैं ..यानि इस स्थान पर केवल पुरुष की जगह महिला है ..अन्यथा अंदाज़ वही है ..मर्दाना ..वे मर्दों को अपना जी बहलाने के लिए इस्तेमाल भी करती है .

ये स्थापित हो रहा है कि..सफलता और अधिक धन का गुणधर्म पुरुषवादी है ..अगर ये दोनों महिला के पास हो तो वो भी वेसा ही बर्ताव करेगी जेसे एक पुरुष करता है ..अभी कुछ समय पहले एक महिला सी ई ओ के बारे में समाचारों में आया कि वो ..अपने अधीनस्थ कर्मचारी पुरुषों का शोषण करती थी .

अब क़ानूनी तौर पर भी ..ये हो रहा है कि स्त्री पुरुष बिना विवाह किये साथ रह सकते हैं ..साथ रहने में कोई परेशानी नहीं ..पर इसके लाभ कम और नुकसान ज्यादा है ..ये भी ध्यान रहे ..

ये डर्टी वातावरण शास्वत नहीं है ..ये उसी वर्ग की महिलाओं में आया है जो सक्षम या अधिकार सम्पन्न है ..अन्यथा स्त्री का तो आज भी शोषण जारी है ..मेने और आपने भी देखा होगा की ..लकदक करती चमकीली लम्बी कार से कोई धनी महिला बाज़ार में आती है तो शोरुम के वाचमेन से लेकर उसके मालिक तक का स्टाफ .. उस नैनाभिराम और अंति सुंदर महिला को ऐसे देखते हैं जेसे कोई कई दिन के भूखे के सामने अचानक छप्पन भोग से सजी थाली आ गई हो .परन्तु उस महिला के अधिकार सम्पन्न और धनी होने के कारण वे ..उसके सामने कुत्ते की तरह दूम हिलाते नज़र आते है और उसकी सेवा में उसके जर खरीद गुलामो की तरह लग जाते हैं ..वे जब उस महिला से बात करते हैं तो ऐसा लगता है .जेसे हर शब्द को कहने से पहले वे जबान पर मिश्री रख देते हैं ..

ये स्त्री को प्रमोट करने की कथित तिकड़म है क्योंकि इसके पीछे आर्थिक हित है ..महिला को सुंदर बनाना और उसे सार्वजानिक तौर पर प्रस्तुत करना ..कई लाख करोड़ का विश्व्यापी व्यवसाय बन चुका है .और ये पुरुषों द्वारा ही नियंत्रित और संचालित है .अब डर्टी कहने वाले कहते रहें ,,क्या फर्क पड़ता है ..लगाओ सुट्टा ..छोड़ो धुंए की दुनाली ..

डर्टी स्त्री धुएं की दुनाली अपनी नाक से छोड़ रही है ..और पुरुष चांदी काट रहा है ,,,और स्त्री करीना कपूर के रूप में छमक छल्लो बनी हुई पुरुष की बीन पर मदहोश हो कर नाच रही है ,,की उसे अपने वस्त्रों की भी थाह नहीं ..वो पूनम पाण्डेय के रूप में बाथरूम के पानी में आग लगा रही ..तो पठाखा बन पुरुषों को अपने बेपनाह हुस्न के विस्फोट से उड़ा रही है ..

गुरुवार, अक्तूबर 20, 2011

भगत सिंह के बारे में कुछ अनदेखे तथ्य

http://raviwar.com/news/240_bhagat-singh-unseen-facts-kanaktiwari.shtml
भगत सिंह के बारे में कुछ अनदेखे तथ्य
कनक तिवारी

मैं भगतसिंह के बारे में कुछ भी कहने के लिए अधिकृत व्यक्ति नहीं हूं. लेकिन एक साधारण आदमी होने के नाते मैं ही अधिकृत व्यक्ति हूं, क्योंकि भगतसिंह के बारे में अगर हम साधारण लोग गम्भीरतापूर्वक बात नहीं करेंगे तो और कौन करेगा. मैं किसी भावुकता या तार्किक जंजाल की वजह से भगतसिंह के व्यक्तित्व को समझने की कोशिश कभी नहीं करता. इतिहास और भूगोल, सामाजिक परिस्थितियों और तमाम बड़ी उन ताकतों की, जिनकी वजह से भगतसिंह का हम मूल्यांकन करते हैं, अनदेखी करके भगतसिंह को देखना मुनासिब नहीं होगा.
भगत सिंह


पहली बात यह कि कि दुनिया के इतिहास में 24 वर्ष की उम्र भी जिसको नसीब नहीं हो, भगतसिंह से बड़ा बुद्धिजीवी कोई हुआ है? भगतसिंह का यह चेहरा जिसमें उनके हाथ में एक किताब हो-चाहे कार्ल मार्क्स की दास कैपिटल, तुर्गनेव या गोर्की या चार्ल्स डिकेन्स का कोई उपन्यास, अप्टान सिन्क्लेयर या टैगोर की कोई किताब-ऐसा उनका चित्र नौजवान पीढ़ी के सामने प्रचारित करने का कोई भी कर्म हिन्दुस्तान में सरकारी और गैर सरकारी संस्थानों सहित भगतसिंह के प्रशंसक-परिवार ने भी लेकिन नहीं किया. भगतसिंह की यही असली पहचान है.

भगतसिंह की उम्र का कोई पढ़ा लिखा व्यक्ति क्या भारतीय राजनीति का धूमकेतु बन पाया? महात्मा गांधी भी नहीं, विवेकानन्द भी नहीं. औरों की तो बात ही छोड़ दें. पूरी दुनिया में भगतसिंह से कम उम्र में किताबें पढ़कर अपने मौलिक विचारों का प्रवर्तन करने की कोशिश किसी ने नहीं की. लेकिन भगतसिंह का यही चेहरा सबसे अप्रचारित है. इस उज्जवल चेहरे की तरफ वे लोग भी ध्यान नहीं देते जो सरस्वती के गोत्र के हैं. वे तक भगतसिंह को सबसे बड़ा बुद्धिजीवी कहने में हिचकते हैं.

दूसरी शिकायत मुझे खासकर हिन्दी के लेखकों से है. 17 वर्ष की उम्र में भगतसिंह को एक राष्ट्रीय प्रतियोगिता में 'पंजाब में भाषा और लिपि की समस्या' विषय पर 'मतवाला' नाम के कलकत्ता से छपने वाली पत्रिका के लेख पर 50 रुपए का प्रथम पुरस्कार मिला था. भगतसिंह ने 1924 में लिखा था कि पंजाबी भाषा की लिपि गुरुमुखी नहीं देवनागरी होनी चाहिए.

यह आज तक हिन्दी के किसी भी लेखक-सम्मेलन ने ऐसा कोई प्रस्ताव पारित नहीं किया है. आज तक हिन्दी के किसी भी बड़े लेखकीय सम्मेलन में भगतसिंह के इस बड़े इरादे को लेकर कोई धन्यवाद प्रस्ताव पारित नहीं किया गया है. उनकी इस स्मृति में भाषायी समरसता का कोई पुरस्कार स्थापित नहीं किया गया. इसके बाद भी हम भगतसिंह का शहादत दिवस मनाते हैं. भगतसिंह की जय बोलते हैं. हम उनके रास्ते पर चलना नहीं चाहते. मैं तो लोहिया के शब्दों में कहूंगा कि रवीन्द्रनाथ टेगौर से भी मुझे शिकायत है कि आपको नोबेल पुरस्कार भले मिल गया हो. लेकिन 'गीतांजलि' तो आपने बांग्ला भाषा और लिपि में ही लिखी. एक कवि को अपनी मातृभाषा में रचना करने का अधिकार है लेकिन भारत के पाठकों को, भारत के नागरिकों को, मुझ जैसे नाचीज व्यक्ति को इतिहास के इस पड़ाव पर खड़े होकर यह भी कहने का अधिकार है कि आप हमारे सबसे बड़े बौद्धिक नेता हैं. लेकिन भारत की देवनागरी लिपि में लिखने में आपको क्या दिक्कत होती.

मैं लोहिया के शब्दों में महात्मा गांधी से भी शिकायत करूंगा कि 'हिन्द स्वराज' नाम की आपने अमर कृति 1909 में लिखी वह अपनी मातृभाषा गुजराती में लिखी. लेकिन उसे आप देवनागरी लिपि में भी लिख सकते थे. जो काम गांधी और टैगोर नहीं कर सके. जो काम हिन्दी के लेखक ठीक से करते नहीं हैं. उस पर साहसपूर्वक बात तक नहीं करते हैं. सन् 2009 में भी बात नहीं करते हैं. भगतसिंह जैसे 17 साल के तरुण ने हिन्दुस्तान के इतिहास को रोशनी दी है. उनके ज्ञान-पक्ष की तरफ हम पूरी तौर से अज्ञान बने हैं. फिर भी भगतसिंह की जय बोलने में हमारा कोई मुकाबला नहीं है.

तीसरी बात यह है कि भगतसिंह जिज्ञासु विचारक थे, क्लासिकल विचारक नहीं. 23 साल की उम्र का एक नौजवान स्थापनाएं करके चला जाये-ऐसी संभावना भी नहीं हो सकती. भगतसिंह तो विकासशील थे. बन रहे थे. उभर रहे थे. अपने अंतत: तक नहीं पहुंचे थे. हिन्दुस्तान के इतिहास में भगतसिंह एक बहुत बड़ी घटना थे. भगतसिंह को इतिहास और भूगोल के खांचे से निकलकर अगर हम मूल्यांकन करें और भगतसिंह को इतिहास और भूगोल के संदर्भ में रखकर अगर हम विवेचित करें, तो दो अलग अलग निर्णय निकलते हैं.

मान लें भगतसिंह 1980 में पैदा हुए होते और 20 वर्ष में बीसवीं सदी चली जाती. उसके बाद 2003 में उनकी हत्या कर दी गई होती. उन्हें शहादत मिल गई होती. तो भगतसिंह का कैसा मूल्यांकन होता. भगतसिंह 1907 में पैदा हुए और 1931 में हमारे बीच से चले गये. ऐसे भगतसिंह का मूल्यांकन कैसा होना चाहिए.

भगतसिंह एक ऐसे परिवार में पैदा हुए थे जो राष्ट्रवादी और देशभक्त परिवार था. वे किसी वणिक या तानाशाह के परिवार में पैदा नहीं हुए थे. मनुष्य के विकास में उसके परिवार, मां बाप की परवरिश, चाचा और औरों की भूमिका होती है. भगतसिंह के चाचा अजीत सिंह एक विचारक थे, लेखक थे, देशभक्त नागरिक थे. उनके पिता खुद एक बड़े देशभक्त नागरिक थे. उनका भगतसिंह के जीवन पर असर पड़ा. लाला छबीलदास जैसे पुस्तकालय के प्रभारी से मिली किताबें भगतसिंह ने दीमक की तरह चाटीं. वे कहते हैं कि भगतसिंह किताबों को पढ़ता नहीं था. वह तो निगलता था.

1914 से 1919 के बीच पहला विश्वयुद्ध हुआ. उसका भी भगतंसिंह पर गहरा असर हुआ. भगतसिंह के पिता और चाचा कांग्रेसी थे. भगतसिंह जब राष्ट्रीय राजनीति में धूमकेतु बनकर, ध्रुवतारा बनकर, एक नियामक बनकर उभरने की भूमिका में आए, तब 1928 का वर्ष आया. 1928 हिन्दुस्तान की राजनीति के मोड़ का बहुत महत्वपूर्ण वर्ष है. 1928 में इतनी घटनाएं और अंग्रेजों के खिलाफ इतने आंदोलन हुए जो उसके पहले नहीं हुए थे. जवाहरलाल नेहरू ने अपनी आत्मकथा में लिखा भी है कि 1928 का वर्ष भारी उथलपुथल का, भारी राजनीतिक हलचल का वर्ष था. 1930 में कांग्रेस का रावी अधिवेशन हुआ. 1928 से 1930 के बीच ही कांग्रेस की हालत बदल गई. जो कांग्रेस केवल पिटीशन करती थी, अंग्रेज से यहां से जाने की बातें करती थी. उसको मजबूर होकर लगभग अर्धहिंसक आंदोलनों में भी अपने आपको कभी कभी झोंकना पड़ा. यह भगतसिंह का कांग्रेस की नैतिक ताकत पर मर्दाना प्रभाव था. हिन्दुस्तान की राजनीति में कांग्रेस में पहली बार युवा नेतृत्व अगर कहीं उभर कर आया है तो सुभाष बाबू और जवाहरलाल नेहरू के नाम. कांग्रेस में 1930 में जवाहरलाल नेहरू लोकप्रिय नेता बनकर 39 वर्ष की उम्र में राष्ट्र्रीय अध्यक्ष बने. उनके हाथों तिरंगा झंडा फहराया गया और उन्होंने कहा कि पूर्ण स्वतंत्रता ही हमारा लक्ष्य है. भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का यह चरित्र मुख्यत: भगतसिंह की वजह से बदला. भगतसिंह इसके समानांतर एक बड़ा आंदोलन चला रहे थे.

लोग गांधीजी को अहिंसा का पुतला कहते हैं और भगतसिंह को हिंसक कह देते हैं. भगतसिंह हिंसक नहीं थे. जो आदमी खुद किताबें पढ़ता था, उसको समझने के लिए अफवाहें गढ़ने की जरूरत नहीं है. उसको समझने के लिए अतिशयोक्ति, अन्योक्ति, ब्याज स्तुति और ब्याज निंदा की जरूरत नहीं है. भगतंसिंह ने 'मैं नास्तिक क्यों हूं' लेख लिखा है. भगतंसिंह ने नौजवान सभा का घोषणा पत्र लिखा जो कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो के समानांतर है. भगतसिंह ने अपनी जेल डायरी लिखी है, जो आधी अधूरी हमारे पास आई है. भगतसिंह ने हिन्दुस्तान रिपब्लिकन आर्मी एसोसिएशन का घोषणा पत्र, उसका संविधान बनाया.

पहली बार भगतसिंह ने कुछ ऐसे बुनियादी मौलिक प्रयोग हिन्दुस्तान की राजनीतिक प्रयोगशाला में किए हैं जिसकी जानकारी तक लोगों को नहीं है. भगतंसिंह के मित्र कॉमरेड सोहन सिंह जोश उन्हें कम्युनिस्ट पार्टी में ले जाना चाहते थे, लेकिन भगतंसिंह ने मना कर दिया. जो आदमी कट्टर मार्क्सवादी था, जो रूस के तमाम विद्वानों की पुस्तकों को चाटता था. फांसी के फंदे पर चढ़ने का फरमान पहुंचने के बाद जब जल्लाद उनके पास आया तब बिना सिर उठाए भगतसिंह ने उससे कहा 'ठहरो भाई, मैं लेनिन की जीवनी पढ़ रहा हूं. एक क्रांतिकारी दूसरे क्रांतिकारी से मिल रहा है. थोड़ा रुको.' आप कल्पना करेंगे कि जिस आदमी को कुछ हफ्ता पहले, कुछ दिनों पहले, यह मालूम पड़े कि उसको फांसी होने वाली है. उसके बाद भी रोज किताबें पढ़ रहा है. भगतसिंह मृत्युंजय था. हिन्दुस्तान के इतिहास में इने गिने ही मृत्युंजय हुए हैं.

भगतसिंह ने कुछ मौलिक प्रयोग किए थे. इंकलाब जिंदाबाद मूलत: भगतसिंह का नारा नहीं था. वह कम्युनिस्टों का नारा था. लेकिन भगतसिंह ने इसके साथ एक नारा जोड़ा था 'साम्राज्यवाद मुर्दाबाद.' भगतसिंह ने तीसरा एक नारा जोड़ा था 'दुनिया के मजदूरों एक हो.' ये तीन नारे भगतसिंह ने हमको दिए थे. कम्युनिस्ट पार्टी या कम्युनिस्टों का अंतर्राष्ट्र्रीय क्रांति का नारा भगतसिंह की जबान में चढ़ने के बाद अमर हो गया. 'साम्राज्यवाद मुर्दाबाद' का नारा आज भी कुलबुला रहा है हमारे दिलों के अंदर, हमारे मन के अंदर, हमारे सोच में. क्या सोच कर भगतसिंह ने 'साम्राज्यवाद मुर्दाबाद' का नारा दिया होगा. तब तक गांधी जी ने यह नारा नहीं दिया था. क्या सोच कर भगतसिंह ने कहा दुनिया के मजदूरों एक हो.

हम उस देश में रहते हैं, जहां अंग्रेजों के बनाए काले कानून आज भी हमारी आत्मा पर शिकंजा कसे हुए हैं और हमको उनकी जानकारी तक नहीं है. हम इस बात में गौरव समझते हैं कि हमने पटवारी को पचास रुपए घूस खाते हुए पकड़वा दिया और हम समाज के बेहद ईमानदार आदमी हैं. हमें बड़ी खुशी होती है, जब लायंस क्लब के अध्यक्ष बनकर हम कोई प्याऊ या मूत्रशाला खोलते हैं और अपनी फोटो छपवाते हैं. हमें बेहद खुशी होती है अपने पड़ोसी को बताते हुए कि हमारा बेटा आईटीआई में फर्स्ट आया है और अमेरिका जाकर वहां की नौकरी कर रहा है और सेवानिवृत्त होने के बाद उसके बच्चों के कपड़े धोने हम भी जाएंगे. इन सब बातों से देश को बहुत गौरव का अनुभव होता है. लेकिन मूलत: भगतसिंह ने कहा क्या था.

भगतसिंह भारत का पहला नागरिक, विचारक और नेता है जिसने कहा था कि हिन्दुस्तान में केवल किसान और मजदूर के दम पर नहीं, जब तक नौजवान उसमें शामिल नहीं होंगे, तब तक कोई क्रांति नहीं हो सकती. कोई पार्टी नौजवानों को राजनीति में सीधे आने का आव्हान नहीं करती. यह अलबत्ता बात अच्छी हुई कि राजीव गांधी के कार्यकाल में 18 वर्ष के नौजवान को वोट डालने का अधिकार तो मिला. वरना नौजवान को तो हम बौद्धिक दृष्टि से हिन्दुस्तान की राजनीति में बांझ समझते हैं.

हम उस देश में रहते हैं, जहां की सुप्रीम कोर्ट कहती है कि जयललिता जी को इस बात का अधिकार है कि वे हजारों सरकारी कर्मचारियों को नौकरी से निकाल दें. और सरकारी कर्मचारियों का कोई मौलिक अधिकार नहीं है कि अपने सेवा शर्तों की लड़ाई के लिए धरना भी दे सकें. प्रदर्शन कर सकें. हड़ताल कर सकें. हम उस देश में रहते हैं, जहां नगरपालिकाएं पीने का पानी जनता को मुहैया कराएं, यह उनका मौलिक कर्तव्य नहीं है. अगर नगरपालिका पीने का पानी मुहैया नहीं कराती है तो भी हम टैक्स देने से नहीं बच सकते. इस देश का सुप्रीम कोर्ट और हमारा कानून कहता है कि आपको नगरपालिका पीने का पानी भले मत दे. आप प्यासे भले मर जाएं लेकिन टैक्स आपको देना पड़ेगा क्योंकि उनके और नागरिक के कर्तव्य में कोई पारस्परिक रिश्ता नहीं है. ये जो जंगल का कानून है 1894 का है.

हम नदियों का पानी उपयोग कर सकें इसका कानून उन्नीसवीं शताब्दी का है. भारतीय दंड विधान लॉर्ड मैकाले ने 1860 में बनाया था. पूरे देश का कार्य व्यापार सारी दुनिया से हो रहा है वह कांट्रेक्ट एक्ट 1872 में बना था. हमारे जितने बड़े कानून हैं, वे सब उन्नीसवीं सदी की औलाद हैं. बीसवीं सदी तो इस लिहाज से बांझ है. अंग्रेजों की दृष्टि से बनाए गए हर कानून में सरकार को पूरी ताकत दी गई है कि जनता के आंदोलन को कुचलने में सरकार चाहे जो कुछ करे, वह वैध माना जाएगा.

आजादी के साठ वर्ष बाद भी इन कानूनों को बदलने के लिए कोई भी सांसद हिम्मत नहीं करता. आवाज तक नहीं उठाता. भगतसिंह संविधान सभा में तो थे नहीं. भगतसिंह ने आजादी तो देखी नहीं. वे कहते थे कि हमको समाजवाद एक जीवित लक्ष्य के रूप में चाहिए जिसमें नौजवान की जरूरी हिस्सेदारी होगी. अस्सी बरस के बूढ़े नेता देश में चुनाव लड़ना चाहते हैं. 75 या 70 बरस के नेता को युवा कह दिया जाता है. 60 वर्ष के तो युवा होते ही होते हैं. हम 25 वर्षों के नौजवानों को संसद में नहीं भेजना चाहते.

महात्मा गांधी भी कहते थे इस देश में 60 वर्ष से ऊपर के व्यक्ति को किसी पार्टी को टिकट नहीं देना चाहिए. हम पूरी दुनिया में सबसे ज्यादा आवारा पशुओं, वेश्याओं और साधुओं के देश हैं. सबसे ज्यादा बेकार, भिखारी, कुष्ठ रोगी, एड्स के रोगी, अपराधी तत्व, नक्सलवादी, भ्रष्ट नेता, चूहे, पिस्सू, वकील हमारे यहां हैं. शायद चीन को छोड़कर लेकिन अब हमारी आबादी भी उससे ज्यादा होने वाली हैं. क्या यही भगतसिंह का देश है. यही भगतसिंह ने चाहा था?

असेम्बली में भगतसिंह ने जानबूझकर कच्चा बम फेंका. अंग्रेज को मारने के लिए नहीं. ऐसी जगह बम फेंका कि कोई न मरे. केवल धुआं हो. हल्ला हो. आवाज हो. दुनिया का ध्यान आकर्षित हो. टी डिस्प्यूट बिल और पब्लिक सेफ्टी बिल के खिलाफ भगतसिंह ने जनजागरण किया. कहां है श्रमिक आंदोलन आज? भारत में कैसी लोकशाही बची है? श्रमिक आंदोलनों को कुचल दिया गया है. इस देश में कोई श्रमिक आंदोलन होता ही नहीं है. होने की संभावना भी नहीं है. इस देश की खलनायकी में यहां की विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका तीनों का बराबर का अधिकार है. यह भगतसिंह का सपना नहीं था. यह भगतसिंह का रास्ता नहीं है.

एक बिंदु की तरफ अक्सर ध्यान खींचा जाता है अपनी राजनीतिक रोटी सेंकने के लिए कि महात्मा गांधी और भगतसिंह को एक दूसरे का दुश्मन बता दिया जाए. भगतसिंह को गांधी जी का धीरे धीरे चलने वाला रास्ता पसंद नहीं था. लेकिन भगतसिंह हिंसा के रास्ते पर नहीं थे. उन्होंने जो बयान दिया है उस मुकदमे में जिसमें उनको फांसी की सजा मिली है, उतना बेहतर बयान आज तक किसी भी राजनीतिक कैदी ने वैधानिक इतिहास में नहीं दिया.

जेल के अंदर छोटी से छोटी चीज भी भगतसिंह के दायरे के बाहर नहीं थी. जेल के अंदर जब कैदियों को ठीक भोजन नहीं मिलता था और सुविधाएं जो मिलनी चाहिए थीं, नहीं मिलती थीं, तो भगतसिंह ने आमरण अनशन किया. उनको तो मिल गया. लेकिन क्या आज हिन्दुस्तान की जेलों में हालत ठीक है? भगतसिंह को संगीत और नाटक का भी शौक था. भगतसिंह के जीवन में ये सब चीजें गायब नहीं थीं. भगतसिंह कोई सूखे आदमी नहीं थे. भगतसिंह को समाज के प्रत्येक इलाके में दिलचस्पी थी. तरह तरह के विचारों से सामना करना उनको आता था. वे एक कुशल पत्रकार थे. आज हमारे अखबार कहां हैं? अमेरिकी पद्धति और सोच के अखबार. जिन्हें पढ़ने में दो मिनट लगता है. आप टीवी क़े चैनल खोलिए. एक तरह की खबर आएगी और सबमें एक ही समय ब्रेक हो जाता है. प्रताप, किरती, महारथी और मतवाला वगैरह तमाम पत्रिकाओं में हिन्दी, अंग्रेजी, उर्दू, पंजाबी में भगतसिंह लिखते थे. उनसे ज्यादा तो किसी ने लिखा ही नहीं उस उम्र में. गणेशशंकर विद्यार्थी की उन पर बहुत मेहरबानी थी.

भगतसिंह कुश्ती बहुत अच्छी लड़ते थे. एक बार भगतसिंह और चंद्रशेखर आजाद में दोस्ती वाला झगड़ा हो गया तो भगतसिंह ने चंद्रशेखर आजाद को कुश्ती में चित्त भी कर दिया था. एक बहुरंगी, बहुआयामी जीवन इस नौजवान आदमी ने जिया था. वे मरे हुए या बूढ़े आदमी नहीं थे. खाने पीने का शौक भी भगतसिंह को था. कम से कम दुनिया के 35 ऐसे बड़े लेखक थे जिनको भगतसिंह ने ठीक से पढ़ रखा था. बेहद सचेत दिमाग के 23 साल के नौजवान के प्रति मेरा सिर श्रद्धा से इसलिए भी झुकता है कि समाजवाद के रास्ते पर हिन्दुस्तान के जो और लोग उनके साथ सोच रहे थे, भगतसिंह ने उनके समानांतर एक लकीर खींची लेकिन प्रयोजन से भटककर उनसे विवाद उत्पन्न नहीं किया जिससे अंगरेजी सल्तनत को फायदा हो. मुझे लगता है कि हिन्दुस्तान की राजनीति में कुछ लोगों को मिलकर काम करना चाहिए था.

मुझे आज तक समझ में नहीं आया कि महात्मा गांधी और विवेकानंद मिलकर हिन्दुस्तान की राजनीतिक दिशा पर बात क्यों नहीं कर पाये. गांधीजी उनसे मिलने बेलूर मठ गए थे लेकिन विवेकानंद की बीमारी की वजह से सिस्टर निवेदिता ने उनसे मिलने नहीं दिया था. समझ में नहीं आता कि भगतसिंह जैसा विद्वान विचारक विवेकानंद के समाजवाद पर कुछ बोला क्यों नहीं, जबकि विवेकानंद के छोटे भाई भूपेन्द्रनाथ दत्त को भगतसिंह ने भाषण देने बुलाया था. यह नहीं कहा जा सकता कि विवेकानंद के विचारों से भगतसिंह परिचित नहीं थे. उनके चेहरे से बहुत से कंटूर उभरते हैं, जिसको देखने की ताब हममें होनी चाहिए.

भगतसिंह समाजवाद और धर्म को अलग अलग समझते थे. विवेकानंद समाजवाद और धर्म को सम्पृक्त करते थे. विवेकानंद समझते थे कि हिन्दुस्तान की धार्मिक जनता को धर्म के आधार पर समाजवाद की घुट्टी अगर पिलायी जाए तो शायद ठीक से समझ में बात आएगी. गांधीजी भी लगभग इसी रास्ते पर चलने की कोशिश करते थे. लेकिन भगतसिंह हिन्दुस्तान का पहला रेशनल थिंकर, पहला विचारशील व्यक्ति था जो धर्म के दायरे से बाहर था. श्रीमती दुर्गादेवी वोहरा को लेकर जब भगतसिंह को अंग्रेज जल्लादों से बचने के लिए अपने केश काटकर प्रथम श्रेणी के डब्बे में कलकत्ता तक की यात्रा करनी पड़ी तो लोगों ने आलोचना की. उन्होंने कहा कि सिख होकर अपने केश कटा लिए आपने? हमारे यहां तो पांच चीजें रखनी पड़ती हैं हर सिख को. उसमें केश भी होता है. यह आपने क्या किया. कैसे सिख हैं आप! जो सज्जन सवाल पूछ रहे थे वे शायद धार्मिक व्यक्ति थे. भगतसिंह ने एक धार्मिक व्यक्ति की तरह जवाब दिया कि मेरे भाई तुम ठीक कहते हो. मैं सिख हूं. गुरु गोविंद सिंह ने कहा है कि अपने धर्म की रक्षा करने के लिए अपने शरीर का अंग अंग कटवा दो. मैंने केश कटवा दिए. अब मौका मिलेगा तो अपनी गरदन कटवा दूंगा. यह तार्किक विचारशीलता भगतसिंह की है. उस नए हिन्दुस्तान में वे 1931 के पहले कह रहे थे जिसमें हिन्दुस्तान के गरीब आदमी, इंकलाब और आर्थिक बराबरी के लिए, समाजवाद को पाने के लिए, देश और चरित्र को बनाने के लिए, दुनिया में हिन्दुस्तान का झंडा बुलंद करने के लिए धर्म जैसी चीज की हमको जरूरत नहीं होनी चाहिए.

आज हम उसी में फंसे हुए हैं. क्या सबूत है कि अयोध्या में राम हुए थे? क्या सबूत है कि मंदिर बन जाने पर रामचंद्र जी वहां आकर विराजेंगे. क्या जरूरत है किसी मस्जिद को तोड़ दिया जाए. क्या जरूरत है कि देश के छोटे छोटे मंदिरों को तोड़ दिया जाए. क्या जरूरत है कि होली दीवाली के त्यौहार पर और कोई बम फेंक दे. इन सारे सवालों का जवाब हम 2009 में ढूंढ़ नहीं पा रहे हैं.

भगतसिंह ने शहादत दे दी, फकत इतना कहना भगतसिंह के कद को छोटा करना है. जितनी उम्र में भगतसिंह कुर्बान हो गए, इससे कम उम्र में मदनलाल धींगरा और शायद करतार सिंह सराभा चले गए थे. भगतसिंह ने तो स्वयं मृत्यु का वरण किया. यदि वे पंजाब की असेंबली में बम नहीं फेंकते तो क्या होता. कांग्रेस के इतिहास को भगतसिंह का ऋणी होना पड़ेगा. लाला लाजपत राय, बिपिनचंद्र पाल और बालगंगाधर तिलक ने कांग्रेस की अगुआई की थी. भगतसिंह लाला लाजपत राय के समर्थक और अनुयायी शुरू में थे. उनका परिवार आर्य समाजी था. भूगोल और इतिहास से काटकर भगतसिंह के कद को एक बियाबान में नहीं देखा जा सकता. जब लाला लाजपत राय की जलियान वाला बाग की घटना के दौरान लाठियों से कुचले जाने की वजह से मृत्यु हो गई तो भगतसिंह ने केवल उस बात का बदला लेने के लिए एक सांकेतिक हिंसा की और सांडर्स की हत्या हुई. भगतसिंह चाहते तो और जी सकते थे. यहां वहां आजादी की अलख जगा सकते थे. बहुत से क्रांतिकारी भगतसिंह के साथी जिए ही. लेकिन भगतसिंह ने सोचा कि यही वक्त है जब इतिहास की सलवटों पर शहादत की इस्तरी चलाई जा सकती है. जिसमें वक्त के तेवर पढ़ने का माधा हो, ताकत हो वही इतिहास पुरुष होता है.

भगतसिंह ने सारी दुनिया का ध्यान अंग्रेज हुक्मरानों के अन्याय की ओर खींचा और जानबूझकर असेंबली बम कांड रचा. भगतसिंह इतिहास की समझ के एक बहुत बड़े नियंता थे. हम उस भगतसिंह की बात ज्यादा क्यों नहीं करते? भगतसिंह का एक बहुत प्यारा चित्र है जिसमें वे चारपाई पर बैठे हुए हैं. उस चेहरे में हिन्दुस्तान नजर आता है. ऐसा लगता है कि हिन्दुस्तान बैठा हुआ है.

भगतसिंह पर जितनी शोधपरक किताबें लिखी जानी चाहिए थी, उतनी अच्छी किताबें अब भी नहीं लिखी गई हैं. कुछ लोग भगतसिंह के जन्मदिन और शहादत के पर्व को हाल तक मनाते थे. अब उनके हाथ में साम्प्रदायिकता के दूसरे झंडे आ गए हैं. उनको भगतसिंह काम का नजर नहीं आता. किसी भी राजनीतिक पार्टी के घोषणा पत्र को पढ़िए. उनके भी जो समाजवाद का डंका पीट रहे हैं. तो लगेगा कि सब ढकोसला है. हममें से कोई काबिल नहीं है जो भगतसिंह का वंशज कहलाने का अधिकारी हो. भगतसिंह की याद करने का अधिकारी हो. हम उस रास्ते को भूल चुके हैं.

अमेरिका के साम्राज्यवाद के सामने हम गुलामी कर रहे हैं. हम पश्चिम के सामने बिक रहे हैं. बिछ रहे हैं. इसके बाद भी हम कहते हैं हिन्दुस्तान को बड़ा देश बनाएंगे. गांधी और भगतसिंह में एक गहरी राजनीतिक समझ थी. भगतसिंह ने गांधी के समर्थन में भी लिखा है. उनके रास्ते निस्संदेह अलग अलग थे. उनकी समझ अलग अलग थी. जब गांधीजी केन्द्र में थे. कांग्रेस के अंदर एक बार भूचाल आया. गांधीजी के भगतसिंह सम्बन्धी विचार को नकारने की स्थिति आई. उस समय 1500 में लगभग आधे वोट भगतसिंह के समर्थन में आए. भगतसिंह को समर्थन देना या नहीं देना इस पर कांग्रेस विभाजित हो गई. इसी वजह से युवा जवाहरलाल नेहरू को 1930 में रावी कांग्रेस का अध्यक्ष बनाया गया. कांग्रेस के जिस दूसरे नौजवान नेता ने भगतसिंह का वकील बनकर मुकदमा लड़ने की पेशकश की और गांधी का विरोध किया, वह सुभाष बोस 1938 में हरिपुरा और फिर 1939 में त्रिपुरी की कांग्रेस में गांधी के उम्मीदवार को हराकर कांग्रेस का अध्यक्ष बना. इन सबमें भगतसिंह का पुण्य, याद और कशिश है. नौजवानों को आगे करने की जो जुगत भगतसिंह ने बनाई थी, जो राह बताई थी, उस रास्ते पर भारत का इतिहास नहीं चला. मैं नहीं समझता कि नौजवान केवल ताली बजाने के लायक हैं. मैं नहीं समझता कि हिन्दुस्तान के नौजवानों को राजनीति से अलग रखना चाहिए. मैं नहीं समझता कि हिन्दुस्तान के 18 वर्ष के नौजवान जो वोट देने का अधिकार रखते हैं उनको राजनीति की समझ नहीं है. जब अस्सी नब्बे वर्ष के लोग सत्ता की कुर्सी का मोह नहीं छोड़ सकते तो नौजवान को हिन्दुस्तान की राजनीति से अलग करना मुनासिब नहीं है. लेकिन राजनीति का मतलब कुर्सी नहीं है.

भगतसिंह ने कहा था जब तक हिन्दुस्तान के नौजवान हिन्दुस्तान के किसान के पास नहीं जाएंगे, गांव नहीं जाएंगे. उनके साथ पसीना बहाकर काम नहीं करेंगे तब तक हिन्दुस्तान की आजादी का कोई मुकम्मिल अर्थ नहीं होगा. मैं हताश तो नहीं हूं लेकिन निराश लोगों में से हूं.

मैं मानता हूं कि हिन्दुस्तान को पूरी आजादी नहीं मिली है. जब तक ये अंगरेजों के बनाए काले कानून हमारे सर पर हैं, संविधान की आड़ में सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट से लेकर हमारे मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री फतवे जारी करते हैं कि संविधान की रक्षा होनी है. किस संविधान की रक्षा होनी चाहिए? संविधान में अमेरिका, आस्ट्रेलिया, केनेडा, स्विट्जरलैंड, जर्मनी, जापान और कई और देशों की अनुगूंजें शामिल हैं. इसमें याज्ञवल्क्य, मैत्रेयी, चार्वाक, कौटिल्य और मनु के अनुकूल विचारों के अंश नहीं हैं. गांधी नहीं हैं. भगतसिंह नहीं हैं. लोहिया नहीं हैं. इसमें केवल भारत नहीं है.

हम एक अंतर्राष्ट्रीय साजिश का शिकार हैं. हमको यही बताया जाता है कि डॉ अंबेडकर ने हिन्दुस्तान के संविधान की रचना की. भारत के स्वतंत्रता संग्राम सैनिकों ने हिन्दुस्तान के संविधान की रचना की. संविधान की पोथी को बनाने वाली असेम्बली का इतिहास पढ़ें. सेवानिवृत्त आईसीएस अधिकारी, दीवान साहब और राय बहादुर और कई पश्चिमाभिमुख बुद्धिजीवियों ने मूल पाठ बनाया. देशभक्तों ने उस पर बहस की. उस पर दस्तखत करके उसको पेश कर दिया. संविधान की पोथी का अपमान नहीं होना चाहिए लेकिन जब हम रामायण, गीता, कुरान शरीफ, बाइबिल और गुरु ग्रंथ साहब पर बहस कर सकते हैं कि इनके सच्चे अर्थ क्या होने चाहिए. तो हमको हिन्दुस्तान की उस पोथी की जिसकी वजह से सारा देश चल रहा है, आयतों को पढ़ने, समझने और उसके मर्म को बहस के केन्द्र में डालने का भी अधिकार मिलना चाहिए. यही भगतसिंह का रास्ता है.

भगतसिंह ने कभी नहीं कहा कि किसी की बात को तर्क के बिना मानो. जब मैं भगतसिंह से तर्क करता हूं. बहस करता हूं. तब मैं पाता हूं कि भगतसिंह के तर्क में भावुकता है और भगतसिंह की भावना में तर्क है. भगतसिंह हिन्दुस्तान का पहला नेता था, पूरी क्रांतिकारी सेना में भगतसिंह अकेला था, जिसने दिल्ली के सम्मेलन में कहा कि हमें सामूहिक नेतृत्व के जरिए पार्टी को चलाने का शऊर सीखना चाहिए. वह तमीज सीखनी चाहिए ताकि हममें से कोई अगर चला जाए तो पार्टी मत बिखरे. भगतसिंह ने सबसे पहले देश में कहा था कि व्यक्ति से पार्टी बड़ी होती है. पार्टी से सिद्धांत बड़ा होता है. हम यह सब भूल गए. हमको केवल तमंचे वाला भगतसिंह याद है. अगर कोई थानेदार अत्याचार करता है तो हमको लगता है भगतसिंह की तरह हम उसे गोली मार दें. हम उसको अजय देवगन समझते हैं या धर्मेन्द्र का बेटा.

भगतसिंह किताबों में कैद है. उसको किताबों से बाहर लाएं. भगतसिंह विचारों के तहखाने में कैद है. उसको बहस के केन्द्र में लाएं. इसका रास्ता भी भगतसिंह ने ही बताया था. भगतसिंह ने कहा था कि ये बड़े बड़े अखबार तो बिके हुए हैं. इनके चक्कर में क्यों पड़ते हो. भगतसिंह और उनके साथी छोटे छोटे ट्रैक्ट 16 और 24 पृष्ठों की पत्रिकाएं छाप कर आपस में बांटते थे. हम यही कर लें तो इतनी ही भगतसिंह की सेवा बहुत है. विचारों की सान पर अगर कोई चीज चढ़ेगी वही तलवार बनेगी. यह भगतसिंह ने हमको सिखाया था. कुछ बुनियादी बातें ऐसी हैं जिनकी तरफ हमको ध्यान देना होगा.

हमारे देश में से तार्किकता, बहस, लोकतांत्रिक आजादी, जनप्रतिरोध, सरकारों के खिलाफ अराजक होकर खड़े हो जाने का अधिकार छिन रहा है. हमारे देश में मूर्ख राजा हैं. वे सत्ता पर लगातार बैठ रहे हैं. जिन्हें ठीक से हस्ताक्षर नहीं करना आता वो देश के राजनीतिक चेक पर दस्तखत कर रहे हैं. हमारे यहां एक आई एम सॉरी सर्विस आ गई है. आईएएस क़ी नौकरशाही. उसमें अब भ्रष्ट अधिकारी इतने ज्यादा हैं कि अच्छे अधिकारी ढूंढ़ना मुश्किल है. हमारे देश में निकम्मे साधुओं की जमात है. वे निकम्मे हैं लेकिन मलाई खाते हैं. इस देश के मेहनतकश मजदूर के लिए अगर कुछ रुपयों के बढ़ने की बात होती है, सब उनसे लड़ने बैठ जाते हैं. हमारे देश में असंगठित मजदूरों का बहुत बड़ा दायरा है. हम उनको संगठित करने की कोशिश नहीं करते. हमारे देश में पहले से ही सुरक्षित लोगों के अधिकारों की सुरक्षा के कानून बने हुए हैं. लेकिन भारत की संसद ने आज तक नहीं सोचा कि भारत के किसानों के भी अधिकार होने चाहिए. भारतीय किसान अधिनियम जैसा कोई अधिनियम नहीं है. किसान की फसल का कितना पैसा उसको मिले वह कुछ भी तय नहीं है. एक किसान अगर सौ रुपये के बराबर का उत्पाद करता है तो बाजार में उपभोक्ता को वह वस्तु हजार रुपये में मिलती है. आठ सौ नौ सौ रुपये बिचवाली, बिकवाली और दलाली में खाए जाते हैं. उस पर भी सरकार का संरक्षण होता है और सरकार खुद दलाली भी करती है. ऐसे किसानों की रक्षा के लिए भगतसिंह खड़े हुए थे.

भगतसिंह ने कभी नहीं कहा कि देश के उद्योगपतियो एक हो जाओ. भगतसिंह ने कभी नहीं कहा कि अपनी बीवी के जनमदिन पर हवाई जहाज तोहफे में भेंट करो और उसको देश का गौरव बताओ. भगतसिंह ने कभी नहीं कहा कि वकीलो एक हो जाओ क्योंकि वकील होने के नाते मुझे पता है कि वकीलों को एक रखना और मेंढकों को तराजू पर रखकर तौलना बराबर की बात है. भगतसिंह ने कभी नहीं कहा कि देश के डॉक्टरों को एक करो. उनको मालूम था कि अधिकतर डॉक्टर केवल मरीज के जिस्म और उसके प्राणों से खेलते हैं. उनका सारा ध्येय इस बात का होता है कि उनको फीस ज्यादा से ज्यादा कैसे मिले. अपवाद जरूर हैं. लेकिन अपवाद नियम को ही सिद्ध करते हैं. इसलिए भगतसिंह ने कहा था दुनिया के मजदूरो एक हो. इसलिए भगतसिंह ने कहा था कि किसान मजदूर और नौजवान की एकता होनी चाहिए. भगतसिंह पर राष्ट्रवाद का नशा छाया हुआ था. लेकिन उनका रास्ता मार्क्स के रास्ते से निकल कर आता था. एक अजीब तरह का राजनीतिक प्रयोग भारत की राजनीति में होने वाला था. लेकिन भगतसिंह काल कवलित हो गए. असमय चले गए.

भगतसिंह संभावनाओं के जननायक थे. वे हमारे अधिकारिक, औपचारिक नेता बन नहीं पाए. इसलिए सब लोग भगतसिंह से डरते हैं-अंगरेज और भारतीय हुक्मरान दोनों. उनके विचारों को क्रियान्वित करने में सरकारी कानूनों की घिग्गी बंध जाती है. संविधान पोषित राज्य व्यवस्थाओं में यदि कानून ही अजन्मे रहेंगे तो लोकतंत्र की प्रतिबद्धताओं का क्या होगा? भगतसिंह ने इतने अनछुए सवालों का र्स्पश किया है कि उन पर अब भी शोध होना बाकी है. भगतसिंह के विचार केवल प्रशंसा के योग्य नहीं हैं, उन पर क्रियान्वयन कैसे हो-इसके लिए बौद्धिक और जन आन्दोलनों की जरूरत है.
कनक तिवारी