गुरुवार, अगस्त 24, 2017

सुनहरे भविष्य के लिए।

Pawan Tripathi
सुनहले भविष्य के लिए।
2004 में एक सरदार जी अपने पूरे परिवार सहित कनाडा से आये थे जरा उनकी घटना सुनिए।कनाडा में उन्होंने अपने बेटे को जो दसवीं में पढ़ता था एक थप्पड़ मार दिया। क्यों मारा!क्योंकि साहबजादे ने शराब पी रखी थी।उन्होंने एक थप्पड़ मार दिया।अपना बेटा था,वह भी इकलौता। कौन सुधारेगा?थोड़ी देर बाद बेटे ने पुलिस बुला ली।चूंकि इसी बेटे को लेकर एक-दो मामले पहले भी हो चुके थे सो पकड़कर गए जेल।बमुश्किल ही उस दिन छूटे,वह भी पेनाल्टी के साथ।लौटकर आए काफी परेशान। फिर दो-तीन दिन बाद यह बीयर पीकर घूम रहा था और घर आया।वह ऐसी-ऐसी हरकत कर रहा था बर्दाश्त न हुआ।आव देखा ना ताव दो थप्पड़ फिर जड़ दिया।उसने फिर पुलिस बुला ली। सरदार जी बड़े आदमी थे पैसे वाले थे। जमीन जायदाद थी,बिजनेस था,कोठी थी,बड़ी इज्जत थी। पुलिस को लाख समझाया कि हमारे यहां तो बच्चों को समझाने का तरीका है यह। हमारा बेटा है आगे से इसे ही हमारी सारी जायदाद संभालनी है शराबी हो गया तो सब बर्बाद कर देगा।बुढापा इसी की देखरेख में कटेगा।कनाडा पुलिस वाले नहीं माने।इस बार 15 दिन की जेल-सुधार वह भी हैवी-कॉउंसलिंग के साथ काट कर लौटे घर।
पहला काम किया वहां से सारी जायदाद बेच दी।वह भी औने-पौने।इसमें कुल महीना-दो महीना लगा होगा। पूरे परिवार सहित जिसमे उनके बुजुर्ग माँ-बाप भी शामिल थे इंडिया( बंगलोर )आ गए।वहां एक होटल में रुके।सीधे बाजार गये।बाजार से एक मोटा डंडा खरीद कर लाये।होटल में जी भरकर कूटा।होटल मैनेजमेंट ने चिल्ल-पो सुनकर थाने को खबर कर दी।वहां भी पुलिस आई और पुलिस वालो ने सब सुनने के बाद लौंडे को 7-8 थप्पड़ लगाया।साला! यह बाप तेरी अच्छी जिंदगी की खातिर ही तो इतना कष्ट सह रहा, और तू पुलिस बुलाता है।बाद में होटल ने सरदार जी को रहना-खाना मुफ्त का ऑफर दिया।जब तक भारत मे सैटल्ड होने तक।सरदार जी ने कहा 'पाई वह सब मैं किसके लिए रखता ऐसा लौंडा बड़ा हो कर वैसे भी बर्बाद कर देता,।
अगले दिन बंगलोर के अखबारों में छपा है।आप 5 फरवरी 2004 का कोई भी अखबार उठाइये।डेट में मुझे कन्फ्यूजन है 12 या 13 का है।खबर छपी थी यह पक्का है।बड़ी मजेदार थी तो सबने पढा भी।बेंगलुरु की एक सोसाइटी ने सरदार जी को सम्मानित भी किया कि बहुत अच्छा काम किया।अपने बाल-बच्चो के प्रति हमी जिम्मेदार है।एक उम्र में यही एक तरीका है सुधारने का।लौंडा भी अब इस समय बेंगलुरु में खेती-बारी संभाल रहा है बाप के साथ।एकदम सुधर गया है ना पुलिस आती है ना जेल जाना पड़ता है।शराब तो वैसे ही छूट गई है।भई प्रश्न यह है हमारे बच्चे अगर बिगड़ रहे हैं तो हमे ही ठीक करना है।उनका भविष्य सोचना हमारी जिम्मेदारी है।इस तरह का वायरल वीडियो (हया)सहानुभूति का पात्र बनाकर बच्चो के भविष्य के प्रति बेपरवाह करने की चाल हो सकती है।बुढापे का भगवान ही मालिक है।
यहां बात जबरदस्ती अपने बच्चे की पिटाई कि नहीं हो रही है।न ही मैं घरेलू हिंसा का भयानक समर्थक हूँ।यहां बात इतनी सी है कि अपने बच्चे को सुधारने, उसके भविष्य को बनाने,उसके चरित्र विकसित करने, उसके अंदर व्यवहार डेवलप करने का अधिकार केवल गार्जियन का है।उसकी सोच में जिम्मेदारियां लाने का काम मां बाप का है,संरक्षक का है,या जिससे उसके निजी दायित्व पूरे करने है उसका है। पुलिस या अन्य कोई व्यवस्था, बाहरी व्यवस्था जो उस बच्चे से कोरीलेट नहीं है, उससे व्यक्तिगत तौर पर संबंधित नहीं है, कानून के नाम पर संरक्षण का अधिकार समाप्त कर देगी।किसी बात या गलती के लिए अपने बच्चे को डांटना, उसको दिशा देना, उसको जीवन में भविष्य के सपनों के लिए तैयार करना, अपने बुढ़ापे के लिए तैयार करना निजता है,बाहरियो की दखल,पुलिस की दखल इसे खराब कर देगी।इसमें वह व्यवस्था, सरकारी व्यवस्था, कानूनी व्यवस्था,न्यायिक व्यवस्था तीनो बहुत खतरनाक स्टेज पर ले जाकर खड़ा कर देंगे।फिर डांटना, पीटना,मारना टेंशन लेना,आसान है क्या?बच्चे पर पूरा ध्यान देना होता,चिंता करनी पड़ती है,उसके लिए जिम्मेदार होना पडटा है,जहमत-झन्झट उठानी पड़ती है।टेंशन लेना पड़ता है।उतनी देर भयानक तनाव में रहना होता है।अपने मनसुखवा के लिए हम यह नही करते।कौन जाए उतनी घनीभूत मानसिकता में रहने!इसलिए हम यह कहने लगते हैं कि यह हिंसा है।
जब बेटा हमारा है,बच्चा हमारा है तो सुधारना भी हमे ही है।कोई दूसरा न सुधारेगा।कोई अन्य न ठीक करेगा। बाहरी कोई नहीं सुधरेगा।बाहरी तो बिगाड़ने में लगा रहता है।बेटे का तो बेटा है यह तो चल जाएगा बेटियों के साथ बड़ा खतरा है। अब जब हमारे जीवन में,समाज में और व्यवस्था में पूरी तरह से पश्चिमी संस्कृति, पश्चिमी सोच,पश्चिमी विचारधारा, पश्चिमी जीवन शैली घर कर गई है।बच्चियों के साथ तो और खतरनाक हो गया है।वह लड़कियों को बिल्कुल सुधरने का मौका ना देगा।अगर आप थोड़ा भी चूक गए तो समाज बिगाड़ कर रख देगा।कहते हैं न बिगड़ना ठीक लेकिन बहकना ठीक नही।बच्चियों को समाज बहका ले जाता है।बल्कि सोच के नाते अपनी बेटी या नजदीकी को छोड़कर दूसरों को बहकाने में ही लगा रहता है।रोज आसपास देखिये,अखबारों में देखिये,टीवी में देखिये उसे उपभोक्ता बना कर रख दिया है।अब वह 'कन्या भोज,के दिन ही कन्या कही जाती है।यह सब टीवी-फिल्मो,मीड
िया,वर्तमान साहित्य की देन है।बची-खुची शिक्षक और शिक्षा व्यवस्था ने खराब कर दी है।जब व्यवस्था बिगाड़ कर रख देगी।लड़कियों के मामले में, पुत्रियों के मामले में, बेटियों के मामले में और सावधानी की जरूरत है। उसे बिल्कुल ही उपभोक्ता बनने से बचने की प्रवृत्ति, संस्कार देना होगा।वह भी कड़ाई से।उस पर पूरा ध्यान देना होगा।अगर हम ने बच्चियों पर ध्यान नहीं दिया,उनको समझने की,सोचने की,संस्कृति की, व्यवहार की और जीवन की ऊंचाइयों की,तमाम ऊंची नैतिकता की शिक्षा नहीं दी तो निश्चित ही मानिये पूरा समाज बेटियों को बिगाड़ने में लगा है। बाहरी बिल्कुल ठीक नहीं है।पुलिसिंग और वाह्य समाज इस मामले में बिल्कुल आप के बच्चों को लूटी संपदा की तरह बर्बाद करता है।इसलिए हर दम सचेत रहिए। मारना पड़े,साथ काम करना पड़े,ध्यान करना पड़े समझाना पड़े,व्यवहारना पड़े, जो भी करना पड़े करो।लेकिन बच्चों को जब तक वह 20 साल के नहीं हो जाते। बालिग नहीं हो जाते,अपनी समझ नही हो जाती तब तक उन पर कड़ी नजर के साथ,कठोरता के साथ जीवन की सोच,दिशा,चरित्र दीजिये। अगर जीवन की सोच,दिशा,प्रवृत्ति,समझ सही नहीं है तो बाद में आपको भुगतनी पड़ेगी।इसे कोई समाज और पुलिस न भुगतेगा बल्कि अलग से मजे लेगा।निश्चित ही इसे व्यक्तिगत रुप से आपको भुगतनी पड़ेगी।जब व्यक्तिगत रूप से हमें भुगतना है तो फिर समाज पर, व्यवस्था पर,कानून पर,न्याय पर कैसे छोड़ दें? मेरा मानना है कि अपने बच्चो को दिशा देना निजता का अधिकार है,यह व्यक्तिगत अधिकार है,यह पारिवारिक अधिकार है,मौलिक अधिकार है और व्यक्तिगत जीवन शैली में कानून को पुलिस को दखलअंदाजी का अधिकार नहीं होना चाहिए।
जैसा यूरोप में,अमेरिका में और पश्चिमी कल्चर में अरेबियन, सेमेटिक कल्चर में भी दिख रहा है कि बहुत सारे बूढ़े-बुजुर्ग 60 साल के बाद एकदम डिप्रेस्ड हो जाते हैं।वहां अधिकतर बुजुर्ग वृद्ध आश्रम में परेशान पड़े है।सरकार उनको देख रही है लेकिन अवसाद की स्थिति में 50 से 70 परसेंट बुजुर्ग वहां है।हम नहीं चाहते हैं ऐसी स्थितियां हमारे यहां आएं। अपने बच्चों को दिशा देने का काम हमारा खुद का अधिकार है।मैं यहां केवल उसी अधिकार की बात कर रहा हूँ।वैसे मै खुद भी बच्चो को हाथ लगाना उचित नही समझता।लेकिन कभी-कभी गुस्सा आता है।
यहां बात जबरदस्ती अपने बच्चे की पिटाई कि नहीं हो रही है।न ही मैं घरेलू हिंसा का भयानक समर्थक हूँ।यहां बात इतनी सी है कि अपने बच्चे को सुधारने, उसके भविष्य को बनाने,उसके चरित्र विकसित करने, उसके अंदर व्यवहार डेवलप करने का अधिकार केवल गार्जियन का है।उसकी सोच में जिम्मेदारियां लाने का काम मां बाप का है,संरक्षक का है,या जिससे उसके निजी दायित्व पूरे करने है उसका है। पुलिस या अन्य कोई व्यवस्था, बाहरी व्यवस्था जो उस बच्चे से कोरीलेट नहीं है, उससे व्यक्तिगत तौर पर संबंधित नहीं है, कानून के नाम पर संरक्षण का अधिकार समाप्त कर देगी।किसी बात या गलती के लिए अपने बच्चे को डांटना, उसको दिशा देना, उसको जीवन में भविष्य के सपनों के लिए तैयार करना, अपने बुढ़ापे के लिए तैयार करना निजता है,बाहरियो की दखल,पुलिस की दखल इसे खराब कर देगी।इसमें वह व्यवस्था, सरकारी व्यवस्था, कानूनी व्यवस्था,न्यायिक व्यवस्था तीनो बहुत खतरनाक स्टेज पर ले जाकर खड़ा कर देंगे।फिर डांटना, पीटना,मारना टेंशन लेना,आसान है क्या?बच्चे पर पूरा ध्यान देना होता,चिंता करनी पड़ती है,उसके लिए जिम्मेदार होना पडटा है,जहमत-झन्झट उठानी पड़ती है।टेंशन लेना पड़ता है।उतनी देर भयानक तनाव में रहना होता है।अपने मनसुखवा के लिए हम यह नही करते।कौन जाए उतनी घनीभूत मानसिकता में रहने!इसलिए हम यह कहने लगते हैं कि यह हिंसा है।
जब बेटा हमारा है,बच्चा हमारा है तो सुधारना भी हमे ही है।कोई दूसरा न सुधारेगा।कोई अन्य न ठीक करेगा। बाहरी कोई नहीं सुधरेगा।बाहरी तो बिगाड़ने में लगा रहता है।बेटे का तो बेटा है यह तो चल जाएगा बेटियों के साथ बड़ा खतरा है। अब जब हमारे जीवन में,समाज में और व्यवस्था में पूरी तरह से पश्चिमी संस्कृति, पश्चिमी सोच,पश्चिमी विचारधारा, पश्चिमी जीवन शैली घर कर गई है।बच्चियों के साथ तो और खतरनाक हो गया है।वह लड़कियों को बिल्कुल सुधरने का मौका ना देगा।अगर आप थोड़ा भी चूक गए तो समाज बिगाड़ कर रख देगा।कहते हैं न बिगड़ना ठीक लेकिन बहकना ठीक नही।बच्चियों को समाज बहका ले जाता है।बल्कि सोच के नाते अपनी बेटी या नजदीकी को छोड़कर दूसरों को बहकाने में ही लगा रहता है।रोज आसपास देखिये,अखबारों में देखिये,टीवी में देखिये उसे उपभोक्ता बना कर रख दिया है।अब वह 'कन्या भोज,के दिन ही कन्या कही जाती है।यह सब टीवी-फिल्मो,मीड
िया,वर्तमान साहित्य की देन है।बची-खुची शिक्षक और शिक्षा व्यवस्था ने खराब कर दी है।जब व्यवस्था बिगाड़ कर रख देगी।लड़कियों के मामले में, पुत्रियों के मामले में, बेटियों के मामले में और सावधानी की जरूरत है। उसे बिल्कुल ही उपभोक्ता बनने से बचने की प्रवृत्ति, संस्कार देना होगा।वह भी कड़ाई से।उस पर पूरा ध्यान देना होगा।अगर हम ने बच्चियों पर ध्यान नहीं दिया,उनको समझने की,सोचने की,संस्कृति की, व्यवहार की और जीवन की ऊंचाइयों की,तमाम ऊंची नैतिकता की शिक्षा नहीं दी तो निश्चित ही मानिये पूरा समाज बेटियों को बिगाड़ने में लगा है। बाहरी बिल्कुल ठीक नहीं है।पुलिसिंग और वाह्य समाज इस मामले में बिल्कुल आप के बच्चों को लूटी संपदा की तरह बर्बाद करता है।इसलिए हर दम सचेत रहिए। मारना पड़े,साथ काम करना पड़े,ध्यान करना पड़े समझाना पड़े,व्यवहारना पड़े,दुलारकर,पुचकार कर, समझा कर, बहला-फुसला कर, डांट-डपट कर, धमका कर,पिटाई जो भी करना पड़े करो पर रास्ते पर लाओ। लेकिन बच्चों को जब तक वह 20 साल के नहीं हो जाते। बालिग नहीं हो जाते,अपनी समझ नही हो जाती तब तक उन पर कड़ी नजर के साथ,कठोरता के साथ जीवन की सोच,दिशा,चरित्र दीजिये। अगर जीवन की सोच,दिशा,प्रवृत
्ति,समझ सही नहीं है तो बाद में आपको भुगतनी पड़ेगी।इसे कोई समाज और पुलिस न भुगतेगा बल्कि अलग से मजे लेगा।निश्चित ही इसे व्यक्तिगत रुप से आपको भुगतनी पड़ेगी।जब व्यक्तिगत रूप से हमें भुगतना है तो फिर समाज पर, व्यवस्था पर,कानून पर,न्याय पर कैसे छोड़ दें? मेरा मानना है कि अपने बच्चो को दिशा देना निजता का अधिकार है,यह व्यक्तिगत अधिकार है,यह पारिवारिक अधिकार है,मौलिक अधिकार है और व्यक्तिगत जीवन शैली में कानून को पुलिस को दखलअंदाजी का अधिकार नहीं होना चाहिए।
पिटाई का संस्कार कभी समाप्त नहीं होता,बल्कि कई जन्मों तक चलता है। संभवत: इसीलिए एक उम्र में बच्चे को उसकी गलतियों,आदतों को सुधारने के लिए पीटा जाता था।उसे थोड़ा डराया जाता था। उसकी गलतियों को सुधारने के लिए दिमाग में एक डर का बोध दिया जाता था।आज भी आपने देखा होगा सर्कसों में सांप,बंदर, बिल्लियां, शेर और अन्य बहुत सारे जंतुओं को डंडे के सहारे छड़ी के सहारे नचाते हुए।अब मैं यह नही कहता अपना बच्चा जानवर जैसा हो पर डरना जरूरी है। ऐसे ही मानव मन भी होता है उसको एक समय में बोध-संस्कार कराने के लिए कुछ डराने वाले प्रयोग करने ही होते हैं।मैं यह नही कह रहा केवल पीटो, या फ्रस्ट्रेशन निकालो पर जिम्मेदारिया इससे भी बढ़ती मानो। विश्वास करिये वह एक सामीप्य,एक प्रकार के अपनेपन से भर देता है।यह पश्चिमी देशों में नही है।वे अपने मम्मी-पापा से उनके घर मिलने जाते हैं बुढापे में।उसके कांसेप्ट में ही नही है मम्मी-पापा को साथ ही रखना है,वह संस्कार ही नही दिए गए।जिन्हें दिये गए वह वह ममी-डैडी को नही छोड़ते।क्योंकि मम्मी पापा अति-मनोवैज्ञानि
क प्रयोगों के दौरान परिवार प्रबोधन देना भूल गए थे।वह पुलिस के सहारे बैठे रह गये।अभी दो केस भारत में भी खूब उछल रहे हैं।कोई मुम्बई की महिला थीं,अपने बड़े से फ्लैट में मरी पाई गईं। बेटा मरने के एक साल बाद आया।लाश स्ड गल चुकी थी। बड़ा हो हल्ला मचा,ऐसे कपूत को लेकर।कोई बड़े उद्योगपति सिंघानिया है उनका नाम भी खूब उछला उन्हें उनके बेटे ने सारी संपत्ति छीन कर निकाल दिया।बचपन मे जम कर परिवार प्रबोध मिला होता तो यह स्थिति कभी न आती।मै ने हजारो ऐसे अनुभव अपनी आंखों से देखे हैं 'बचपन का कूटा गया बेटा बूढ़े बाप को लेकर गरीबी में भी अस्प्ताल के चक्कर काटता है।कई बार तो रोते हुए कंधे पर लादे।पूर्वी उत्तर प्रदेश के किसी भी मेडिकल कालेज में चले जाओ यह दृश्य दिख जाएगा।आम सीन है यह।
जैसा यूरोप में,अमेरिका में और पश्चिमी कल्चर में अरेबियन, सेमेटिक कल्चर में भी दिख रहा है कि बहुत सारे बूढ़े-बुजुर्ग 60 साल के बाद एकदम डिप्रेस्ड हो जाते हैं।वहां अधिकतर बुजुर्ग वृद्ध आश्रम में परेशान पड़े है।सरकार उनको देख रही है लेकिन अवसाद की स्थिति में 50 से 70 परसेंट बुजुर्ग वहां है।हम नहीं चाहते हैं ऐसी स्थितियां हमारे यहां आएं।अपने बच्चों को दिशा देने का काम हमारा खुद का अधिकार है।मैं यहां केवल उसी अधिकार की बात कर रहा हूँ।अपने आज के "कम्फर्ट-जोन मानसिकता, के चलते आज छड़ी को अवॉइड करेंगे तो बुढापे में मौत के लिए अकेले बड़े से मकान में सड़ेंगे,गांव लौटेंगे या फिर वृद्धाश्रम में अवसाद का इलाज कराएंगे।
(नोट-वैसे मै खुद भी बच्चो को हाथ लगाना उचित नही समझता)

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