एक समय था जब भारत विश्वगुरु व सोने की चिड़िया के नाम से जाना जाता था। तक्षशिला व नालन्दा तो शिक्षा के वैश्विक केन्द्र थे अन्यथा भारत का प्रत्येक घर विज्ञान व शोध का केन्द्र था। नालंदा जैसे ज्ञान के भव्य मन्दिर 1193 में बख्तियार खिलजी जैसे मुस्लिम आक्रांताओं द्वारा जलाकर राख़ कर दिए गए। अंग्रेजों ने भी भारतीय विज्ञान को भारी क्षति पहुंचाई। 17वीं सदी से आज तक भारतीय विज्ञान के महान शोधों-सूत्रों को अँग्रेजी नाम देकर छल किए गए और आज अदरक, कालीमिर्च, हल्दी व नीम जैसी पारंपरिक आयुर्वेद की औषधियों के अमेरिका-यूरोप द्वारा पेटेंट कराये जाने के प्रयास हो रहे हैं।
इन दिनों “क्रिश्चियन योगा” प्रोपगंडा के तहत सनातन भारत का योग विज्ञान निशाने पर है। योग हिन्दू धर्म की मानवता को अभूतपूर्व देन है। योग हिन्दुत्व की नींव भी है और शिखर भी। गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि तपस्वी, ज्ञानी व कर्मों में लगे व्यक्ति से भी योगी श्रेष्ठ है अतः अर्जुन तू योगी बन! योग हिन्दुत्व का ध्येय है किन्तु आज क्रिश्चियन मिशनरीज़ द्वारा योग के भी ईसाईकरण अर्थात धर्मांतरण के दुष्प्रयास हो रहे हैं। ईसाई देशों में जहां कई चर्च इस काम में लगे हैं वहीं भारत में निनान पॉल नामक केरल के एक पादरी ने योग के ईसाईकरण का अभियान छेड़ा है।
योग शब्द संस्कृत की “युज्” धातु से बना है जिसका अर्थ है जुड़ना या एक होना अर्थात जीवात्मा का ब्रम्ह के साथ एक हो जाना अर्थात कैवल्य। कैवल्य अर्थात मोक्ष हिन्दू धर्म का विशिष्ट दर्शन है जहां पर प्रत्येक मत अंत में एक हो जाता है क्योंकि “तुम ईश्वर के अंश हो, तुम ही ईश्वर हो, आयमात्मा ब्रम्ह, अहम् ब्रम्हास्मि” ऐसा कहने का साहस भारतीय हिन्दू ऋषियों के अतिरिक्त कोई भी नही कर सका। सभी प्राणियों में एक ईश्वर को देखना ही योग है इसीलिए गीता कहती है समता ही योग है, “समत्वम् योग उच्यते”। स्वामी विवेकानंद ने जब शिकागो के विश्व धर्म सम्मेलन में इस दर्शन का उद्घोष किया तो सम्पूर्ण विश्व अचंभित हो गया! विश्व के अन्य सभी नए धर्म स्वर्ग के ऐशों-आराम के वादे तक ही सीमित हैं जबकि हिन्दू धर्म स्वर्ग को निकृष्ट कहकर बेझिझक उसकी अवहेलना कर देता है। भारतीय दर्शन में ब्रम्हत्व की प्राप्ति अर्थात पूर्ण सत्य का दर्शन ही परम उद्देश्य है इसी इसीकारण यहाँ ज्ञान की पूजा होती रही है। योग वस्तुतः जीव-ब्रम्ह के योग का मार्ग है जिसेकि विभिन्न रूपों से स्पष्ट किया गया है। महर्षि पतंजलि के अनुसार “योगश्चित्तवृत्ति निरोंध:” अर्थात चित्त की वृत्तियों (मन) का संयमन ही योग है। माण्डूक्योपनिषद अद्वैत प्रकरण श्लोक 40 भी यही अर्थ स्पष्ट करता है। जन्नत में इंद्रियों के सुख भोगना ही जिस दर्शन का चरम उद्देश्य हो वह योग पर दावा कैसे ठोंक सकता है?
हिन्दू धर्म का प्रत्येक ग्रन्थ योग पर आधारित है। गीता के 18 अध्याय सांख्ययोग, कर्मयोग, भक्तियोग आदि योग अध्याय ही हैं। रामायण-भागवद आदि ग्रन्थ भक्ति योग पर आधारित हैं, सगुण उपासना या मूर्तिपूजा आदि के द्वारा भगवान से एकत्व स्थापित करना ही भक्तियोग या प्रेमयोग है जिसके विषय में गीता के 12वें अध्याय के श्लोक 2 में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि ऐसा योगी मेरे मत में सर्वश्रेष्ठ है । वेद व उपनिषद योग ग्रन्थ ही हैं। ऋग्वेद के मण्डल 1 सूक्त 18 का 7वां श्लोक है कि योग के बिना विद्वान का कोई भी यज्ञकर्म सिद्ध नहीं होता। श्वेताश्वतरोपनिषद का अध्याय 2 गीता के अध्याय 6 की भांति योग प्रक्रिया प्राणायाम-आसन आदि कैसे किए जाएँ यही बताता है, चरमयोग पर तो उपनिषदों का एक-एक मन्त्र ही समर्पित है। गीता में अध्याय 11 श्लोक 4, 9 अध्याय 18 श्लोक 78 आदि स्थानों पर भगवान को योगेश्वर कहा गया है, पुराणों में भगवान शिव के लिए योगीश्वर सम्बोधन आया है। जिस हिन्दुत्व की जड़ से लेकर फल तक सर्वत्र योग की ही अवधारणा हो, जहां ईश्वर को भी योगेश्वर व योगीश्वर कहा जाता हो, जिसने सम्पूर्ण विश्व को योग की शिक्षा दी हो उसे चन्द चर्च-मिशनरीज़ यह बताने का दुस्साहस कर रहे हैं कि योग को हिन्दू धर्म से जोड़कर नहीं देखा जाना चाहिए? सनातन हिन्दू उपासना पद्धति में सर्वाधिक महत्वपूर्ण त्रिकाल संध्या में प्राणायाम आदि योग ही उपासना है! कुछ तथाकथित धर्मनिरपेक्ष बुद्धिजीवी यह कहकर क्रिश्चियन योगा का बचाव करते हैं कि योग व धर्म दो अलग चीजें हैं। यदि वास्तव में ऐसा हैं तो फिर योग को क्रिश्चियन योगा क्यों बनाया जाना चाहिए? भगवान कृष्ण गीता अध्याय 4/1 में कहते हैं कि इस अविनाशी योग विज्ञान को मैंने सूर्य से कहा था, सूर्य ने मनु से, मनु ने इक्ष्वाकु से कहा था। अर्थात हिन्दू धर्म के अनुसार योग का इससे सनातन संबंध है।
क्रिश्चियन योगा में सूर्य नमस्कार व विभिन्न हिन्दू मंत्रों, विशेषकर ॐ, को निकाल कर उसके स्थान पर मनचाहे शब्द रख दिए गए। प्रणव अर्थात ॐ ब्रम्हाण्ड की उत्पत्ति का नाद है, हिन्दू शास्त्रों में प्रणव को योग व उपासना की आत्मा कहा गया है। कठोपनिषद 2/15, प्रश्नोपनिषद पंचम प्रश्न, तैत्तरीयोपनिषद अष्टम अनुवाक, श्वेताश्वरोपनिषद प्रथम अध्याय, मंडूक्योपनिषद आगम प्रकरण आदि सर्वत्र ओंकार के महत्व को बता गया है। हिन्दू योग विज्ञान के आधे भाग को शैतानियत घोषित कर देना और आधे को तोड़मरोड़कर क्रिश्चियानिटी का ठप्पा लगा देना, इससे अधिक संकीर्ण, हास्यास्पद व निंदनीय मानसिकता कुछ नहीं हो सकती।
सम्पूर्ण विश्व में मौलिक संस्कृतियों को नष्टकर ईसाइयत फैलाने के लिए चर्च ने सदैव षडयंत्रों का प्रयोग किया है। भारत में चर्च का इतिहास काफी प्राचीन है किन्तु धर्मांतरण का चक्र तब तक प्रारम्भ नहीं हो सका जब तक पुर्तगाली यहाँ नहीं आए। सोलहवीं शताब्दी के मध्य में प्रसिद्ध पादरी फ्रांसिस ज़ेवियर, जोकि आज सैंट ज़ेवियर के नाम से भारत में पूजे जाते हैं, भारत आए और तटीय क्षेत्रों में परवास मछुआरों को ईसाई बनाने का काम शुरू किया अन्यथा उनकी नावें पुर्तगाली जला देते थे। गोवा आदि क्षेत्रों में हिन्दुओं पर अमानवीय अत्याचार हुए, ब्राम्हणों की निर्मम हत्याएं की गईं। किन्तु विश्व के सबसे सशक्त समझे जाने वाले हिन्दू धर्म की सदियों पुरानी दृढ़ धार्मिक आस्थाओं के कारण चर्च को कुछ विशेष सफलता नहीं मिली। 1604 में डी नोब्ली नामक फ्रांसीसी पादरी भारत भेजा गया जोकि 1606 में मदुरई मिशन का प्रमुख नियुक्त हुआ। भारत में छल कपट व षडयंत्रों से धर्मांतरण की नींव उसने रखी। धर्मांतरण के सभी प्रयासों में असफल होने के बाद उसने पोप पॉल पंचम को पत्र लिखा कि यहाँ मूर्तिपूजकों को ईसाई बनाने के मेरे सभी प्रयास व्यर्थ हो चुके हैं अब मेरे पास कोई और रास्ता नहीं बचा है। पुर्तगालियों द्वारा किए गए अत्याचारों के कारण वे और भी दूर हो गए हैं। इसके बाद नोब्ली ने लोगों को भरमाने के लिए क्रांगनोर के आर्चबिशप से अनुमति लेकर ब्राम्हण बनने का ढोंग किया। संस्कृत तमिल सीखने के साथ साथ उसने जनेऊ, चोटी, तिलक रखना व भगवा कपड़े पहनना भी शुरू का दिया। उसने मदुरई में कोविल (तमिल में मन्दिर) नाम से अपना एक आश्रम बनाया और क्रिश्चियन प्रार्थनाओं को तमिल संस्कृत में रचा, खुद को रोम का ब्राम्हण बताकर उसने आस्थाओं का शोषण करते हुए क्रिश्चियन पाठ पढ़ाना व प्रसाद बांटना शुरू कर दिया। ब्राम्हण दिखने के लिए वो जमीन पर सोना, दांत माँजना व शौच के बाद पानी से सफाई भी करने लगा। इस तरह उसने कुछ वर्षों में 120 हिन्दुओं को पथभ्रमित कर धर्मांतरित कर दिया। सितम्बर 1883 में विवेकानन्द के शिकागो भाषण के बाद विश्व में हिन्दू धर्म का शंखनाद गूँज उठा था जिससे भारत में ईसाई मिशनरीज़ के धर्मांतरण के षडयंत्रों को करारा झटका लगा था। इससे निपटने के लिए एक धर्मांतरित ईसाई भवानीचरण ने ब्रम्हबान्धव नाम से मिशनरीज़ प्रोपगंडा फैलाने के लिए सन्यासी वेशभूषा का डी नोब्ली का पाखण्ड शुरू किया था।
क्रिश्चियन आश्रम का यह षड्यंत्र 1921 से पी. चेंचियह द्वारा सुनियोजित व संगठित तरीके से शुरू किया गया जिसमे पादरियों को सन्यासी वेश-भूषा, शाकाहारी भोजन, व क्रिश्चियनाइज्ड हिन्दू परम्पराओं को अपनाने को कहा गया। ईसामसीह एवं मेरी के हिन्दू ऋषि व हिन्दू महिला की वेशभूषा में चित्र बनाए गए। प्रीस्ट्स को पुजारी के भेष मे दिखाया गया। कई चित्रों में जीसस को योगमुद्रा में दिखाया गया। आश्रमों के नाम भी “क्राइस्टकुल”, “क्राइस्ट सेवा संघ” आदि ईसाइयत मिक्स्ड संस्कृत में रखे गए। विदेशी फ़ंड पर ऐसे आश्रमों की बाढ़ आगई, अपनी संस्कृति परम्पराओं में कठोर निष्ठा रखने वाले आदिवासी व निम्न वर्ग इन जालों में सबसे अधिक फंसे फिर प्रचारित किया गया कि आदिवासी व निम्न जातियाँ अपने को हिन्दू नहीं मानती और स्वेक्षा से ईसाई बन रहे हैं। श्रीराम गोयल जी ने इस विषय पर एक कैथोलिक आश्रम नाम से पृथक पुस्तक ही लिखी है।
हंसों के बींच बगुलों का यह षड्यंत्र आज भी कई रूपों में काम कर रहा है। छोटे-छोटे गावों में कार्यक्रम किए जाते हैं जिनमें भीड़ जुटाने के लिए लाउडस्पीकर पर राम भजन बजाए जाते हैं और बाद में पानी से रोग व शैतानी साया ठीक करने का ढोंग होता है। अगले दिन मरीजों को बताया जाता है कि उनके घरों में मूर्तियाँ रखी हैं इसलिए कृपा नहीं हो रही फिर घर जाकर मूर्तियों को तोड़कर फेंका जाता है उनकी जगह क्राइस्ट मेरी की मूर्ति रख दी जाती है और फिर पैसे दिए जाते हैं और गले में क्रॉस लटका दिया जाता है। 2008 में उत्तर प्रदेश के कस्बे में मैंने इस पूरे षड्यंत्र को पहली बार देखा था। समाज व धर्मों को जानने की इस यात्रा में एक पादरी से मेरी पहली मुलाक़ात 12-13 वर्ष की आयु पर हुई थी जिसमें उसने मुझे ईसामसीह पर एक कॉमिक्स की तरह एक किताब कुछ अन्य किताबों के साथ दी थी। उसके पीछे एक फॉर्म था जिसे भरके भेजने पर उधर से रुपए आते थे। साथ में “क्राइस्ट गीता” नाम से एक किताब थी जिसमें गीता की नकल पर 18 अध्याय रचे गए थे। क्राइस्ट गीता व क्राइस्ट रामायण व सत्संग उसी सुनियोजित षड्यंत्र का हिस्सा हैं जिसके अंतर्गत आज “क्रिश्चियन योगा” का प्रोपगंडा शुरू हुआ है, इसे इंडीजेनाइज्ड क्रिश्चियानिटी कहते हैं।
इंडीजेनाइज्ड क्रिश्चियानिटी व क्रिश्चियन योगा चर्च का गहरा षड्यंत्र है। इससे न सिर्फ अपनी परम्परा संस्कृति से दृढ़ता से चिपके हिंदुओं को धर्मांतरित किया जा रहा है साथ ही यह चर्च के ढहते साम्राज्य को बचाने का प्रयास भी है। इंद्रियसुखों के लालच पर टिका संकीर्ण एकेश्वरवाद आज पराभूत हो रहा है, हजारों लाखों की संख्या में पश्चिमी नागरिक हरिद्वार वृन्दावन आदि स्थानों पर हिन्दू धर्म की सघन स्वतन्त्र अध्यात्म शाखाओं की छांव में आश्रय ले रहे हैं, अमेरिका में लगभग 20 मिलियन लोग योग की शरण में आ चुके हैं। हिन्दुत्व एकेश्वरवाद का दुराग्रह नहीं करता अपितु विभिन्न मार्गों की प्रस्तीर्ण शाखाओं को अन्त में मूल में एक चरम बिन्दु पर मिला देता है। गीता 15/1 व कठोपनिषद 2/3/1 आदि हिन्दू शास्त्रों में “ऊर्ध्वमूलमधःशाखम्….” रूपी वृक्ष का उल्लेख किया है जिसमें विभिन्न शाखाओं के बाद भी मूल में मात्र ब्रम्ह ही है। विविधता में एकता का ऐसा उदार व वास्तविक सन्देश विश्व का कोई और दर्शन कभी दे ही नहीं सका। पी. चेंचियाह ने अपनी पुस्तक “द हिन्दू” में स्वीकार किया है कि हिन्दू धर्म में योग जैसे अनूठे साधन हैं जोकि व्यक्ति को असीम ऊंचाई तक उठा सकता है जबकि क्रिश्चियानिटी के पास ऐसा कुछ भी नहीं है। क्रिश्चियानिटी की इस गरीबी को ढंकने के लिए, बाबजूद इसके कि चर्च खीज में कई बार योग को शैतानी काम घोषित कर चुकी हैं क्योंकि योग प्रत्येक रूप में अंर्त या बाह्य प्रकृति की उपासना ही है और बाइबल व्यवस्था विवरण 17/2-4 में कहती है की सूर्य चन्द्रमा अथवा देवी देवता पूजकों को तुम पत्थरों से मार डालो, हिन्दू अध्यात्म योग विज्ञान पर डकैती डालने के प्रयास हो रहे हैं। यह वैटिकन के सम्पूर्ण विश्व के ईसाईकरण के प्रयास का एक हिस्सा है। पॉप जॉन पॉल II ने 6 नवम्बर 1999 को भारत में खड़े होकर इस बात की घोषणा की थी कि पहली सहस्राब्दि में यूरोप और दूसरी सहस्राब्दि में अमेरिका एवं अफ्रीका में हमने क्रॉस गड़ा दिया अब तीसरी सहस्राब्दि में एशिया की बारी है। यह पॉप की केवल एक गर्वोक्ति नहीं थी, यह का सुनियोजित प्लान है जिसे वैटिकन ने 18 अप्रैल 1998 से मई 1998 के बींच रोम में आयोजित ईसाई धर्मसभा में “एक्लेसिया इन एशिया” नाम से पारित किया गया था।
हिन्दुओं को इन हथकंडों को समझना होगा, योग का ईसाईकरण हिन्दू संस्कृति के ईसाईकरण का षड्यंत्र है, हिन्दुओं के ईसाईकरण का षडयंत्र है, “एक्लेसिया इन एशिया” के अंतर्गत भारत के ईसाईकरण का षड्यंत्र है। यदि हमने अपनी उदारता को उदासीनता से बाहर नहीं निकाला तो सनातन भारतीय संस्कृति का गौरव इतिहास में सिमट जाएगा, ग्रीक जैसे देश व भारत में मिज़ोरम, नागालैंड, केरल जैसे राज्य इसके ज्वलंत प्रमाण हैं।
.वासुदेव त्रिपाठीhttp://tripathivasudev.jagranjunction.com/2012/05/27/christian_yoga_against/
इन दिनों “क्रिश्चियन योगा” प्रोपगंडा के तहत सनातन भारत का योग विज्ञान निशाने पर है। योग हिन्दू धर्म की मानवता को अभूतपूर्व देन है। योग हिन्दुत्व की नींव भी है और शिखर भी। गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि तपस्वी, ज्ञानी व कर्मों में लगे व्यक्ति से भी योगी श्रेष्ठ है अतः अर्जुन तू योगी बन! योग हिन्दुत्व का ध्येय है किन्तु आज क्रिश्चियन मिशनरीज़ द्वारा योग के भी ईसाईकरण अर्थात धर्मांतरण के दुष्प्रयास हो रहे हैं। ईसाई देशों में जहां कई चर्च इस काम में लगे हैं वहीं भारत में निनान पॉल नामक केरल के एक पादरी ने योग के ईसाईकरण का अभियान छेड़ा है।
योग शब्द संस्कृत की “युज्” धातु से बना है जिसका अर्थ है जुड़ना या एक होना अर्थात जीवात्मा का ब्रम्ह के साथ एक हो जाना अर्थात कैवल्य। कैवल्य अर्थात मोक्ष हिन्दू धर्म का विशिष्ट दर्शन है जहां पर प्रत्येक मत अंत में एक हो जाता है क्योंकि “तुम ईश्वर के अंश हो, तुम ही ईश्वर हो, आयमात्मा ब्रम्ह, अहम् ब्रम्हास्मि” ऐसा कहने का साहस भारतीय हिन्दू ऋषियों के अतिरिक्त कोई भी नही कर सका। सभी प्राणियों में एक ईश्वर को देखना ही योग है इसीलिए गीता कहती है समता ही योग है, “समत्वम् योग उच्यते”। स्वामी विवेकानंद ने जब शिकागो के विश्व धर्म सम्मेलन में इस दर्शन का उद्घोष किया तो सम्पूर्ण विश्व अचंभित हो गया! विश्व के अन्य सभी नए धर्म स्वर्ग के ऐशों-आराम के वादे तक ही सीमित हैं जबकि हिन्दू धर्म स्वर्ग को निकृष्ट कहकर बेझिझक उसकी अवहेलना कर देता है। भारतीय दर्शन में ब्रम्हत्व की प्राप्ति अर्थात पूर्ण सत्य का दर्शन ही परम उद्देश्य है इसी इसीकारण यहाँ ज्ञान की पूजा होती रही है। योग वस्तुतः जीव-ब्रम्ह के योग का मार्ग है जिसेकि विभिन्न रूपों से स्पष्ट किया गया है। महर्षि पतंजलि के अनुसार “योगश्चित्तवृत्ति निरोंध:” अर्थात चित्त की वृत्तियों (मन) का संयमन ही योग है। माण्डूक्योपनिषद अद्वैत प्रकरण श्लोक 40 भी यही अर्थ स्पष्ट करता है। जन्नत में इंद्रियों के सुख भोगना ही जिस दर्शन का चरम उद्देश्य हो वह योग पर दावा कैसे ठोंक सकता है?
हिन्दू धर्म का प्रत्येक ग्रन्थ योग पर आधारित है। गीता के 18 अध्याय सांख्ययोग, कर्मयोग, भक्तियोग आदि योग अध्याय ही हैं। रामायण-भागवद आदि ग्रन्थ भक्ति योग पर आधारित हैं, सगुण उपासना या मूर्तिपूजा आदि के द्वारा भगवान से एकत्व स्थापित करना ही भक्तियोग या प्रेमयोग है जिसके विषय में गीता के 12वें अध्याय के श्लोक 2 में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि ऐसा योगी मेरे मत में सर्वश्रेष्ठ है । वेद व उपनिषद योग ग्रन्थ ही हैं। ऋग्वेद के मण्डल 1 सूक्त 18 का 7वां श्लोक है कि योग के बिना विद्वान का कोई भी यज्ञकर्म सिद्ध नहीं होता। श्वेताश्वतरोपनिषद का अध्याय 2 गीता के अध्याय 6 की भांति योग प्रक्रिया प्राणायाम-आसन आदि कैसे किए जाएँ यही बताता है, चरमयोग पर तो उपनिषदों का एक-एक मन्त्र ही समर्पित है। गीता में अध्याय 11 श्लोक 4, 9 अध्याय 18 श्लोक 78 आदि स्थानों पर भगवान को योगेश्वर कहा गया है, पुराणों में भगवान शिव के लिए योगीश्वर सम्बोधन आया है। जिस हिन्दुत्व की जड़ से लेकर फल तक सर्वत्र योग की ही अवधारणा हो, जहां ईश्वर को भी योगेश्वर व योगीश्वर कहा जाता हो, जिसने सम्पूर्ण विश्व को योग की शिक्षा दी हो उसे चन्द चर्च-मिशनरीज़ यह बताने का दुस्साहस कर रहे हैं कि योग को हिन्दू धर्म से जोड़कर नहीं देखा जाना चाहिए? सनातन हिन्दू उपासना पद्धति में सर्वाधिक महत्वपूर्ण त्रिकाल संध्या में प्राणायाम आदि योग ही उपासना है! कुछ तथाकथित धर्मनिरपेक्ष बुद्धिजीवी यह कहकर क्रिश्चियन योगा का बचाव करते हैं कि योग व धर्म दो अलग चीजें हैं। यदि वास्तव में ऐसा हैं तो फिर योग को क्रिश्चियन योगा क्यों बनाया जाना चाहिए? भगवान कृष्ण गीता अध्याय 4/1 में कहते हैं कि इस अविनाशी योग विज्ञान को मैंने सूर्य से कहा था, सूर्य ने मनु से, मनु ने इक्ष्वाकु से कहा था। अर्थात हिन्दू धर्म के अनुसार योग का इससे सनातन संबंध है।
क्रिश्चियन योगा में सूर्य नमस्कार व विभिन्न हिन्दू मंत्रों, विशेषकर ॐ, को निकाल कर उसके स्थान पर मनचाहे शब्द रख दिए गए। प्रणव अर्थात ॐ ब्रम्हाण्ड की उत्पत्ति का नाद है, हिन्दू शास्त्रों में प्रणव को योग व उपासना की आत्मा कहा गया है। कठोपनिषद 2/15, प्रश्नोपनिषद पंचम प्रश्न, तैत्तरीयोपनिषद अष्टम अनुवाक, श्वेताश्वरोपनिषद प्रथम अध्याय, मंडूक्योपनिषद आगम प्रकरण आदि सर्वत्र ओंकार के महत्व को बता गया है। हिन्दू योग विज्ञान के आधे भाग को शैतानियत घोषित कर देना और आधे को तोड़मरोड़कर क्रिश्चियानिटी का ठप्पा लगा देना, इससे अधिक संकीर्ण, हास्यास्पद व निंदनीय मानसिकता कुछ नहीं हो सकती।
सम्पूर्ण विश्व में मौलिक संस्कृतियों को नष्टकर ईसाइयत फैलाने के लिए चर्च ने सदैव षडयंत्रों का प्रयोग किया है। भारत में चर्च का इतिहास काफी प्राचीन है किन्तु धर्मांतरण का चक्र तब तक प्रारम्भ नहीं हो सका जब तक पुर्तगाली यहाँ नहीं आए। सोलहवीं शताब्दी के मध्य में प्रसिद्ध पादरी फ्रांसिस ज़ेवियर, जोकि आज सैंट ज़ेवियर के नाम से भारत में पूजे जाते हैं, भारत आए और तटीय क्षेत्रों में परवास मछुआरों को ईसाई बनाने का काम शुरू किया अन्यथा उनकी नावें पुर्तगाली जला देते थे। गोवा आदि क्षेत्रों में हिन्दुओं पर अमानवीय अत्याचार हुए, ब्राम्हणों की निर्मम हत्याएं की गईं। किन्तु विश्व के सबसे सशक्त समझे जाने वाले हिन्दू धर्म की सदियों पुरानी दृढ़ धार्मिक आस्थाओं के कारण चर्च को कुछ विशेष सफलता नहीं मिली। 1604 में डी नोब्ली नामक फ्रांसीसी पादरी भारत भेजा गया जोकि 1606 में मदुरई मिशन का प्रमुख नियुक्त हुआ। भारत में छल कपट व षडयंत्रों से धर्मांतरण की नींव उसने रखी। धर्मांतरण के सभी प्रयासों में असफल होने के बाद उसने पोप पॉल पंचम को पत्र लिखा कि यहाँ मूर्तिपूजकों को ईसाई बनाने के मेरे सभी प्रयास व्यर्थ हो चुके हैं अब मेरे पास कोई और रास्ता नहीं बचा है। पुर्तगालियों द्वारा किए गए अत्याचारों के कारण वे और भी दूर हो गए हैं। इसके बाद नोब्ली ने लोगों को भरमाने के लिए क्रांगनोर के आर्चबिशप से अनुमति लेकर ब्राम्हण बनने का ढोंग किया। संस्कृत तमिल सीखने के साथ साथ उसने जनेऊ, चोटी, तिलक रखना व भगवा कपड़े पहनना भी शुरू का दिया। उसने मदुरई में कोविल (तमिल में मन्दिर) नाम से अपना एक आश्रम बनाया और क्रिश्चियन प्रार्थनाओं को तमिल संस्कृत में रचा, खुद को रोम का ब्राम्हण बताकर उसने आस्थाओं का शोषण करते हुए क्रिश्चियन पाठ पढ़ाना व प्रसाद बांटना शुरू कर दिया। ब्राम्हण दिखने के लिए वो जमीन पर सोना, दांत माँजना व शौच के बाद पानी से सफाई भी करने लगा। इस तरह उसने कुछ वर्षों में 120 हिन्दुओं को पथभ्रमित कर धर्मांतरित कर दिया। सितम्बर 1883 में विवेकानन्द के शिकागो भाषण के बाद विश्व में हिन्दू धर्म का शंखनाद गूँज उठा था जिससे भारत में ईसाई मिशनरीज़ के धर्मांतरण के षडयंत्रों को करारा झटका लगा था। इससे निपटने के लिए एक धर्मांतरित ईसाई भवानीचरण ने ब्रम्हबान्धव नाम से मिशनरीज़ प्रोपगंडा फैलाने के लिए सन्यासी वेशभूषा का डी नोब्ली का पाखण्ड शुरू किया था।
क्रिश्चियन आश्रम का यह षड्यंत्र 1921 से पी. चेंचियह द्वारा सुनियोजित व संगठित तरीके से शुरू किया गया जिसमे पादरियों को सन्यासी वेश-भूषा, शाकाहारी भोजन, व क्रिश्चियनाइज्ड हिन्दू परम्पराओं को अपनाने को कहा गया। ईसामसीह एवं मेरी के हिन्दू ऋषि व हिन्दू महिला की वेशभूषा में चित्र बनाए गए। प्रीस्ट्स को पुजारी के भेष मे दिखाया गया। कई चित्रों में जीसस को योगमुद्रा में दिखाया गया। आश्रमों के नाम भी “क्राइस्टकुल”, “क्राइस्ट सेवा संघ” आदि ईसाइयत मिक्स्ड संस्कृत में रखे गए। विदेशी फ़ंड पर ऐसे आश्रमों की बाढ़ आगई, अपनी संस्कृति परम्पराओं में कठोर निष्ठा रखने वाले आदिवासी व निम्न वर्ग इन जालों में सबसे अधिक फंसे फिर प्रचारित किया गया कि आदिवासी व निम्न जातियाँ अपने को हिन्दू नहीं मानती और स्वेक्षा से ईसाई बन रहे हैं। श्रीराम गोयल जी ने इस विषय पर एक कैथोलिक आश्रम नाम से पृथक पुस्तक ही लिखी है।
हंसों के बींच बगुलों का यह षड्यंत्र आज भी कई रूपों में काम कर रहा है। छोटे-छोटे गावों में कार्यक्रम किए जाते हैं जिनमें भीड़ जुटाने के लिए लाउडस्पीकर पर राम भजन बजाए जाते हैं और बाद में पानी से रोग व शैतानी साया ठीक करने का ढोंग होता है। अगले दिन मरीजों को बताया जाता है कि उनके घरों में मूर्तियाँ रखी हैं इसलिए कृपा नहीं हो रही फिर घर जाकर मूर्तियों को तोड़कर फेंका जाता है उनकी जगह क्राइस्ट मेरी की मूर्ति रख दी जाती है और फिर पैसे दिए जाते हैं और गले में क्रॉस लटका दिया जाता है। 2008 में उत्तर प्रदेश के कस्बे में मैंने इस पूरे षड्यंत्र को पहली बार देखा था। समाज व धर्मों को जानने की इस यात्रा में एक पादरी से मेरी पहली मुलाक़ात 12-13 वर्ष की आयु पर हुई थी जिसमें उसने मुझे ईसामसीह पर एक कॉमिक्स की तरह एक किताब कुछ अन्य किताबों के साथ दी थी। उसके पीछे एक फॉर्म था जिसे भरके भेजने पर उधर से रुपए आते थे। साथ में “क्राइस्ट गीता” नाम से एक किताब थी जिसमें गीता की नकल पर 18 अध्याय रचे गए थे। क्राइस्ट गीता व क्राइस्ट रामायण व सत्संग उसी सुनियोजित षड्यंत्र का हिस्सा हैं जिसके अंतर्गत आज “क्रिश्चियन योगा” का प्रोपगंडा शुरू हुआ है, इसे इंडीजेनाइज्ड क्रिश्चियानिटी कहते हैं।
इंडीजेनाइज्ड क्रिश्चियानिटी व क्रिश्चियन योगा चर्च का गहरा षड्यंत्र है। इससे न सिर्फ अपनी परम्परा संस्कृति से दृढ़ता से चिपके हिंदुओं को धर्मांतरित किया जा रहा है साथ ही यह चर्च के ढहते साम्राज्य को बचाने का प्रयास भी है। इंद्रियसुखों के लालच पर टिका संकीर्ण एकेश्वरवाद आज पराभूत हो रहा है, हजारों लाखों की संख्या में पश्चिमी नागरिक हरिद्वार वृन्दावन आदि स्थानों पर हिन्दू धर्म की सघन स्वतन्त्र अध्यात्म शाखाओं की छांव में आश्रय ले रहे हैं, अमेरिका में लगभग 20 मिलियन लोग योग की शरण में आ चुके हैं। हिन्दुत्व एकेश्वरवाद का दुराग्रह नहीं करता अपितु विभिन्न मार्गों की प्रस्तीर्ण शाखाओं को अन्त में मूल में एक चरम बिन्दु पर मिला देता है। गीता 15/1 व कठोपनिषद 2/3/1 आदि हिन्दू शास्त्रों में “ऊर्ध्वमूलमधःशाखम्….” रूपी वृक्ष का उल्लेख किया है जिसमें विभिन्न शाखाओं के बाद भी मूल में मात्र ब्रम्ह ही है। विविधता में एकता का ऐसा उदार व वास्तविक सन्देश विश्व का कोई और दर्शन कभी दे ही नहीं सका। पी. चेंचियाह ने अपनी पुस्तक “द हिन्दू” में स्वीकार किया है कि हिन्दू धर्म में योग जैसे अनूठे साधन हैं जोकि व्यक्ति को असीम ऊंचाई तक उठा सकता है जबकि क्रिश्चियानिटी के पास ऐसा कुछ भी नहीं है। क्रिश्चियानिटी की इस गरीबी को ढंकने के लिए, बाबजूद इसके कि चर्च खीज में कई बार योग को शैतानी काम घोषित कर चुकी हैं क्योंकि योग प्रत्येक रूप में अंर्त या बाह्य प्रकृति की उपासना ही है और बाइबल व्यवस्था विवरण 17/2-4 में कहती है की सूर्य चन्द्रमा अथवा देवी देवता पूजकों को तुम पत्थरों से मार डालो, हिन्दू अध्यात्म योग विज्ञान पर डकैती डालने के प्रयास हो रहे हैं। यह वैटिकन के सम्पूर्ण विश्व के ईसाईकरण के प्रयास का एक हिस्सा है। पॉप जॉन पॉल II ने 6 नवम्बर 1999 को भारत में खड़े होकर इस बात की घोषणा की थी कि पहली सहस्राब्दि में यूरोप और दूसरी सहस्राब्दि में अमेरिका एवं अफ्रीका में हमने क्रॉस गड़ा दिया अब तीसरी सहस्राब्दि में एशिया की बारी है। यह पॉप की केवल एक गर्वोक्ति नहीं थी, यह का सुनियोजित प्लान है जिसे वैटिकन ने 18 अप्रैल 1998 से मई 1998 के बींच रोम में आयोजित ईसाई धर्मसभा में “एक्लेसिया इन एशिया” नाम से पारित किया गया था।
हिन्दुओं को इन हथकंडों को समझना होगा, योग का ईसाईकरण हिन्दू संस्कृति के ईसाईकरण का षड्यंत्र है, हिन्दुओं के ईसाईकरण का षडयंत्र है, “एक्लेसिया इन एशिया” के अंतर्गत भारत के ईसाईकरण का षड्यंत्र है। यदि हमने अपनी उदारता को उदासीनता से बाहर नहीं निकाला तो सनातन भारतीय संस्कृति का गौरव इतिहास में सिमट जाएगा, ग्रीक जैसे देश व भारत में मिज़ोरम, नागालैंड, केरल जैसे राज्य इसके ज्वलंत प्रमाण हैं।
.वासुदेव त्रिपाठीhttp://tripathivasudev.jagranjunction.com/2012/05/27/christian_yoga_against/
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