कमजोर सरकार और गैरजिम्मेवार पत्रकारिता
रघु ठाकुर
पिछले कई माह से थल सेना अध्यक्ष बीके सिंह का विवाद समाचार पत्रों और टीवी चैनलों में प्रमुखता से छाया रहा है. थल सेना अध्यक्ष ने पहले अपने जन्म को 1950 के बजाय 1951 से गणना करने का आरोप रक्षा मंत्रालय पर लगाया जबकि उन्होंने स्वतः ही अपनी आयु दर्शाते समय अपना जन्म वर्ष 1950 लिखा था तथा उसी के आधार पर तीन पदोन्नतियॉं भी प्राप्त की थी. ’’सेना कानून ’’ के अनुसार अगर किसी अधिकारी की उम्र के संबंध में कोई त्रुटि हो तो वह अपने सेवाकाल के एक वर्ष के अंदर उसे सुधार हेतु प्रस्तुत कर सकता है. परन्तु हमारे देश के जनरल को 40 वर्ष की सेवा पूरी होने तक अपने आयु वर्ष का ज्ञान नहीं हुआ तथा ना ही उन्होंने आयु वर्ष सुधरवाने हेतु कुछ पहल की.
पिछले कई वर्षों से हथियारों की खरीद आवश्यकता की तुलना में कम हुई थी क्योंकि 1988 के बोफोर्स कांड ने स्व. राजीव गांधी के ऊपर राजनैतिक संकट ला दिया था और बाद में एनडीए शासनकाल में जार्ज फर्नाडीस के रक्षा मंत्रित्वकाल में भी हथियारों तथा सैन्य सामग्री की खरीद विवादित रही. इसलिये आम तौर पर पिछले व वर्तमान रक्षामंत्री हथियार खरीद से लगभग बचने का प्रयास करते रहे हैं.
अभी पखवाड़े भर में दो महत्वपूर्ण घटनायें घटीं. एक- इन्हीं जनरल बीके सिंह द्वारा प्रधानमंत्री को लिखा हुआ पत्र, समाचार पत्रों में लीक हुआ था. इस पत्र में यह कहा गया था कि भारतीय सेना के पास जो हथियार व गोला बारूद है, वह पुराना पड़ चुका है तथा सामरिक आवश्यकताओं की तुलना में अपर्याप्त है.
इस समाचार से भी देश में एक चिंता व भय का वातावरण बना है और राष्ट्रीय सुरक्षा के समक्ष गंभीर प्रश्न चिन्ह खड़े हुये हैं. इसी बीच यह भी समाचार आया कि भारत से ज्यादा हथियार चीन खरीदता है. चूंकि आम भारतीय 1962 के बाद से चीन को भारत का शत्रु जैसा मानता है तथा चीन से भारत की सीमाओं को ज्यादा खतरा मानता है और जो है भी. अतः राष्ट्रीय सुरक्षा की चिंता बढ़ना और स्वाभाविक था. 1962 में चीनी हमले के समय भी हथियार व गोला बारूद पुराने थे अतः इन दोनों समाचारों को देश के आम नागरिकों ने लगभग साथ जोड़कर पढ़ा व चिंता, भय में तब्दील होने लगी.
अब इस कड़ी में एक और घटना घटी कि इंडियन एक्सप्रेस जैसे सत्ता प्रतिष्ठानों एवं सत्ता क्षेत्रों में प्रतिष्ठित अखबार ने एक सनसनीखेज कहानी छापी जिसमें कहा गया कि 16-17 जनवरी 2012 को जब सेना अध्यक्ष जनरल बीके सिंह ने अपनी उम्र के विवाद को लेकर सर्वोच्च न्यायालय में याचिका दायर की थी, उसी रात हिसार और आगरा से सेना की दो टुकड़ियां दिल्ली की ओर कूच कर गई थीं.
इसके बाद सेना सचिव श्री शर्मा को विदेश से बुलाया गया और सेना के बड़े अधिकारियों को बुलाया गया तथा विस्तृत पूछताछ व जांच के बाद इस घटना को तथ्यहीन पाया गया. अगले दिन इस समाचार को देश के अन्य समाचार पत्रों ने भी प्रमुखता से छापा और सरकार की ओर से सफाई भी छपी कि यह एक प्रकार की मोकड्रिल यानी कृत्रिम अभ्यास थी, जो सेना के अभ्यासों का एक आम हिस्सा है.
इस सारे घटनाक्रम में कुछ बिन्दु महत्वपूर्ण ढंग से उभरकर आते हैं जिनकी विस्तृत जॉंच होना चाहिये-
1. थल सेना अध्यक्ष अपना कार्यकाल एक वर्ष क्यों बढ़ाना चाहते हैं ? इस वर्ष जो हथियारों की खरीद का निश्चय हुआ है, जिसके लिये वर्ष 2012-13 के आम बजट में रक्षा के लिये 1 लाख 92 हजार करोड़ रुपये की भारी-भरकम राशि रखी गई है, इस खरीदी और उम्र विवाद के बीच कहीं कोई संबंध तो नहीं है ?
2. पिछले दिनों भारत ने लगभग 55 हजार करोड़ का हथियार फ्रांस से खरीदना तय किया है. यह सौदा आखिर तक लगभग 1 लाख करोड़ तक जा सकता है. यह एक सुविदित तथ्य है कि फ्रांस के मुकाबले अमेरीका इन हथियारों की बिक्री के लिये अत्यधिक उत्सुक था और प्रयासरत भी था. यहां तक कि जब यह ठेका भारत ने फ्रांसीसी कम्पनी को दिया तब अमरीकी सरकार के मंत्री ने जाहिर तौर पर घोर निराशा व्यक्त की थी और इसे अपने राजदूत की असफलता माना था. यह भी एक महत्वपूर्ण बिंदु है, जिसकी जांच होनी चाहिये कि भारत सरकार की सामरिक सामग्री की खरीदी के ताजे निर्णयों और उपरोक्त घटनाओं के बीच कहीं कोई संबंध तो नहीं है ?
3. सर्वोच्च न्यायालय ने थल सेना अध्यक्ष की याचिका को न केवल नकारा है बल्कि उनके वकील को लगभग डांटते हुये कहा कि इस याचिका में कोई दम नहीं है. या तो आप वापिस करें अन्यथा हम इसे खारिज करते हैं. यह भी एक प्रकार का सर्वोच्च न्यायालय का उच्च वर्गीय और उच्च पदीय शिष्टाचार ही था कि उन्होंने याचिका को खारिज करने के बजाय वापिस करने का सुझाव दिया परन्तु जनरल ने इसके बावजूद भी अपनी महत्वाकांक्षाओं को सीमित नहीं किया और बयान दिया कि वे ’’ सेना के सम्मान के लिये लड़ रहे है’.’’ जनरल की उम्र कितनी है, कौन सी सही है, कौन सी गलत है, यह सेना अध्यक्ष का निजी मसला हो सकता है, निजी मान सम्मान का हो सकता है पर इसका सेना के सम्मान से क्या संबंध ? वैसे भी सेना का सम्मान तो जनरल ने गिराया है, जिन्होंने अपनी जन्मतिथि बदलवाने को न केवल मुद्दा बनाया बल्कि झूठी लड़ाई लड़ने सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचे. क्या सेनाध्यक्ष की जन्मतिथि नहीं बदलने से सेना झूठी हो गई या फिर सेनाध्यक्ष झूठे साबित हुये?
4. इंडियन एक्सप्रेस ने इस कहानी को छापा परन्तु इस बात को दृष्टि ओझल कर दिया कि वह एक खतरनाक औेर उत्प्रेरक समाचार भी हो सकता है. प्रथमतः तो यह है कि 16 - 17 जनवरी की घटना का रहस्योद्घाटन अचानक 50 दिनों के बाद कैसे हुआ व क्यों हुआ ? ऐसी सूचनायें स्वतः जनरल के अलावा कौन दे सकता है ? व क्यों देगा ? अब यह समाचार आये हैं कि किसी केन्द्रीय मंत्री का हाथ इसे छपवाने में है. इस सूचना की भी जांच कर प्रधानमंत्री को तत्काल कार्यवाही करना चाहिये तथा ऐसा कोई गद्दार मंत्री अगर है तो उसे न केवल बर्खास्त करना चाहिये, बल्कि उसके विरूद्ध राष्ट्रद्रोह का मुकदमा दर्ज होना चाहिये.
इस समाचार को लेकर भी जनरल का बयान चालाकी भरा है. उन्होंने मीडिया का जिक्र करते हुये कहा ’’ एक अखबार में यह खबर है कि यह एक केन्द्रीय मंत्री के इशारे पर किया गया.’’ हो सकता है कि नौकरशाही का एक वर्ग गलत इनपुट दे रहा हो. जनरल का यह बयान चालाकीपूर्ण बर्ताव है. आखिर ऐसे समाचार के बारे में पता कराना क्या जनरल का वैधानिक दायित्व व काम का हिससा नहीं है ? कहीं वे अपने बचाव के लिये तो विषय से नहीं हटना चाह रहे.
5. भाजपा नेता लालकृष्ण अडवानी इतने अधिक सत्ता उन्मुख हो रहे हैं कि वे हर घटना को केवल चुनावी लाभ हानि की दृष्टि से देखते हैं. उन्होंने इसे सेना व सरकार के बीच के संबंध ‘निकृष्टतम’ के रूप में व्यक्त किया है. जबकि इस प्रकरण में सेना कहीं नहीं है, केवल जनरल एक व्यक्ति हैं. फिर एनडीए शासनकाल में तत्कालीन रक्षा मंत्री जार्ज फर्नांडीस व एडमिरल श्री भागवत के बीच की सार्वजनिक बहस क्या उन्हें याद नहीं है. सेना के उच्च अधिकारियों को क्या ऐसे बयान देना या सरकार की सार्वजनिक आलोचना, लोकतंत्र के भविष्य के लिये चिंताजनक नहीं है ?
उपरोक्त घटनाक्रम से स्पष्ट होता है कि उम्र और सेवानिवृत्ति की अवधि न बढ़ पाने से जनरल इतने हताश हो चुके हैं कि वे स्वतः राष्ट्रीय सुरक्षा के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं. अपनी सेवा निवृत्ति के मात्र तीन माह पहले उन्हें दिव्य ज्ञान होता है कि हथियार पुराने पड़ गये हैं, जबकि वे उसी सेना के प्रमुख हैं.
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने एक उपदेशक बयान देकर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर दी. दरअसल प्रधानमंत्री एक गैर राजनैतिक नौकरशाह हैं, जिन्हें राष्ट्रीय चिंताओं से कोई सरोकार नहीं है. पिछले उ.प्र. के चुनाव अभियान में उन्हें केवल कानपुर में एक सभा को संबोधित करने को आमंत्रित किया गया था और वह भी सिक्ख बाहुल्य इलाके में. हालांकि उस क्षेत्र में भी कांग्रेस हार गई. पंजाब में भी वे प्रभावहीन ही रहे.
उन्हें वर्ल्ड बैंक की चाकरी की ज्यादा चिंता है, बजाय राष्ट्रीय चिंताओं की. परन्तु ऐसी घटनायें भारतीय लोकतंत्र के लिये ठीक नहीं हैं. भारतीय सेना में विद्रोह एक अकल्पनीय सपना है परन्तु इंडियन एक्सप्रेस जैसे समाचार पत्र ने इस सपने की कल्पना देने की पहल कर दी है. प्रेस की आजादी में हमारा पूरा विश्वास है परन्तु क्या प्रेस की आजादी का मतलब झूठे और अस्पष्ट समाचारों द्वारा अपने ही लोकतंत्र को क्षति पहुंचाना है? क्या प्रेस का कोई राष्ट्रीय दायित्व नहीं है. प्रेस की आजादी की ओट में विदेशी हथियार कंपनियों का खेल रोका जाना चाहिये. यह कुछ ऐसा होगा जैसे कोई बंदर अपने हाथ में उस्तरा लेकर कहे कि अपनी गर्दन काटना हमारी आजादी है.
हमारे देश में सेनाध्यक्ष को कुछ ज्यादा बोलने की बीमारी है. जनरल करियप्पा, जनरल थिमैया, फील्डमार्शल मानिक शा जैसे सेनाध्यक्ष हुये हैं परन्तु उन्होंने कभी भी सार्वजनिक या नीतिगत बयानबाजी नहीं की. यह सेना के चरित्र के लिये उचित नहीं है. परन्तु हमारे सेनाध्यक्ष तो आजकल भारत के प्रधानमंत्री को भी विदेश नीति पर सलाह देते हैं.
अपनी नेपाल यात्रा में उन्होंने नेपाल के प्रधानमंत्री से मुलाकात में कहा कि “मैंने प्रधानमंत्री से कहा है कि नेपाल के हित में जो कुछ होगा, वह भारत के भी हित में होगा’’. उनका यह कथन 6 अप्रैल 2012 के अखबारों ने छापा है. उनके बयान से ऐसा लगता है जैसे कोई विदेश मंत्री या प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति बोल रहा हो.
प्रधानमंत्री को या तो अकर्मण्यता छोड़ना चाहिये या फिर कुर्सी का मोह छोड़ देना चाहिये क्योंकि प्रधानमंत्री के पद पर बैठे हुये व्यक्ति की अकर्मण्यता गलतियों से भी ज्यादा खतरनाक हो सकती है. देश की जनता को अगर प्रधानमंत्री लोकतंत्र और राष्ट्र में से चयन करना हो तो लोकतंत्र और अपने राष्ट्र को ही चयन करना होगा. प्रधानमंत्री तो आते जाते रहते हैं.
19.04.2012, 09.32 (GMT+05:30) पर प्रकाशित http://raviwar.com/news/694_bk-singh-and-indian-express-raghu-thakur.shtml
5. भाजपा नेता लालकृष्ण अडवानी इतने अधिक सत्ता उन्मुख हो रहे हैं कि वे हर घटना को केवल चुनावी लाभ हानि की दृष्टि से देखते हैं. उन्होंने इसे सेना व सरकार के बीच के संबंध ‘निकृष्टतम’ के रूप में व्यक्त किया है. जबकि इस प्रकरण में सेना कहीं नहीं है, केवल जनरल एक व्यक्ति हैं. फिर एनडीए शासनकाल में तत्कालीन रक्षा मंत्री जार्ज फर्नांडीस व एडमिरल श्री भागवत के बीच की सार्वजनिक बहस क्या उन्हें याद नहीं है. सेना के उच्च अधिकारियों को क्या ऐसे बयान देना या सरकार की सार्वजनिक आलोचना, लोकतंत्र के भविष्य के लिये चिंताजनक नहीं है ?
उपरोक्त घटनाक्रम से स्पष्ट होता है कि उम्र और सेवानिवृत्ति की अवधि न बढ़ पाने से जनरल इतने हताश हो चुके हैं कि वे स्वतः राष्ट्रीय सुरक्षा के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं. अपनी सेवा निवृत्ति के मात्र तीन माह पहले उन्हें दिव्य ज्ञान होता है कि हथियार पुराने पड़ गये हैं, जबकि वे उसी सेना के प्रमुख हैं.
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने एक उपदेशक बयान देकर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर दी. दरअसल प्रधानमंत्री एक गैर राजनैतिक नौकरशाह हैं, जिन्हें राष्ट्रीय चिंताओं से कोई सरोकार नहीं है. पिछले उ.प्र. के चुनाव अभियान में उन्हें केवल कानपुर में एक सभा को संबोधित करने को आमंत्रित किया गया था और वह भी सिक्ख बाहुल्य इलाके में. हालांकि उस क्षेत्र में भी कांग्रेस हार गई. पंजाब में भी वे प्रभावहीन ही रहे.
उन्हें वर्ल्ड बैंक की चाकरी की ज्यादा चिंता है, बजाय राष्ट्रीय चिंताओं की. परन्तु ऐसी घटनायें भारतीय लोकतंत्र के लिये ठीक नहीं हैं. भारतीय सेना में विद्रोह एक अकल्पनीय सपना है परन्तु इंडियन एक्सप्रेस जैसे समाचार पत्र ने इस सपने की कल्पना देने की पहल कर दी है. प्रेस की आजादी में हमारा पूरा विश्वास है परन्तु क्या प्रेस की आजादी का मतलब झूठे और अस्पष्ट समाचारों द्वारा अपने ही लोकतंत्र को क्षति पहुंचाना है? क्या प्रेस का कोई राष्ट्रीय दायित्व नहीं है. प्रेस की आजादी की ओट में विदेशी हथियार कंपनियों का खेल रोका जाना चाहिये. यह कुछ ऐसा होगा जैसे कोई बंदर अपने हाथ में उस्तरा लेकर कहे कि अपनी गर्दन काटना हमारी आजादी है.
हमारे देश में सेनाध्यक्ष को कुछ ज्यादा बोलने की बीमारी है. जनरल करियप्पा, जनरल थिमैया, फील्डमार्शल मानिक शा जैसे सेनाध्यक्ष हुये हैं परन्तु उन्होंने कभी भी सार्वजनिक या नीतिगत बयानबाजी नहीं की. यह सेना के चरित्र के लिये उचित नहीं है. परन्तु हमारे सेनाध्यक्ष तो आजकल भारत के प्रधानमंत्री को भी विदेश नीति पर सलाह देते हैं.
अपनी नेपाल यात्रा में उन्होंने नेपाल के प्रधानमंत्री से मुलाकात में कहा कि “मैंने प्रधानमंत्री से कहा है कि नेपाल के हित में जो कुछ होगा, वह भारत के भी हित में होगा’’. उनका यह कथन 6 अप्रैल 2012 के अखबारों ने छापा है. उनके बयान से ऐसा लगता है जैसे कोई विदेश मंत्री या प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति बोल रहा हो.
प्रधानमंत्री को या तो अकर्मण्यता छोड़ना चाहिये या फिर कुर्सी का मोह छोड़ देना चाहिये क्योंकि प्रधानमंत्री के पद पर बैठे हुये व्यक्ति की अकर्मण्यता गलतियों से भी ज्यादा खतरनाक हो सकती है. देश की जनता को अगर प्रधानमंत्री लोकतंत्र और राष्ट्र में से चयन करना हो तो लोकतंत्र और अपने राष्ट्र को ही चयन करना होगा. प्रधानमंत्री तो आते जाते रहते हैं.
19.04.2012, 09.32 (GMT+05:30) पर प्रकाशित http://raviwar.com/news/694_bk-singh-and-indian-express-raghu-thakur.shtml
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