बुधवार, अगस्त 03, 2022

प्रशांत पोळ के द्वारा लिखित *वे पंद्रह दिन*

 आज से 15 दिन तक जो घटनाये 1 अगस्त से 15 अगस्त 1947 को घटित हुई उनकी जानकारी भेजने का प्रयास कर रहा हूँ। उक्त जानकारी प्रशांत पोळ नामक व्यक्ति के द्वारा लिखित *वे पंद्रह दिन* नामक पुस्तक से ली गई है।

वे पन्द्रह दिन....
*१ अगस्त, १९४७*
- प्रशांत पोळ
शुक्रवार, १ अगस्त १९४७. यह दिन अचानक ही महत्त्वपूर्ण बन गया. *इस दिन कश्मीर के सम्बन्ध में दो प्रमुख घटनाएं घटीं, जो आगे चलकर बहुत महत्त्वपूर्ण सिद्ध होने वाली थीं.* इन दोनों घटनाओं का आपस में वैसे तो कोई सम्बन्ध नहीं था, परन्तु आगे होने वाले रामायण-महाभारत में इनका स्थान आवश्यक होने वाला था।
१ अगस्त को गांधीजी श्रीनगर पहुँचे, यह थी वह पहली बात. गांधीजी का यह पहला ही कश्मीर दौरा था. इससे पहले १९१५ में, अर्थात जब गांधीजी दक्षिण अफ्रीका से वापस आए ही थे, और पहला विश्वयुद्ध चल रहा था, उस समय कश्मीर के महाराजा हरिसिंह ने गांधीजी को कश्मीर आने के लिए व्यक्तिगत निमंत्रण दिया था. उस समय महाराज हरिसिंह की आयु केवल बीस वर्ष थी. लेकिन १९४७ में तो सारा परिदृश्य नाटकीय तरीके से बदल चुका था. अब इस समय महाराज हरिसिंह और जम्मू-कश्मीर प्रशासन को गांधीजी का दौरा कतई नहीं चाहिए था. स्वयं महाराज हरिसिंह ने वायसरॉय लॉर्ड माउंटबेटन को एक पत्र लिखा, जिसमें उन्होंने लिखा कि, “...सभी दृष्टि से एवं समग्र विचार करने पर मैं आपसे कहना चाहता हूं कि महात्मा गांधी का प्रस्तावित कश्मीर दौरा इस समय रद्द किया जाना चाहिए. यदि उन्हें आना ही है तो वे शरद ऋतु समाप्त होने के पश्चात आएं. हम पुनः एक बार बताना चाहते हैं कि गांधीजी अथवा अन्य किसी भी राजनेता को कश्मीर की स्थिति सुधरने तक यहां नहीं आना चाहिए...”. कहा जा सकता है कि यह कुछ-कुछ ऐसा ही था, मानो मेजबान के इनकार के बावजूद कोई किसी के घर जाए. वैसे गांधीजी को भी इस बात की पूरी अनुभूति थी कि ‘कश्मीर अब भारत और पाकिस्तान दोनों के लिए एक नाक का सवाल बन चुका हैं’.
स्वतंत्रता बस, एक पखवाड़े की दूरी पर थी. लेकिन फिर भी अभी तक कश्मीर ने अपना निर्णय घोषित नहीं किया था. इसीलिए गांधीजी भी नहीं चाहते थे कि उनके कश्मीर दौरे का अर्थ “उनके द्वारा कश्मीर के भारतीय संघ में शामिल होने हेतु कैम्पेन करना” निकाला जाए. क्योंकि यह बात उनके गढे हुए व्यक्तित्व और निर्माण की गई छवि के लिए मारक सिद्ध होती. *२९ जुलाई को कश्मीर के दौरे के लिए निकलने से पहले दिल्ली की अपनी नियमित प्रार्थना सभा में कहा था – “मैं कश्मीर के महाराज से यह कहने नहीं जा रहा हूँ, कि वे भारत में शामिल हों, या पाकिस्तान में शामिल हों.* क्योंकि कश्मीर के बारे में निर्णय लेने का अधिकार वास्तव में कश्मीरी जनता को है. उसी को यह तय करना चाहिए कि उन्हें कहां शामिल होना है. और इसीलिए मैं कश्मीर में कोई भी सार्वजनिक कार्यक्रम नहीं करने वाला हूँ... यहां तक की प्रार्थना भी... यह सब व्यक्तिगत रूप से ही करूंगा...”.
गांधीजी रावलपिंडी मार्ग से होते हुए १ अगस्त को कश्मीर के श्रीनगर में दाखिल हुए. चूंकि इस बार उन्हें महाराजा ने निमंत्रण नहीं दिया था, इसलिए वे किशोरीलाल सेठी के घर ठहरे. उनका मकान भले ही किराए का था, परन्तु खासा बड़ा था. वर्तमान के श्रीनगर में जो बार्झुला का बोन एंड जाइंट अस्पताल है, उसके एकदम नजदीक यह घर था. सेठी साहब जंगलों के ठेकेदार थे. ये साहब कांग्रेस और नेशनल कांफ्रेंस दोनों के नजदीकी हुआ करते थे. परन्तु इस समय नेशनल कांफ्रेंस के नेता शेख अब्दुल्ला को महाराज ने जेल में डाल रखा था. नेशनल कांफ्रेंस के अनेक नेता कश्मीर से बाहर निकाल दिए गए थे. *इन सभी नेताओं पर यह आरोप था कि वे शेख अब्दुल्ला के नेतृत्व में महाराज के खिलाफ षड्यंत्र कर रहे हैं.*
इसीलिए जब एक अगस्त को जब गांधीजी रावलपिंडी मार्ग से श्रीनगर आ रहे थे, उस समय चकलाला में बख्शी गुलाम मोहम्मद और ख्वाजा गुलाम मोहम्मद सादिक, इन दोनों नेशनल कांफ्रेंस के नेताओं ने उन्हें कोहला पुल तक छोड़ा और वापस लाहौर चले गए. गांधीजी के साथ उनके सचिव प्यारेलाल और दो भतीजियां थीं. श्रीनगर में प्रवेश के बाद गांधीजी सीधे किशोरीलाल सेठी के घर गए. थोड़ा विश्राम करने के बाद उनके दल को सरोवर पर ले जाया गया.
*गांधीजी के इस सम्पूर्ण दौरे में नेशनल कांफ्रेंस के कार्यकर्ता उनके आसपास बने हुए थे.* ऐसा क्यों? क्योंकि कश्मीर के इस दौरे से पहले गांधीजी ने नेहरू के माध्यम से सारी जानकारी प्राप्त कर ली थी. कश्मीर में पंडित नेहरू के सबसे नजदीकी मित्र थे शेख अब्दुल्ला, जो कि जेल में बन्द थे. हालांकि फिर भी *शेख साहब की बेगम तथा अन्य अनुयायियों ने गांधीजी की सारी व्यवस्थाओं को अंजाम दिया.*
कश्मीर में गांधीजी से आधिकारिक रूप से भेंट करने वाले पहले शासकीय व्यक्ति थे, ‘रामचंद्र काक’. ये महाराज हरिसिंह के अत्यंत विश्वासपात्र थे. कश्मीर के प्रधान थे. नेहरू की “घृणा सूची” में सबसे पहला स्थान रखने वाले व्यक्ति थे. क्योंकि जब १५ मई १९४६ में शेख अब्दुल्ला को उनके कश्मीर विरोधी कारस्तानी के लिए जेल में ठूंसा गया था, उस समय नेहरू ने उनका मुकदमा लड़ने के लिए वकील के रूप में कश्मीर आने की घोषणा की थी. तब इन काक महाशय ने नेहरू के कश्मीर में प्रवेश पर प्रतिबन्ध लगाने की घोषणा की
और मुज़फ्फराबाद के पास नेहरू को गिरफ्तार भी कर लिया था. तभी से रामचंद्र काक, नेहरू को फूटी आँख नहीं सुहाते थे. रामचंद्र काक ने गांधीजी को महाराज हरिसिंह का लिखा हुआ एक पत्र दिया जो कि सीलबंद था. वास्तव में यह पत्र गांधीजी से भेंट का निमंत्रण ही था. महाराज के “हरिनिवास” स्थित आवास पर ३ अगस्त को यह भेंट होना तय हुआ.
*नेहरू की ब्रीफिंग के अनुसार ही गांधीजी के इस सम्पूर्ण प्रवास में उनके चारों तरफ केवल नेशनल कांफ्रेंस के कार्यकर्ता ही थे.* शेख साहब की अनुपस्थिति में उनकी बेगम अकबर जहाँ और उनकी लड़की खालिदा ने गांधीजी के इस तीन दिवसीय प्रवास के दौरान कई बार भेंट की. परन्तु *१ अगस्त के दिन श्रीनगर में गांधीजी ने एक भी राष्ट्रवादी हिन्दू नेता से भेंट नहीं की.*
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एक अगस्त के दिन ही दूसरी एक और महत्त्वपूर्ण घटना आकार ले रही थी, जिसके कारण आगामी अनेक वर्षों तक भारतीय उपमहाद्वीप में असंतोष और अशांति रहने वाली थी, और यह घटना भी कश्मीर के सन्दर्भ में ही थी. महाराज हरिसिंह के नेतृत्व में जो कश्मीर राज्य था, वह काफी बड़ा था. सन १९३५ में इसमें से गिलगिट एजेंसी नामक भाग अंग्रेजों ने अलग करके उसे ब्रिटिश साम्राज्य से जोड़ दिया.
मूलतः देखा जाए तो सम्पूर्ण एवं अखंड कश्मीर एक तरह से पृथ्वी पर स्वर्ग ही है. इसके अलावा सामरिक एवं सैन्य दृष्टि से कश्मीर बहुत ही महत्त्वपूर्ण राज्य था (और है). तीन देशों की सीमाएं इस राज्य से मिलती थीं. १९३५ में दूसरा विश्वयुद्ध भले ही थोड़ा दूर था, लेकिन वैश्विक स्तर की राजनीति में बड़े परिवर्तन होने शुरू हो गए थे. रूस की शक्ति बढ़ रही थी. इसीलिए कश्मीर को रूस से जोड़ने वाला जो भाग था, अर्थात गिलगिट, उसे ब्रिटिश सत्ता ने महाराज हरिसिंह से छीन लिया. आगे चलकर झेलम में काफी पानी बह गया. दूसरा विश्वयुद्ध भी समाप्त हो गया. उस युद्ध में भाग लेने वाले सभी देश खोखले हो चुके थे. ब्रिटिश शासन ने भारत छोड़ने का निर्णय उसी समय ले लिया था. इस परिस्थिति को देखते हुए गिलगिट-बाल्टिस्तान नामक दुर्गम इलाके पर अपना नियंत्रण रखने में ब्रिटिशों की कोई रूचि नहीं बची थी. *इसीलिए उन्होंने भारत को आधिकारिक रूप से स्वतंत्रता देने से पहले, १ अगस्त के दिन गिलगिट प्रदेश, वापस महाराज हरिसिंह के हवाले कर दिया. १ अगस्त १९४७ का सूर्योदय होते ही गिलगित-बाल्टिस्तान के सभी जिला मुख्यालयों में अंग्रेजी हुकूमत का यूनियन जैक उतारकर कश्मीर का राजध्वज शान से फहराया गया.* लेकिन इस हस्तांतरण के लिए महाराज हरिसिंह कितने तैयार थे? कुछ खास नहीं.... ऐसा क्यों?
क्योंकि इस इलाके की रक्षा के लिए ब्रिटिश शासन ने ‘गिलगिट स्काउट’ नामक एक बटालियन तैनात की थी. इसमें कुछ ब्रिटिश अधिकारी छोड़ दें, तो अधिकांश सैनिक मुसलमान ही थे. १ अगस्त को गिलगिट के हस्तान्तरण के साथ ही मुस्लिमों की यह फ़ौज भी महाराज के पास आ गई. हरिसिंह ने ब्रिगेडियर घंसारा सिंह को इस प्रदेश का गवर्नर नियुक्त किया, और उनका साथ देने के लिए गिलगिट स्काउट के मेजर डबल्यू ए ब्राउन और कैप्टन एस. मेथिसन नामक अधिकारी नियुक्त किए. गिलगिट स्काउट का सूबेदार अर्थात मेजर बाबर खान भी इन लोगों के साथ था. यह नियुक्तियां करते समय महाराज हरिसिंह को बिलकुल भी अंदाजा नहीं था कि केवल दो माह तीन दिन के भीतर ही सम्पूर्ण गिलगिट स्काउट गद्दारी पर उतर आएगी. वैसा हुआ और इस टुकड़ी ने ब्रिगेडियर घंसारा सिंह को बंदी बना लिया. *१ अगस्त के दिन गिलगिट के हस्तान्तरण ने भविष्य की महत्त्वपूर्ण घटनाओं का आलेख पहले से लिख दिया था.*
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अखंड हिन्दुस्तान की खंडित स्वतंत्रता जब देश की दहलीज पर खड़ी थी, उस समय पूर्वी और पश्चिमी सीमाओं पर प्रचंड नरसंहार चल रहा था. स्वतंत्रता अर्थात, विभाजन का दिन जैसे-जैसे निकट आता जाएगा, वैसे-वैसे यह नरसंहार बढ़ता ही जाएगा ऐसा ब्रिटिश अधिकारियों का अनुमान था. इसीलिए उन्होंने इन दंगों की आग को कम करने हेतु हिन्दू, मुस्लिम और सिखों की सम्मिलित सेना का प्रस्ताव रखा. इसी के अनुसार “पंजाब बाउंड्री फ़ोर्स” नामक सेना का निर्माण किया गया. इसमें ग्यारह इन्फैंट्री शामिल थीं. इस टुकड़ी में पचास हजार सैनिक थे और इनका नेतृत्व करने के लिए चार ब्रिगेडियर थे, जिनके नाम थे, मोहम्मद अयूब खान, नासिर अहमद, दिगंबर बरार और थिमय्या. १ अगस्त के दिन चारों ब्रिगेडियर्स ने लाहौर में उनके अस्थायी मुख्यालय में ‘पंजाब बाउंड्री फ़ोर्स’ बैनर तले अपने काम का प्रारम्भ किया. लेकिन *किसे पता था कि केवल अगले पन्द्रह दिनों में ही इस सम्मिलित सेना को उनका लाहौर स्थित मुख्यालय धू-धू जलता हुआ देखना पड़ेगा.*
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इसी दौरान, सुदूर कलकत्ता में एक नया नाटक रचा जा रहा था....
कांग्रेस के वरिष्ठ नेता एवं सुभाषचंद्र बोस के बड़े भाई अर्थात शरदचंद्र बोस ने १ अगस्त को कांग्रेस से त्यागपत्र दे दिया. शरदचंद्र बोस एक विराट व्यक्तित्व के धनी थे. चालीस वर्षों तक कांग्रेस में रहकर ईमानदारी एवं जी जान से लड़ने वाले व्यक्ति के रूप में उनकी पहचान थी. १९३० की ब्रिटिश इंटेलिजेंस की रिपोर्ट में उनका उल्लेख भी है. शरदचंद्र बोस और पंडित जवाहरलाल नेहरू में काफी कुछ समानता भी थी. जैसे कि दोनों का जन्म १८८९ में हुआ. दोनों की शिक्षा इंग्लैण्ड में हुई. दोनों ने वकालत की डिग्री इंग्लैण्ड से ही प्राप्त की. युवावस्था में दोनों के विचार वामपंथ की तरफ झुकते थे. आगे चलकर दोनों ही कांग्रेस में सक्रिय हुए एवं इन दोनों के आपसी सम्बन्ध काफी अच्छे थे.
लेकिन १९३७ यह समीकरण बदला, जब बंगाल के प्रान्तीय चुनावों में कांग्रेस को सबसे अधिक ५४ स्थान प्राप्त हुए. उसके बाद दूसरे नंबर पर ‘कृषक प्रजा पार्टी’ और मुस्लिम लीग, दोनों को ३७ – ३७ सीटें मिलीं. बंगाल में कांग्रेस के नेता के रूप में शरदचंद्र बोस ने कांग्रेस पार्टी और मुख्यतः नेहरू के सामने प्रस्ताव रखा कि कांग्रेस और कृषक प्रजा पार्टी को मिलकर संयुक्त सरकार स्थापना करनी चाहिए. परन्तु नेहरू ने यह प्रस्ताव अनसुना कर दिया.
सर्वाधिक सीटें जीतने के बावजूद कांग्रेस को विपक्ष में बैठना पड़ा और कृषक प्रजा पार्टी ने मुस्लिम लीग के साथ मिलकर सरकार बना ली. ‘शेर-ए-बंगाल’ के नाम से मशहूर ए. के. फजलुल हक बंगाल के प्रधानमंत्री बने. उसी समय से कांग्रेस बंगाल में कमज़ोर होती चली गई. आगे चलकर नौ वर्षों के बाद इस गलती की परिणति मुस्लिम लीग के सुहरावर्दी जैसे कट्टर मुस्लिम व्यक्ति के प्रधानमंत्री बनने में हुई. सुहरावर्दी वह कुख्यात व्यक्ति था, जिसके नेतृत्व में १९४६ में ‘डायरेक्ट-एक्शन-डे’ के नाम से पांच हजार निर्दोष हिंदुओं का नरसंहार किया गया.
उपरोक्त सारी घटनाएं शरद बाबू को व्यथित कर रही थीं. उन्होंने समय-समय पर इस सम्बन्ध में कांग्रेस नेतृत्व को, विशेषकर नेहरू को सूचित भी किया. परन्तु इसका कोई फायदा नहीं हो रहा था. नेहरू इस पर कतई ध्यान नहीं दे रहे थे. १९३९ में कांग्रेस के त्रिपुरी (जबलपुर) अधिवेशन के दौरान कांग्रेस अध्यक्ष पद के चुनाव में नेहरू ने सुभाषचंद्र बोस के विरोध में जबरदस्त कटु प्रचार किया था, उस कारण शरदचंद्र बोस का और भी चिढ़ जाना एकदम स्वाभाविक ही था. इन सारी घटनाओं के ऊपर एक और प्रहार के रूप में गांधी-नेहरू द्वारा बंगाल के विभाजन को मान्यता दे दी गई, जो कि शरद बाबू को कतई रास नहीं आया. इसीलिए अंततः उन्होंने १ अगस्त को अपने चालीस वर्षीय काँग्रेसी जीवन से त्यागपत्र दे दिया. १ अगस्त को ही शरदचंद्र बोस ने ‘सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी’ नामक पार्टी की स्थापना की एवं जनता को स्पष्ट रूप से यह बताने लगे कि *देश का विभाजन एवं देश में जो अराजकता का वातावरण निर्मित हुआ है, उसके पीछे साफतौर पर नेहरू के नेतृत्व की विफलता है.*
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१ अगस्त... भारत में घटने वाली प्रचंड एवं तीव्र घटनाओं का यह दिन अब शाम में ढलने लगा था. पंजाब पूरी तरह आग और हिंसा के हवाले हो चुका था. *रात के उस भयानक अंधेरे में पंजाब, सिंध, बलूचिस्तान के सैकड़ों गांवो से उठने वाली आग की लपटें, दूर-दूर तक दिखाई दे रही थीं. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के ५८,००० स्वयंसेवक पूरे पंजाब में हिंदु-सिखों की रक्षा में दिन-रात एक किए हुए थे.* ठीक इसी प्रकार बंगाल की परिस्थिति भी अराजकता की तरफ तेजी से बढ़ रही थी.
स्वतंत्रता एवं उसके साथ ही विभाजन, अब केवल चौदह दिन दूर था...!
- प्रशांत पोळ

रविवार, जुलाई 10, 2022

भील राजकुमारी शबरी को क्यों दलित कहा जा रहा है?

 भील राजकुमारी शबरी को

आश्रम सौंपकर महर्षि मतंग जब देवलोक जाने लगे,
तब शबरी भी साथ जाने की जिद करने लगी।

शबरी की उम्र दस वर्ष थी। वो महर्षि मतंग का हाथ पकड़ रोने लगी।

महर्षि शबरी को रोते देख व्याकुल हो उठे।
शबरी को समझाया
"पुत्री इस आश्रम में भगवान आएंगे, तुम यहीं प्रतीक्षा करो।"

अबोध शबरी इतना अवश्य जानती थी कि गुरु का वाक्य सत्य होकर रहेगा।
उसने फिर पूछा- कब आएंगे..?

महर्षि मतंग त्रिकालदर्शी थे।
वे भूत भविष्य सब जानते थे, वे ब्रह्मर्षि थे।
महर्षि, शबरी के आगे घुटनों के बल बैठ गए और शबरी को नमन किया।

आसपास उपस्थित सभी ऋषिगण असमंजस में डूब गए।
ये उलट कैसे हुआ।
गुरु यहां शिष्य को नमन करे, ये कैसे हुआ??

महर्षि के तेज के आगे कोई बोल न सका।
महर्षि मतंग बोले-
पुत्री अभी उनका जन्म नहीं हुआ।
अभी दशरथ जी का लग्न भी नहीं हुआ।
उनका कौशल्या से विवाह होगा।
फिर भगवान की लम्बी प्रतीक्षा होगी।
फिर दशरथ जी का विवाह सुमित्रा से होगा।
फिर प्रतीक्षा..

फिर उनका विवाह कैकई से होगा।
फिर प्रतीक्षा..

फिर वो जन्म लेंगे।
फिर उनका विवाह माता जानकी से होगा।
फिर उन्हें 14 वर्ष वनवास होगा और फिर वनवास के आखिरी वर्ष माता जानकी का हरण होगा।
तब उनकी खोज में वे यहां आएंगे।
तुम उन्हें कहना-
आप सुग्रीव से मित्रता कीजिये।
उसे आतताई बाली के संताप से मुक्त कीजिये, आपका अभीष्ट सिद्ध होगा। और आप रावण पर अवश्य विजय प्राप्त करेंगे।

शबरी एक क्षण किंकर्तव्यविमूढ़ हो गई।
अबोध शबरी, इतनी लंबी प्रतीक्षा के समय को माप भी नहीं पाई।

वह फिर अधीर होकर पूछने लगी- "इतनी लम्बी प्रतीक्षा कैसे पूरी होगी गुरुदेव???"

महर्षि मतंग बोले- "वे ईश्वर है, अवश्य ही आएंगे। यह भावी निश्चित है। लेकिन यदि उनकी इच्छा हुई तो काल दर्शन के इस विज्ञान को परे रखकर वे कभी भी आ सकते है। लेकिन आएंगे "अवश्य"...!

जन्म मरण से परे उन्हें जब जरूरत हुई तो प्रह्लाद के लिए खम्बे से भी निकल आये थे। इसलिए प्रतीक्षा करना। वे कभी भी आ सकते है। तीनों काल तुम्हारे गुरु के रूप में मुझे याद रखेंगे। शायद यही मेरे तप का फल है।"

शबरी गुरु के आदेश को मान वहीं आश्रम में रुक गई। उसे हर दिन प्रभु श्रीराम की प्रतीक्षा रहती थी। वह जानती थी समय का चक्र उनकी उंगली पर नाचता है, वे कभी भी आ सकतें है।

हर रोज रास्ते में फूल बिछाती है और हर क्षण प्रतीक्षा करती।

कभी भी आ सकतें हैं।
हर तरफ फूल बिछाकर हर क्षण प्रतीक्षा। शबरी बूढ़ी हो गई। लेकिन प्रतीक्षा उसी अबोध चित्त से करती रही।

और एक दिन उसके बिछाए फूलों पर प्रभु श्रीराम के चरण पड़े। शबरी का कंठ अवरुद्ध हो गया। आंखों से अश्रुओं की धारा फूट पड़ी।

गुरु का कथन सत्य हुआ। भगवान उसके घर आ गए। शबरी की प्रतीक्षा का फल ये रहा कि जिन राम को कभी तीनों माताओं ने जूठा नहीं खिलाया, उन्हीं राम ने शबरी का जूठा खाया।

ऐसे पतित पावन मर्यादा, पुरुषोत्तम, दीन हितकारी श्री राम जी की जय हो। जय हो। जय हो। एकटक देर तक उस सुपुरुष को निहारते रहने के बाद वृद्धा भीलनी के मुंह से स्वर/बोल फूटे-

"कहो राम ! शबरी की कुटिया को ढूंढ़ने में अधिक कष्ट तो नहीं हुआ..?"

राम मुस्कुराए- "यहां तो आना ही था मां, कष्ट का क्या मोल?"

"जानते हो राम! तुम्हारी प्रतीक्षा तब से कर रही हूँ, जब तुम जन्मे भी नहीं थे, यह भी नहीं जानती थी कि तुम कौन हो ? कैसे दिखते हो ? क्यों आओगे मेरे पास ? बस इतना ज्ञात था कि कोई पुरुषोत्तम आएगा, जो मेरी प्रतीक्षा का अंत करेगा।

राम ने कहा- "तभी तो मेरे जन्म के पूर्व ही तय हो चुका था कि राम को शबरी के आश्रम में जाना है।”

"एक बात बताऊँ प्रभु ! भक्ति में दो प्रकार की शरणागति होती है। पहली ‘वानरी भाव’ और दूसरी ‘मार्जारी भाव’।

”बन्दर का बच्चा अपनी पूरी शक्ति लगाकर अपनी माँ का पेट पकड़े रहता है, ताकि गिरे न... उसे सबसे अधिक भरोसा माँ पर ही होता है और वह उसे पूरी शक्ति से पकड़े रहता है। यही भक्ति का भी एक भाव है, जिसमें भक्त अपने ईश्वर को पूरी शक्ति से पकड़े रहता है। दिन रात उसकी आराधना करता है...!” (वानरी भाव)

पर मैंने यह भाव नहीं अपनाया। ”मैं तो उस बिल्ली के बच्चे की भाँति थी, जो अपनी माँ को पकड़ता ही नहीं, बल्कि निश्चिन्त बैठा रहता है कि माँ है न, वह स्वयं ही मेरी रक्षा करेगी, और माँ सचमुच उसे अपने मुँह में टांग कर घूमती है। मैं भी निश्चिन्त थी कि तुम आओगे ही, तुम्हें क्या पकड़ना...।" (मार्जारी भाव)

राम मुस्कुराकर रह गए!!

भीलनी ने पुनः कहा- "सोच रही हूँ बुराई में भी तनिक अच्छाई छिपी होती है न... “कहाँ सुदूर उत्तर के तुम, कहाँ घोर दक्षिण में मैं!" तुम प्रतिष्ठित रघुकुल के भविष्य, मैं वन की भीलनी। यदि रावण का अंत नहीं करना होता तो तुम कहाँ से आते..?”

राम गम्भीर हुए और कहा-

भ्रम में न पड़ो मां! “राम क्या रावण का वध करने आया है..?”

रावण का वध तो लक्ष्मण अपने पैर से बाण चलाकर भी कर सकता है।

राम हजारों कोस चलकर इस गहन वन में आया है, तो केवल तुमसे मिलने आया है मां, ताकि
“सहस्त्रों वर्षों के बाद भी,
जब कोई भारत के अस्तित्व पर प्रश्न खड़ा करे तो इतिहास चिल्ला कर उत्तर दे, कि
इस राष्ट्र को क्षत्रिय राम और
उसकी भीलनी माँ ने मिलकर गढ़ा था।”

"जब कोई भारत की परम्पराओं पर उँगली उठाये तो काल उसका गला पकड़कर कहे कि नहीं!
यह एकमात्र ऐसी सभ्यता है जहाँ, एक राजपुत्र वन में प्रतीक्षा करती एक वनवासिनी से भेंट करने के लिए चौदह वर्ष का वनवास स्वीकार करता है।"

राम वन में बस इसलिए आया है, ताकि “जब युगों का इतिहास लिखा जाए, तो उसमें अंकित हो कि "शासन/प्रशासन और सत्ता" जब पैदल चलकर वन में रहने वाले समाज के अंतिम व्यक्ति तक पहुँचे, तभी वह रामराज्य है।”
(अंत्योदय)

राम वन में इसलिए आया है, ताकि भविष्य स्मरण रखे कि प्रतीक्षाएँ अवश्य पूरी होती हैं। राम रावण को मारने भर के लिए नहीं आया है माँ!

माता शबरी एकटक राम को निहारती रहीं।

राम ने फिर कहा-

राम की वन यात्रा रावण युद्ध के लिए नहीं है माता! “राम की यात्रा प्रारंभ हुई है, भविष्य के आदर्श की स्थापना के लिए।”

"राम राजमहल से निकला है, ताकि “विश्व को संदेश दे सके कि एक माँ की अवांछनीय इच्छओं को भी पूरा करना ही 'राम' होना है।”

"राम निकला है, ताकि “भारत विश्व को सीख दे सके कि किसी सीता के अपमान का दण्ड असभ्य रावण के पूरे साम्राज्य के विध्वंस से पूरा होता है।”

"राम आया है, ताकि “भारत विश्व को बता सके कि अन्याय और आतंक का अंत करना ही धर्म है।”

"राम आया है, ताकि “भारत विश्व को सदैव के लिए सीख दे सके कि विदेश में बैठे शत्रु की समाप्ति के लिए आवश्यक है कि पहले देश में बैठी उसकी समर्थक सूर्पणखाओं की नाक काटी जाए और खर-दूषणों का घमंड तोड़ा जाए।”

और

"राम आया है, ताकि “युगों को बता सके कि रावणों से युद्ध केवल राम की शक्ति से नहीं बल्कि वन में बैठी शबरी के आशीर्वाद से जीते जाते है।”

शबरी की आँखों में जल भर आया था।
उसने बात बदलकर कहा- "बेर खाओगे राम..?”

राम मुस्कुराए, "बिना खाये जाऊंगा भी नहीं मां!"

शबरी अपनी कुटिया से झपोली में बेर लेकर आई और राम के समक्ष रख दिये।

राम और लक्ष्मण खाने लगे तो कहा-
"बेर मीठे हैं न प्रभु..?”

"यहाँ आकर मीठे और खट्टे का भेद भूल गया हूँ मां! बस इतना समझ रहा हूँ कि यही अमृत है।”

सबरी मुस्कुराईं, बोली- "सचमुच तुम मर्यादा पुरुषोत्तम हो, राम!"

मर्यादा-पुरुषोत्तम भगवान श्री राम को बारंबार सादर वन्दन
जय जय सिया राम 🌼🌿🚩
(साभार फेसबुक)

आइए डॉक्टर बने....

 आइए डॉक्टर बने.....

🖤......दरअसल कुछ जानकारी दे रहा हु, की आप जो दवाएँ खाते है या डॉक्टर लिखता है वह किसलिये दे रहा है.......
क्योंकि आजकल अगर जरूरत 1 दवा की है डॉक्टर 4 साथ मे पेल देगा क्योंकि कम्पनी विदेश का टूर जो देती है ....🤣
😊....आज इतना सीख लो, साइडइफेक्ट फिर बता दूँगा आज बता दूँगा तो बेहोश हो जाआगे 🤣🤣
❤️......प्रत्येक अंग्रेजी दवा के अंत मे एक शब्द होता है जिससे जान सकते है वह दवा किस काम आएगी.....😊
CAIN.........❤️❤️
Xylocaine
Benzocaine
Amylocaine
Lidocaine
ये एक लोकल इनेस्थेटिक है, अर्थात ये दवाईया किसी अंग को सुन्न करने के लिए दी जाती है
MYCIN........❤️❤️
Azithromycin
Erythromycin
Neomycin
Strptomycin
ये एंटीबायोटिक है अर्थात इंफेक्शन के लिए दी जाती है
OLOL.........❤️❤️
Metaprolol
Atenolol
Esmolol
Bisoprolol
ये बीटा ब्लॉकर्स होते है अर्थात इनका प्रयोग हाइपरटेंशन, या हार्ट अटैक /HIGH BP में करते है
MIDE & ZIDE.........❤️❤️
Furosemide
Bumetanide
Benzthiazide
Chlorothiazide
ये डाइयुरेटिक्स है अर्थात यूरीन को बढ़ाती है, शरीर मे सूजन होती है या BP ज्यादा होता है उन्हें देते है
VIR........❤️❤️
Acyclovir
Ritonavir
Indinavir
ये एन्टीवायरल है अर्थात वायरस के इंफेक्शन में प्रयोग करते है
PAM........❤️❤️
Diazepam
Lorazepam
ये एंटीएंजाइटी है अर्थात घबराहट बेचैनी नींद न आने में दी जाती है
STATIN......❤️❤️
Atorvastatin
Simvastatin
Lovastatin
इसका प्रयोग एंटी हायपर लिपिडेमिक्स में होता है अर्थात जिनका कोलस्ट्रॉल बढ़ जाता है उन्हें देते है
SONE........❤️❤️
Betamethasone
Cortisone
Dexamethasone
ये स्टेरॉइड है अर्थात सूजन को दूर करने के लिए
AZOLE.........❤️❤️
Ketoconazole
Fluconazole
Econazole
Miconazole
एंटीफंगल है अर्थात फंगल इंफकेशन में दी जाती है
TIDINE.........❤️❤️
Ranitidine
Cimetidine
Famotidine
Roxatidine
ये H2 रिसेप्टर ब्लोकर है अर्थात पेट मे एसिड को कम करती है, पेप्टिक अल्सर में प्रयोग होता है
SETRON.........❤️❤️
Ondasetron
Grenisetron
Dolosetron
5HT3 एनटागोनिस्ट होती है अर्थात उल्टी, चक्कर मे दी जाती है
OFLOXACIN.......❤️❤️
Ciprofloxacin
Norfloxacin
Levofloxcin
ये एंटीबैक्टीरियल है
NIDAZOLE.........❤️❤️
Metronidazole
Ornidazole
Tinidazole
ये एन्टीअमेबिक है अर्थात दर्द के साथ दस्त में दी जाती है
TRIPTAN..........❤️❤️
Sumatriptan
Rizatriptan
Naratripton
5HT एगोनिस्ट होती है अर्थात माइग्रेन में दी जाती है
PROFEN.........❤️❤️
Ibuprofen
Ketoprofen
Flurbiprofen
ये नॉन स्ट्रोइडल एंटी इन्फ्लामेट्री ड्रग्स होती है अर्थात सूजन, बुखार ,दर्द आदि में दिया जाता है
PRAZOLE........❤️❤️
Pantoprazole
Omeprazole
Esomeprazole
Rabeprazole
ये प्रोटोन पम्प इन्हेबिटर है अर्थात पेट मे एसिड कम करती है और पेट मे हाइड्रोजन पोटेशियम पम्प को बन्द कर देती ह, गेस्ट्रो सम्बन्धी पेप्टिक अल्सर में प्रयोग करते है
GLIPTIN........❤️❤️
Sitagliptin
Vildagliptin
Alogiptin
Linagliptin
DDP 4 इन्हेबिटर है, अर्थात डाइबिटीज में प्रयोग होता है
🖤....चित्र में metrate कम्पनी का ब्रांड नेम है जिसे कोई भी कम्पनी बदल कर रख सकती है और olol
उसका साइंटफिक नाम है.....
सीखते रहिये.......😊 ........🙏🙏

बुधवार, जून 22, 2022

भारतीयों को प्रेम से वश में करने के लिए इस्लाम ने सूफी का आडंबर किया।

 अरबी इतिहासकार याकूबी लिखता है, जब मोहम्मद बिन कासिम के भारत आक्रमण के बाद दूसरे सारे आक्रमण विफल होने लगे तब खलीफा को उनके अमीरों ने समझाया- "भारत के लोग इतने जुझारू हैं कि उन्हें केवल तलवार से नहीं हराया जा सकता। वे धर्मभीरु हैं, यदि उन्हें प्रेम से अपने वश में किया जाय तो उस देश को आसानी से फतह किया जा सकता है।"

और यही कारण है कि उसके बाद जब जब कोई आतंकी भारत में घुसा तो उसके साथ कोई न कोई सूफी अवश्य था। मोहम्मद गजनवी के साथ आया अलबरूनी, मोहम्मद गोरी के साथ आये मोइनुद्दीन चिश्ती...
खैर! यह हमारा विषय नहीं, हम बात कर रहे हैं कासिम के आक्रमण के बाद की तीन सदियों की।
मोहम्मद बिन कासिम के आक्रमण में जिस बर्बर तरीके से मंदिरों, चैत्यों, बौद्ध मठों को तोड़ा गया था, और निर्दोष बच्चों बूढ़ों को क्रूरतापूर्वक मारा गया था, उसने भारत को एकाएक चैतन्य कर दिया था। और उसके बाद पश्चिमोत्तर भारत में कई राजवंश ऐसे उभरे जिन्होंने दो शताब्दियों तक अपनी साहसी तलवार के बल पर बर्बर तुर्कों को सिंधु के उस पार ही रोक कर रखा। इन्ही में एक था शाही राजवंश...
उत्तर में पेशावर से दक्षिण में मुल्तान तक लगभग छह सौ किलोमीटर की सीमा इन्होंने घेर रखी थी, जिसे पार करना तुर्कों के लिए लगभग असंभव था। ये मूलतः कश्मीरी पंडित थे।
वैसे हमारा विषय यह भी नहीं! हमारा विषय यह है कि सिन्धु नदी की गोद में, हिमालय की मनोरम छटा के बीच इन्ही शाहियों ने कुछ मन्दिर बनवाये थे। विशाल, भव्य, अद्वितीय सुन्दर... जैसे वही धरा का स्वर्ग हो।
प्रकृति का सौंदर्य ऐसा कि वहाँ पहुँचते ही कोई भी सभ्य मनुष्य अपने समस्त अवगुण भूल कर ईश्वर और प्रकृति के आगे नतमस्तक हो जाय। सभ्य व्यक्ति सौंदर्य को पूजता है और असभ्य उसे तहस नहस कर देता है। जिन बर्बरों के संस्कार में केवल तोड़ना और काटना ही था, उन्हें तो मनुष्य मानना ही असभ्यता है।
ये मन्दिर पूरी तरह प्रकृति को समर्पित थे। उन सात नदियों को समर्पित मन्दिर, जिनके नाम पर युगों पूर्व इस विशाल भूभाग को सप्तसैंधव प्रदेश कहा गया था। सिन्धु, सरस्वति, वितस्ता, अस्किनी, पुरुषणि, शतद्रु, विपाशा... आज की सिंधु, लुप्त सरस्वति, झेलम, चनाव, रावी, शतलज, व्यास...
मन्दिर अद्भुत पत्थरों से बने थे। कुछ पत्थर शहद के रङ्ग के, तो कुछ श्वेत पारदर्शी...कुछ नीलम जैसे, तो कुछ रक्त की तरह लाल! लगता जैसे स्वयं विश्वकर्मा ने बहुमूल्य रत्नों से बनाया हो इस तीर्थ को... ऐसे पत्थर उस क्षेत्र में नहीं होते। किवदंतियों में है कि हिमालय की ऊंचाई से सिंधु नदी के रास्ते ये पत्थर लाये गए थे।
मन्दिर के रक्षण हेतु हर ओर कुछ विशाल अट्टालिकाएं बनीं थीं, जहाँ छोटी सी सेना निवास करती थी।
दशवीं सदी में जब गजनवी ने भारत में प्रवेश किया और शाही राजवंश पराजित हुआ तो इन मंदिरों की प्रतिष्ठा भी चली गयी। तबसे अब तक सैकड़ों बार इन मंदिरों के सुंदर पत्थरों पर बर्बरों की तलवारें चली हैं। पर समय की मार झेलते ये खंडहर अब भी ऐसे हैं कि पूरे पाकिस्तान में इनसे सुन्दर और कुछ नहीं।
सात में से दो मन्दिर तो गिर गए, पाँच के ध्वंसावशेष बचे हैं। सम्भव है कल वे भी गिर जांय! समय सबकुछ समाप्त कर देता है।सभ्यता भी एक दिन मरती है और बर्बरता भी! बचती है कहानियां, जो बताती हैं कि कौन बनाने आये थे और कौन तोड़ने...

सर्वेश तिवारी श्रीमुख
गोपालगंज, बिहार।

शनिवार, मई 07, 2022

सारे संगीत का मानक 440 Hz करवा दिए... जिससे.. लोग मूरख रहें और आपस मे लड़ते रहें ..

#ऊँ की आवृत्ति भी 432 Hz होती है.. और सारे वैदिक मंत्रो की भी.. आप चाहे तो गूगल पर सर्च कर सकते हैं
अब आप सोचिए कहाँ से कहाँ तक हमारे सनातन पूर्वजों को ज्ञान था जहाँ तक किसी का दिमाग़ आज तक इतने हज़ार साल बीत गये अभी तक नहीं पड़ा था...
अब जा कर पश्चिमी दुनिया ने इस बारे मे विचार आया......... और हमारे पूर्वजों ने लाखों वर्ष पहले इसी आधार पर सारे मंत्र रचे और गठित किए..संस्कृत के साधारण शब्द यही आवृत्ति देते हैं.. (परंतु कुछ संधिपूर्ण शब्द अलग आवृत्ति भी देते हैं..)
इस 432 Hz आवृत्ति का संगीत और ध्वनियाँ सुनते रहने से आपका दिमाग़ और शरीर एक तरह से सकारात्मक स्पंज (Positive Sponge) बन जाता है जो सारे वातावरण से सकारात्मकता ही ग्रहण करता और छोड़ता है...
लेकिन वही 440 Hz की आवृत्ति इसका बिल्कुल उल्टा करती है..... आपका दिमाग़ एसे संगीत सुनने से आस पास से नकारात्मकता को हम पहले हाथों हाथ लेते हैं.. (Like negative sponge) नकारात्मक चीज़ें हमारे मन पर आसानी से छाप छोड़ देती हैं.. और वही हमें अच्छी लगती हैं.. जबकि सकारात्मक चीज़ें हमारे पल्ले नहीं पड़ती..
यह बात जब रोशचेल्ड एक बहुत बड़ा बैंकर का परिवार है जो परोक्ष रूप से पूरी दुनियाँ के संपत्ति खनिज और संपदाओं पर कब्जा करना चाहता है... आज के लगभग सभी बैंक (वर्ल्ड बेंक भी)इसके ही बिठाए प्यादों से चल रहा है सारी सरकारो को परोक्ष रूप से ये नियंत्रित करता है..
इसको जब यह बात पता चली तो इसने तुरंत ही सारे संगीत का मानक 440 Hz करवा दिए... जिससे.. लोग मूरख रहें और आपस मे लड़ते रहें ..
इन लोगो के विश्व विजय में कभी रोड़ा ना अटकाएँ या सामने टिक सकें..
दुख की बात यह भी है की भारतीय मानक भी इसी 440 Hz के हिसाब से ही बनते हैं..
हमने अपने सनातन हिंदू पुरवजो के ज्ञान को नहीं पहचाना.. और 432 Hz नहीं प्रयोग करते .. जबकि यह आसानी से संगीत रिकार्डिग के समय किया जा सकता है...
या फिर ये बैंक ग्रुप एसा होने नही देगा... क्यूकी इस बात के साक्ष्य भी मौजूद हैं.. की जिसने भी इस आवृत्ति का संगीत बना ने की कोशिश की उसको गुप्त रूप से हत्या करा दी गयी
फिलहाल यहाँ बात हो रही थी की किस तरह हमारे पुरवजो ने संपूर्ण मानव जाती के कल्याण के लिए मंत्र बनाए थे..
और यह उन लोगो का भी मुँह बंद करने के लिए काफ़ी है जो कहते है मंत्रो से क्या हो सकता है???????? या क्या किया जा सकता है..??????
इसके अलावा कई एसी आवृत्तियाँ भी हमारे ऋषि मुनियों को पता थीं जो की विनाशकारी (destructive frequencies) भी होती थी.. यदि किसी के उपर इस तरह के मंत्र पढ़ दिए जाए तो वहाँ भयंकर विनाशलीला प्रारंभ हो जाती थी.. युध्धो मे एसे मंत्रो का आह्वाहन किया जाता था
ऊँ की आवृत्ति भी 432 Hz होती है.. और सारे वैदिक मंत्रो की भी.. आप चाहे तो गूगल पर सर्च कर सकते हैं...
🙏😌🙏

रविवार, मार्च 27, 2022

इस्लाम की सच्चाई को दिखाने का बीड़ा भारत के कुछ एक्स मुस्लिमो ने उठाया हैं

 इस्लाम  की सच्चाई को दिखाने का बीड़ा भारत के कुछ एक्स मुस्लिमो ने उठाया हैं जिस से  भारत पाकिस्तान  दुनिया के इस्लाम जगत के  दीन (सिस्टम) में भूचाल आ गया हैं. वास्तव में पूरा इस्लाम झूठ की बुनियाद पर टिका हुआ हैं, कुरआन का अनुवाद भी अधूरा हैं जो भी कुरआन जानते हैं वो रट्टा मारते रहे हैं, उस के अंदर लिखी बाते सिर्फ मौलाना कारी आलिम ही जानते हैं और तो और  हदीशो का २०% भी दुनिया तक नहीं पहुंचाया गया हैं क्युकी सभ्य भाषा में इस्लाम की सच्चाई  रामायण महाभारत की तरह चित्रित नहीं की जाती , इस से भी आगे शब्दों में भी सभ्य समाज अपने समाज में बच्चो को बता भी नहीं सकता. 

1. Sachwala : 

Sachwala (pseudo name) is an India-born activist & critic of Islam. He is quite articulate in the Quranic tongue & Urdu language. 

https://www.youtube.com/c/Sachwala


2. Ex-Muslim Bharti :

 Interviews of Ex Muslim women.

https://www.youtube.com/channel/UC9AOGG3z-QuopUBW6UycuVg 


3. Almosow Free

Ex-muslim Sanatani. Atheist to the Abrahamic God. Lecturer - Academic Philosophy. This channel attempts to get a holistic ...

https://www.youtube.com/c/AlmosowFreeOM

4. Kaali Dasi काली दासी Sarah Khan

जय काली जय महादेव जय भारत Hey Sarah Khan here also know as KaaliDasi/काली दासी I was always a seeker, though ...

https://www.youtube.com/c/SarahKaliDasi

5. Indian ExMuslim Sahil :

 I was a devoted muslim before and a hardcore daee however recently left Islam as it does not make any sense to me now.

https://www.youtube.com/channel/UCjk7V7Rw2jJSflLXYxBOY0g

6. Ex-Muslim Zafar Heretic

I am an Indian ex-muslim Atheist and activist. I left islam after knowing it's reality and bad teachings..I love to expose this religion ...

https://www.youtube.com/c/ExMuslimZafarHeretic 

 

7.EX-MUSLIM SAMEER

Ex-MUSLIM SAMEER AGNOSTIC | HUMANIST | FREE-THINKER Only Humanity And Love Can Change The World. Peace Upon ...

https://www.youtube.com/channel/UCnfqx-4D7HtfIH-xs4ulvmQ


8.Pooja Praveen upadhyaay : Har Har Mahadev 

https://www.youtube.com/c/PoojaParveenUncompromisingIndia/videos

9.  Jaidevi ( Uzma Khan) : 

I am an ex-Muslim after knowing that I have been lied too and there is no rights for women in Islam.  

My channel is about to educate about Islam (Quran & Hadith) to the Western Kuffar Women so they don't come into Muslims men's trap by their manipulation and sugar quoting Quran & hadiths. 

https://www.youtube.com/c/UzmaKhan6

10. Sulemani Jalebiya

This channel is for making informative videos of Islam with authentic reference. Please kindly note that this channel ...

https://www.youtube.com/channel/UCWa4Nrdpkzslx_ZBeXCjdYg

11. Ex muslim Yasmin Khan

Provide food cloth and shelter to poor children you are human show ❣️ kindness to your heart.

https://www.youtube.com/channel/UCNPa6Bf64QmM4hw89Q_UBDw

12. Faiz Alam : 

https://www.youtube.com/channel/UCyM8STPVlMZ4HNyREOYUjzA



HINDU AWAKENING CHANNELS   GAYATRI BOPATRA GOHAIN, GYAN SAFAR,MUNIKA SHERON, NEERAJ ATRI, SATYA SANATAN,ANKUR ARYA , THE SHAM SHARMA SHOW, AKTK AND MANY MORE...

SOUECE : COPIED 



मंगलवार, दिसंबर 28, 2021

#जीसस_की_कब्र_भारत_में_है

 

#जीसस_की_कब्र_भारत_में_है

यह संयोग मात्र ही नहीं है कि जब भी कोई सत्य के लिए प्यासा होता है, अनायास ही वह भारत में उत्सुक हो उठता हे, अचानक वह पूरब की यात्रा पर निकल पड़ता है। और यह केवल आज की ही बात नहीं यह उतनी ही प्राचीन बात है जितने पुराने प्रमाण और उल्लेख मौजूद हैं। आज से पच्चीस सौ वर्ष पूर्व, सत्य की खोज में पाइथागोरस भारत आया था। #ईसामसीह भी भारत आए थे।

ईसामसीह की तेरह से तीस वर्ष की उम्र के बीच का #बाइबिल में कोई उल्लेख नहीं है। और यही उनकी लगभग पूरी जिंदगी थी, क्योंकि तैंतीस की उम्र में तो उन्हें सूली पर ही चढ़ा दिया गया था। तेरह से तीस तक के सत्रह सालों का हिसाब गायब है। इतने समय वे कहां रहे, और बाइबिल में उन सालों को क्यों नहीं रिकार्ड किया गया? उन्हें जान-बूझकर छोड़ा गया है, कि वह एक मौलिक धर्म नहीं है, कि ईसामसीह जो भी कर रहे हैं वे उसे सनातन भारत से लाए हैं।

यह बहुत ही विचारणीय बात है। वे एक यहूदी की तरह जन्में, #यहूदी की तरह जिए, और यहूदी की तरह मरे। स्मरण रहे कि वे ईसाई नहीं थे, उन्होंने तो-ईसा और ईसाई ये शब्द भी नहीं सुने थे। फिर क्यों यहूदी उनके इतने खिलाफ थे? यह सोचने जैसी बात है, आखिर क्यों? न तो ईसाइयों के पास इस सवाल का ठीक-ठीक जवाब है, न ही यहूदियों के पास। क्योंकि इस व्यक्ति ने किसी को कोई नुकसान नहीं पहुचाया। वे उतने ही निर्दोष थे, जितनी कि कल्पना की जा सकती है।

...पर उनका अपराध बहुत सूक्ष्म था। पढे़-लिखे यहूदियों और चतुर रबाईयों ने स्पष्ट देख लिया कि वे पूरब से विचार ला रहे हैं, जो कि गैर-यहूदी हैं। वे कुछ अजीबोगरीब और विजातीय बातें ला रहे हैं। और यदि इस दृष्टिकोण से देखो तो तुम्हें समझ आएगा कि क्यों वे बार-बार कहते हैं- "अतीत के पैगम्बरों ने तुमसे कहा था कि यदि कोई तुम पर क्रोध करे, हिंसा करे, तो आंख के बदले में आंख लेने और ईंट का जवाब पत्थर से देने को तैयार रहना। लेकिन मैं तुमसे कहता हूं कि अगर कोई तुम्हें चोट पहुंचाता है, एक गाल पर चांटा मारता है, तो उसे अपना दूसरा गाल भी दिखा देना।" यह पृर्णतः गैर-यहूदी बात है। उन्होंने ये बातें भारत में  गौतम बुद्ध और महावीर की देशनाओं से सीखी थीं।

वे जब भारत आए थे-तब सनातन बौद्ध पंथ  बहुत जीवंत था, यद्यपि बुद्ध की मृत्यु हो चुकी थी। गौतम बुद्ध के पांच सौ साल बाद जीसस यहां आए, पर बुद्ध ने इतना विराट आंदोलन, इतना बडा तूफान खड़ा किया था कि तब तक भी पूरा मुल्क उसमें डूबा हुआ था। उनकी करुणा, क्षमा, प्रेम के उपदेशों को पिए हुआ था। जीसस कहते हैं कि "अतीत के पैंराम्बरों द्वारा यह कहा गया था"- कौन हैं ये पुराने पैगम्बर? वे सभी प्राचीन यहूदी पैगम्बर हैंः इजेकिएल, इलिजाह, मोसेस,-"कि ईश्वर बहुत ही हिंसक है, और वह कभी क्षमा नहीं करता।?"

यहां तक कि उन्होंने ईश्वर के मुंह से भी ये शब्द कहलवा दिए हैं। पुराने टेस्टामेंट के ईश्वर के वचन हैं, " मैं कोई सज्जन पुरुष नहीं हूं, तुम्हारा चाचा नहीं हूं। मैं बहुत क्रोधी और ईष्र्यालु हूं, और याद रहे जो भी मेरे साथ नहीं हैं वे सब मेरे शत्रु हैं।"

और ईसामसीह कहते हैं कि "मैं तुमसे कहता हूंः परमात्मा प्रेम है।" यह ख्याल उन्हें कहां से आया कि परमात्मा प्रेम है? गौतम बुद्ध की शिक्षाओं के सिवाय दुनिया में कहीं भी परमात्मा को प्रेम कहने का कोई और उल्लेख नहीं है।

उन सत्रह वर्षों में जीसस इजिप्त, भारत, लद्दाख और तिब्बत की यात्रा करते रहे। और यही उनका अपराध था कि वे यहूदी परंपरा में बिल्कुल अपरिचित और अजनबी विचारधाराएं ला रहे थे। न केवल अपरिचित बल्कि वे बातें यहूंदी धारणाओं से एकदम विपरीत थीं।

तुम्हें जानकर आश्चर्य होगा कि अंततः उनकी मृत्यु भी भारत में हुई। और #ईसाई रिकार्ड्स इस तथ्य को नजरअंदाज करते रहे हैं। यदि उनकी बात सच है कि जीसस पुनर्जीवित हुए थे, तो फिर पुनर्जीवित होने के बाद उनका क्या हुआ? आजकल वे कहा हैं? क्योंकि उनकी मृत्यु का तो कोई उल्लेख है ही नहीं!

सच्चाई यह है कि वे कभी पुनर्जीवित नहीं हुए। वास्तव में वे सूली पर कभी मरे ही नहीं थे। क्योंकि यहूदियों की सूली आदमी को मारने की सर्वाधिक बेहूदी तरकीब है। उसमें आदमी को मरने में करीब-करीब अड़तालीस घंटे लग जाते हैं। चूंकि हाथों में और पैरों में कीलें ठोंक दी जाती हैं, तो बूंद-बूंद करके उनसे खून टपकता रहता है। यदि आदमी स्वस्थ है तो साठ घंटे से भी ज्यादा लोग जीवित रहे ऐसे उल्लेख हैं। औसत अड़तालीस घंटे तो लग ही जाते हैं। और जीसस को तो सिर्फ छः घंटे बाद ही सूली से उतार दिया गया था। यहूदी सूली पर कोई भी छः घंटे में कभी नहीं मरा है, कोई मर ही नहीं सकता है।

यह एक मिलीभगत थी (जीसस के शिष्यों की) पोंटियस पॅायलट के साथ। पोंटियस यहूदी नहीं था, वह रोमन वायसरॉय था। क्योंकि जूडिया उन दिनों रोमन साम्राज्य के आधीन था, और इस निर्दोष युवक की हत्या में उसे कोई रुचि नहीं थी। उसके दस्तखत के बगैर यह हत्या नहीं हो सकती थी, और उसे अपराध भाव अनुभव हो रहा था कि वह इस भद्दे और क्रूर नाटक में भाग ले रहा है। चूंकि पूरी यहूदी भीड़ पीछे पड़ी थी कि जीसस को सूली लगनी चाहिए, वह एक जीसस मुद्दा बन चुका था। पोंटियस पॅायलट दुविधा में था; यदि वह जीसस को छोड़ देता है, तो वह पूरी जूडिया को, जो कि यहूदी है, अपना दुश्मन बना लेता है। यह कूटनीतिक नहीं होगा। और यदि वह इस व्यक्ति को सूली देता है तो उसे सारे देश का समर्थन तो मिल जाएगा मगर उसके स्वयं के अंतःकरण में एक घाव छूट जाएगा कि राजनैतिक परिस्थिति के कारण एक निरपराध व्यक्ति की हत्या की गई, जिसने कुछ भी गलत नहीं किया था।

तो उसने शिष्यों के साथ यह व्यवस्था की कि शुक्रवार को, जितनी संभव तो सके उतनी देर से सूली दी जाए। चूंकि सूर्यास्त होते ही शुक्रवार की शाम को यहूदी सब प्रकार के कामधाम बंद कर देते हैं; फिर शनिवार को कुछ भी काम नहीं होता, वह उनका पवित्र दिन है। यद्यपि सूली दी जानी थी शुक्रवार की सुबह, पर उसे स्थगित किया जाता रहा; ब्यूरोक्रेसो तो किसी भी कार्य में देर लगा सकती है। अतः जीसस को दोपहर के बाद सूली पर चढ़ाया, और सूर्यास्त के पूर्व ही उन्हें जीवित उतार लिया गया, यद्यपि वे बेहोश थे, क्योंकि शरीर से रक्त स्राव हुआ था, और कमजोरी आ गई थी। फिर जिस गुफा में उनकी देह को रखा गया वहां का चैकीदार... पवित्र दिन के पश्वात् यहूदी उन्हें पुनः सूली पर चढ़ाने वाले थे, मगर वह चैकीदार, गुफा का रक्षक रोमन था...इसीलिए यह संभव हो सका कि शिष्यगण जीसस को बाहर निकाल लिए और फिर जूडिया के भी बाहर गए।

#जीसस ने भारत में जाना क्यों पसंद किया? क्योंकि अपनी युवावस्था में भी वे वर्षों तक भारत में रह चुके थे। उन्होंने अध्यात्म का और ब्रह्म का परम स्वाद इतनी निकटता से चखा था, कि उन्होंने वहीं लौटना चाहा। तो जैसे ही स्वस्थ हुए, वे वापस भारत आए, और फिर एक सौ बारह साल की उम्र तक जिए।

#कश्मीर में अभी भी उनकी कब्र/ समाधि है। उस पर जो लिखा है, वह हिब्रु भाषा में है...स्मस्ण रहे भारत में कोई यहूदी नहीं रहते। उस शिलालेख पर खुदा है ‘जोशुआ’- वह हिब्रू भाषा में ईसामसीह का नाम है। ‘जीसस’ जोशुआ का ग्रीक रूपांतरण है। "जोशुआ यहां आए"- समय, तारीख वगैरह सब दी हैं। "एक महान सद्गुरु, जो स्वयं को भेड़ों का गडरिया पुकारते थे, अपने शिष्यों के साथ शांतिपूर्वक एक सौ बारह साल की दीर्घायु तक यहां रहे" इसी वजह से वह स्थान "भेडों के चरवाहे का गांव" कहलाने लगा। तुम वहाँ जा सकते हो, वह शहर अभी भी है- ‘पहलगाम’, उसका कश्मीरी में वही अर्थ है- ‘गड़रिए का गांव।’

वे यहाँ रहना चाहते थे, ताकि और अधिक आत्मिक विकास कर सके। एक छोटे से शिष्य समूह के साथ वे रहना चाहते थे ताकि वे सभी शांति में, मौन में डूबकर आध्यात्मिक प्रगति कर सकें। और उन्होंने मरना भी यहीं चाहा, क्योंकि यदि तुम जीने की कला जानते हो तो यहाँ जीवन एक सौंदर्य है, और यदि तुम मरने की कला जानते हो तो यहाँ मरना भी अत्यंत अर्थपूर्ण है।

केवल #भारत में ही मृत्यु की कला खोजी गई है, ठीक वैसे ही जैसे जीने की कला खोजी गई है। वस्तुतः तो वे एक ही प्रक्रिया के दो अंग हैं।

इससे भी अधिक आश्चर्यजनक तथ्य यह है कि मूसा ने भी भारत में आकर देह त्यागी। उनकी और जीसस की समाधियां एक ही स्थान में बनी है। शायद जीसस ने ही महान सदगुरु मूसा के बगल वाला स्थान स्वयं के लिए चुना होगा। पर मूसा ने क्यों काश्मीर में आकर मृत्यु में प्रवेश किया।

#मूसा ईश्वर के देश "इजराइल" की खोज में यहूदियों को इजिप्त के बाहर ले गए थे। उन्हें चालीस वर्ष लगे, जब इजराइल पहुंचकर उन्होंने घोषणा की कि "यही है वह जमीन, परमात्मा की जमीन, जिसका वादा किया गया था। और मैं अब वृद्ध हो गया हूं तथा अवकाश लेना चाहता हूं। हे नई पीढ़ी वालो, अब तुम संभालो।"

क्योंकि जब उन्होंने इजिप्त से यात्रा प्रारंभ की थी, तब की पीढ़ी लगभग समाप्त हो चुकी थी। बूढ़े मरते गये, जवान बूढ़े हो गये, नए बच्चे पैदा होते रहे। जिस मूल समूह ने मूसा के साथ शुरूआत की थी, वह अब बचा ही नहीं था। मूसा करीब-करीब एक अजनबी की भांति अनुभव कर रहे थे। उन्होंने युवा लोगों को शासन और व्यवस्था का कार्यभार सौंपा और इजराइल से विदा हो लिए।

यह अजीब बात है कि यहूदी धर्मशास्त्रों में भी, उनकी मृत्यु के संबंध में, उनका क्या हुआ इस बारे में कोई उल्लेख नहीं है। हमारे यहां (काश्मीर में) उनकी कब्र है। उस समाधि पर भी जो शिलालेख है, वह हिबु्र भाषा में ही है। और पिछले चार हजार सालों से एक यहूदी परिवार पीढ़ी दर पीढ़ी उन दोनों समाधियों की देखभाल कर रहा है।

मूसा भारत आना क्यों चाहते थे? केवल मृत्यु के लिए? हां, कई रहस्यों में से एक रहस्य यह भी है कि यदि तुम्हारी मृत्यु एक बुद्धक्षेत्र में हो सके, जहां केवल मानवीय ही नहीं वरन् भगवत्ता की ऊर्जा-तरंगें हों, तो तुम्हारी मृत्यु भी एक उत्सव और निर्वाण बन जाती है।

सदियों से, सारी दुनिया से साधक इस धरती पर आते रहे हैं। यह देश दरिद्र है, उसके पास भेंट देने को कुछ भी नहीं, पर जो संवेदनाशील हैं; उनके लिए सबसे अधिक समृद्ध कौम इस पृथ्वी पर कहीं और नहीं है। लेकिन यह समृद्धि आंतरिक है।

– ओशो

मेरा स्वर्णिम भारत
परिशिष्ट-१
भारत: एक अनूठी संपदा