हिन्दु बहुसँख्यक कैसे हो रहे है अल्पसँख्यक
क्या आप जानते है
पूर्वोत्तर में “शांति स्थापित करने के प्रयासों” के लिए गुवाहाटी के आर्चबिशप थॉमस मेनमपरामपिल को एक लोकप्रिय “इटालियन मैग्जीन” “बोलेटिनो सेल्सिआनो” ने नोबल शांति पुरस्कार के लिए “नामांकित” किया था और इनके लिए ४ पेज का एक आर्टिकल भी लिखा था जिसका शीर्षक था ’A Bishop for Nobel Prize’। पत्रिका में बताया गया था कि उन्होंने पूर्वोत्तर में विभिन्न जातीय समुदायों के बीच शांतिबनाए रखने के लिए कई बार पहल की।
उल्लेखनीय है कि कोई पत्रिका कभी नोबल पुरस्कार के उम्मीदवार नहींचुनती । खबर में जानबूझकर “नामांकित” शब्द का उपयोग किया गया था ताकि भ्रम फ़ैलाया जा सके। इन आर्चबिशप महोदय ने पूर्वोत्तर के किन जातीय समुदायों में अशांति हटाने की कोशिश की इसकी कोई तफ़सील नहीं दी गई (यह बताने का तोसवाल ही नहीं उठता कि इन आर्चबिशप महोदय ने कितने धर्मान्तरण करवाए)।
ध्यान रहे कि आज़ादी के समय मिज़ोरम, मेघालय और नागालैंड की आबादी हिन्दू बहुल थी, जो कि अब 60 साल में ईसाई बहुसंख्यक बन चुकी है और हिन्दू वह अल्पसंख्यक बन कर रह गए हैं। ज़ाहिर है कि “इटली” की किसी पत्रिका की ऐसी ‘फ़र्जी अनुशंसा’ उस क्षेत्र में धर्मांतरण के गोरखधंधे में लगे चर्च के पक्ष में हवा बांधने और देश के अन्य हिस्सों में सहानुभूति प्राप्त करने की भद्दी कोशिश ही है पर इसके परिणाम दूरगामी और भयावह होने वाले हैं या होंगे।
इस पुरस्कार की खुशी में आर्चबिशप महोदय ये बोल गए की ROME जहा वह मई २०११ में गए थे उस वक़्त ये बात उनको कही गई थी की ऐसा कुछ हो सकता है। अब यहाँ एक और सवाल उठता है की आखिर ROME को भारत के आर्चबिशप में ऐसी क्या बात दिखी की वो इनको पुरस्कार देने के पीछे पड़ गए पर वही अगर कोई हिन्दू सन्यासी अपने धर्म की बात करता है तो सेकुलर कीड़े उसको जाहिल, गंवार और देशद्रोही तक बना देते हैं। पर क्यों?
इससे पहले भी मदर टेरेसा को शांति का नोबल और “संत” की उपाधि से नवाज़ा जा चुका है, बिनायक सेन को कोरिया का “शांति पुरस्कार” दिया गया, अब इन आर्चबिशप महोदय का नामांकन भी कर दिया गया है…। मैगसेसे हो, नोबल हो याकोई अन्य शांति पुरस्कार हो… इनके कर्ताधर्ताओं के अनुसार सिर्फ़ “सेकुलर” व्यक्ति ही “सेवा” और “शांति” के लिए काम करते हैं, एक भी हिन्दू धर्माचार्य, हिन्दू संगठन, हिन्दू स्वयंसेवी संस्थाएं कुछ कामधाम ही नहीं करतीं। असली पेंच यहीं पर है, कि धर्मान्तरण के लिये विश्व भर में काम करने वाले “अपनेकर्मठ कार्यकर्ताओं” को पुरस्कार के रूप में “सुपारी” और “मेहनताना” पहुँचाने के लिये ही इन पुरस्कारों का गठन किया जाता है, जब “कार्यकर्ता” अपना काम करके दिखाता है, तो उसे पहले मीडिया के जरिये “चढ़ाया” जाता है, “हीरो” बनायाजाता है, और मौका पाते ही “पुरस्कार” दे दिया जाता है, तात्पर्य यह कि इस प्रकार के सभी पुरस्कार एक बड़े मिशनरी अन्तर्राष्ट्रीय षडयन्त्र के तहत ही दिये जाते हैं… इन्हें अधिक “सम्मान” से देखने या “भाव” देने की कोई जरुरत नहीं है। मीडिया तो इन व्यक्तियों और पुरस्कारों का “गुणगान” करेगा ही, क्योंकि विभिन्न NGOs के जरिये बड़े मीडिया हाउसों में चर्च का ही पैसा लगा हुआ है।
अब अगर मै १९९१ तक के सूरते हाल पर बातकरू तो मुझे कुछ ऐसा दीखता है भारत का परिदृश्य धर्म के अधर पर-यहाँ इस गणना में साफ-साफ दिख रहा है की क्रिस्चियन की संख्या भारत में १९,६५१,००० रही। पर वही अगर मै मौजूदा सूरते हाल देखता हु वो भी २००१ इस टेबल से १० साल बाद की तो मुझे कुछ ही और दिखाई देता है।
जो राज्य कभी हिन्दू और मुस्लमान बहुल हुआ करते थे वो राज्य अब ईसाई बहुल कैसे हो गए? ऐसी कौन सी जड़ी बूटी पिलाई गई की १० सालो में ही वो राज्य ईसाई बन गए और हमें कानो कान कोई खबर नहीं हुई। आज भी इन राज्यों में धर्मान्तरण जारी है पर इन राज्यों की शायद ही कोई खबर हम तक मीडिया के द्वारा पहुचाई जाती है।
“द विन्ची कोड” जो की पुरे विश्व में चली कही उस पर कोई केस दर्ज नहीं हुआ लेकिन भारत में कैथोलिक ईसाई पादरियों ने इस पर केस दर्ज किया इसे बैन करने के लिए भारत में। कैथोलिक इसाइयो की बात करे तो इनको सबसे ज्यादाइनको ही धर्मपरिवर्तन करने की पड़ी रहती है और सबसे ज्यादा बर्बर ये रहे हैं लेकिन यहाँ भारत में धर्म परिवर्तन करने में लगे हुए हैं।
किसी भी जगह पर एक भी परिवार भले वो गरीब हो अगर ईसाई बन जाता है तो तुरंत किसी जमीन को अधिगृहित करके उस पर एक भव्य चर्च का निर्माण किया जाता है। उस गरीब के पास तो इतना पैसा नहीं होता की वो अपनी रोटी ला सके फिर ये चर्च कैसे बन जाता है वहा।
कुछ जगहों पर ऐसा भी पाया गया है की अगर वहा के स्थानीय लोग अगर भूमि अधिग्रहण का विरोध करते हैं तो सीधा उस मिसनरी से सम्बंधित देश के सर्वोच्च पदासीन पदाधिकारी चाहे वो वहा का प्रधानमंत्री हो या राष्ट्रपति उसका फ़ोन आता है उस राज्य के मुख्या मंत्री के पास और मुख्या मंत्री से उस जिले के DM के पास ताकि उसी भूमि का अधिग्रहण हो और वहा चर्च बने।
अब मै एक और न्यूज़ को आपके संज्ञान में लाना चाहूँगा-
एक वेबसाइट हैं http:// www.dalitnetwork.org/ जो की एक अमेरिकी ईसाई की मिशनरी है जो २००२ में USA में बनी और इसके प्रेसिडेंट का नाम है DR. JOSEPH D’SOUZAजो की भारत के क्रिस्चियन कॉउन्सिल के भी प्रेसिडेंट हैं| ये हैं तो एक ईसाई पर इनको चिंता है दलितों की। ऐसा क्या दिखा इस ईसाई को दलितों में। क्यों ये दलित फ्रीडम नेटवर्क चला रहा है एक ईसाई हो कर भी इसका मतलब साफ़ है की ये धर्मान्तरण कर रहा है
और आपकी सोनिया का हाथ पुरी तरह इनके साथ है .........||
कट्टर सनातनी व माँ भारती के सच्चे सपुत धरम सेना पेज को अपने पसँदीदा पेजो मे सामिल करे ।।
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जय सनातन आर्याव्रत
जय माँ भारती
हिन्दी, हिन्दु, हिन्दुस्तान
वैदो की और लोटो
जय श्री राम ।।
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उल्लेखनीय है कि कोई पत्रिका कभी नोबल पुरस्कार के उम्मीदवार नहींचुनती । खबर में जानबूझकर “नामांकित” शब्द का उपयोग किया गया था ताकि भ्रम फ़ैलाया जा सके। इन आर्चबिशप महोदय ने पूर्वोत्तर के किन जातीय समुदायों में अशांति हटाने की कोशिश की इसकी कोई तफ़सील नहीं दी गई (यह बताने का तोसवाल ही नहीं उठता कि इन आर्चबिशप महोदय ने कितने धर्मान्तरण करवाए)।
ध्यान रहे कि आज़ादी के समय मिज़ोरम, मेघालय और नागालैंड की आबादी हिन्दू बहुल थी, जो कि अब 60 साल में ईसाई बहुसंख्यक बन चुकी है और हिन्दू वह अल्पसंख्यक बन कर रह गए हैं। ज़ाहिर है कि “इटली” की किसी पत्रिका की ऐसी ‘फ़र्जी अनुशंसा’ उस क्षेत्र में धर्मांतरण के गोरखधंधे में लगे चर्च के पक्ष में हवा बांधने और देश के अन्य हिस्सों में सहानुभूति प्राप्त करने की भद्दी कोशिश ही है पर इसके परिणाम दूरगामी और भयावह होने वाले हैं या होंगे।
इस पुरस्कार की खुशी में आर्चबिशप महोदय ये बोल गए की ROME जहा वह मई २०११ में गए थे उस वक़्त ये बात उनको कही गई थी की ऐसा कुछ हो सकता है। अब यहाँ एक और सवाल उठता है की आखिर ROME को भारत के आर्चबिशप में ऐसी क्या बात दिखी की वो इनको पुरस्कार देने के पीछे पड़ गए पर वही अगर कोई हिन्दू सन्यासी अपने धर्म की बात करता है तो सेकुलर कीड़े उसको जाहिल, गंवार और देशद्रोही तक बना देते हैं। पर क्यों?
इससे पहले भी मदर टेरेसा को शांति का नोबल और “संत” की उपाधि से नवाज़ा जा चुका है, बिनायक सेन को कोरिया का “शांति पुरस्कार” दिया गया, अब इन आर्चबिशप महोदय का नामांकन भी कर दिया गया है…। मैगसेसे हो, नोबल हो याकोई अन्य शांति पुरस्कार हो… इनके कर्ताधर्ताओं के अनुसार सिर्फ़ “सेकुलर” व्यक्ति ही “सेवा” और “शांति” के लिए काम करते हैं, एक भी हिन्दू धर्माचार्य, हिन्दू संगठन, हिन्दू स्वयंसेवी संस्थाएं कुछ कामधाम ही नहीं करतीं। असली पेंच यहीं पर है, कि धर्मान्तरण के लिये विश्व भर में काम करने वाले “अपनेकर्मठ कार्यकर्ताओं” को पुरस्कार के रूप में “सुपारी” और “मेहनताना” पहुँचाने के लिये ही इन पुरस्कारों का गठन किया जाता है, जब “कार्यकर्ता” अपना काम करके दिखाता है, तो उसे पहले मीडिया के जरिये “चढ़ाया” जाता है, “हीरो” बनायाजाता है, और मौका पाते ही “पुरस्कार” दे दिया जाता है, तात्पर्य यह कि इस प्रकार के सभी पुरस्कार एक बड़े मिशनरी अन्तर्राष्ट्रीय षडयन्त्र के तहत ही दिये जाते हैं… इन्हें अधिक “सम्मान” से देखने या “भाव” देने की कोई जरुरत नहीं है। मीडिया तो इन व्यक्तियों और पुरस्कारों का “गुणगान” करेगा ही, क्योंकि विभिन्न NGOs के जरिये बड़े मीडिया हाउसों में चर्च का ही पैसा लगा हुआ है।
अब अगर मै १९९१ तक के सूरते हाल पर बातकरू तो मुझे कुछ ऐसा दीखता है भारत का परिदृश्य धर्म के अधर पर-यहाँ इस गणना में साफ-साफ दिख रहा है की क्रिस्चियन की संख्या भारत में १९,६५१,००० रही। पर वही अगर मै मौजूदा सूरते हाल देखता हु वो भी २००१ इस टेबल से १० साल बाद की तो मुझे कुछ ही और दिखाई देता है।
जो राज्य कभी हिन्दू और मुस्लमान बहुल हुआ करते थे वो राज्य अब ईसाई बहुल कैसे हो गए? ऐसी कौन सी जड़ी बूटी पिलाई गई की १० सालो में ही वो राज्य ईसाई बन गए और हमें कानो कान कोई खबर नहीं हुई। आज भी इन राज्यों में धर्मान्तरण जारी है पर इन राज्यों की शायद ही कोई खबर हम तक मीडिया के द्वारा पहुचाई जाती है।
“द विन्ची कोड” जो की पुरे विश्व में चली कही उस पर कोई केस दर्ज नहीं हुआ लेकिन भारत में कैथोलिक ईसाई पादरियों ने इस पर केस दर्ज किया इसे बैन करने के लिए भारत में। कैथोलिक इसाइयो की बात करे तो इनको सबसे ज्यादाइनको ही धर्मपरिवर्तन करने की पड़ी रहती है और सबसे ज्यादा बर्बर ये रहे हैं लेकिन यहाँ भारत में धर्म परिवर्तन करने में लगे हुए हैं।
किसी भी जगह पर एक भी परिवार भले वो गरीब हो अगर ईसाई बन जाता है तो तुरंत किसी जमीन को अधिगृहित करके उस पर एक भव्य चर्च का निर्माण किया जाता है। उस गरीब के पास तो इतना पैसा नहीं होता की वो अपनी रोटी ला सके फिर ये चर्च कैसे बन जाता है वहा।
कुछ जगहों पर ऐसा भी पाया गया है की अगर वहा के स्थानीय लोग अगर भूमि अधिग्रहण का विरोध करते हैं तो सीधा उस मिसनरी से सम्बंधित देश के सर्वोच्च पदासीन पदाधिकारी चाहे वो वहा का प्रधानमंत्री हो या राष्ट्रपति उसका फ़ोन आता है उस राज्य के मुख्या मंत्री के पास और मुख्या मंत्री से उस जिले के DM के पास ताकि उसी भूमि का अधिग्रहण हो और वहा चर्च बने।
अब मै एक और न्यूज़ को आपके संज्ञान में लाना चाहूँगा-
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जय श्री राम ।।
धन्यवाद भाई जानकारी साझा करने के लिए
जवाब देंहटाएंमे धरम सेना पेज का एडमिन हुँ